शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का संस्मरणात्मक आलेख ----" सात्विक विचारों की खुशबू बिखेरते थे रामपुर के प्रखर चिंतक प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल"


 वर्ष 1986 में प्रकाशित मेरी पुस्तक "रामपुर के रत्न" में जिन 14 महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखा गया था ,उसमें एक नाम प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल जी (जन्म 16 सितंबर 1917 -  मृत्यु 29 मार्च 2014) का भी था । साहित्यकारों में आप शीर्ष पर विराजमान थे तथा एक बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में आपकी प्रतिष्ठा थी। आपके विचारपूर्ण लेख ,कहानियाँ और कभी - कभी व्यंग्य ,हिंदी साप्ताहिक सहकारी युग में प्रकाशित होते रहते थे । इनके विशेषांकों का एक आकर्षण आपकी लेखन सामग्री भी रहता था । सहकारी युग के संपादक श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी की प्रेस में आपका प्रायः उठना- बैठना रहता था तथा महेंद्र जी आपका उल्लेख बहुत आदर के साथ करते थे । मेरा घर तथा प्रोफेसर साहब का घर पास - पास था अर्थात ज्यादा दूर नहीं था। जब से मैंने होश संभाला प्रोफेसर साहब की साधुता का जिक्र अपने पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ से सुनता रहता था। फिर धीरे-धीरे एक लेखक के रूप में मेरा परिचय प्रोफेसर साहब को तथा प्रोफ़ेसर साहब का परिचय मुझे गहराई से मिलने लगा।

                इसी बीच मुझे आपने श्री सतीश जमाली द्वारा प्रकाशित एक कहानी संग्रह "26 नए कहानीकार"  जो कि ममता प्रकाशन , इलाहाबाद द्वारा  अक्टूबर 1976 में प्रकाशित हुआ था ,भेंट किया ,जिसमें भारत के प्रसिद्ध कहानीकारों के साथ-साथ आपकी कहानी "अधूरा"  पृष्ठ 108 से पृष्ठ 119 तक  अंकित थी, भी प्रकाशित थी । कहानी क्या थी, भावनाओं का मानों झरना ही बह उठा हो । न केवल विविध गतिविधियों तथा एक-एक घटनाक्रम का विस्तार से वर्णन करना आप की कहानी -कला की विशेषता थी ,अपितु मनोवैज्ञानिक रूप से पात्रों का अंतर्मन कहानी में खोल कर रख देना इसका हुनर भी आपको आता था । इसलिए पात्र कहीं दूर के नहीं जान पड़ते थे । उनसे पाठक की आत्मीयता स्थापित हो जाती थी । आप की कहानी पढ़कर मुझे हमेशा यही लगा कि यह पात्र तो सचमुच हमारे आस-पास ही बिखरे हुए हैं। बस हम उनके हृदय की भावनाओं के ज्वार को पकड़ नहीं पाते हैं । 

          प्रोफेसर साहब ने उन्हीं दिनों अपना पहला उपन्यास (1976 में प्रकाशित )"जीवन के मोड़" भी मुझे भेंट किया था तथा यह भी एक प्रकार से उनके स्वयं के जीवन का पूर्वार्ध ही था । जिस तपस्वी भाव से उन्होंने जीवन जिया ,वैसा ही शांत और अनासक्त लेखन उनके साहित्य में प्रकट हो रहा था । वह मनुष्य को उदार और उच्च भाव भूमि पर स्थापित करने वाला साहित्य था । प्रेम की परिभाषा उन्होंने स्वयं ही शायद कहीं वर्णित की है कि प्रेम बलिदान चाहता है और प्रेम में कोई लेन-देन नहीं रहता ।

         एक और उपन्यास उनके जीवन के उत्तरार्ध में प्रकाशित हुआ । इसका नाम "राहें टटोलते पाँव" था, जो 1998 में  प्रकाशित हुआ ।

         फिर 2006 में उनका कहानी संग्रह  "एहसास के दायरे" प्रकाशित हुआ  और इस प्रकार उनकी बिखरी हुई कहानियों को  एक जिल्द में  पढ़ने का अवसर मिला ।

