:::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
:::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल 9456687822
हाल बुरा कर छोड़ा तन का।
पुरवाई भी डरी पड़ी है
आया देख, पसीना घन का।।
आग टिकी आकर पेड़ों पर
छाया लगे खौलता पानी।
भुनने में कुछ कसर नहीं है
ज्वर में सब मौसम विज्ञानी।।
स्वयं रगड़ से धधकी ज्वाला
हाल न देखा जाये वन का।
भाप हो गई कूप सम्पदा
संकट है पर्वत से भारी।
लड़ी नदी भी कुछ दिन लेकिन
लगी सूखने जब थक हारी।।
पी चोहे ने चिह्न न छोड़ा
धार नदी के धारीपन का।
पशुओं तक की पीठ हुई है
चूल्हे पर रक्खा गर्म तवा।
नहा गरम बालू में चिड़ियां
जब चलीं खोजने दबी दवा।।
बही पूरबा, पछुवा भागी
आओ, घन बरसाने मन का।
✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत, मोबाइल : 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com
वो सहरा में दरियाओं की कुछ तस्वीरें छोड़ गए
कच्ची नींदों से उकताए, अलसाए, झुँझलाए ख़्वाब
आँखों की दहलीज़ पे आए, कुछ ताबीरें छोड़ गए
रेगिस्तान में उठने वाले तेज़ बगूले क्या जानें
रेत के सीने पर कितनी ही वो तहरीरें छोड़ गए
घर आए कुछ मेहमानों का ऐसा भी बर्ताव रहा
दीवारों पर आड़ी-तिरछी चंद लकीरें छोड़ गए
ज़िंदाबाद मुहब्बत, तेरे दीवाने भी ज़िंदाबाद
ज़ात फ़ना कर बैठे अपनी और नज़ीरें छोड़ गए
रामचरितमानस, रामायण, भगवद्गीता, वेद, पुराण
अभिनंदन उन पुरखों का जो ये जागीरें छोड़ गए
✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'
सी-130, हिमगिरि कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.
मोबाइल नंबर 99273 76877
एक नमूना देखिए ये चारण राजा को किस तरह खुश करते थे . एक दिन राजा लंच में बैंगन की सब्ज़ी खा कर आया था , पता नहीं ख़ानसामे ने बहुत ही घटिया तरीक़े से पकाई थी , राजा ने इस बारे में दरबार में चर्चा की . चारण फ़ौरन बोल उठा , साहब इसी लिए बैंगन को हमारे तरफ़ के गावों में बैगुन बोलते हैं . और साहब प्रकृति ने इसे एक दम बदसूरत काला कलूटा बनाया है . तालियाँ बजीं और चारण का दिन बन गया. इस घटना के कुछ महीने बाद ख़ानसामे ने फिर से बैंगन की सब्ज़ी बनाई , इस बार राजा को बहुत पसंद आयी . राजा ने इस बारे में दरबार में ज़िक्र किया . चारण दरबार में मौजूद था , उसने राजा से कहा ,’बैंगन की बात ही कुछ अलग है , प्रकृति ने इसे सब्ज़ियों का राजा बनाया है . हुज़ूर आपने गौर किया होगा कि इसके सिर पर सुंदर मुकुट भी होता है .’ इस बात पर दरबार में ख़ूब तालियाँ बजीं .
अचानक राजा को ख़्याल आया कि कुछ महीने तो यह बन्दा बैंगन को काला कलूटा और बैगुन बता रहा था . राजा ने जम के चारण की क्लास ली . लेकिन चारण ठहरे चिकने घड़े , कहने लगा ,’ साहब हम तो आपके चाकर हैं बैंगन के नहीं !’
धीरे धीरे राजवंश ख़त्म होते गए , जिसके कारण चारण भाट के अस्तित्व को ही संकट खड़ा हो गया , इन्होंने अपने आप को रि-इंवेंट किया और इनके नए अवतार धन कुबेरों और साहूकारों से जुड़ गए . अजेंडा वही का वही था बस लक्ष्य बदल गए . अब वे सेठ साहूकारों को महिमामंडित करने के लिए छंद, दोहे और कविताएँ भी लिखने लगे .
