मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की संस्था "प्रगति मंगला" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा

   
           एटा के वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस द्वारा वाट्स एप पर गठित साहित्यिक समूह " प्रगति मंगला " की ओर से प्रत्येक  शनिवार को "साहित्य के आलोक स्तम्भ" शीर्षक से देश के प्रख्यात दिवंगत साहित्यकारों   के व्यक्तित्व और कृतित्व पर  साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया जाता है । इसी श्रृंखला में शनिवार 29 अगस्त 2020 को हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार हुल्लड़ मुरादाबादी पर ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया गया। मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी के संयोजन में हुए इस आयोजन की अध्यक्षता आचार्य डॉ प्रेमी राम मिश्र ने की । पटल प्रशासक नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा उदघाटन व दीप प्रज्ज्वलन के  साथ कार्यक्रम का आरम्भ हुआ।
  स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी  का विस्तृत जीवन परिचय, साहित्यिक योगदान और उनकी रचनाएं प्रस्तुत करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब हुल्लड़ मुरादाबादी  अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।
एटा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं जे एल एन कालेज के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ प्रेमी राम मिश्र ने कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादजी का नाम स्मरण होते ही चेहरे पर  मुस्कुराहट आ जाती है -जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले !कौन जानता था कि श्रीसरदारी लाल चड्ढा, बर्तन व्यापारी का लाड़ला पुत्र सुशील कुमार चड्ढा एक दिन हुल्लड़ मुरादाबादी बनकर मुरादाबाद की शान बन जाएगा! 29 मई 1942 में गुजरांवाला पाकिस्तान में जन्मे हुल्लड़ जी यहां आकर मुरादाबादी संस्कारों में रस बस गए थे। यहीं उन्होंने एम ए हिंदी तक की शिक्षा ग्रहण की। धन्य है पारकर इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास जी ,जिन्होंने अपनी साहित्य और संगीत कला से सुशील कुमार चड्ढा को तराश कर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान बनाने में मार्गदर्शन दिया।संत कबीर ने उचित कहा है- गुरु ज्ञाता परजापति गढले कुंभ अनूप। हुल्लड़ जी ने इस कथन को चरितार्थ करा दिया। वर्ष 1962 के लालकिला कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि  रामधारी सिंह दिनकर जी की अध्यक्षता में उन्होंने ओज और राष्ट्रीय चेतना की रस वर्षा कर जो प्रशंसा अर्जित की थी ,उसके बाद कौन सोच सकता था कि वह हास्य रस की कविता के शिखर पुरुष बन जाएंगे! उनकी जुझारू मनोवृत्ति और बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें फिल्म जगत में सम्मान प्रदान कराने में योगदान दिया था। अपनी प्रतिभा के बल पर वे अनेक फिल्मों में गीत लेखन और अभिनय के द्वारा चर्चित हुए ।उनमें  अभिनय के संस्कार  तो  विद्यार्थी जीवन में ही पल्लवित  और पुष्पित हो गए थे ,जहां उन्होंने  अनेक नाटकों में  नायक की भूमिका  में भूरि भूरि प्रशंसा  प्राप्त की थी।  