          उनकी लेखन क्षमताओं की निरंतरता का पता इस बात से हमें चलता है कि उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दशक में अपनी आत्मकथा इस प्रकार से लिखी कि वह एक कहानी भी कही जा सकती है ,एक उपन्यास भी कहा जा सकता है तथा अपनी पोती के प्रति उनके वात्सल्य भाव का उपहार भी उसे हम कह सकते हैं । प्रोफेसर साहब ने इस लेखन को ''एक पारिवारिक कथा" का नाम दिया । "अनुभूतियाँ" नामक यह पुस्तक  प्रोफेसर साहब ने मुझे  15 - 7 - 2009 को   सस्नेह भेंट की थी  । जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तब उन्होंने कहा कि मेरा पोता भी कह रहा है कि तुमने पोती के बारे में तो लिख दिया ,लेकिन पोते के बारे में नहीं लिखा । तब मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे बारे में भी एक किताब लिखूँगा। बात आई - गई हो गई थी लेकिन प्रोफेसर साहब ने सचमुच कुछ ही समय बाद अपनी "आत्मकथा" _अर्थात_ "एक पारिवारिक कथा"  को विस्तार दिया और पोते को रचना के केंद्र में रखकर एक पुस्तक लिख डाली ।  यह उनकी लिखने की निरंतरता का प्रमाण था। 

         प्रोफेसर साहब  खुले विचारों वाले व्यक्ति थे।  रूढ़िवादिता से मुक्त थे । आपके जीवन में  किसी भी प्रकार की कट्टरता  अथवा  विचारों की संकीर्णता का  लेश - मात्र भी अंश नहीं था। आप मनुष्यता के उपासक थे  । सर्वधर्म समभाव  आपकी जीवनशैली थी  । वसुधैव कुटुंबकम् आपका आदर्श था।  भारतीय संस्कृति में  जो ऊँचे दर्जे की  चरित्र तथा नैतिकता की बातें कही गई हैं  , वह सब  आपने अपने जीवन में इस प्रकार से आत्मसात कर ली थीं  कि वह  आपके व्यवहार में  ऐसी घुलमिल गई थी  कि कभी भी अलग नहीं हो सकीं। आप भारत और भारतीयता के सच्चे प्रतिनिधि  तथा प्रतीक कहे जा सकते हैं ।

         रामपुर के सार्वजनिक जीवन में  सात्विक विचारों की खुशबू बिखेरने वाले आप एक महापुरुष थे। प्रोफेसर साहब न केवल एक अच्छे लेखक थे बल्कि एक अच्छे वक्ता भी थे । आप चिंतनशील व्यक्तित्व होने के कारण जो भाषण देते थे ,उसमें वैचारिकता का पुट प्रभावशाली रूप से उपस्थित रहता था । इसलिए जो लोग विचारों को सुनने के लिए श्रोता- समूह में उपस्थित होते थे ,उन्हें न केवल आनंद आता था बल्कि वह लाभान्वित भी होते थे । यद्यपि कुछ लोग जो केवल मनोरंजन की दृष्टि से ही कार्यक्रमों में उपस्थित होते थे, उन्हें जरूर कुछ शुष्कता महसूस होती रही होगी। मेरा यह सौभाग्य रहा कि मुझे अनेक बार प्रोफेसर साहब को अपने कार्यक्रमों में मंच पर आसीन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तथा उनकी अध्यक्षता में जो कार्यक्रम हुए ,वह एक शानदार और यादगार कार्यक्रम के रूप में जाने जाएँगे । 

      अक्टूबर 2008 में प्रोफेसर साहब का नाम हमने "रामप्रकाश सर्राफ लोक शिक्षा पुरस्कार" के लिए चुना और उनको पुरस्कृत किया । प्रोफेसर साहब ने कृपा करके वह पुरस्कार ग्रहण किया और हमें और भी आभारी बना दिया ।इच्छा तो यह थी कि सौ वर्ष तक हम प्रोफेसर साहब को समारोहों की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित करते रहे और वह आते रहें तथा हम सब उनके कृपा- प्रसाद से लाभान्वित होते रहें। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। कुछ वर्ष पूर्व ही आकस्मिक रूप से वह इस संसार से सदा के लिए चले गए ।