चलते चलते आपको एक नए गेम चेंजर के बारे बतायेंगे. जिस के कारण चारणों की संख्या अब लाखों करोड़ों में पहुँच गयी है . ये लोग पूरे सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं . वाट्स एप, फ़ेसबुक आदि पर आजकल तीन क़िस्म के लोग हैं . एक तो वो हैं जो अपने सहकर्मियों , रिश्तेदारों और मित्रों से ज़रूरी बातचीत करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं . दूसरी श्रेणी उनकी है जो अपने अपने आकाओं के महिमामंडन और उनके विरोधियों के खिलाफ ऐसी ऐसी पोस्ट तैयार करते हैं कि पढ़ के लगता है कि पुराने जमाने के चारण भाट अर्थहीन हैं , ये हिस्ट्री और जियोग्राफ़ी सभी कुछ बदलने की अकूत क्षमता रखते हैं . तीसरी श्रेणी ग़ज़ब की है , इनकी संख्या अब करोड़ों में है , इन लोगों के पास समय ही समय है दिमाग़ में काफ़ी सारा स्पेस ब्लैंक है , इनका काम सोशल मीडिया पर पहले से ही तैर रही तैयार पोस्ट अपने इष्ट मित्रों को उछालना है . यह सोशल मीडिया पोस्ट उछालना अब राष्ट्रीय खेल बन चुका है . कई बार तो पत्रकार भी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर समाचार लगा देते हैं और बाद में सही तथ्य की ओर ध्यान दिलाए जाने के बाद माफ़ी माँग लेते हैं , कुछ तो इसकी ज़रूरत भी नहीं समझते हैं .
✍️ प्रदीप गुप्ता
B-1006 Mantri Serene
Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065
मुरादाबाद का ऊर्जावान एवं उर्वरा साहित्यिक पटल अनगिनत ओजस्वी एवं ऐतिहासिक पड़ावों को स्वयं में समाहित किये हुए है। इन पड़ावों का भरपूर समर्थन करती अनमोल कृतियाँ भी रचनाकारों की उत्कृष्ट लेखनी से होकर समाज के आम जनमानस के हृदय में स्थान बनाती रही हैं। मानवीय संवेदना के कुशल शिल्पी एवं वरिष्ठ गीतकार श्रद्धेय आमोद कुमार जी की साहित्य-साधना का पर्याय उनका परिणति नामक गीत-संग्रह ऐसी ही अनमोल कृतियों में से एक है।सामान्यतः यह कहा जाता है कि अमुक रचनाकार ने कुछ लिखा परन्तु, श्रद्धेय आमोद कुमार जी के गीत-संग्रह परिणति का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका लिखा हुआ मात्र लिखा अथवा प्रकाशित हुआ ही नहीं अपितु इससे भी कहीं अधिक ऊपर उठकर वह एक आम पाठक से हृदयस्पर्शी वार्तालाप भी कर रहा है। कुल 88 काव्य रूपी मनकों से सजी इस माला का प्रत्येक मोती यह दर्शाता है कि रचनाकार ने ज्ञात जगत से भी परे जाकर, अज्ञात के गर्भ में उतरते हुए अपने भावों को शब्द दिये हैं। कृति का प्रारंभ पृष्ठ 11 पर उपलब्ध परिणति शीर्षक गीत से होता है। कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह देने वाली इस रचना की कुछ पंक्तियाँ देखिये -
"मोह कैसा
किससे राग द्वेष
कोई न बचेगा
अवशेष
शेष
एक सत्य परिवर्तन
बुझता दीपक।"
निश्चित ही यह गीत जीवन के आरम्भ से अंत तक का पूरा चित्र खींच देता है।
इसी क्रम में पृष्ठ 12 पर आत्म-ज्योति शीर्षक से एक अन्य रचना मिलती है। अंतस में छिपी वेदना को साकार करने वाली इस रचना की निम्न पंक्तियाँ भी देखिये -
"तृष्णा ऐसी जगी
ज़िन्दगी को पी गया
सौ-सौ बार मरकर भी
फिर-फिर जी गया।"
