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शनिवार, 26 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरण ---लोग उसे भिखारी समझते थे लेकिन वह कवि निराला थे ..….

         


वह सन 1996 की तारीख थी पांच अक्टूबर । मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर आरक्षण हॉल में एक कोने में दीवार के सहारे अधलेटा एक वृद्ध। शरीर पर मैला- कुचैला कुर्ता पायजामा, बढ़ी दाढ़ी, उलझे हुए बाल। कोई यात्री उसे भिखारी समझ रहा था तो कोई उसे पागल समझ कर एक उचटती हुई नजर डाल कर आगे बढ़ रहा था। यह शायद किसी को नहीं मालूम था कि यह आदमी रामपुर का एक जाना पहचाना कवि है, जिसका नाम है मुन्नू लाल शर्मा निराला। अपनी कविताओं से जिंदगी में रंग भरने वाले इस कवि को शायद इस बात का कभी गुमान भी नहीं हुआ होगा कि जिंदगी के किसी मोड़ पर उसकी जिंदगी भी इस तरह बदरंग हो जाएगी। यात्रियों की भीड़ में उपेक्षित इस कवि को पहचाना काशीपुर के साहित्यकार डॉ वाचस्पति जी ने। टिकट लेते हुए अचानक उनकी निगाह उन पर पड़ी और उन्हें देखते ही वह लपक कर उनके पास पहुंच गए थे। निगाहें मिली और दोनों एक दूसरे को पहचान गए। कातर दृष्टि से कवि निराला ने उनसे पानी मांगा। पानी पीने के बाद उन्होंने कहा बस एक डिब्बी पनामा सिगरेट और एक माचिस की डिब्बी और ला दो। रुपये- पैसे लेने से उन्होंने इंकार कर दिया था। साथ जाने से भी उन्होंने मना कर दिया था।            

      उस समय मैं दैनिक जागरण में कार्यरत था। प्रख्यात साहित्यकार माहेश्वर तिवारी जी का फोन आया । उन्होंने यह जानकारी मुझे दी । यह सुनते ही फोटोग्राफर को लेकर मैं रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। वहां मैंने निराला जी से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि एक माह पहले वृंदावन गया था। एक हफ्ते पहले जब वहां से वापस लौट रहा था तो किसी ने राजघाट पर धक्का दे दिया। उस समय पैर में चोट आ गई । खैर किसी तरह वह चन्दौसी पहुँचे और पहुंच गए पुरातत्ववेत्ता सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के बड़े भाई के घर। उन्होंने उन्हें खाना खिलाया उसके बाद वह मूलचंद गौतम के घर भी पहुंचे लेकिन उनसे भेंट न हो सकी। श्री गौतम उस दिन शहर से बाहर थे।  उसके बाद किसी तरह वह मुरादाबाद आ गए । तीन-चार दिन से यहीं रेलवे स्टेशन पर पड़े हैं । उन्होंने कहा "मजबूरी का नाम महात्मा गांधी"। आज भूख लगी तो रेलवे स्टेशन के सामने पहुंच गये एक मुसलमान के होटल पर जहां उसने कढ़ी चावल खिलाएं । 

    जिंदगी भर दुख सहने वाले इस कवि ने कभी जिंदगी से हार नहीं मानी थी। पत्नी उसे छोड़कर कलकत्ता चली गई थी । एक बेटा था उसकी मौत हो गई थी और बेटी उसका कुछ पता नहीं था। वह अकेला ही जिंदगी काट रहा था और कविताएं रच  रहा था ।पहला काव्य संग्रह जिंदगी के मोड़ पर छपा। साप्ताहिक सहकारी युग के सम्पादक महेंद्र गुप्त जी अपने अखबार में उनकी कविताएं छापते रहे। आकाशवाणी का रामपुर  केंद्र उनकी कविताएं प्रसारित करता रहा।

   वह जिंदगी के हर  पड़ाव को, हर मोड़ को हंसते हुए पार करते रहे। उस समय चलते चलते उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा--- 

सर सैयद के घर मेहमानी

करके मुसलमान कहलाए

 यह दुनिया वाले क्या जाने

 हम क्या-क्या बन कर आए

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश,भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट का संस्मरण ------- अमृत

       


सेवारत प्रशिक्षण के तीन दिवसीय शिविर में पहली बार अमृत से मुलाकात हुई थी।उसकी ओजस्विता,उसकी ऊर्जा,उसकी वाकपटुता,उसकी चपलता और किसी भी विषय पर उसके धाराप्रवाह शास्त्रार्थ कर पाने की क्षमता ने मेरे दिलो-दिमाग पर गहरा असर किया था।पर कभी कभी लगता था जैसे वह बीच बीच में कहीं भटक जाती है, लेकिन स्वयं ही स्वयं को मुख्यधारा से जोड़ती वह पुन: अपनी जीवन्तता का परिचय देती तो सब कुछ ठीक लगता।

        ऐसा लगता था जैसे वह समय की मिट्टी को समेटकर एक पात्र बना लेना चाहती हो और समय के इस पात्र में अपने भीतर के घनीभूत भावों को विविध रूप देकर वह उड़ेल देना चाहती हो।वह चाहती कि उसके आस पास मौजूद हर व्यक्ति श्रोता या दर्शक बनकर उसके समय पात्र से अवश्य ही रसपान कर उसे सराहे।तभी वह कविता,गीत, ग़ज़ल,भजन,श्लोक ,कहानियाँ, हास-परिहास, वाद-विवाद, लतीफे,भाषण आदि विविध परिस्थितियों के अनुकूल विधाओं के स्वाद इस पात्र में उड़ेलती रहती थी।

       सच बताऊँ तो प्रथम दृष्टया वह मुझे दिमाग से खिसकी हुई लगी थी।क्योंकि वह निरन्तर अपनी ही बक बक किये जाती थी।कभी कभी लोगों का ध्यान खींचने के लिए वह कुछ विवादित बातें भी कह उठती थी जिसके कारण अक्सर उसका मकसद पूरा हो जाता,क्योंकि इंसान की आम फितरत है कि वह विवाद से जल्दी और अनचाहे ही जुड़ जाता है।शिविर के प्रतिभागियों में से कुछ लोग उसकी बहुमुखी प्रतिभा के कायल हो चुके थे,पर अधिकांश लोग उसे सनकी या पागल समझते थे, जिनमें मैं भी थी।यह विडम्बना ही है कि हमारे भारतीय समाज में अतिसक्रियता,विलक्षण बुद्धि और अति विचारशीलता या संवेदनशीलता को अक्सर पागलपन या सनकीपन करार दिया जाता है।