       प्रोफेसर साहब के निवास पर  अनौपचारिक रूप से  विचार गोष्ठियाँ चलती रहती थीं।  इनमें  डॉ ऋषि कुमार चतुर्वेदी जी , श्री महेश राही जी  तथा श्री भोलानाथ गुप्त जी का नाम  विशेष रूप से लिया जा सकता है  । एक बार  प्रोफ़ेसर साहब ने  मुझसे भी कहा था कि मैं  आ जाया करूँ।  यद्यपि मेरा जाना कभी नहीं हुआ । प्रोफेसर साहब नहीं रहे लेकिन उनकी मधुर स्मृतियाँ तथा प्रेरणाएँ सदैव जीवित रहेंगी। प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल जी की पावन स्मृति को शत-शत नमन ।

      अंत में प्रोफेसर साहब के पत्र - साहित्य में से एक पत्र उद्धृत करना अनुचित न होगा । यह 9 अक्टूबर 1997 को प्रोफ़ेसर साहब का लिखित पत्र है जो उन्होंने मेरे प्रकाशित उपन्यास "जीवन यात्रा" के संबंध में मुझे प्रोत्साहित करने के लिए लिखा था । पत्र इस प्रकार है :-

                       *दिनांक 9 - 10  - 97* 

   प्रिय रवि प्रकाश जी

                      नमस्कार। आपका उपन्यास जीवन यात्रा पढ़ा। काफी बँधा रहा । वैसे मध्य में अधिक रोचक है । समाज तो महज एक अवधारणा है अर्थात "ओन्ली ए कंसेप्ट"। वास्तव में यह व्यक्ति हैं जो सामाजिक जीवन का रिश्तों से ताना-बाना बुनते हैं । यदि व्यक्ति बुरे हैं तो समाज अच्छा हो ही नहीं सकता । किंतु व्यक्ति असंख्य हैं जो बिखरे पड़े हैं । फिर परेशानी यह है कि जिस विशाल जनसमूह से समाज बनता है उसमें अधिकांश वे हैं जिन्हें हम दैनिक बोलचाल में "आम आदमी" कहते हैं अर्थात जिनमें बुद्धि साधारण और अंधानुकरण अधिक है । जो चल पड़ा वह चल पड़ा । फिर इस पुरुष प्रधान समाज में धर्म भी पक्षपात पूर्ण रहा है । संकीर्ण चिंतन और राग - द्वेष विवेक को इतना अपंग कर देते हैं कि इंसान जिस डाल पर बैठा है उसी को काटने लगता है । इस उपन्यास का राहुल ऐसे ही समाज से टक्कर लेने में जुट जाता है किंतु हर जगह असफलता मिलती है । *एक चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता । तो सुधार के लिए जन - आंदोलन का रूप देना होता है ।* यही महापुरुषों ने किया है । यही महात्मा गांधी ने भी किया था।

        मैं चाहता हूँ आपका यह उपन्यास जन-जन के हाथों में पहुँचे और वे इस को पढ़ें । यह भी एक प्रकार का जन - आंदोलन ही होगा । मैं जानता हूँ अधिकांश साहित्य विशेष रूप से कहानी और उपन्यास विधाएं मनोरंजन का माध्यम अधिक मानी जाती रही हैं किंतु प्रस्तुत उपन्यास में कहीं व्यक्त आपके इस मत से सहमत हूँ कि कुछ न कुछ विचार - तरंगे अवचेतन में जाकर जरूर बैठती हैं जो व्यक्ति को जाने-अनजाने प्रभावित करती रहती हैं ।

         साहित्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष शिल्प भी है । कथ्य तो एक संवेदनशील मन में अपने आप रूप ले लेता है किंतु शिल्प श्रम -  साध्य है । सतत अभ्यास और साहित्यिक शिल्पियों की उच्च कृतियों के अध्ययन - मनन से इसमें निखार आ सकता है। इस उपन्यास के लिए बधाई।

                       ईश्वर शरण सिंहल



✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

रामपुर 

(उत्तर प्रदेश) 

 _मोबाइल 99976 15451_

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