फिल्म जगत के सियाह पक्ष से समझौता न कर पाने के कारण वे पुनः मुरादाबाद आ गए और फिर से अपनी कवि सम्मेलनों की यात्रा पर उत्तरोत्तर आरूढ़ होते चले गये। आगे चलकर उनका नाम  कवि सम्मेलनों की प्रतिष्ठा और सफलता का पर्याय बन गया । भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में हास्य रस को एक सुखात्मक रस कहा है ।उनके अनुसार इसकी उत्पत्ति श्रृंगार रस से हुई है। साहचर्य भाव से हास्य रस श्रृंगार ,वीर, अद्भुत, करुण आदि  रसों का भी  पोषक है ।आपकी कविताओं ने इस सत्य का प्रमाण प्रस्तुत किया है।     हिंदी साहित्य में हास्य रस का शुभारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से हो गया था।उन्होंने हास्य रस पर पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। यह परंपरा निरंतर गतिशील है ।हुल्लड़जी की हास्य रस की श्रेष्ठता का यह प्रमाण है कि साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उनकी रचनाओं को विशेष स्थान प्राप्त होता था। उनके 10 से अधिक कविता संग्रह अनेक सीडी, कैसेट आदि आज भी देश विदेश में लोगों को गुदगुदाती रहती हैं ।
समूह के संस्थापक वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस ने कहा कि वह भी क्या जमाना था जब मंच पर चार नाम हास्य व्यंग्य और फुलझड़ियों के लिए कवि सम्मेलनी श्रोताओं के दिल और दिमाग में छाये रहते थे। काका हाथरसी,बाबा निर्भय हाथरसी,शैल चतुर्वेदी और हुल्लड़ मुरादाबादी। हुल्लड़ जी के सानिध्य में मंच साझा करने का अवसर तो मुझे नसीब नहीं हुआ लेकिन एटा प्रदर्शनी के कवि सम्मेलनों में श्रोता की हैसियत से बहुत बार सुना। एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में बहुत पढ़ा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान का होली विशेषांक तो हुल्लड़ जी के बिना पूरा होता ही नहीं था। मंच पर बोलते हुल्लड़ कवि की छवि आज भी जहन में जिन्दा है।
बदायूं के वरिष्ठ कवि उमाशंकर राही ने कहा कि स्वस्थ हास्य के सिद्धहस्त अंतरराष्ट्रीय कवि हुल्लड़ मुरादाबादी जी एक ऐसा व्यक्तित्व थे  जो लोगों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । गोरा चिट्टा बदन, चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट, जिससे भी मिलते थे खुले दिल से मिलते थे कविताओं में भी उनके व्यवहार की झलक दिखलाई देती थी मुझे भी उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है उनकी आत्मीयता उनका आत्मीय व्यवहार सदैव स्मरणीय रहने वाला रहता था । आदरणीय डॉ उर्मिलेश शंखधार, डॉ विजेंद्र अवस्थी जी उनको बदायूं में होने वाले कवि सम्मेलन पर बुलाते थे । पूज्य गुरुदेव डॉ बृजेंद्र अवस्थी जी को वह अपना गुरु मानते थे । वह अनेक बार उनके घर भी आए । मेरी भी वहां अक्सर उनसे मुलाकात होती थी । उनसे बात करके मन प्रसन्न हो जाता था । ऐसे व्यक्तित्व को भला कैसे भुलाया जा सकता है। हुल्लड़ जी को मैंने सुना तो अनेक बार था लेकिन उनको पढ़ने का अवसर प्रथम बार मिला है ।