          मुझे आज भी अफसोस है कि संवेदनशील होते हुए भी पहले दिन मुझे भी उसका व्यवहार सनकी लगा था और मैंने उसकी एक पहचान वाली से पूछ ही लिया था,"क्या इसको कोई मानसिक बीमारी है?"तो उसने तुरंत खण्डन करते हुए गम्भीरता पूर्वक कहा था,"नहीं, दीदी।वह बहुत अच्छी है।आप एक बार उससे दोस्ती कर के तो देखो।हालांकि वह बीमार है,लेकिन मानसिक बीमार तो कतई नहीं।"

    कौतूहल तो जगा था पर संकोचवश मैंने स्वयं कोई पहल नहीं की। सौभाग्य से प्रशिक्षण के दौरान हम सबको अपने-अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया गया। मुझे कविता लिखने का शौक है यह अधिकतर सहकर्मी जानते थे अतः मुझसे कविता सुनाने का आग्रह हुआ। मैंने अपनी एक कविता सभा में सुनाई।सभी को बहुत पसंद आई और सबने करताल से मेरा स्वागत किया।परंतु अमृत ने एक ऐसी बात कह दी कि मेरे कानों में विष सा घुल गया।अमृत खड़ी हुई और वही अपने असाधारण सनकीपने से बोली,"अरे भई,किसी की चुराई हुई कविता पढ़ने में क्या बात है? योग्यता हो तो चुनौती लो और मेरे साथ कविता में प्रतिस्पर्धा करो।"        

        मुझे बहुत बुरा लगा कविता लिखना मेरा शौक था।"चोरी की कविता" जैसा शब्द-समूह मेरे लिए गाली की तरह था।उसके इस व्यवहार ने मुझे उद्वेलित कर दिया था।लेकिन अमृत मुस्कुरा रही थी।

    एक अन्य प्रतिभागी महिला ने दोहे और श्लोक सुनाएं जो नीति परक थे।परंतु अमृत तब भी चुप नहीं रही और उसने दोहों के रचनाकारों के नाम पूछने शुरू कर दिए।इस पर उस महिला के आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंची,पर अमृत के लिए तो मानो यह सब खेल ही था।उसने खुद उठकर न केवल कई दोहे सुनाये बल्कि प्रत्येक दोहे के रचनाकार का नाम और उस रचनाकार का जीवन परिचय भी धाराप्रवाह बताना शुरू कर दिया।अब यह ज्यादा हो रहा था। प्रतिभागी धीरे धीरे मंच पर आने से घबराने लगे थे।अमृत के इस असाधारण व्यवहार की सदन में आलोचना होने लगी थी और आपसी खुसर-पुसर में उसके सनकी होने की चर्चा बढ़ती जा रही थी।तभी अचानक अमृत ने गीत सुनाने की पेशकश सदन में रखी और उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर गाना शुरू कर दिया।बहुत ही सुंदर फिल्मी गीत था जिसके बोल थे,"इक दिन बिक जायेगा" सदन में चुप्पी छा गई थी। कुछ देर पहले फैली कड़वाहट को उस मधुर गीत की धुन में सब भूल चुके थे और जब गाना खत्म हुआ तो पूरा सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था जिसमें मेरी तालियां भी शामिल थीं। मैं अजीब सी उधेड़बुन में थी।मेरे लिए कल तक सनकी अमृत,फिर कठोर प्रतिस्पर्धी अमृत अब एक जिज्ञासा बनती जा रही थी।

     मध्यावकाश के बाद प्रशिक्षक ने एक गतिविधि के तहत सभी को छ:छ: के समूह में विभाजित कर दिया।अजीब इत्तेफाक था, मैं और अमृत एक ही समूह में थे।अमृत मेरे पास आकर बैठी और बोली,"कब से इस मौके की तलाश में थी,अब जाकर मिला।अब देखना सबकी छुट्टी।दो धुरंधर एक ग्रुप में। सबसे अच्छा प्रेजेंटेशन हमारा ही होने वाला है।" मन को अच्छा-सा लगा।प्रस्तुतिकरण तैयार करते समय उसके विचार तर्कपूर्ण थे और अन्य लोगों के तर्कपूर्ण विचारों को भी समान महत्व देते हुए वह समूह भावना का परिचय दे रही थी।टास्क के बीच में ही उसने मुझसे कहा,"आप बहुत उम्दा लिखती हैं।आपको तब मेरी बात बुरी लगी होगी परन्तु सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए ऐसे आघात भी कभी कभी बहुत जरूरी होते हैं। मुझे भी लिखने का शौक है।पर आपकी तरह मेरी किस्मत कहाँ.....? अच्छा बताइये आपको घर का सपोर्ट तो है न।मेरा मतलब भाई साहब को आपके लिखने से कोई परेशानी तो नहीं।"

     एक नयी अमृत के पृष्ठ क्रमशः मेरे सामने खुल रहे थे।कल तक सनकी लगने वाली अमृत का उदार, मानवीय, सृजनात्मक, तार्किक और सबसे अलग एक संवेदनशील परन्तु भीतर से कहीं गहरे तक घायल चेहरा धीरे-धीरे मेरे मानस पटल पर छप रहा था।

            मैंने भी आत्मीय होकर बताया कि  किस तरह मेरा पूरा परिवार मेरा सहयोग करता है खासकर मेरे पति जो मेरी भावनाओं का पूरा ख्याल रखते हैं और उदार दृष्टिकोण रखते हुए मेरी रचनाओं को ना केवल सराहते हैं,बल्कि उचित मंच पर उन्हें ले जाने हेतु प्रोत्साहित भी करते हैं।जब मैं यह बात बता रही थी तब मैंने हर क्षेत्र में संपूर्ण सी लगती अमृत की आंखों में एक अजीब सूनापन देखा और एक फीकी सी बात उन मधुर होंठों से बाहर निकल कर आई,"सबकी किस्मत इतनी अच्छी कहां होती है।... ‌खैर भगवान का लाख-लाख शुक्रिया!आप किस्मत वाली हो।भगवान आपको खुश रखे।" कहते हुए अमृत ने फिर बात की दिशा बदल दी और हम टास्क पूरा करने में लग गये।    

