रसोई घर में खड़े -खड़े मैं अचानक ही अच्छे दिन के ख्यालों में खो गयीं, जब मेरे किचन में टमाटर सड़ते ..म...म..... मेरा मतलब है कि रखे रहते थे.
बीस रुपये किलो टमाटर खरीद -खरीद कर न जाने कितनी बार टमाटर की चटनी, साॅस थोक में बनाकर रखी है. रोज नये -नये व्यंजनों की खुश्बू से महकती रसोई को न जाने महँगाई डायन की कैसी नज़र लगी कि नालायक टमाटरों को लेकर ऐसी उड़ान छल्ली बनी कि नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है.
टमाटर की चढ़ती रंगत और यौवन देखकर, घमंडी सेब -अनार तो पहले ही हीनभावना की झुर्रियों से ग्रसित होकर वृद्ध आश्रम की ओर रवाना हो चुके हैं.
उधर रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन भोजन खा- खाकर बच्चों के मुँह उतरे हुए हैं, जिन्हें देख -देखकर कलेजा मुंँह को आ रहा है, कह रहे हैं कि हे माता जी !!आपने सावन के नाम पर सब्जी में प्याज तो पहले ही डालनी बंद कर दी थी, जीरा आठ सौ रुपये किलो बताकर सब्जी में जीरा भी नहीं डाल रहीं थीं . अब टमाटर भी बंद करके सब्जी की जीरो फिगर बना दी है.
बार- बार ,चीख -चीखकर सवाल पूछ रहे हैं मुझसे, क्या है सब्जी में ? लप्पू सी सब्जी की झींगुर सी शक्ल है,इसे खायेगें हम !ऐसी सब्जी खिला- खिलाकर हमें हीरो से जीरो बना दिया है
उफ्फ़ ये मजबूरी !! एक एकअब इन्हें कौन समझाए कि बेटा टमाटर के चक्कर में बजट ,कब से घर के बाहर गेट पर ही जीभ निकाले औंधे मुंँह पड़ा हुआ है. हे सब्जियों के शंहशाह!, रंगबिरंगी चटनियों के सम्राट , हे रक्ताभ ! हे !रक्त को बढ़ाने वाले.!...काहे... ?काहे गरीब का रक्त सुखाते हो? हे पिज़्ज़ा- वर्गर की शान बढ़ाने वाले! हे !मोमोज की नारंगी चटनी के स्वाद! ! देखिएगा !!..आपके बिना दम आलू कैसे बेदम होकर ज़मीन पर पड़ा अपनी अंतिम सांसे ले रहा है, काजू -कोफ्ता आपके अभाव में अपने अस्तित्व की रक्षा करते- करते,कब का वीरगति को प्राप्त हो चुका है.शाही -पनीर का शाही तख्त आपके सहारे के बिना अपने चारो पाये तुड़वाकर धड़ाम हो चुका है, गोभी- आलू को तो मानो लकवा ही मार गया और मुल्तानी छोले - चावल तो आपके वियोग मे संभवतः मुल्तान को ही निकल लिये, काफी दिन से दिखाई ही नहीं दिये.वैसे भी आजकल एक देश से दूसरे देश चोरी छिपे निकलने का नया मौसम शुरू हो चुका है. हे सुंदर मुखड़े और खट्टे स्वाद वाले क्या आपको ज्ञात नहीं कि दाल -मखनी आपके बिना वेंटिलेटर पर है और आलू- टमाटर की सदाबहार सब्जी तो मुझसे रूठकर ऐसी गयी है कि शायद अब किसी भंडारे में ही जी भर कर मिलेगी वो भी अगर बाँटने वाले ने पूड़ी पर रखकर न दी तो....! वरना सारी सब्जी तो पूड़ी ही सोख लेंगीं.... !अरे जब भंडारा कर ही रहे हो तो क्यों दो चार थैली भर कर नहीं देते लोगों को.!