नई दिल्ली की कवियत्री आशा दिनकर आस ने कहा कि  उनके व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में खूब पढ़े हैं । उनकी रचनाएं इतनी कुशलतापूर्वक और आम भाषा में रची हुई होती थी कि आम आदमी को भी वह अपनी जैसी बात लगती है, ये है हुल्लड़ मुरादाबादी जी के लेखनी का जादू जो सबके सर चढ़कर बोलता है | तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था | यही कारण है उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं से खूब धूम मचायी । मैं भी हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानती थी लेकिन जब ये जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी खूब लिखीं हैं तो उन्हें पढ़कर जानने की जिज्ञासा हुई कि उनका गजलकार वाला अवतार कैसा होगा । उनकी ग़ज़लों को कम आंकना हमारी भूल होगी सरल कहना और सहज लिखना केवल हुल्लड़ मुरादाबादी जी ही कर सकते हैं  सरलता और सहज लेखन के कारण ही हुल्लड़ मुरादाबादी जी जन-जन में मशहूर हुए । उनकी रचना एक अनपढ़ आदमी और गैर साहित्यिक पारखी आदमी को भी भली प्रकार समझ में आती है | सबकी बात को अपनी कलम से पन्नों पर उतार देना एक अद्भुत स्मरणीय सृजन है ।
कानपुर के साहित्यकार जयराम जय  ने कहा कि
हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य रसावतार थे। मैंने देखा है वह जिस मंच पर होते थे वहां उनको सुनने के लिए लोग प्रतीक्षा में सुबह तक बैठे रहते थे। हुल्लड़ मुरादाबादी साहब की हास्य व्यंग की रचनाएं सीधे लोगों के दिलों तक उतरती थी और लोग आनंद लेकर ठहाके लगाते थे ।उनके कविता   पढ़ने का अंदाज अलहदा था। वह अपनी प्रस्तुति बड़े ही नाटकीय शैली में देते थे जिससे वह और प्रभावी हो जाते थे । हुल्लड़ मुरादाबादी कभी हूट नहीं हुए। वह हास्य व्यंग्य की रचनाओं के अतिरिक्त  गीत और कविता की अन्य विधाओं पर भी अपनी कलम चलाने में सफल रहे हैं ।
कवियत्री नूपुर राही (कानपुर) ने कहा कि हुल्लड़  जी मेरे पिता  पं.देवीप्रसाद राही जी के परममित्र थे ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए। पिता जी अक्सर उनको कानपुर अपने संयोजन में होने वाले कवि सम्मेलनों में बुलाते थे और वह हमारे घर पर ही ठहरते थे। ज्यादातर लोग हुल्लड़ जी को हास्य कवि समझते हैं , पर उनकी ग़ज़लें और कुन्डलियां कमाल की होती थी। जब हुल्लड़ जी घर में आते थे उस समय मैं बहुत ही छोटी थी पर मुझे उनकी एक कविता आज तक याद है जो कुछ इस तरह थी "एक टूटी खाट और हम पाँच"।
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि बचपन से ही टी.वी.में कवि सम्मेलन आने पर उसे तल्लीनता से देखने वाली घर भर में मैं अकेली दर्शक होती थी।पर टीवी पर हुल्लड़ जी के आने पर दर्शकों की संख्या बढ़ जाती थी,जिसमें मेरे डैडी भी होते।तब शायद मैं मुरादाबाद से भी परिचित नहीं थी लेकिन तब कहाँ पता था कि हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे जिस कवि को हम इतने चाव से सुन रहे हैं,कभी उनके ही मुरादाबाद में बसना होगा । हुल्लड़ जी को सुनना,पढ़ना चेहरे पर मुस्कान ला देता था,लेकिन यह हास्य फूहड़ नहीं था और न ही केवल मनोरंजन मात्र।वे समाज की विद्रुपताओं को हास्य की कोटिंग में लपेटकर इस तरह पेश करते कि जब यह कोटिंग उतरती तो  विद्रुपताओं का नग्न स्वरूप मस्तिष्क को कचोटने लगे और हम सोचने को मजबूर हों।वे निश्चित ही हास्य व्यंग्य के बड़े रचनाकार थे और उनके द्वारा प्रयुक्त हर विधा में हास्य व्यंग्य का पुट यत्र तत्र मिल ही जाता है।