    ***** ***** ***** *****    

         प्रशिक्षण का अंतिम दिन था।पहले दिन हुई अमृत की आत्मीय बातों ने मुझे उसके करीब ला दिया था।सागर की तरह न केवल उसका विस्तार अधिक था बल्कि सागर की तरह उसमें गहराई भी थी जिसकी थाह पाने की ललक मुझ में जाग चुकी थी।आज मैं स्वयं ही अमृत के पास जाकर बैठ गयी थी।पर आज अमृत बुझी-बुझी सी थी।मैंने कारण पूछा तो उसनेे कमर में बँधी अपनी बेल्ट की ओर इशारा किया और कहा,"मेरा बेटा बड़े ऑपरेशन से हुआ था।पता नहीं उस समय कौनसा टीका गलत लग गया कि तब से आज तक कई डॉक्टर्स को दिखा चुकी हूँ पर कमर दर्द है कि ठीक ही नहीं होता।हमेशा ही यह बेल्ट बाँधे रहती हूंँ।कभी कभी दर्द असहनीय हो जाता है,आज भी यही हो रहा है।पर अब तो दर्द की आदत बन गई है।"उसका दर्द मुझे अपने भीतर तक महसूस हुआ। मुझे एहसास हुआ कि वह एक महान शख्सियत थी जिसने अपनी जीवंतता से अपने दर्द को मात दी हुई थी।उससे बातचीत के क्रम में मुझे पता चला कि वह अपने माता-पिता की दो संतानों में से इकलौती पुत्री थी।उसका भाई बहुत बड़ा बिजनेसमैन था। उसके पिता एक रिटायर्ड जज थे। मांँ स्वास्थ्य विभाग से रिटायर्ड थीं।पति भी व्यवसायी था और उसका ससुराल बहुत संपन्न था। एक 7 वर्ष का बेटा था उसका। जीवन में सब कुछ इतना आकर्षक था।फिर इतनी छटपटाहट क्यों थी,अमृत की आँखों में।इतनी व्याकुलता क्यों थी,उसकी बातों में।इतनी अधीरता क्यों थी,उसके व्यवहार में।

         शिविर समाप्त हो गया था। हम पुन: अपने कार्य स्थलों पर पहुंच चुके थे।यह प्रशिक्षण शिविर उससे मेरी मुलाकात का पहला और आखिरी स्थल बन जायेगा, ऐसी कल्पना करना भी मूर्खता था।पर स्मृति पटल पर धीरे धीरे इन पलों की तीव्रता मंद पड़ती जा रही थी।

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      वार्षिक सम्मेलन में हमारी संस्था की ओर से बीस सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी कार्यशैली और प्रदर्शन के आधार पर चयनित किए गए थे।विभागाध्यक्ष द्वारा उन्हें समारोह पूर्वक सम्मानित करने हेतु आमंत्रित किया गया था।मैं भी इस सूची में शामिल थी और मुझे पता चला था कि अमृत भी इस सूची में है।अतः बहुत दिनों बाद उससे मुलाकात होगी,यह सोच कर भी मैं रोमांचित थी। आधुनिक युग में भी ऐसी संवादहीनता का कारण यह था कि अमृत के पास अपना कोई फोन नंबर नहीं था।उसने यह कह कर बात टाल दी थी कि उसे फोन से एलर्जी है।कोई जरूरी संदेश होता है तो उसके पति के फोन से काम चलता है।उसके पति का नंबर न मैंने लिया न उसने दिया। इसलिए मेरे पास उस शिविर के बाद से उसकी कोई खबर नहीं थी।मंच पर मेरा नाम पुकारा गया मैंने प्रशस्ति पत्र लिया और आभार व्यक्त किया।मेरी नजरें अमृत को खोज रही थीं,परंतु मुझे अमृत कहीं दिखाई नहीं दी।अमृत का नाम मंच से पुकारा गया पर वह वहां नहीं थी।उसकी सहकर्मी ने उसका सम्मान ग्रहण किया। समारोह के समापन के बाद मैं अमृत की उस सहकर्मी के पास गई और मैंने अमृत के बारे में पूछा।उसने बताया कि अमृत के बारे में उसे भी तीन-चार दिन से कुछ नहीं पता है। क्योंकि वह 4 दिन से ऑफिस भी नहीं आई है। उसके पति के नंबर पर फोन करने पर वह बेरुखी से जवाब देता है ,"मुझे नहीं पता क्यों नहीं आ रही?" मैंने पूछा,"कोई परेशानी है क्या उसे ?" वह बोली, "परेशानी....परेशानी का पहाड़ है उसके सिर पर।" मैंने आश्चर्य से पूछा,"क्या मतलब........वह तो संपन्न परिवार से है।जॉब करती है, एक 7 साल का बेटा है।प्रतिभा की धनी है।बेस्ट ऑफिशियल अवार्डी है।अब शरीर की बीमारियों का क्या?ये तो लगी रहती हैं।उसकी स्थिति तो फिर भी ठीक है कि वह इलाज करा सकती है, दवाई ले सकती है।अब हर इंसान को सब कुछ तो नहीं मिल सकता।" वह बोली,"मैडम जो दिखता है,हमेशा वही पूरा सच नहीं होता।अमृत मैडम की कमर दर्द की समस्या तो उनकी असल समस्या के सामने बिंदु भर भी नहीं है?" "क्या....प्लीज मुझे खुल कर बताओ?",मैंने निवेदन किया। उसने गहरी साँस भरी और कहना शुरू किया,"अमृत जी के पति बहुत ही शक्की,पियक्कड़ और गुस्से बाज हैं।वह उनकी हर बात पर शक करते हैं।रोज पीते हैं और नशे में धुत होकर उन्हें बेरहमी से पीटते हैं।एक बार एक संपादक उनकी रचनाओं को छापने की बात लेकर घर पहुंच गया।उनके पति ने उसे पीट पीट कर घर से बाहर निकाला।उनकी सारी डायरियांँ,सारा लेखन आग के हवाले कर दिया और यहां तक कि उनके नौकरी करने पर भी उन्हें आपत्ति है।कई बार तो वह उनके पीछे-पीछे ऑफिस आ जाते हैं और निगरानी रखते हैं कि वह क्या कर रही है,किससे बात कर रही है ?और फिर बात बेबात सरेआम बेइज्जती करना शुरू कर देते हैं।"

     यह सुनकर मैं गुस्से से उत्तेजित होकर बोल उठी,"अरे अमृत जैसी पढ़ी लिखी महिला,एक सम्पन्न परिवार की बेटी,क्यों ऐसे शराबी व्यक्ति के ज़ुल्म सह रही है।उसे इसका प्रतिरोध करना चाहिए।आज के समय में तो महिलाओं के हित में इतने कानून हैं।ऐसे दुष्ट को तो सबक सीखाना चाहिए।" वह फीकी मुस्कान बिखेरती हुई बोली,"यह सब कहना जितना आसान है न मैडम उतना करना नहीं। मैंने भी कई बार अमृत जी को सलाह दी है पर उनकी बातों ने हमेशा मुझे चुप करा दिया।पता नहीं किस मिट्टी की बनी हैं। कहती हैं 'ज्ञान,संस्कार और सामाजिक प्रतिष्ठा वे बेड़ियाँ हैं उनके अंतःकरण पर जिनसे वह कभी निकल नहीं पायेंगी।क्योंकि इससे उनका परिवार और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लग जायेंगे।उनके बेटे की जिंदगी कानूनी दांव पेंचों में फँस कर रह जाएगी।कोई बात नहीं मियां बीवी में झगड़े तो होते ही हैं वह अपने प्यार से अपने पति का बर्ताव बदलकर रख देंगी।'पता नहीं मैडम!कितनी हिम्मत है उनके अंदर सब कुछ सह लेती हैं। किसी से कुछ नहीं कहती।कहती हैं 'पुलिस में जाकर क्या होगा उनके माता-पिता की इतने वर्षों से बनी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।उन्हें बुढ़ापे में लोगों की कितनी बातें सुननी पड़ेंगी। हमारे समाज में हर गलती का जिम्मेदार घुमा फिरा कर आखिर लड़की को ही समझा जाता है। फिर न्याय क्या पेड़ पर लगा पत्ता है कि गए और तोड़ लाए।वैसे ही हमारे देश में जजों की कमी है। कई केस न्याय की बाट जोह रहे हैं। न्याय तो जल्दी मिलेगा नहीं उल्टा जिंदगी कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते कट जाएगी और इस सब में उनके बेटे का बचपन, उससे उसके पिता की छांव,उनके माता-पिता व सास ससुर का बुढ़ापा,समाज में उनकी प्रतिष्ठा, उनके भाई का सुनहरा भविष्य सब दांव पर लग जाएगा।एक उनके जख्म सहने से अगर इतने घाव बच रहे हैं तो यही सही।फिर कभी तो भोर होगी।'ऐसी बातें करके ही वह चुप करा देती हैं।"