हे !सबसे बड़े महंगाई सम्मान से विभूषित, कमल के समान कांतिमान!!लाल टमाटर..!!.आपके बिना दाल -फ्राई का तड़का लड़खड़ाते हुए अपनी अंतिम सांस तक आपको पुकारता रहा,परंतु आपका कठोर हृदय फिर भी नहीं पसीजा. क्या तहरी के चावल, आलू,मटर -गोभी, की चीखें भी आपको विचलित नहीं कर सकीं ? आपके बिना वे किस प्रकार दुर्गति को प्राप्त हुए , यह भी ज्ञात नहीं आपको?उन्हें क्या मालूम था कि आप जैसे सस्ते,हर मौसम में उपलब्ध होने वाले ,अपनी औकात भूलकर सातवें आसमान पर जाकर ऐसा बैठ जायेगें कि नीचे ही नहीं उतरेगें.
टमाटरों की भारी किल्लत देखते हुए, कल मैने अपनी दो चार पुरानी- धुरानी कविताएँ, हिम्मत करके घर के बाहर बने चबूतरे पर खड़े होकर आते- जाते लोगों को सुनाने का प्रयास भी किया ,मगर मजाल क्या ...!!किसी ने मेरी तरफ टमाटर उछालना तो दूर ठीक से सुना भी नहीं मुझे ..., मूर्ख !!गैर साहित्यिक कहीं के...!! और तो और अपने हाथ की सब्जी का थैला दुबकाते हुए , नजरें नीची किये चुपचाप मेरे सामने से ही निकल गये.. . !! अरे टमाटर थैले में होते ,तभी तो उछालते न मेरी तरफ.....!!. कंगले कहीं के...!! हुँहहह... "
हे सब्जियों की पवित्र आत्मा !!क्यों त्योहारों पर नाटक कर रहे हो, बात को समझो न टमाटर जी, अगर नीचे नहीं उतरे तो मेहमानों के सामने बहुत ज्यादा नाक कट जायेगी. अपनी दूर की बहनों लौकी- तोरई को देखो ज़रा... !!बेचारी कितनी सज्जन हैं, ज़रा भी भाव नहीं खातीं कभी..!!और आज तक कभी नखरे भी नही किये उन्होंने ,..!!बेचारी हर परिस्थिति में शांत ही रहती हैं.और बाज़ार में बैंगन के भुर्ते की आत्महत्या के बाद तो आपके बिना बची -खुची सारी सब्जियांँ भी अज्ञात वास को चली गयीं हैं, तबसे यही लौकी तोरई रसोई घर में डटी हुई हैं.अभी टमाटर जी के चित्र के समक्ष यह विनती चल ही रही थी कि थी कि तभी बाहर से सब्जी वाले की आवाज आयी,
टमाटर लाल, टमाटर लाल
ले लो जिसकी जेब में माल
मैं दौड़कर गेट पर गयीं और गेट की झिर्रियों में टमाटरों के दिव्य दर्शन हेतु अपनी आँखें टिकायीं ही थीं कि सब्जी वाले की पैनी निगाहें झिर्रियों को भेदते हुए, मेरी आंखों पर पड़ गयीं. उसने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए और ज़ोर से आवाज़ लगानी शुरू कर दी..
टमाटर लाल, टमाटर लाल
कहाँ छुपे सारे कंगाल
मैं सकपकाकर पीछे हट गयीं.पता नहीं सब्जी वाला सब्जी बेच रहा था या जले पर नमक छिड़क रहा था, खैर...!मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोकते हुए अंदर की ओर भागी और गुस्से में अपनी कविताओं की डायरी को आग के हवाले कर दिया... "जाओ! दफ़ा हो जाओ!जब तुम टमाटर तक न ला सकीं तो पुरस्कार क्या खाक़ लाओगी*! और टमाटर वाले की आवाज़ दूर होती जा रही थी... टमाटर लाल, टमाटर लाल, कहाँ छुपे सारे कंगाल... ले लो जिसकी जेब में माल
✍️मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद
Good 👍🏻
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