जयपुर के वरिष्ठ साहित्यकार वरुण चतुर्वेदी ने अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा बात  सन् १९६८ की है। उस समय मैं १८ वर्षीय आयु का कालेज विद्यार्थी हुआ करता था। यह बात भरतपुर में प्रतिवर्ष दशहरे पर लगने वाले जशवंत प्रदर्शनी के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की है जिसमें भरतपुर के केवल तीन कवियों को काव्यपाठ का अवसर दिया गया था जिनमें स्व.धनेश 'फक्कड़',स्व.मूल चंद्र 'नदान' और मैं मंच पर उपस्थित थे। उस कवि सम्मेलन की टीम में देश के सिरमौर गीतकारों व सिरमौर हास्य-व्यंग्य कवियों का जमघट था।गीतकारों‌ में, स्व.नीरज जी,स्व.शिशु पाल निर्धन जी, आदरणीय बड़े भाई सोम जी, हास्य-व्यंग्य कवियों में स्व.काका हाथरसी जी, स्व.निर्भय हाथरसी जी, जैमिनी हरियाणवी जी,स्व.अल्हड़ बीकानेरी जी,स्व. मुकुट बिहारी 'सरोज' जी, स्व.विश्वनाथ विमलेश जी,स्व. हुल्लड़ मुरादाबादी जी व वीर रस के कवियों में स्व.देव राज दिनेश जी,स्व.राजेश दीक्षित जी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन सुविख्यात मंच संचालक स्व.बंकट बिहारी जी पागल कर रहे थे।कवि सम्मेलन निरंतर यौवन की ओर बढ़ रहा था। जब स्व. हुल्लड़ जी को काव्यपाठ के लिए बुलाया गया तो उनका नाम सुनते ही‌ करीब २५/३० हजार श्रोताओं ने तालियों से जो स्वागत किया वह अविस्मरणीय है।तत्पश्चात उनके काव्यपाठ का जादू मैंने मंचस्थ कवि के रूप में देखा वह अद्भुत था। हुल्लड़ जी से सान्निध्य का यह पहला अवसर था।चूँकि वह हास्य-व्यंग्य के कवि थे और मैं भी हास्य-व्यंग्य की पैरौडियाँ लेकर मंच पर आया था तो उनके साथ कितने कवि सम्मेलन शेयर किये यह अब याद नहीं।
सब टी वी के बहुत खूब और वाह वाह क्या बात है ‌सैट‌ पर भी मिलना भी होता रहता था।
उनके जीवन काल में ही‌ उनके सुपुत्र स्व.नवनीत ने भी हास्य कवियों में अच्छा स्थान बना लिया था। लेकिन क्रूर काल ने उसे अल्पायु में ही ग्रस लिया।
उसके साथ किया मथुरा का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आज भी स्मृतियों में घूमता है।उस कवि सम्मेलन के करीब एक महीने बाद ही उसका स्वर्गवास हो गया था।
हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मैं , सन् १९७० में ही अपनी मित्र मंडली के साथ हुल्लड़ जी के संपर्क में आ गया था।श्रद्धावनत उनके प्रति यही कह सकता हूं कि यदि सुशील कुमार चड्ढा हुल्लड़ मुरादाबादी न हुए होते तो कारेन्द्र देव त्यागी मक्खन मुरादाबादी न हुआ होता। हुल्लड़ जी को जीने के लिए प्रसिद्धि का चरम मिला है साथ ही इसी दुनिया में पीने के लिए वह भी,जो उन्हें नहीं मिलना चाहिए ।
आगरा की ऋचा गुप्ता नीर ने कहा कि कवि सम्मेलन के बड़े कवि मंच पर वही सुनाते हैं जो श्रोता सुनना चाहता है। इससे उनकी मूल रचनाओं से श्रोता वंचित रह जाता है। धन्यवाद प्रगति मंगला परिवार जो ऐसे कवियों से परिचित कराता है जिनकी रचनाओं से हम अब तक वंचित रहे हैं। हुल्लड़ जी के व्यंग्य, कुन्डलियां, गजलें पढ़ कर बहुत कुछ ज्ञान लाभ हुआ।         
मुरादाबाद के युवा ग़ज़लकार जिया जमीर ने कहा कि मैं  हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानता था। मगर जब जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी कहीं हैं तो उन्हें पढ़ा। दो चार जगहों को छोड़ कर उन ग़ज़लों में कहीं भी कोई कमी नहीं है, अगर व्याकरण की बात की जाए। हैरत होती है कि क्या आसान ज़बान, क्या आम बोलचाल की हिंदुस्तानी ज़बान का इस्तेमाल हुल्लड़ जी ने अपने यहां किया है। अगर कोई यह देखना चाहिए और सवाल पूछना चाहे कि हुल्लड़ मुरादाबादी इतने मशहूर क्यों हुए। तो उसका सबसे अच्छा जवाब उनकी ग़ज़लें हैं और ग़ज़लों की यह ज़बान है। बिल्कुल सामने के बोलचाल वाले बल्कि कहना