     मैं अवाक थी।अमृत से पहली मुलाकात याद आ रही थी।उस वक्त उसके व्यवहार पर जितना आश्चर्य हुआ था,आज उतना ही गर्व महसूस हो रहा था।वह एक सामान्य महिला से दैवीय रूप धारण करती जा रही थी। मैं भाव विभोर थी। उसके आदर्श ऊंचाई पर चमकते दिखाई दे रहे थे।

  तभी फोन की रिंग से मेरा ध्यान टूटा,मैंने अपना फोन चैक किया। परन्तु फोन अमृत की सहकर्मी का बज रहा था। उसने फोन रिसीव किया और ,"क्या.....?"के साथ उसका मुंह खुला रह गया।"कब...? कैसे....?"अग्रिम दो शब्द थे। उसने अश्रुपूरित नेत्रों से मेरी ओर देखा और बस इतना कह पायी,"अमृत सूख गया, मैडम!"

     ***** ***** ***** *****

       अमृत के आलीशान बंगले के बाहर लोगों की भीड़ जमा थी। हमारे विभाग के अधिकारी और सहकर्मी वहाँ मौजूद थे।दुमंजिले में कमरे के बाहर अमृत को रखा गया था। ऐसा लग रहा था जैसे अमृत अभी उठेगी और कहेगी,"ओय चुप करो भई! मैं तो मजाक कर रही सी गी।" पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

          अमृत की माँ दहाड़े मार कर रो रही थीं। रोते रोते वह बीच में बेहोश हो जाती तो लोग पानी के छीँटे मारकर और पानी पिलाकर उन्हें सँभालते।जब वह होश में आती तो आर्तनाद करती,"हाय बेटी तूने ये क्या किया?एक बार तो अपनी माँ को बताती।तेरा भाई तेरे लिए धरती पाताल एक कर देता।तेरे डैडी ने जिन्दगी भर लोगों के फैसले किये,तेरे लिए भी करते।पर तूने हमें कुछ न बताया बेटी।हाय मेरी लाडो हमें जिन्दा मार गयी तू।"माँ की दहाड़ों के साथ साथ औरतों के रुआँसे स्वर भी शामिल होकर माहौल को बहुत गमगीन बनाये हुए थे।

          दबे स्वर में लोग अमृत के पति और सास-ससुर की बुराई कर रहे थे।कोई कह रहा था कि उन्हें यकीन नहीं होता कि इतनी पढ़ी लिखी,नौकरीपेशा,सम्पन्न मायके वाली लड़की इन जाहिलों के ज़ुल्म को अब तक बर्दाश्त करती रही।अमृत का बेटा मामा की गोद में बैठा भरी आँखों से इधर उधर टुकुर-टुकुर देख रहा था।मेरी नज़र अमृत के पति को ढूँढ रही थीं। मैं एक बार नर वेशधारी उस भेड़िये को देखना चाहती थी पर पता चला कि वह घटना के बाद से ही फरार है।

     "4 दिन से वह लगातार अमृत की पिटाई कर रहा था उसने अमृत के मायके जाने पर भी रोक लगा दी थी।बेटे को भी वह अमृत के पास नहीं जाने देता था और उसके बारे में भला-बुरा कहता था।",एक पड़ोसन बता रही थी। दूसरी ने कहा,"उस दिन ऑफिस से कोई आदमी आया था यह बताने के लिए कि उसका नाम ईनाम के लिए गया है तो वह फलां तारीख को फलां जगह ईनाम लेने आ जाए। बस उस आदमी को देखकर ही मिन्दर भड़क गया था और 'ले ईनाम!ले ईनाम!'कह कर डंडे से वह पिटाई की थी उसकी कि दूसरे दिन पूरे बदन पर नील पड़ी हुई थी और वह उठ भी नहीं पा रही थी।तभी से वह ऑफिस भी नहीं गई थी।" "बेचारी कब तक सहती आज मौका पाकर आजाद हो गई, लटक गई फंदे से,"एक अन्य ने कहा।

        मुझे धक्का लगा।यकीन नहीं हो रहा था,"अमृत और ऐसा कदम... ।नहीं,.....यह हत्या है।"मन कह रहा था।पर लगातार घनों की चोट से पहाड़ भी तो टूट जाते हैं।हो सकता है अमृत के भीतर का पहाड़ भी हिल गया होगा।सच्चाई अमृत के साथ ही चली गई थी।पर मेरे पूरे वजूद को इस भयावह दृश्य ने कम्पित कर दिया था।आज पता चला वह समय को क्यों समेट लेना चाहती थी?वह बोलने का कोई अवसर क्यों नहीं गवाती थी।पर अब क्या?.....,

      विष को अमृत करने की चेष्टा में अमृत सूख चुका था।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का संस्मरणात्मक आलेख ----" सात्विक विचारों की खुशबू बिखेरते थे रामपुर के प्रखर चिंतक प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल"


 वर्ष 1986 में प्रकाशित मेरी पुस्तक "रामपुर के रत्न" में जिन 14 महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखा गया था ,उसमें एक नाम प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल जी (जन्म 16 सितंबर 1917 -  मृत्यु 29 मार्च 2014) का भी था । साहित्यकारों में आप शीर्ष पर विराजमान थे तथा एक बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में आपकी प्रतिष्ठा थी। आपके विचारपूर्ण लेख ,कहानियाँ और कभी - कभी व्यंग्य ,हिंदी साप्ताहिक सहकारी युग में प्रकाशित होते रहते थे । इनके विशेषांकों का एक आकर्षण आपकी लेखन सामग्री भी रहता था । सहकारी युग के संपादक श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी की प्रेस में आपका प्रायः उठना- बैठना रहता था तथा महेंद्र जी आपका उल्लेख बहुत आदर के साथ करते थे । मेरा घर तथा प्रोफेसर साहब का घर पास - पास था अर्थात ज्यादा दूर नहीं था। जब से मैंने होश संभाला प्रोफेसर साहब की साधुता का जिक्र अपने पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ से सुनता रहता था। फिर धीरे-धीरे एक लेखक के रूप में मेरा परिचय प्रोफेसर साहब को तथा प्रोफ़ेसर साहब का परिचय मुझे गहराई से मिलने लगा।