इसी क्रम में प्रश्न 19 पर सुखद सवेरा फिर आयेगा शीर्षक से एक गीत उपलब्ध है जो विशेष रूप से वर्तमान विश्वव्यापी परिस्थिति में जीवन के प्रति आशा व उल्लास का संचार करता हुआ पाठकों में एक नई ऊर्जा का संचार कर रहा है। इस ह्रदयस्पर्शी व प्रेरक गीत की भी कुछ पंक्तियाँ -
"मत रो साथी मृदु हास से,
अधरों का श्रृंगार करो तुम।
बीत जायेगी पीड़ा रजनी,
सुखद सवेरा फिर आयेगा।
बिना विछोह के सफर अधूरा,
रह जाता है प्यार के पथ में
एक सुख और एक दुःख है,
दो पहिए जीवन के रथ में।"
रचना में कोई क्लिष्टता नहीं, कोई बाज़ीगरी अथवा लाग-लपेट नहीं, फिर भी सीधी, सरल व मनमोहक भाषा-शैली में जीवन का दर्शन गहराई से निकालकर सामने रख देने में रचनाकार पूर्णतया सफल रहा है।
आत्मा को भीतर तक स्पर्श करती हुई यह अनमोल काव्य-श्रृंखला अनेक मनमोहक सोपानों से होती हुई, पृष्ठ 112 पर यूं आने-जाने का दौर हुआ करता है शीर्षक रचना के साथ विश्राम पर पहुँचती है। जीवन की अनिश्चितता को साकार करती इस अत्यंत उत्कृष्ट रचना की कुछ पंक्तियाँ -
"मत छेड़ो बेवक्त बेसुरा राग तुम,
गीत सुनाने का एक दौर हुआ करता है,
तन लाख व्याह रचाए मोती से, मानक से,
मन भरमाने का एक दौर हुआ करता है।"
निःसंदेह, इस पूरी कृति के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में रचनाकार द्वारा किया गया यह सृजन मात्र सृजन होने तक ही सीमित नहीं है अपितु, कहीं न कहीं उन्होंने इसे स्वयं के भीतर जीते हए अनुभव भी किया है। यही कारण है कि कृति सरल, सुबोध व मनभावन भाषा-शैली के साथ कालजई बनने के मानकों पर भी पूरी तरह खरी उतरती है।
यद्यपि इस कृति की उत्कृष्टता को चंद शब्दों में समेट पाना मुझ अकिंचन के लिये संभव नहीं, फिर भी इतना अवश्य कहूंगा कि रचनाकार की उत्कृष्ट लेखनी एवं लिटरेचर लैंड जैसे उत्कृष्ट प्रकाशन संस्थान से, आकर्षक सजिल्द स्वरूप में तैयार होकर एक ऐसी अनमोल कृति साहित्य समाज तक पहुँची है, जो पाठकों के हृदय को झंकृत करती हुई जीवन के गहन दर्शन को उनके सम्मुख स्पष्ट कर रही है अतएव इस कारण यह कृति किसी भी स्तरीय पुस्तकालय में स्थान पाने के सर्वथा योग्य भी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिये रचनाकार एवं प्रकाशन संस्थान दोनों ही बारम्बार अभिनंदन एवं साधुवाद के पात्र हैं। हार्दिक मंगलकामना।
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कृति : परिणति ( गीत संग्रह)
रचनाकार : आमोद कुमार
मूल्य : ₹ 295.00, पृष्ठ : 112
प्रकाशन संस्थान : लिटरेचर लैंड ,नई दिल्ली
समीक्षक : राजीव प्रखर, डिप्टी गंज, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत
" इसीलिए तो मैंने तुम्हें दोबारा याद किया।" वह मुस्कराते हुए कह उठे। इतना सुनते ही मेरे मन में जमा हुआ वह तमाम अपराध-बोध पिघलकर बह गया, जो उनके द्वारा प्रथम बार स्वयं मिलने के लिए आमन्त्रित करने के बावजूद न जा पाने के कारण मुझमें लगातार बना हुआ था ।
"मैं तुम्हें बराबर रुचि पूर्वक पढ़ता रहा हूँ, सहकारी युग में तुम्हारी रचनाएं मुझे हमेशा प्रभावित करती रही हैं। तुमने जो अपनी कहानियों की किताब मुझे भेजी थी. मैं उस पर विस्तार से राय देना चाहता था मगर हुआ यह कि पंजाब के एक सज्जन जो कि प्रखर वामपंथी है, उस किताब को ही मुझसे मांगकर ले गए ! बहुत बढ़िया लिख रहे हो ।" -वह प्रेम की बिना रुकी सरिता बने अपना आशीष दिये जा रहे थे। और, मैं आश्चर्य चकित था कि क्या सचमुच भाग्य मुझ पर इतना मेहरबान है कि हिन्दी कविता के शीर्ष पुरुष और साहित्य साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन बाबा नागार्जुन मेरे प्रति ऐसा उदार और आत्मीयता भरा भाव रखते हैं।