चाहिए जिन्हें हम साहित्यकार गैर साहित्यिक अल्फ़ाज़ कहते हैं उनको उठा कर उन्होंने साहित्यिक अल्फ़ाज़ बना दिया। उनके मक़बूले-आमो-ख़ास होने की सबसे बड़ी वजह मुझे लग रही है कि उनकी साहित्य और व्यंग पर पकड़ तो थी ही, इसके अलावा उन्होंने जितनी सादा ज़बान में उन्होंने अपने एहसासात को शायरी और कविता बनाया, वो कमाल किया। यह बड़ा मुश्किल काम है। सड़क पर चलने वाला एक आम आदमी जिसे सिर्फ़ आम ज़बान आती है उस तक उनकी रचनाएं पहुंचती थीं और वह आनंदित होता था और उसका आनंद तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था। यही सबब है कि उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं और रचनाओं से धूम मचायी।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि हुल्लड़ जी की रचनाएं पढ़ने के बाद अंदाजा होता है कि हुल्लड़ जी की मकबूलियत का राज उनकी भाषा में छिपा हुआ है। उन्होंने आम आदमी के दुख दर्द को समझा और उसी की भाषा में पेश करके यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
उनकी रचनाएं बताती है कि उन्होंने बड़ा बनने के लिए शायरी नहीं की बल्कि उन्होंने बुनियाद के उन पत्थरों को देखा जिस पर समाज की नींव टिकी होती है, उनकी पीड़ा को समझा जो समाज के कर्णधार होते हैं, उन्होंने समाज को हर दृष्टि से देखा समझा और उसे आत्मसात किया फिर उन तमाम कड़वाहटों को हास्य व्यंग की चाशनी लगाकर पेश किया क्योंकि उनकी शायरी बामकसद थी, सिर्फ हंसना हंसाना , व्यंग के तीर चला ना ही उनका मकसद नहीं था बल्कि समाज को सही दिशा देना भी उनका मकसद था। अतः जो बात उन्होंने कही वह दिल से कही लिहाजा दिलों तक पहुंची, जिस दिल तक भी पहुंची उस दिल में उनके लिए घर बनता चला गया और वह हर दिल की आवाज बन गए। उन्होंने समाज को एक सही दिशा में ले जाने का काम किया जो एक सच्चे साहित्यकार की पहचान है। अतः वह अपने इस कार्य के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे,जब जब हास्य व्यंग का इतिहास लिखा जाएगा वह उसमें अवश्य ही जगह पाएंगे।
मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा कि आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी का मुझे बहुत स्नेह मिला। बात 1990-91 की है। मैं अमर उजाला में सर्विस करता था। ड्यूटी रात की होती थी, दोपहर में फ़्री होता था। उस समय हुल्लड़ जी का मकान बन रहा था। मोबाइल तो उस समय थे नहीं। शाम के समय अमर उजाला में ही हुल्लड़ जी का फोन मेरे पास पहुंच जाता था- "नाज़ भाई, कल हमारी तरफ़ आइएगा। मैं पहुंचता था और घंटों तक साहित्य पर चर्चा होती रहती थी। हुल्लड़ जी का सान्निध्य मुझे लगातार मिला। एक-दूसरे की रचनाएं सुनते-सुनाते रहते थे। उस समय हुल्लड़ जी का ग़ज़ल लेखन आरंभ हुआ। बातचीत के दौरान उनसे ग़ज़ल पर चर्चा भी होती थी। मुझे उनसे सदैव बड़े भाई का प्यार मिला। मैं उनके पारिवारिक सदस्य की तरह था। हुल्लड़ जी मंच के स्टार थे। लोग उनको सुनने के लिए देर रात तक बैठे रहते थे। महानगर में विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों में वह मुझे अपने साथ ले जाते थे। मैं भी उस समय मुरादाबाद में नवागत था। हुल्लड़ जी मुझे बाहर भी कई कार्यक्रमों में अपने साथ ले गए। उनकी एक विशेषता मैंने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की। यह उनका प्यार ही था कि अन्य शहरों में आयोजित कार्यक्रमों में ले जाते समय भी वह मुझे ख़र्च नहीं करने देते थे। एक सुंदर घटना याद आ रही है। अक्टूबर 1992 में मेरे जुड़वां पुत्र पैदा हुए। उनमें जन्म के बाद ही एक बच्चा अत्यंत बीमार पड़ गया, तो मैंने उसे डॉक्टर वी.