                इसी बीच मुझे आपने श्री सतीश जमाली द्वारा प्रकाशित एक कहानी संग्रह "26 नए कहानीकार"  जो कि ममता प्रकाशन , इलाहाबाद द्वारा  अक्टूबर 1976 में प्रकाशित हुआ था ,भेंट किया ,जिसमें भारत के प्रसिद्ध कहानीकारों के साथ-साथ आपकी कहानी "अधूरा"  पृष्ठ 108 से पृष्ठ 119 तक  अंकित थी, भी प्रकाशित थी । कहानी क्या थी, भावनाओं का मानों झरना ही बह उठा हो । न केवल विविध गतिविधियों तथा एक-एक घटनाक्रम का विस्तार से वर्णन करना आप की कहानी -कला की विशेषता थी ,अपितु मनोवैज्ञानिक रूप से पात्रों का अंतर्मन कहानी में खोल कर रख देना इसका हुनर भी आपको आता था । इसलिए पात्र कहीं दूर के नहीं जान पड़ते थे । उनसे पाठक की आत्मीयता स्थापित हो जाती थी । आप की कहानी पढ़कर मुझे हमेशा यही लगा कि यह पात्र तो सचमुच हमारे आस-पास ही बिखरे हुए हैं। बस हम उनके हृदय की भावनाओं के ज्वार को पकड़ नहीं पाते हैं । 

          प्रोफेसर साहब ने उन्हीं दिनों अपना पहला उपन्यास (1976 में प्रकाशित )"जीवन के मोड़" भी मुझे भेंट किया था तथा यह भी एक प्रकार से उनके स्वयं के जीवन का पूर्वार्ध ही था । जिस तपस्वी भाव से उन्होंने जीवन जिया ,वैसा ही शांत और अनासक्त लेखन उनके साहित्य में प्रकट हो रहा था । वह मनुष्य को उदार और उच्च भाव भूमि पर स्थापित करने वाला साहित्य था । प्रेम की परिभाषा उन्होंने स्वयं ही शायद कहीं वर्णित की है कि प्रेम बलिदान चाहता है और प्रेम में कोई लेन-देन नहीं रहता ।

         एक और उपन्यास उनके जीवन के उत्तरार्ध में प्रकाशित हुआ । इसका नाम "राहें टटोलते पाँव" था, जो 1998 में  प्रकाशित हुआ ।

         फिर 2006 में उनका कहानी संग्रह  "एहसास के दायरे" प्रकाशित हुआ  और इस प्रकार उनकी बिखरी हुई कहानियों को  एक जिल्द में  पढ़ने का अवसर मिला ।

          उनकी लेखन क्षमताओं की निरंतरता का पता इस बात से हमें चलता है कि उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दशक में अपनी आत्मकथा इस प्रकार से लिखी कि वह एक कहानी भी कही जा सकती है ,एक उपन्यास भी कहा जा सकता है तथा अपनी पोती के प्रति उनके वात्सल्य भाव का उपहार भी उसे हम कह सकते हैं । प्रोफेसर साहब ने इस लेखन को ''एक पारिवारिक कथा" का नाम दिया । "अनुभूतियाँ" नामक यह पुस्तक  प्रोफेसर साहब ने मुझे  15 - 7 - 2009 को   सस्नेह भेंट की थी  । जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तब उन्होंने कहा कि मेरा पोता भी कह रहा है कि तुमने पोती के बारे में तो लिख दिया ,लेकिन पोते के बारे में नहीं लिखा । तब मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे बारे में भी एक किताब लिखूँगा। बात आई - गई हो गई थी लेकिन प्रोफेसर साहब ने सचमुच कुछ ही समय बाद अपनी "आत्मकथा" _अर्थात_ "एक पारिवारिक कथा"  को विस्तार दिया और पोते को रचना के केंद्र में रखकर एक पुस्तक लिख डाली ।  यह उनकी लिखने की निरंतरता का प्रमाण था। 

         प्रोफेसर साहब  खुले विचारों वाले व्यक्ति थे।  रूढ़िवादिता से मुक्त थे । आपके जीवन में  किसी भी प्रकार की कट्टरता  अथवा  विचारों की संकीर्णता का  लेश - मात्र भी अंश नहीं था। आप मनुष्यता के उपासक थे  । सर्वधर्म समभाव  आपकी जीवनशैली थी  । वसुधैव कुटुंबकम् आपका आदर्श था।  भारतीय संस्कृति में  जो ऊँचे दर्जे की  चरित्र तथा नैतिकता की बातें कही गई हैं  , वह सब  आपने अपने जीवन में इस प्रकार से आत्मसात कर ली थीं  कि वह  आपके व्यवहार में  ऐसी घुलमिल गई थी  कि कभी भी अलग नहीं हो सकीं। आप भारत और भारतीयता के सच्चे प्रतिनिधि  तथा प्रतीक कहे जा सकते हैं ।

         रामपुर के सार्वजनिक जीवन में  सात्विक विचारों की खुशबू बिखेरने वाले आप एक महापुरुष थे। प्रोफेसर साहब न केवल एक अच्छे लेखक थे बल्कि एक अच्छे वक्ता भी थे । आप चिंतनशील व्यक्तित्व होने के कारण जो भाषण देते थे ,उसमें वैचारिकता का पुट प्रभावशाली रूप से उपस्थित रहता था । इसलिए जो लोग विचारों को सुनने के लिए श्रोता- समूह में उपस्थित होते थे ,उन्हें न केवल आनंद आता था बल्कि वह लाभान्वित भी होते थे । यद्यपि कुछ लोग जो केवल मनोरंजन की दृष्टि से ही कार्यक्रमों में उपस्थित होते थे, उन्हें जरूर कुछ शुष्कता महसूस होती रही होगी। मेरा यह सौभाग्य रहा कि मुझे अनेक बार प्रोफेसर साहब को अपने कार्यक्रमों में मंच पर आसीन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तथा उनकी अध्यक्षता में जो कार्यक्रम हुए ,वह एक शानदार और यादगार कार्यक्रम के रूप में जाने जाएँगे । 