मैं धन्य हो गया । हाँ ! यह नागार्जुन ही हैं। बाबा नागार्जुन ! अस्सी साल का एक नौजवान । पुराना पड़ गया पायजामा, अस्त-व्यस्त कुर्ता, बेतरतीब बिखरी हुई दाढ़ी-मूँछे और सिर के सफेद पड़ चुके बाल । थकी हुई आंखों में जब-तब दौड़ जाने वाली एक चमक। प्रायः निढालपन मगर फुर्ती में फिर भी कोई कमी नहीं। वह शांत होकर बात करते हैं , मगर घोर आवेश में आने से भी अछूते नहीं रहते। जो निश्छल और दिल खोलकर पवित्र हँसी वह हँस पाते हैं, आज की औपचारिकताओं भरी महफिलों के खोखले ठहाकों में कहाँ है ? वह सादा जीवन उच्च विचार की साकार प्रतिमा हैं। वह भारत के आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं -अपनी वेशभूषा से ,अपने विचारों से, अपनी बहुजनपक्षीय प्रतिबद्धताओं से । "संदर्श" पत्रिका का हृदयेश विशेषांक अपने हाथ में लिए हुए जब वह मुझे ग्यारह अगस्त की सुबह साढ़े आठ बजे मुरादाबाद में सुकवि और साहित्यकार गिरिराज सिंह के जिला सहकारी बैंक स्थित निवास के सुसज्जित कक्ष में पहली-पहल मिले, तो मैं उस बोने कद में मनुष्यता की विराटता को मापने का प्रयास ही करता रह गया | अहम् उन्हें छू तक नहीं गया है। छोटों को प्रेम से गले लगाना और बांहों में भरकर उनके सिर को अपने अमृतमय स्पर्श से जड़वत बना देने का जादू क्या होता है ,यह मैं उसी दिन जान पाया।
बाबा नागार्जुन आजकल भ्रमण पर निकले हुए हैं। पांच सप्ताह बिहार रहे। फिर उत्तर प्रदेश में बनारस कुछ दिन रहे। इसी तरह नगर-नगर, गांव-गांव घूमना चल रहा है। वह इसी को शरीर की ऊर्जा का सार्थक उपयोग मानते हैं कि जब तक शरीर समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी है ,तभी तक उसका रहना सार्थक है।
इतनी उम्र में भी इस हद तक घूमना-फिरना क्या स्वास्थ्य के लिए उचित है ? -इम प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहते है कि लोग बुलाए बिना नहीं मानते और मेरा मन भी जाए बिना नहीं मानता। सच ही है कि बाबा नागार्जुन अपने जीवन की समस्त उर्जा को नई से नई पीढ़ी तक के रचनाकार से एकाकार करने के एक प्रकार के मिशन में लगे हुए हैं और जो स्वतंत्र, निर्भीक और सत्य-सम्मत अभिव्यक्ति उनके रचनाकार की विशेषता बन गई, उस रचनाधर्मी-ज्योति को वह सारे देश के असंख्य दिलों में धधकती हुई मशालों में बदलने के काम में लगे हुए हैं। इसके लिए वह अपने शरीर पर अत्याचार करने की हद तक आगे बढ़ चुके है। उनका मुरादाबाद आना और आसपास के रचनाकारों से सम्पर्क करके उन्हें प्रोत्साहित करने के साथ-साथ रचनाधर्मिता की एक नई ओजस्वी लहर उत्पन्न कर जाना इसी बात के प्रमाण हैं। अब उन्हें कानों से कम सुनाई पड़ता है। पढ़ने के लिए एक बड़ा-सा लेंस हाथ में रखते हैं। यूं उन्हें चश्मे से विरोध नहीं है। मगर कहने का अर्थ यह है कि आंखें कमजोर है, कान से कम सुनाई पड़ता है और दस- पन्द्रह मिनट बात करके ही जो व्यक्ति थोड़ी थकान महसूस करने लगता हो और जिसकी उम्र अस्सी के आस-पास हो गई हो, वह सिर्फ समाज के मानस को बदलने के शुद्ध साहित्यिक इरादे से स्थान-स्थान घूम रहा हो ,यह एक असाधारण बात है।