के. दत्त के क्लीनिक में भर्ती करा दिया। हुल्लड़ जी को पता चला तो वे क्लीनिक में आए, मुझसे मिले और ₹1000 मेरी जेब में डाल दिए। मैंने पूछा भाई साहब यह किसलिए, तो बोले कोई बात नहीं, बाद में मुझे लौटा देना। उसके बाद वह चले गए। तीन-चार दिन तक अस्पताल में रहने के बाद जब डिस्चार्ज होने के समय बिल बना तो वह बहुत मामूली था। दत्त जी जैसे महंगे डॉक्टर का बिल इतना कम देखकर मुझे हैरत हुई। मुझे लगा कि इसमें कुछ जोड़ने से शेष रह गया है। मैंने कंपाउंडर से कहा कि भाई पूरा बिल लेकर आइए। उसने कहा कि आपका पूरा बिल यही है। मैं जब डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो राज़ खुला। डॉक्टर साहब बोले कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी आए थे और आपके बारे में कह रहे थे कि यह मेरे छोटे भाई हैं, ख़याल रखना। तब मुझे समझ मे आया कि मेरा बिल इतना कम क्यों है।

 जयपुर की साहित्यकार डॉ सुशीला शील ने कहा कि
मैं 12 वीं कक्षा में पढ़ती थी,तब सुनी थीं उनकी कविताएं टेपरिकार्डर के माध्यम से अपने मामाजी के यहाँ ।नहीं मालुम था कि ईश्वर सौभाग्य देगा सुनाने वाले से न सिर्फ मिलने का,अपितु  उनके साथ बहुत से मंचों पर काव्य-पाठ करने का और उनके आमंत्रण पर मुरादाबाद में कविसम्मेलन पढ़ने का,उनके घर आतिथ्य प्राप्त करने का । मुझे पहली बार कहाँ मिले ये तो याद नहीं,परन्तु उनके स्नेहिल निमंत्रण पर मुरादाबाद उनके घर रुकना,जिसमें श्रद्धेय कृष्णबिहारी नूर जी ,सोम ठाकुर जी,कुँवर बैचैन जी,सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी,सुरेन्द्र सुकुमार भी थे। दोपहर का भोजन हुल्लड़ जी के घर में ही था । मैंने भी रसोईघर में सहयोग किया और सबने मिलकर भोजन का आनंद लिया । रात्रि में कविसम्मेलन बहुत शानदार रहा। उनकी बहुत सी कविताओं में से  एक प्रसिद्ध कविता थी- अच्छा है पर कभी-कभी
  निम्बाहेड़ा के कविसम्मेलन में उन्होंने यह कविता पढ़ी,तुरंत मेरा नाम पुकारा गया और मेरे आशु रचनाकार मन ने दो पंक्तियाँ सृजित कर हास्य के लिए सुनाईं-
  बहुत बार सुन ली ये कविता,अब तो नया सुनाओ जी
श्रोताओं से पंगा लेना अच्छा है पर कभी-कभी ।।
   हँसी के फुहार उठी और मैंने अपना वास्तविक काव्यपाठ के बाद मंच पर बैठकर उनसे क्षमा याचना की। बड़े सरलता से उन्होंने कहा-अरे कोई बात नहीं,ये तो चलता है,चलता रहना चाहिए पर मुझे अच्छी लगी तुम्हारी पँक्तियाँ,खूब लिखो और आगे बढ़ो ।
डॉ रंजना शर्मा, कोलकाता ने कहा कि पटल पर उनकी कविताएं पढ़ कर सचमुच आनंद से भर उठी । कई साल पहले घर में दो पत्रिकाएं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान आती थीं। हिंदी प्रदेश से बंगाल पिताजी के तबादले के कारण चले आने से पत्रिकाएँ  बमुश्किल मिलती थी। उनमें हुल्लड़ जी की कविता हम मजे लेकर पढ़ते थे, आपने पुरानी याद ताजी कर दी।
गुना( मध्य प्रदेश) की साहित्यकार नीलम कुलश्रेष्ठ ने कहा कि मुझे भी बस उन्हें टी वी कार्यक्रमों में सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने का ही अवसर मिला था। इस पटल पर उनकी रचनाएं एवं साहित्य कीर्ति को पढ़कर आज उनकी रचनाधर्मिता से खासा परिचय हो गया। उनकी रचनाएं वास्तव में ऐसी हैं जिन्हें लोग आज भी  सुनकर या पढ़ कर ठहाके लगाने पर विवश हो जाते हैं।
