मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के 26 दोहे -----


 (1)

मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान ।

सूरज बाँटे रेवड़ी,चाँद चबाये पान।।

(2)

वस्त्र पहनकर गेरुआ, साधू सन्त फकीर ।

नये मुकदमों की पढ़ें, रोज नयी तहरीर।।

(3)

खुश है रचकर सीकरी,नया -नया इतिहास।

हैं उसके दरबार में,हाज़िर नाभादास।।

(4)

परिवर्तन के नाम पर, बदली क्या सरकार ।

रफ्ता रफ्ता हो रहा ,पूरा देश बिहार ।।

(5)

भोग रहे इतिहास का,हैं अब तक दुर्योग।

तक्षशिला को जा रहे,नालन्दा के लोग।।

(6)

चिन्तित हैं शहनाइयाँ, गायब हुई मिठास ।

बिस्मिल्ला के होंठ की,पहले जैसी प्यास ।।

(7)

लाक्षागृह सबके अलग,क्या अर्जुन क्या कर्ण।

आग नहीं पहचानती,पिछड़ा दलित सवर्ण।।

(8)

रिश्तों  के बदले हुए, दिखते सभी उसूल ।

भैया कड़वे नीम- से,दादी हुई बबूल ।।

(9)

आँखों में दाना लिये, पंखों में आकाश ।

जाल उठाए उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास ।।

(10)

दाने -दाने के लिए,चिड़िया है बेहाल ।

उधर  साजिशों के नये ,बुने जा रहे जाल।।

(11)

क्या सपने क्या लोरियाँ,खाली-खाली पेज ।

जिनकी नींदों को मिली,फुटपाथों की सेज ।।

(12)

तन की प्रत्यंचा खिंची, चले नज़र के तीर।

बच पाया केवल वही,मन से रहा फकीर।।

(13)

लाकर पटका समय ने, कैसे औघट घाट।

अनुभव तो गहरे हुए, कविता हुई सपाट।।

(14)

एक आँख तकती रही, दूजी रही उदास।

इन दोनों में ही बँटा, जीवन का इतिहास।।

(15)

सबको ही सहना पड़े, क्या राजा क्या रंक

जब जब बढ़कर फैलता, जंगल का आतंक

(16)

शामें लौटीं शहर की,अंग लपेटे धूल।

सिरहाने रख सो गयीं, कुछ मुरझाये फूल।।

(17)

नई व्यवस्था में नये, उभरे कुछ मतभेद

कम लगने लग गए हैं, अब छलनी के छेद

(18)

कुछ मौसम प्रतिकूल था, कुछ था तेज बहाव मछुआरों ने खींच ली, तट पर अपनी नाव

(19)

कैसे कैसे लोग हैं,कैसे कैसे काम ।

जाकर कुंज-करील में, ढूँढ रहे हैं आम।।

(20)

मंदिर से मस्जिद कहे, तू भी इस पर सोच

तुझको लगती चोट तो, आती इधर खरोच

(21)

पुल की बाँहों में नदी,मछली-सी बेचैन।

अनहोनी के साथ सब ,दे बैठी सुख-चैन।।

(22)

मंदिर मस्जिद से जुड़ी, है जब से पहचान

मजहब ऊँचे हो गए, छोटा हिन्दुस्तान

(23)

बरगद से लिपटी पड़ी, है बादल की छाँह।

घेरे बूढ़े बाप को, ज्यों बेटे की बाँह।।

(24)

धीरे धीरे फैलता, जंगल का कानून

सत्ता सब सुख पा रही, जनता रोटी-नून

(25)

सारंगी हर साँस में, मन में झाँझ मृदंग।

फागुन आते ही हुए, साज हमारे अंग।।

(26)

खुली पीठ से बेंत का ,ऐसा हुआ लगाव।

लिये सुमरनी हाथ हम,गिनते कल के घाव।।

✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48, नवीन नगर, मुरादाबाद 244001

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