"कैसी रचनाएं आज लिखी जानी चाहिए ?" मैंने प्रश्न किया। बाबा गंभीर हो गए। कहने लगे : "जो समय के अनुरूप हों और हमारे मौजूदा समाज में अपेक्षित बदलाव ला सकें। आज साहित्यकार यदि देश की स्थिति को बदलने में सार्थक सिद्ध नहीं हो रहा है तो इसका कारण यह है कि वह कहीं चारण की भूमिका निभा रहा है तो कहीं भांड बना हुआ है। लेखनी का जब तक सही-सही और निःस्वार्थ भाव से जन-मन को आंदोलित करने के लिए प्रयोग नहीं होता ,तब तक वह प्रभावशाली सिद्ध नहीं होती।
देश की राजनीतिक स्थिति को देखकर बाबा बहुत चिंतित हैं । यद्यपि वह स्वयं को आशावादी बताते हैं मगर निराशा की गहरी अंधेरी खाइयाँ उनकी आंखों में झलकती हुई कोई भी झांक सकता है । वह कहते हैं "देवीलाल धृतराष्ट्र हो गए हैं । वह पुत्र-मोह में फंस गए हैं। उनके लिए घोटाला ही सब कुछ हो गया है। सारी राजनीति ऐसी ही हो रही है। सब तरफ कुर्सी की खुजली मची हुई है। कोई नेता ऐसा नहीं जो बिना कुर्सी पर बैठे देश की सेवा करने का इच्छुक हो। जिसे देखो, देश सेवा की खातिर कुर्सी के लिए झगड़ रहा है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ।" वह कहते हैं- "मगर यह सब देख कर मैं क्रुद्ध हो उठता हूँ तो देश के युवा वर्ग के आक्रोश की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। हमारे सारे स्वप्न व्यर्थ होते जा रहे हैं।"
"मन्दिर और मस्जिद के झगड़ों के कारण देश की बिगड़ती स्थिति पर आप अपना मत प्रकट करेंगे ?" ऐसा आग्रह करने पर बाबा ने आवेशित होकर कहा कि आज जरूरत गरीबी, बेकारी और भूख के खिलाफ सारी जनता को एकजुट करके जोरदार आंदोलन छेड़ने की है। हिन्दू और मुसलमानों को कन्धा से कन्धा मिलाकर देश के निर्माण में सहभागी बनाने का माहौल पैदा करने की है, धर्म के नाम पर बौना चिंतन रोकने की जरूरत है। हजारों मन्दिर गाँव-गाँव, शहर-शहर में उपेक्षित पड़े है । उन्हें नजरन्दाज करके कोई धर्म का हित नहीं कर रहा है क्या ?
बातों-बातों में बाबा कहीं एक बहुत गहरी बात कह गए। वह बोले: "विनोबा का अपन लोगों ने (हम लोगों ने) विरोध भी किया था, मगर जिस तरीके से उन्होंने अपने जीवन का अन्त किया वह मुझे बहुत प्रभावित करता है। जीवन के अन्तिम वर्षों में विनोबा का पवनार आश्रम पंडों का अड्डा बन गया था। यहाँ तक कि बिनोबा से भेंट करने के लिए आश्रम के पंडे दस-दस हजार रुपये की फीस मांगने लगे थे। यह स्थिति होती है कि जब किसी आदमी के नाम पर उसका दुरुपयोग होना शुरू हो जाता है और वह खुद कुछ नहीं कर पाता । ऐसे में जीवन का अंत ही एकमात्र विकल्प है ,जो विनोबा ने ठीक ही किया। इस तरह मेरा कहना यह है कि आदमी का जीना तभी तक सार्थक है ,जब तक उसके विवेक का जेनरेटर चालू है। जब उसका या उसके नाम का दुरुपयोग दूसरे लोग करने लगें, तो ऐसे में व्यर्थ जीते रहने का कोई औचित्य नहीं है।"