साहित्यकार  डॉ प्रतिभा प्रकाश , रोपड़ (पंजाब) ने प्रगति मंगला पटल की सराहना करते हुए कहा कि इस आयोजन के माध्यम से  मैंने आज पहली बार हुल्लड़ मुरादाबादी के बारे में गम्भीरता से सोचा समझा और जान सकी । इसके लिए मै सभी प्रस्तुति कर्ताओं का आभार व्यक्त करती हूं ।
जयपुर की साहित्यकार प्रशंसा श्रीवास्तव ने कहा कि हुल्लड़ जी मेरे पिता स्व० कवि बंकट बिहारी "पागल" जी के परममित्रों मे से एक थे , ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए।  उनके दोहे सुनकर श्रोता हंसते हंसते लोटपोट होने लगते थे। हुल्लड़ चाचा के कुछ ऐसे ही दोहों पर नजर डालिए-
कर्जा देता मित्र को वो मूरख कहलाय
महामूर्ख वो यार है
जो पैसे लौटाय
पुलिस पर व्यंग्य करते हुए लिखा है-
बिना जुर्म के पिटेगा
समझाया था तोय
पंगा लेकर पुलिस से
साबित बचा न कोय
उनका एक दोहा- पूर्ण सफलता के लिए, दो चीजें रख याद, मंत्री की चमचागिरी, पुलिस का आशीर्वाद।’ राजनीति पर उनकी कविता- ‘जिंदगी में मिल गया कुरसियों का प्यार है, अब तो पांच साल तक बहार ही बहार है, कब्र में है पांव पर, फिर भी पहलवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं...।’ उन्होंने कविताओं और शेरो शायरी को पैरोडियों में ऐसा पिरोया कि बड़ों से लेकर बच्चे तक उनकी कविताओं में डूबकर मस्ती में झूमते रहते थे ।
नोएडा की साहित्यकार
नेहा वैद का कहना था कि हुल्लड़ जी की लेखनी को एक साथ इतने रुपों में पढ़ना जानना, बड़ी सुखद अनुभूति है। चंदौसी की वार्षिक छपने वाली स्मारिका 'विनायक' में मेरे गीतों को भी छपने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। 1982-83 में इगलास में उनके साथ मंच पर होना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उनके सुपुत्र नवनीत जी के साथ कुछ वर्ष पहले जब मैं भी  मुंबई गोरेगांव ही रहती थी, स्थानीय मंचों पर कई बार गीत पढ़ें। आज आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी को समर्पित पटल सचमुच धन्य हो रहा है। आप सभी विद्वान-साहित्यकारों द्वारा संचालित/सांझा की जा रही उनकी रचनाओं और संस्मरणों से मन अभिभूत हो रहा है।
गुना (मध्य प्रदेश) की रानी शक्ति भटनागर ने अतीत की स्मृतियां साझा करते हुए कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी  उनके भाई श्री ज्ञान स्वरूप भटनागर जी की  के सहपाठी व मित्र रहे । उन्होंने उनके कॉलेज के समय का एक संस्मरण भी प्रस्तुत किया ।
हुल्लड़ मुरादाबादी जी की सुपुत्री मनीषा चड्डा ने कहा कि ऐसा कोई समय नही होता था कि पापा लिख न रहे हों।चाहे रात के 2 बजे हों अगर उन्हें कोई पंक्ति सूझ गयो तो उठ कर पूरी कविता पूरी करते थे।ट्रैन की टिकट हो या कोई रसीद जो जेब में होता था उसपर भी लिख देते थे।मंच पर बैठे बैठे भी उसी वक़्त कविता बना लेते थे। उनका जन्म ही लेखन के लिए हुआ था। उनका प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा था।अंत समय तक वो लिखते रहे और ज़िद करते थे कविसम्मेलन में जाने के लिए। घर में ठहाकों की गूंज होती थी उनकी और भैया की।वो हमारे बीच में अपनी अनगिनत कविताओं ,गीतों,और ग़ज़लों के रूप मे हमेशा जीवित रहेंगे।

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