      अक्टूबर 2008 में प्रोफेसर साहब का नाम हमने "रामप्रकाश सर्राफ लोक शिक्षा पुरस्कार" के लिए चुना और उनको पुरस्कृत किया । प्रोफेसर साहब ने कृपा करके वह पुरस्कार ग्रहण किया और हमें और भी आभारी बना दिया ।इच्छा तो यह थी कि सौ वर्ष तक हम प्रोफेसर साहब को समारोहों की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित करते रहे और वह आते रहें तथा हम सब उनके कृपा- प्रसाद से लाभान्वित होते रहें। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। कुछ वर्ष पूर्व ही आकस्मिक रूप से वह इस संसार से सदा के लिए चले गए ।

       प्रोफेसर साहब के निवास पर  अनौपचारिक रूप से  विचार गोष्ठियाँ चलती रहती थीं।  इनमें  डॉ ऋषि कुमार चतुर्वेदी जी , श्री महेश राही जी  तथा श्री भोलानाथ गुप्त जी का नाम  विशेष रूप से लिया जा सकता है  । एक बार  प्रोफ़ेसर साहब ने  मुझसे भी कहा था कि मैं  आ जाया करूँ।  यद्यपि मेरा जाना कभी नहीं हुआ । प्रोफेसर साहब नहीं रहे लेकिन उनकी मधुर स्मृतियाँ तथा प्रेरणाएँ सदैव जीवित रहेंगी। प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल जी की पावन स्मृति को शत-शत नमन ।

      अंत में प्रोफेसर साहब के पत्र - साहित्य में से एक पत्र उद्धृत करना अनुचित न होगा । यह 9 अक्टूबर 1997 को प्रोफ़ेसर साहब का लिखित पत्र है जो उन्होंने मेरे प्रकाशित उपन्यास "जीवन यात्रा" के संबंध में मुझे प्रोत्साहित करने के लिए लिखा था । पत्र इस प्रकार है :-

                       *दिनांक 9 - 10  - 97* 

   प्रिय रवि प्रकाश जी

                      नमस्कार। आपका उपन्यास जीवन यात्रा पढ़ा। काफी बँधा रहा । वैसे मध्य में अधिक रोचक है । समाज तो महज एक अवधारणा है अर्थात "ओन्ली ए कंसेप्ट"। वास्तव में यह व्यक्ति हैं जो सामाजिक जीवन का रिश्तों से ताना-बाना बुनते हैं । यदि व्यक्ति बुरे हैं तो समाज अच्छा हो ही नहीं सकता । किंतु व्यक्ति असंख्य हैं जो बिखरे पड़े हैं । फिर परेशानी यह है कि जिस विशाल जनसमूह से समाज बनता है उसमें अधिकांश वे हैं जिन्हें हम दैनिक बोलचाल में "आम आदमी" कहते हैं अर्थात जिनमें बुद्धि साधारण और अंधानुकरण अधिक है । जो चल पड़ा वह चल पड़ा । फिर इस पुरुष प्रधान समाज में धर्म भी पक्षपात पूर्ण रहा है । संकीर्ण चिंतन और राग - द्वेष विवेक को इतना अपंग कर देते हैं कि इंसान जिस डाल पर बैठा है उसी को काटने लगता है । इस उपन्यास का राहुल ऐसे ही समाज से टक्कर लेने में जुट जाता है किंतु हर जगह असफलता मिलती है । *एक चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता । तो सुधार के लिए जन - आंदोलन का रूप देना होता है ।* यही महापुरुषों ने किया है । यही महात्मा गांधी ने भी किया था।

        मैं चाहता हूँ आपका यह उपन्यास जन-जन के हाथों में पहुँचे और वे इस को पढ़ें । यह भी एक प्रकार का जन - आंदोलन ही होगा । मैं जानता हूँ अधिकांश साहित्य विशेष रूप से कहानी और उपन्यास विधाएं मनोरंजन का माध्यम अधिक मानी जाती रही हैं किंतु प्रस्तुत उपन्यास में कहीं व्यक्त आपके इस मत से सहमत हूँ कि कुछ न कुछ विचार - तरंगे अवचेतन में जाकर जरूर बैठती हैं जो व्यक्ति को जाने-अनजाने प्रभावित करती रहती हैं ।

         साहित्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष शिल्प भी है । कथ्य तो एक संवेदनशील मन में अपने आप रूप ले लेता है किंतु शिल्प श्रम -  साध्य है । सतत अभ्यास और साहित्यिक शिल्पियों की उच्च कृतियों के अध्ययन - मनन से इसमें निखार आ सकता है। इस उपन्यास के लिए बधाई।

                       ईश्वर शरण सिंहल



✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

रामपुर 

(उत्तर प्रदेश) 

 _मोबाइल 99976 15451_

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का संस्मरण ---- जब काका हाथरसी रामपुर आये थे .....