करीब आधे घन्टे की मुलाकात में मैंने बाबा को अक्सर थका हुआ पाया, हालांकि हर बार अपनी थकान को वह एक अपराजेय उत्साह से जीतने में सफल रहते थे। बातचीत के शुरू में ही उन्होंने कहा था कि मैं थोड़ी-थोड़ी देर में ही थक जाता हूँ और लघुशंका न भी लग रही हो तो बहाना करने उठ जाता हूँ। यह कहने के ठीक पन्द्रह मिनट बाद वह लघुशंका के लिए उठ गए. जिसका मतलब साफ था कि अब बाबा को अधिक कष्ट देना उचित नहीं है। मगर, लौटकर आने के बाद उन्होंने कहा कि "भाई ! मै वाकई लघुशंका के लिए गया था । बैठो।" और, इस तरह बातचीत विश्राम-बिन्दु पर नहीं रुक पाई।
बाबा नागार्जुन साहित्य की वह गंगा हैं ,जो स्वयं अपने भक्तों को आवाज देकर अवगाहन करने का सुख पहुंचाने की उदारता रखते हैं। उन जैसी सहजता अब दुर्लभ है।
मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान ।
सूरज बाँटे रेवड़ी,चाँद चबाये पान।।
(2)
वस्त्र पहनकर गेरुआ, साधू सन्त फकीर ।
नये मुकदमों की पढ़ें, रोज नयी तहरीर।।
(3)
खुश है रचकर सीकरी,नया -नया इतिहास।
हैं उसके दरबार में,हाज़िर नाभादास।।
(4)
परिवर्तन के नाम पर, बदली क्या सरकार ।
रफ्ता रफ्ता हो रहा ,पूरा देश बिहार ।।
(5)
भोग रहे इतिहास का,हैं अब तक दुर्योग।
तक्षशिला को जा रहे,नालन्दा के लोग।।
(6)
चिन्तित हैं शहनाइयाँ, गायब हुई मिठास ।
बिस्मिल्ला के होंठ की,पहले जैसी प्यास ।।
(7)
लाक्षागृह सबके अलग,क्या अर्जुन क्या कर्ण।
आग नहीं पहचानती,पिछड़ा दलित सवर्ण।।
(8)
रिश्तों के बदले हुए, दिखते सभी उसूल ।
भैया कड़वे नीम- से,दादी हुई बबूल ।।
(9)
आँखों में दाना लिये, पंखों में आकाश ।
जाल उठाए उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास ।।
(10)
दाने -दाने के लिए,चिड़िया है बेहाल ।
उधर साजिशों के नये ,बुने जा रहे जाल।।
(11)
क्या सपने क्या लोरियाँ,खाली-खाली पेज ।
जिनकी नींदों को मिली,फुटपाथों की सेज ।।
(12)
तन की प्रत्यंचा खिंची, चले नज़र के तीर।
बच पाया केवल वही,मन से रहा फकीर।।
(13)
लाकर पटका समय ने, कैसे औघट घाट।
अनुभव तो गहरे हुए, कविता हुई सपाट।।
(14)
एक आँख तकती रही, दूजी रही उदास।
इन दोनों में ही बँटा, जीवन का इतिहास।।
(15)
सबको ही सहना पड़े, क्या राजा क्या रंक
जब जब बढ़कर फैलता, जंगल का आतंक
(16)
शामें लौटीं शहर की,अंग लपेटे धूल।
सिरहाने रख सो गयीं, कुछ मुरझाये फूल।।
(17)
नई व्यवस्था में नये, उभरे कुछ मतभेद
कम लगने लग गए हैं, अब छलनी के छेद
(18)
कुछ मौसम प्रतिकूल था, कुछ था तेज बहाव मछुआरों ने खींच ली, तट पर अपनी नाव
(19)
कैसे कैसे लोग हैं,कैसे कैसे काम ।
जाकर कुंज-करील में, ढूँढ रहे हैं आम।।
(20)
मंदिर से मस्जिद कहे, तू भी इस पर सोच
तुझको लगती चोट तो, आती इधर खरोच
(21)
पुल की बाँहों में नदी,मछली-सी बेचैन।
अनहोनी के साथ सब ,दे बैठी सुख-चैन।।
(22)
मंदिर मस्जिद से जुड़ी, है जब से पहचान
मजहब ऊँचे हो गए, छोटा हिन्दुस्तान
(23)
बरगद से लिपटी पड़ी, है बादल की छाँह।
घेरे बूढ़े बाप को, ज्यों बेटे की बाँह।।
(24)
धीरे धीरे फैलता, जंगल का कानून
सत्ता सब सुख पा रही, जनता रोटी-नून
(25)
सारंगी हर साँस में, मन में झाँझ मृदंग।
फागुन आते ही हुए, साज हमारे अंग।।
(26)
खुली पीठ से बेंत का ,ऐसा हुआ लगाव।
लिये सुमरनी हाथ हम,गिनते कल के घाव।।
✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48, नवीन नगर, मुरादाबाद 244001
