गुरुवार, 2 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की कहानी --- तपस्विनी । यह कहानी उनके वर्ष 1959 में प्रकाशित कहानी संग्रह पुजारिन से ली गई है । इस कृति का द्बितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ था ।


         पंडित अनूप शर्मा ! तुम और इस वेष में ?" “क्यों, इसमें आश्चर्य का क्या कारण, जब देश और जाति को आवश्यकता हो तब क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्री और क्या वैश्य सभी को शस्त्र धारण करना चाहिये । पद्मा, अब मैं अनूप शर्मा नहीं अनूपसिंह हूँ ।”

"ओह, तो अब ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी है जो आपको शर्मा से सिंह बनना पड़ा । "
“पद्मा, तुम तो जानती ही हो सारा हिन्दू राष्ट्र छिन्न भिन्न हो छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो चुका था । पूज्य राणा संग्राम सिंह ने उनको एक सूत्र में बांधा और फिर समय आया जब उनकी आज्ञा मेवाड़ के एक कोने से दूसरे कोने तक मानी जाने लगी । चारों दिशाओं में उनका यश फैल गया । बाबर शाह को राणा से भय हुआ और साथ ही द्वेष भी सुना है बाबर ने मेवाड़ हमारी मातृभूमि पर आक्रमण किया है.. " “तब, तब... उसी में तुम भी जा रहे हो अनूप ?”
"हां पद्मा, देश को वीरों की और पूर्वजों के मान को बलि की आवश्यकता जो है ।"
"परन्तु... "
"उदास न हो पद्मा, भगवान ने चाहा तो विजयी होकर शीघ्र आऊँगा और तभी शुभ कार्य भी होगा।”

“अच्छा, अनूप, यदि जाना ही है तो जाओ पर पीठ पर घाव न खाना, नहीं मुझे दुख होगा।"
सन् १५२८ में कार्तिक मास के पांचवे दिन खनुआ नामक स्थान में मुगल और राजपूत सेनाओं का सामना हुआ। राजपूत बड़ी वीरता से लड़े, मुग़लों के पैर उखड़ गये। पास खड़ी हुई मुग़ल सेना ने जब यह देखा तो भागते हुये व्यक्तियों के चारों ओर खाई खोदना आरम्भ कर दिया। बाबर ने भी.. उत्साह दिलाने के अनेक प्रयत्न किये। यहां तक कि अपनी प्रिय मदिरा के प्याले तोड़ फोड़कर फिर कभी पान न करने की शपथ खाई ।
फिर युद्ध प्रारम्भ हुआ। राणा शत्रु संहार करते आगे बढ़ते गये और थोड़े ही समय में वह शत्रुओं के मध्य जा पहुंचे। एक बार और, फिर राणा का अन्त था कि त्वरित गति से अनूप सहायता को जा पहुँचा। घमासान युद्ध हुआ, अनूप राणा की रक्षा करता हुआ घायल होकर गिर पड़ा और मूर्छित होगया ।
    दूसरे दिन सारे नगर में उदासी छाई हुई थी। घायलों की पालकियाँ शान्त भाव से लाकर उनके घर पहुंचाई जा रही थीं। पद्मा भी भीड़ में सशंकित नेत्रों से इधर उधर कुछ खोज रही थी। सहसा उसकी दृष्टि एक पालकी पर गई। उसमें अनूप था। प्रातः कालीन चन्द्रमा की भांति उसका मुख पांडु था। बिखरी हुई अलकों और मुख मंडल पर रक्त बिन्दु काले पड़ चुके थे। पद्मा के आदेश से पालकी रुक गई। पास जाकर पद्मा ने स्नेह का मृदु स्पर्श किया और धीमे स्वर में कहा, “अनूप ।
अनूप ने अर्द्ध मूर्छित अवस्था में आंखें खोलीं और फिर धीरे से कहा- “पद्... मा. देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं, मैंने पीठ नहीं दिखाई । पर कलंकित मुख लेकर देश को दासता की श्रृंखला में जकड़े देखने से तो मृत्यु अच्छी...”
अत्यन्त दुर्बलता और पीड़ा के कारण अनूप ने आंखें मींच लीं। पद्मा ने व्यग्रता से पुकारा, "अनूप | "
"प.. द्.. मा देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं। मैंने पीठ नहीं दिखाई" कहते कहते अपने हिचकी ली और संसार से ही मुँह मोड़ लिया ।
नगर से बाहर शमशान भूमि में अनेक चितायें जल रही हैं। पति परायण अनेक स्त्रियां सती हो रही हैं। अनूप को चिता पर रखा गया, पद्मा ने आगे बढ़कर उसका सिर उठा ज्यों ही गोद में रखना चाहा, उसी समय ब्राह्मण गुरु की कर्कश वाणी से वह ठिठक गई: “पद्मा का विवाह नहीं हुआ था अतः इसे सती होने का कोई अधिकार नहीं ।” फिर आदेशानुसार धर्म के रक्षकों में से कुछ ने जाकर पद्मा को घसीट कर अलग कर दिया। चिता में अग्नि दी गई पद्मा ने शीश झुका चिता को प्रणाम किया और अपने सारे आभूषण उतार कर प्रज्ज्वलित चिता में फेंक दिये।
    दूसरे दिन मनुष्यों ने देखा, पद्मा गेरुआ वस्त्र पहन शमशान की ओर गई ..  और फिर वहां से सघन वन मेंजाकर कहीं विलीन हो गई। सबने सोचा उसने आत्महत्या कर ली होगी परन्तु वह देश में अलख जगाती फिरी, यहां तक कि लोग उसके नाम को भी भूल गये और सारे मेवाड़ में वह तपस्विनी के ही नाम से विख्यात होगई । आज भी मेवाड़ के आस पास कथा प्रचलित है - वह तपस्विनी थी। उसने सब कुछ खोकर भी देश में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। देश को जागृत किया जिसके फलस्वरूप माताओं को वीर पुत्र और राणा प्रताप को देशभक्त सैनिक मिले ।
✍️ वीरेन्द्र कुमार मिश्र

::::::: प्रस्तुति :::::::
डा. मनोज रस्तोगी , 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत  मो. 9456687822

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