बात उन दिनों की है जब मैं बी ए करने के बाद राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, रामपुर( उ०प्र०) से हिन्दी आशुलिपिक का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भी खाली हाथ था । हालांकि वर्ष 1974 के समय सरकारी विभागों में भी हिन्दी आशुलिपिकों के पद न के बराबर ही थे पर भविष्य में इन पदों के सृजित होने की प्रबल आशा थी ।
मैं साक्षात्कार की तैयारी कर रहा था । जेब खर्च निकालने और स्वयं को व्यस्त रखने के लिए मैंने 'अंँग्रेजी माध्यम' के रामपुर में एकमात्र 'सेंटमैरी कान्वेंट' स्कूल के बच्चों को घर पर जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ।
तभी मेरे घनिष्ठ मित्र स्मृति शेष श्री दिलीप कुमार शर्मा जी ने मुझसे कहा - 'टैगोर शिशु निकेतन में विज्ञान के आचार्य की आवश्यकता है । वहां के प्रधानाचार्य मेरे परिचित हैं। उनका भी काम हो जायेगा और तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा।'
मैंने सोचा - 'खाली से बेगार भली' और वहां विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिया ।
विद्यालय का वातावरण और युवक-युवती आचार्य सभी बहुत भले थे । वहां पर मेरा परिचय श्री हीरालाल किरण जी से प्रत्यक्ष हुआ । इससे पहले मैं उन्हें केवल समाचार-पत्रों में ही उनकी रचनाओं के साथ पढ़ता रहता था । बहुत साधारण व्यक्तित्तव , मधुर वाणी वाले ज्ञान के भंडार हिन्दी के ध्वज को रामपुर में लहरा रहे थे ।
बचपन से मुझे कविता पढ़ने का बहुत शौक था । मन करता था कि मैं भी लिखूं । भावों को कलम से कागज पर उकेर दूं ।मन नहीं माना और स्नातक करते समय ही भावों को कागज पर चीतना शुरू कर दिया था।
मेरे लिए श्री हीरालाल किरण जी का सानिध्य ऐसा था कि जैसे मेरी सभी समस्याओं का हल मिल गया हो । विद्यालय में ही भोजनावकाश में मैं उनसे कविता पर चर्चा करता तो वह बहुत प्रसन्न होते थे । मेरे अंदर दबे हुए कविता के अंकुरों को प्रस्फुटित करने में वह मुझे निस्वार्थभाव से प्रोत्साहित करने लगे ।
मैं लिखकर लाता और दिखाता तो कहते - 'अभी ऐसे ही लिखो । अच्छे भाव हैं । बस तुकान्त पर ध्यान दो ।'
मैं अपने लिखे की प्रशंसा पाकर फूला न समाता। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि तुकांत क्या और कैसे प्रयोग करते हैं।बस अतुकान्त लिखता पर मन यही कहता कि जो बात कविता में होती है,वह नहीं आ रही है। मैं अपने मनोभाव श्री हीरालाल किरण जी से कहता तो वह यही कहकर प्रोत्साहित कर देते कि -'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' । पहले तुकांत मिलाना सीखो । चार-चार की पंक्तियों में रचना रचो । मगर उन्होंने कभी हतोत्साहित नहीं किया ।
श्री हीरालाल किरण जी मेरी प्रथम पाठशाला थे । तब से मैं अतुकान्त रचनाऐं लिखने लगा ।
इसी मध्य मेरी नियुक्ति ज़िला एवं सत्र न्यायालय, रामपुर में हो गयी मगर मैं उनसे जुड़ा रहा ।
आर्य समाज मंदिर, रामपुर में 'विज्ञान कार्यशाला' के आयोजन में श्री हीरालाल किरण जी ने मुझे भी निमंत्रित कर विज्ञान से संबंधित बाल रचाऐं रचने के लिए सभी रचनाकारों को प्रशिक्षण दिया गया।
न्यायालय की नौकरी में कार्य की अधिकता के कारण समय नहीं मिल पाता था कि मैं काव्य गोष्ठियों में जा पाऊंँ । मगर कलम निरन्तर चलती रही। विभाग में समस्त न्यायिक अधिकारियों और स्टाफ की उपस्थिति में मैं राष्ट्रीय पर्वों पर स्वरचित रचनाऐं प्रस्तुत करता तो वहां भी भूरि-भूरि प्रशंसा पाकर मन गदगद हो जाता । मगर मैं श्री हीरालाल किरण जी को ही मन-ही-मन धन्यवाद देता कि यदि वह मुझे उत्साहित नहीं करते और कविता के व्याकरण व मात्राओं के मकड़जाल में फंँसा कर उलझा देते तो संभवतः कलम आगे नहीं चल सकती थी ।
श्री हीरालाल किरण जी के व्यवहार और मार्गदर्शन को मैं कभी नहीं भुला सकता ।
✍️ राम किशोर वर्मा
रामपुर
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