रामपुर में काका हाथरसी नाइट : 8 फरवरी 1981
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काका हाथरसी हिंदी काव्य मंच के अत्यंत लोकप्रिय और सशक्त हस्ताक्षर थे। सारे भारत में आपके प्रशंसकों की संख्या लाखों में कही जा सकती है । ऐसे ही एक प्रशंसक रामपुर में सुन्दरलाल इंटर कॉलेज  के संस्थापक एवं प्रबंधक श्री राम प्रकाश सर्राफ थे । काका हाथरसी की काव्य शैली के आप प्रशंसक थे तथा रामपुर में काका हाथरसी को सुनने के इच्छुक थे। जब सुन्दरलाल इंटर कॉलेज की स्थापना के 25 वर्ष पूरे हुए तब आपने यह विचार किया कि क्यों न काका हाथरसी को रामपुर में आमंत्रित करके काका नाइट का आयोजन किया जाए और इस प्रकार अपने मनपसंद कवि को देर तक साक्षात सुनने का शुभ अवसर प्राप्त हो । इसी योजना के अंतर्गत दो दिवसीय काव्योत्सव आपने सुन्दरलाल इंटर कॉलेज के प्रांगण में आयोजित किया। पहले दिन 8 फरवरी 1981 को काका हाथरसी नाइट का आयोजन था तथा अगले दिन 9 फरवरी 1981 को बसंत पंचमी के दिन अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन रखा गया था ।
        कार्यक्रम के संचालन के लिए आपने श्री भगवान स्वरूप सक्सेना मुसाफिर से संपर्क किया । भगवान स्वरूप सक्सेना जी की मंच संचालन क्षमता बेजोड़ थी । आपकी गंभीर आवाज जो खनकदार गूँज पैदा करती थी , उसका कोई सानी नहीं था। आज भी आपकी आवाज का कोई दूसरा विकल्प दिखाई नहीं देता। आप सहज ही दोनों दिन के काव्य - समारोह का संचालन करने के लिए राजी हो गए। वास्तव में आपकी राम प्रकाश जी से बहुत निकटता तथा आत्मीयता रामपुर में जिला सूचना अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए हो गई थी। आपका अक्सर दुकान पर आना , बैठना और बातचीत करते रहना चलता रहता था । अनेक बार आपके साथ आपकी बहन तथा आपकी माताजी भी साथ आ जाती थीं  और घर पर अत्यंत सहज रीति से घुलमिल जाती थी । आप मंच संचालन की अद्वितीय  क्षमता के साथ-साथ एक अच्छे लेखक और कवि भी थे । पुस्तक "नर्तकी" आपके शब्द चित्रों का  एक संग्रह है जिसे गद्य और पद्य का मिलन स्थल कह सकते हैं । तत्काल समारोहों का संचालन करने की जैसी खूबी आपने थी वैसी किसी में नहीं थी । राम प्रकाश जी के दर्जनों समारोहों में आप ने मंच को सुशोभित किया था । कवि सम्मेलन तथा काका नाइट में आपके मंच संचालन से चार चाँद लग गए ।
        किन कवियों को बुलाया जाए तथा काका हाथरसी से किस प्रकार से संपर्क किया जाए, इसके लिए रामप्रकाश जी ने विद्यालय के हिंदी प्रवक्ता डॉ चंद्र प्रकाश सक्सेना कुमुद जी से वार्तालाप किया । चंद्र प्रकाश जी न केवल विद्यालय के हिंदी प्रवक्ता थे ,बल्कि हिंदी के बड़े भारी विद्वान थे । कवि और कहानीकार भी थे। आपने संपर्क ढूंढ लिए और इस प्रकार अच्छे कवियों की व्यवस्था काका नाइट के अगले दिन के लिए भी हो गई ।
       मुरादाबाद से प्रोफेसर महेंद्र प्रताप विशेष रूप से कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किए गए । आप चंद्र प्रकाश सक्सेना जी के गुरु भी रहे थे । इसके अलावा अलीगढ़ से डॉ रवींद्र भ्रमर  ,लखनऊ से डॉक्टर लक्ष्मी शंकर मिश्र निशंक ,बरेली से श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना, बदायूँ से डॉ.उर्मिलेश ,श्री मोहदत्त साथी , श्री नरेंद्र गरल तथा दिल्ली से श्री अशोक चक्रधर ने कवि सम्मेलन में पधार कर अपनी उपस्थिति से वातावरण को रसमय कर दिया था ।
         काका हाथरसी नाइट में  काका अपने साथ डॉ. वीरेंद्र तरुण  को भी लाए थे।  उनका भी काव्य पाठ  आकर्षक रहा था । काका हाथरसी की  हास्यरस से भरी हुई  कुंडलियाँ  अपने आप में अनूठी थीं।  सहज सरल भाषा  और  देसी मुहावरों से रची - बसी उनकी कविताएँ  जनता के हृदय को स्पर्श करती थीं। रामपुर के सार्वजनिक जीवन में अभी भी वह काव्य - उत्सव स्मृतियों में सजीव है।

 ✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 545 1

शनिवार, 23 मई 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा का संस्मरणात्मक आलेख ----- "मेरे अंदर दबे हुए कविता के अंकुरों को प्रस्फुटित किया था हीरालाल 'किरण' ने"



    बात उन दिनों की है जब मैं बी ए करने के बाद राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, रामपुर( उ०प्र०) से हिन्दी आशुलिपिक का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भी खाली हाथ था । हालांकि वर्ष 1974 के समय सरकारी विभागों में भी हिन्दी आशुलिपिकों के पद न के बराबर ही थे पर भविष्य में इन पदों के सृजित होने की प्रबल आशा थी ।
   मैं साक्षात्कार की तैयारी कर रहा था । जेब खर्च निकालने और स्वयं को व्यस्त रखने के लिए मैंने 'अंँग्रेजी माध्यम' के रामपुर में एकमात्र 'सेंटमैरी कान्वेंट' स्कूल के बच्चों को घर पर जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ।
   तभी मेरे घनिष्ठ मित्र स्मृति शेष श्री दिलीप कुमार शर्मा जी ने मुझसे कहा - 'टैगोर शिशु निकेतन में विज्ञान के आचार्य की आवश्यकता है । वहां के प्रधानाचार्य मेरे परिचित हैं। उनका भी काम हो जायेगा और तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा।'
  मैंने सोचा - 'खाली से बेगार भली' और वहां विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिया ।
    विद्यालय का वातावरण और युवक-युवती आचार्य सभी बहुत भले थे । वहां पर मेरा परिचय श्री हीरालाल किरण जी से प्रत्यक्ष हुआ । इससे पहले मैं उन्हें केवल समाचार-पत्रों में ही उनकी रचनाओं के साथ पढ़ता रहता था । बहुत साधारण व्यक्तित्तव , मधुर वाणी वाले ज्ञान के भंडार हिन्दी के ध्वज को रामपुर में लहरा रहे थे ।
    बचपन से मुझे कविता पढ़ने का बहुत शौक था । मन करता था कि मैं भी लिखूं । भावों को कलम से कागज पर उकेर दूं ।मन नहीं माना और स्नातक करते समय ही भावों को कागज पर चीतना शुरू कर दिया था।
   मेरे लिए श्री हीरालाल किरण जी का सानिध्य ऐसा था कि जैसे मेरी सभी समस्याओं का हल मिल गया हो । विद्यालय में ही भोजनावकाश में मैं उनसे कविता पर चर्चा करता तो वह बहुत प्रसन्न होते थे । मेरे अंदर दबे हुए कविता के अंकुरों को प्रस्फुटित करने में वह मुझे निस्वार्थभाव से प्रोत्साहित करने लगे ।
   मैं लिखकर लाता और दिखाता तो कहते - 'अभी ऐसे ही लिखो । अच्छे भाव हैं । बस तुकान्त पर ध्यान दो ।'
    मैं अपने लिखे की प्रशंसा पाकर फूला न समाता। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि तुकांत क्या और कैसे प्रयोग करते हैं।बस अतुकान्त लिखता पर मन यही कहता कि जो बात कविता में होती है,वह नहीं आ रही है। मैं अपने मनोभाव श्री हीरालाल किरण जी से कहता तो वह यही कहकर प्रोत्साहित कर देते कि -'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' । पहले तुकांत मिलाना सीखो । चार-चार की पंक्तियों में रचना रचो । मगर उन्होंने कभी हतोत्साहित नहीं किया ।
   श्री हीरालाल किरण जी मेरी प्रथम पाठशाला थे । तब से मैं अतुकान्त रचनाऐं लिखने लगा ।
   इसी मध्य मेरी नियुक्ति ज़िला एवं सत्र न्यायालय, रामपुर में हो गयी मगर मैं उनसे जुड़ा रहा ।
    आर्य समाज मंदिर, रामपुर में 'विज्ञान कार्यशाला' के आयोजन में श्री हीरालाल किरण जी ने मुझे भी निमंत्रित कर विज्ञान से संबंधित बाल रचाऐं रचने के लिए सभी रचनाकारों को प्रशिक्षण दिया गया।
    न्यायालय की नौकरी में कार्य की अधिकता के कारण समय नहीं मिल पाता था कि मैं काव्य गोष्ठियों में जा पाऊंँ । मगर कलम निरन्तर चलती रही। विभाग में समस्त न्यायिक अधिकारियों और स्टाफ की उपस्थिति में मैं राष्ट्रीय पर्वों पर स्वरचित रचनाऐं प्रस्तुत करता तो वहां भी भूरि-भूरि प्रशंसा पाकर मन गदगद हो जाता । मगर मैं श्री हीरालाल किरण जी को ही मन-ही-मन धन्यवाद देता कि यदि वह मुझे उत्साहित नहीं करते और कविता के व्याकरण व मात्राओं के मकड़जाल में फंँसा कर उलझा देते तो संभवतः कलम आगे नहीं चल सकती थी ।
    श्री हीरालाल किरण जी के व्यवहार और मार्गदर्शन को मैं कभी नहीं भुला सकता ।
 
