बुधवार, 1 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की कहानी ---तोरण दुर्ग । उनकी यह कहानी उनके वर्ष 1959 में प्रकाशित कहानी संग्रह पुजारिन से ली गई है । इस संग्रह का द्वितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ ।


      पूना से बीस मील की दूरी पर पहाड़ी प्रदेश है। इसी प्रदेश में एक पहाड़ी पर एक छोटी सी झोपड़ी  है । जीजाबाई संध्या समय अपनी कुटी के द्वार पर बैठी सामने की पहाड़ी पर स्थित दुर्ग के प्रकाशित स्तम्भ की ओर निर्निमेष पलकों से देखती हुई सोच रही हैं, "कभी इस पर हमारा अधिकार था, मैं इस पर नित्य संध्या समय दीपक जलाया करती थी, परन्तु आज... कालचक्र के विपरीत भ्रमण ने इसे पराया कर दिया। इसी को क्या स्वजन, मेरे पतिदेव को भी परन्तु इससे क्या मेरा, एक मात्र सहारा मेरा पुत्र तो मेरे पास है...

सहसा शिवाजी उस स्थान पर आये, खड़ग को कमर से बांधे, ढाल को कंधे से उतारते हुए और बाल सुलभ सरलता से पुकार कर मां से भोजन मांगा, परन्तु कोई उत्तर न पाकर कुछ क्रुद्ध हो कर बोले, “मां, जल्दी भोजन दो नहीं तो मैं फिर देर से लौटूंगा, मृगया को जाना है साथियों के साथ ।”
मां की तन्द्रा भंग हो गई। परन्तु बिना कुछ कहे सुने ही वह अन्दर से जाकर भोजन ले आई । एक पत्तल पर कुछ थोड़ा सा साग और मोटी मोटी दो रोटियाँ । परन्तु उनके मुख की मलिनता अभी वैसे ही बनी थी। शिवाजी ने बड़े ध्यान और आश्चर्य से उनके मुख की ओर देखा और फिर कहा,“मां, तुम तो सदैव हँसती ही रहती थीं और कहा करती थीं, विपत्ति हंसकर झेला करते हैं, फिर आज इतनी उदास क्यों " “बेटा, जब मनुष्य हृदय के लिये दुख झेलना असम्भव हो जाता है तब वह यदि रोता नहीं तो उदास अवश्य हो जाता है। आज बीते दिनों की स्मृति सजग हो उठी थी, और कुछ नहीं।"
   कुछ देर शिवाजी माता के मुख को निहारते रहे । पर जब उन्होंने आगे कुछ न कहा तो बोले, “मां बोलो, शीघ्र बताओ मां, वह कौन सी स्मृति है जो तुम को वेदना देती है, यदि न बताओगी तो मैं फिर भोजन न करूंगा । ”
    जीजाबाई उनके अनुरोध को न टाल सकीं, उन्होंने धीमे स्वर में कहना प्रारम्भ किया, “बेटा, जो बात आज तक तुझे न बताई वह सुन ले । तेरे पिता जिस समय तेरा जन्म हुआ था एक युद्ध में संलग्न थे और तेरे नाना उनके विरुद्ध लड़ रहे थे। तभी एक छोटी सी बात पर उनका मुझसे मनोमालिन्य हो गया। कुछ समय उपरान्त उन्होंने एक और युवती से विवाह कर लिया। मेरे एकमात्र आधार शिवा, तब तू छः वर्ष का अबोध बालक था। यवन आक्रमणकारियों से तुझे बनों और उपत्यकाओं में बचाती फिरी.... और अब देख रहा है वह सामने का दुर्ग, उसका प्रकाशित स्तम्भ । इस पर कभी हमारा अधिकार था। मैं इस पर नित्य संध्या समय दीपक जलाया करती थी। परन्तु आज...... ..जाने दो बेटा, वह दिन स्वप्न हो गये। सरिता का बहता जल फिरा नहीं करता। वह दिन भी नहीं फिरेंगे।
     शिवाजी ने बड़े ध्यान से सुना और खड़ग को संभाल ढाल को पीठ पर रख कर द्रुतगति से बाहर निकल गये। मां ने पुकारा, “शिवा-शिवा,” परन्तु शिवाजी जा चुके थे और उनकी परसी हुई पत्तल यों ही रक्खी थी ।