"ये कहानी नहीं " कहानी संग्रह की लेखिका सीमा वर्मा जी ने इस पुस्तक के आरंभ में ही बता दिया है कि उनका यह लेखन जो उन्होंने जिया है, भोगा है और समाज में जो अनुभव किया है उसी का प्रतिबिंब है। पूरा संग्रह का अवलोकन करने के उपरांत उनका यह कथन सत्य प्रतीत होता है। वास्तव में प्रत्येक कहानी स्वयं बोल रही है कि वह कोई काल्पनिक पात्रों से गढ़ी कोई कथा नहीं है बल्कि एक भोगा हुआ सत्य है। समाज में व्याप्त अनैतिकता, विद्रूपता, भृष्टाचार, अनाचार तथा राजनैतिक गिरावट किसी व्यक्ति विशेष तथा परिवारों पर किस प्रकार प्रभाव डालते हैं उन्हीं के परिणाम को व्यक्त करता हुआ यह कहानी संग्रह वर्तमान समाज की वास्तविक स्थिति को पाठकों के सम्मुख रखता है। कहीं भी कोई कृत्रिमता नहीं और न ही बोझिल शब्दों का आडम्बर। सीधी, सपाट ,सरल भाषा कहानियों को अत्यंत ह्रदय ग्राही बनाती हैं। कहते हैं कि हर चीज़ की एक सीमा होती है पर इन कहानियों को पढ़ने के बाद यह महसूस होता है कि सीमा वर्मा जी के विचारों के फलक की सीमा अंतहीन है।
कहानी संग्रह की पहली कहानी "कुत्ते " पुरुष वादी समाज की उस कुत्सित मानसिकता के दर्शन कराती है जिसे समाज में हर स्त्री किसी न किसी रूप में अवश्य भोगती है जबकि "पेमेंट " कहानी वर पक्ष की दहेज के लिए लपलपाती जीभ और काइयाँ पन को उजागर करती है। "मोहभंग " में महिलाओं की उस प्रवृति को उजागर किया है कि चाहे कैसा भी अवसर हो महिलाएं चुप नहीं बैठ सकती। उनकी खुसुर - फुसुर और चुगल खोरी बंद नहीं होती।
" कर्तव्यनिष्ठा " कहानी में स्त्री के अपने पति के प्रति कर्तव्य परायणता के लिए कुछ भी कर सकने के भाव को दिखाया गया है चाहे उसे मजबूरी में कोई गलीज़ काम क्यों न करना पड़े। इसमें समाज की विद्रूपता को सामने लाया गया है। "दूसरी " में सौतेली माँ की व्यथा को लेकर चिंता व्यक्त की गयी है। जन सेवक कहलाने वाले राजनैतिक नेताओं के घृणित आचरण को "रंगा सियार " में उघाड़ा गया है। "किराये दार " में कारपोरेट कल्चर में रंगे बेटों की मानसिकता और आचरण के वास्तविक दर्शन कराये गये गये कि वे रक्त सम्बन्धों को भी किस उपेक्षित दृष्टि से देखते हैं। "मंथरा " में यह बताने की कोशिश की गयी है कि बिना सत्य जाने सुनी सुनाई बातों पर विश्वास करने का क्या परिणाम होता है।
" नये साल का जश्न " में उन लोगोँ को समझाने का प्रयास किया गया है जो पैसे की फ़िज़ूल खर्ची करते हैं जबकि उस पैसे से किसी जरूरत मंद की सहायता की जा सकती है। "शरीफों का मुहल्ला " कहानी में मोहल्लों में होनी वाली पड़ोसियों की बेमतलब की आपसी लड़ाइयों , पुरानी पीढ़ी के दोहरे चरित्र तथा नई पीढ़ी पर बिना सोचे समझे इल्जाम लगाने की मानसिकता की अच्छी खबर ली गई है। संकलित सभी कहानियाँ कोई न कोई संदेश देकर समाज को सावधान करती नज़र आती है जो कि साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है।
कहानियों के अतिरिक्त पुस्तक में "ये कहानी नहीं " नाम से एक लघु उपन्यास भी है जिसका ताना बाना परिवार में पति - पत्नी के बीच कटु सम्बन्ध, शक -शुबहा, प्रेम, समर्पण आदि दैनिक समस्याओं पर आधारित है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक पाठकों , विशेष कर महिला पाठकों के लिए अत्यंत रुचिकर, संदेश प्रद व प्रेरणा दायक सिद्ध होगी। मुझे पूरा विश्वास है कि इस पुस्तक का साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा ।