✍️  राम किशोर वर्मा
       रामपुर

शनिवार, 16 मई 2020

मुरादाबाद के हिंदीसेवी स्मृतिशेष दयाशंकर पांडेय पर केंद्रित डॉ कृष्ण कुमार नाज द्वारा लिखा गया संस्मरणात्मक आलेख ----- ‘...... हो सके तो लौट के आना'


       कई साल पहले की बात है। शाम के क़रीब सात और आठ के बीच का समय होगा, मेरे घर की कालबेल बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो महानगर के हास्य-व्यंग्य कवि श्री कृष्ण बिहारी दुबे के साथ एक सज्जन खड़े थे। ठिगनी क़द-काठी, दुबला-पतला शरीर, क्लीनशेव चेहरा, खिचड़ी बाल, सर पर गांधी टोपी, खादी की सफे़द पैंट-शर्ट पहने, कंधे पर थैला लटकाए थे। मैंने उन्हें अभिवादन किया और आदर-सत्कार के साथ बैठक में बैठाया। थोड़ी ही देर में चाय आ गई। चाय की चुस्कियों के बीच दुबे जी ने उनसे परिचय कराया- श्री दयाशंकर पांडेय, रेल विभाग से सेवानिवृत्त, महानगर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति’ के संस्थापक व अध्यक्ष। मैं बहुत ख़ुश हुआ। पांडेय जी ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के अपनी बात शुरू की- ‘'नाज़ साहब मैं आपको हिंदी प्रचार समिति का सचिव बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, समिति की जो गतिविधियां मद्धमगति से चल रही हैं, उनमें तेज़ी आए।’' उनकी आंखों में विश्वास की चमक, लहजे में दृढ़ता, व्यवहार में अपनत्व व निश्छलता और मातृभाषा के प्रति उनका समर्पण देखकर मैंने बग़ैर किसी हील-हुज्जत के जवाब दिया- ‘'मैं हाज़िर हूं, आप जो भी आदेश देंगे सर-आंखों पर।’' शायद मुझसे उन्हें इसी उत्तर की अपेक्षा थी, इसलिए उनकी प्रसन्नता उनके चेहरे पर स्पष्ट झलकने लगी। उन्होंने मुझे तत्काल समिति की पंजिकाएं सौंप दीं। पांडेय जी ने बताया कि समिति की गोष्ठियाँ प्रतिमाह 14 तारीख़ को शाम पांच बजे दूरभाष केंद्र स्थित शिवमंदिर प्रांगण में होती हैं।

    पांडेय जी से इस ख़ूबसूरत मुलाक़ात के बाद आने वाली 14 तारीख़ के दृष्टिगत मैंने समिति सचिव की हैसियत से महानगर के अपने सभी कवि साथियों को निमंत्रण पत्र भेजे। इस गोष्ठी में कुछ शायरों को भी आमंत्रित किया गया। चूंकि यह मेरी ख़ुशकि़स्मती है कि महानगर के सभी रचनाकारों का मुझे हमेशा प्यार मिला है, इसलिए मेरा अनुरोध सभी ने स्वीकार किया और सभी काव्यगोष्ठी में उपस्थित हुए। रचनाकारों की संख्या को देख पांडेय जी भी ख़ुश हुए। गोष्ठी के दौरान ही निकट स्थित होटल से चाय मंगा ली गई। इसी बीच पाँडेय जी ने अपने थैले से बिस्कुट के दो पैकेट निकाले और खोलकर रचनाकारों के सामने रख दिए। वह समिति के हर कार्यक्रम में अपने थैले में बिस्कुट के दो पैकेट ज़रूर डालकर लाते थे। इसी परिवारिक माहौल में समय बीतता गया, हर माह 14 तारीख़ आती रही और समिति के कार्यक्रम होते रहे। उसके पश्चात अपनी कुछ अत्यधिक व्यस्तता के चलते मैं समिति को पूरा समय नहीं दे सका और पांडेय जी से क्षमायाचना करते हुए सचिव पद छोड़ दिया।

    यहां मैं बड़ी विनम्रता के साथ एक बात और कहना चाहूंगा कि जीवन की साठ से अधिक सीढ़ियां चढ़ने के बाद भी पाँडेय जी को थकन नाम के किसी शब्द ने छुआ तक नहीं था। उनमें ग़ज़ब की लगन और इच्छाशक्ति थी। उनके प्रति मन इसलिए भी नतमस्तक हो उठता है कि वह न तो कवि थे, न कहानीकार और न ही हिंदी की किसी अन्य लेखन विधा से संबद्ध, इसके बावजूद हिंदी के प्रति उन्हें हृदय की गहराइयों के साथ लगाव था। हिंदी उनके लिए ‘मातृभाषा’ थी, ‘मात्र भाषा’ नहीं। पांडेय जी का हिंदी प्रेम उन ‘फ़ैशनेबुल’ और ‘दिखावापसंद’ लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो रोटी तो हिंदी की खाते हैं और गुणगान दूसरी भाषाओं का करते हैं।

    काश, पांडेय जी की तरह देश का हर व्यक्ति मातृभाषा से प्यार करे, तो किसी भी भाषा की हिम्मत नहीं कि हिंदी को उसके सिंहासन से उतारने का प्रयास कर सके।

  यद्यपि पांडेय जी ने 06 नवंबर, 2002 को हमारा साथ छोड़कर उस दुनिया में अपना आशियाना बना लिया, जहां देर-सबेर सभी को पहुंचना है। हालांकि उनकी याद किसे विह्नल नहीं कर देती। आज भी मन कह उठता है- ‘...... ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना।’ पांडेय जी की प्रेरणा आज भी हमें ऊर्जावान बनाए हुए है।

✍️ डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़'
 सी-130, हिमगिरि कालोनी
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मोबाइल नंबर  99273 76877