     सघन वन में वट वृक्ष के नीचे मादिली जाति के वीर बालक इक्ट्ठा हो रहे हैं। शिवाजी का उनके नेता का जो यही आदेश है। परन्तु शिवा स्वयं क्यों नहीं आये, समय तो हो गया।" आपस में सभी तर्क वितर्क कर रहे थे। सहसा शिवाजी अनेक साथियों के साथ आते दिखाई दिये उन साथियों के साथ जिनके आने में उन्हें सन्देह था उनको साथ लाते हुये । सब में हर्ष छा गया। अब मृगया में कुतूहल और क्रीड़ा होगी । परन्तु शिवाजी ने कुछ गम्भीर होकर कहा, “मादिली वीरों, बहुत कर चुके वन्य पशुओं का शिकार, बहुत खेल चुके प्रकृति मां की गोद में सुन्दर सुखद खेल, अब नर पशुओं के शिकार की बारी है। अब समरांगण में खड्ग कौशल के खेल खेलने का अवसर आया है। याद है तुम सब को अपनी गो-ब्राह्मण की तथा हिन्दुत्व की रक्षा करने की प्रतिज्ञा-परन्तु कभी यह भी सोचा है कि वह कैसे पूर्ण हो सकती है ? नहीं, कभी नहीं। तो सुनो, तुमको पूर्ण अवसर तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम्हारे पास शक्ति हो । बिना शक्ति के मन में सोची हुई बात और भविष्य की विजय के लिये किये गये प्रस्ताव सब कोरी कल्पना मात्र रह जाते हैं। वीरों, प्रथम शक्ति ग्रहण करो और वह संगठन से प्राप्त होगी । मैं आज तुम्हें पथ-प्रदर्शित करूंगा। तुममें से जिसको अपने प्राण प्यारे हों, जिसको माता का स्तन्य लज्जित करना हो वह यहीं रह जाये। देश को वीरों की आवश्यकता है। बोलो, कौन कौन चलने को उद्यत है ?
चारों ओर से “हम सभी चलेंगे” की गगन भेदी आवाज़ आई। शिवाजी ने कहा, “ तो तुममें से एक भाग मेरे साथ चले और दो भाग सामने के दुर्ग द्वार पर चले जायें। संकेत पाते ही दुर्ग-द्वार में प्रवेश करना होगा।"
   पहाड़ी पर बना हुआ दुर्ग-भीमकाय राक्षस सा भयानक दुर्गम पथ उसके रक्षक परन्तु शिवाजी बड़ी सावधानी से आहट को बचाते हुये मादिली वीरों के साथ आगे बढ़ते ही गये। अंत में दुर्ग के पृष्ठ भाग में पहुंचकर अपने पशुपति नामक कमन्द को फेंका । सर्व प्रथम उस रज्जू के सहारे स्वयं दुर्ग को प्राचीर पर चढ़े और पीछे पीछे अन्य वीर मादिली-ऊपर मनुष्य की आहट पाकर सन्तरी रक्षक ने ज्यों ही पुकारना चाहा त्योंही एक हाथ में उसका रुण्ड मुण्ड लुढ़कता हुआ नीचे जा गिरा। शिवाजी ने अपने साथियों की सहायता से दुर्ग का मुख्य द्वार उन्मुक्त कर दिया और बाहर खड़ी हुई टुकड़ियां अन्दर आ गयीं । मशालों के प्रकाश में घोर युद्ध हुआ परन्तु दुर्गाध्यक्ष ने पराजय निश्चित जान आत्मसमर्पण कर दिया ।
अगले दिन प्रातः समय पुत्र के लिये चिंतित और उदास जीजाबाई ने देखा-दुर्ग पर यवन पताका के स्थान पर केसरिया ध्वज फहरा रहा था। उन्होंने पुत्र को आशीर्वाद दिया, “तेरी गति अबाध हो ।” थोड़ी देर बाद कुछ सैनिक सुसज्जित शिविका लेकर आये और जीजाबाई उसमें बैठकर दुर्ग को गयीं।
   संध्या समय जीजाबाई ने तोरण दुर्ग के उस स्तम्भ पर स्वयं दीपक जलाया। उपरान्त सारा दुर्ग दीपमालिकाओं के प्रकाश में जगमगा उठा। यही वह दुर्ग था जिसपर सर्व प्रथम शिवाजी का अधिकार हुआ और हिन्दू राष्ट्र की सुदृढ़ नींव शिवाजी ने रक्खी ।

:::::::::प्रस्तुति ::::::::
डा. मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो. 9456687822

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