अंतर्मन को छूती संवेदन शील कहानियों के लेखन के लिए सीमा वर्मा जी वास्तव में धन्यवाद की पात्र हैं ।पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए सहित्यपीडिया पब्लिशिंग को साधुवाद।
कृति : "ये कहानी नहीं" (कहानी संग्रह )
लेखिका : सीमा वर्मा
प्रकाशन वर्ष : 2021
मूल्य : ₹ 150, पेज़ : 109
प्रकाशक : सहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा, भारत
समीक्षक : अशोक विश्नोई, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत
राजीव 'प्रखर' द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम में अध्यक्ष गजरौला निवासी सुप्रसिद्ध कवयित्री डाॅ. मधु चतुर्वेदी ने गीत प्रस्तुत करते हुए कहा---
"बहुत अचकचाती सी आती है आँगन मेँ भोर। बाहर भीतर पसर गया है सन्नाटे का शोर। शंकाओं का तानाबाना ओढ़ लगा मन तपने।। लगने लगे अपरिचित से अपनी आँखों के सपने। रिश्तों का नैकट्य हो चला है,कुछ कुछ मुँह ज़ोर।"
मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. मनोज रस्तोगी का गीत था ---
"स्वाभिमान भी गिरवी
रख नागों के हाथ,
भेड़ियों के सम्मुख
टिका दिया माथ।
इस तरह होता रहा
अपना चीरहरण।।"
विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल का आह्वान था -
"द्वेष घृणा मिट सके दिलों से,
कुछ ऐसे अश्आर लिखें।
मानवता दम तोड़ रही है,
इसका कुछ उपचार लिखें।।
बीत गयी सो बात गयी जो,
आनी है सो आयेगी।
वर्तमान को जी भर जी लें,
जीवन के दिन चार लिखें।।"
विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने जीवन का चित्र खींचते हुए कहा - "कोरे काग़ज़-सी निश्छल है,
भोली है मन की।
घर भर को महकाने वाली,
खुशबू आँगन की।
पता नहीं क्यों रहती
फिर भी रूखी-अन्जानी,
मोबाइल में उलझी
मुनिया भूली शैतानी।।"
वरिष्ठ साहित्यकार अशोक 'विद्रोही' ने देशभक्ति की अलख कुछ इस प्रकार जगाई -
"अब महा शक्तियों से ऊपर,
नित अपना ध्वज लहराता है।
मेरा देश बदलता जाता है,
परिवेश बदलता जाता है।।"
कार्यक्रम का संचालन करते हुए युवा साहित्यकार राजीव 'प्रखर' ने कहा -
बाहर वृक्षों का क्षरण, भीतर कलुष विचार।
हो कैसे पर्यावरण, इस संकट से पार।।
क्या तीरथ की कामना, कैसी धन की आस।
जब बैठी हो प्रेम से, अम्मा मेरे पास।।"
चर्चित साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट ने इन शब्दों के साथ नारी-शक्ति का आह्वान किया -
"क्यों ताकती है मुँह औरों का.....
सुन अरी! ये जो मुस्कान है न,
उन होंठों पर....,
तेरी ही दी हुई है।"
कवयित्री इन्दु रानी की अभिव्यक्ति इस प्रकार रही - "रेल नौकरी अब कहाँ, बेच रहे हैं रेल।
जिंदगी का जीवन से, होगा कैसे मेल।।"
प्रशांत मिश्र ने हुंकार भरते हुए कहा -
"अपनों का आना सिर्फ हवा का झोंका है।
चिता पर छोड़ आते समय कितनों ने रोका है।।"
कवि आशीष शर्मा का कहना था -
"युद्ध के पराक्रम की शौर्य गाथाओं में
आज अपना भी नाम मैं शुमार कर आया माँ,
एक मैं अकेला और वो थे दुश्मन हजार
एक एक का मैं संहार कर आया माँ।।"