यह समय का योग रहा या मेरे भाग्य का हेटापन कि मुझे कीर्तिशेष दादा महेन्द्र प्रताप जी का बहुत ही अल्प सान्निध्य या आशीर्वाद मिल सका, फलतः मेरे पास दादा से जुड़ा कोई संस्मरण विशेष तो नहीं है किन्तु फिर भी लगभग 17-18 वर्ष पहले हिन्दी दिवस के एक कार्यक्रम में उनकी गरिमामयी उपस्थिति और उनके प्रभावशाली उद्बोधन का मैं भी साक्षी रहा हूँ। संभवतः 2002 की बात है, संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में लाइनपार स्थित गायत्री मंदिर में हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन था जिसकी अध्यक्षता कीर्तिशेष दादा महेन्द्र प्रताप जी कर रहे थे। कार्यक्रम की रूपरेखा के अनुसार पहले सत्र में विचार गोष्ठी तत्पश्चात दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी का आयोजन निर्धारित था। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी साहित्य संगम संस्था के अध्यक्ष और कीर्तशेष कवि राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग जी कर रहे थे। मंच पर दादा के साथ अतिथियों के अतिरिक्त कई वक्ता भी उपस्थित थे। विचार गोष्ठी में पूर्वप्रदत्त विषय पर वक्ताओं के उद्बोधन के पश्चात कार्यक्रम अध्यक्ष होने और सर्वाधिक वरिष्ठ होने के नाते अंत में दादा का उद्बोधन हुआ जो काफ़ी लम्बा चला। उसके पश्चात कार्यक्रम के दूसरे सत्र के रूप में जैसे ही काव्य गोष्ठी का आरंभ हुआ, दादा बोले-"भाई अब मैं नीचे श्रोताओं में बैठूँगा और वहीं से कवियों को सुनूँगा।" सब लोगों ने कहा कि "दादा, आप कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हैं इसलिए आपको मंच पर ही बैठना चाहिए।" लेकिन दादा नहीं माने। यह उनके बड़े साहित्यिक क़द और दंभरहित सहज व्यक्तित्व का प्रमाण था. कार्यक्रम के अंत तक दादा उपस्थित रहे और सभी कवियों को उन्होंने गंभीरता पूर्वक सुना भी और भरपूर सराहना भी दी. दादा महेंद्र प्रताप जी से जुड़ी पावन अल्प स्मृतियों को प्रणाम और दादा को विनम्र श्रद्धांजलि।
साहित्यिक मुरादाबाद तथा डा. अजय अनुपम जी के संपादन में प्रकाशित "महेन्द्र मंजूषा" में दादा महेंद्र प्रताप जी के गीत पढ़ते हुए कीर्तिशेष गीतकवि विद्यानंदन राजीव जी कथन स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'कविता के उपवन में गीत चंदन-तरु के समान हैं, जो अपनी प्रेरक महक से मनुष्य को जंगलीपन से मुक्ति दिलाकर जीने का सलीक़ा सिखाता है।' दादा के गीतों से गुज़रते हुए भी उसी चंदन की भीनी-भीनी महक महसूस होती है क्योंकि आध्यात्मिक भाव-व्यंजना के माध्यम से मनुष्यता के प्रति दादा की प्रबल पक्षधरता उनके लगभग सभी गीतों में प्रतिबिंबित होती है, उदाहरणार्थ उनके एक गीत के इस अंश का गांभीर्य कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह रहा है-
मैं डाली हूँ मुझमें फूल खिलाता कोई
मैं वंशी हूँ मेरे भीतर गाता कोई
एक भ्रान्त छाया में मेरी अस्ति समाई
मुझको गले लगाकर व्यक्ति बनाता कोई
दादा महेन्द्र प्रताप जी के गीतों को सतही तौर पर पढ़ा जाए तो प्रथम् दृष्टया ये गीत सहज प्रेमगीत ही लगते हैं किन्तु यदि गीतों के भीतर उतरकर उनकी भावभूमि को अनुभूत किया जाए तो ये गीत विशुद्ध आध्यात्मिक गीत प्रतीत होते हैं जिनमें उन्होंने अपने अभीष्ट के रूप में ईश्वर को केन्द्रित कर अपने भाव अभिव्यक्त किए हैं-
बन्द द्वार तक आकर आहट ने मुख मोड़ लिया
मैंने भ्रम में सारे जग से नाता जोड़ लिया
संकुलता का क्षोभ चेतना को है चीर रहा
पर, प्राणों का लक्ष्य अलक्षित और अजीत रहा
गेय अगीत रहा...
दादा महेन्द्र प्रताप जी का ऐसा ही एक और गीत है जिसमें वह अपने भीतर की आध्यात्मिक भावाभिव्यक्ति को पराकाष्ठा की सीमा तक जाकर जीते हुए अपनी दिव्य प्यास का उल्लेख करते हैं-
एक बार जागे तो जागे,
फिर न बुझाने से बुझ पाए
जिसमें सुख की सत्ता डूबे,
जिसमें सब दुख-द्वंद समाए
ऐसी जलन जगे, शीतलता,
जिसके पीछे-पीछे डोले
जिसको गले लगाकर
तृष्णा का मरुथल मधुबन बन जाए
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ...
दादा महेन्द्र प्रताप जी का रचनाकर्म मात्रा में भले ही कम रहा हो किन्तु महत्वपूर्ण बहुत अधिक है। उनकी रचनाओं में सृजन के समय का कालखण्ड पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है, निश्चित रूप से दादा की सभी रचनाएँ साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
मोबाइल- 9412805981
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