शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार भोलानाथ त्यागी का व्यंग्य - " विसंगतियों का कालखंड "

   


 जब विसंगतियां , जीवन   में संगत देने लगती हैं , तब आगे चलकर  यह  समुचा कालखंड  "विसंगतियों का कालखंड " सिद्ध हो  , इतिहास का हिस्सा बन जाता है । वर्तमान में भी यही सब चल रहा है ।

     लकड़हारे अपनी कुल्हाडियां  संभाले ऑक्सीजन उत्पादन पर बहस करने में व्यस्त हैं , वेश्याएं चरित्र के अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में सहभागिता सुनिश्चित कर रही हैं , अपराधी , समाज को अपराध मुक्त बनाने हेतु , गठित आयोग का अध्यक्ष पद पाने  हेतु आतुर हैं । और इन सब के बीच चिर कुवारें  "सफल दांपत्य " पर लिखित , अपनी पुस्तक का विमोचन करा रहे हैं । सत्ता शब्द को शुद्ध ना लिख सकने वाले जीव , सत्तारूढ़ हैं । जिन आंदोलन जीवियों  की अक्ल सिर्फ , बक्कल उतारने तक सिमटी हो , वह अपने बक्कल बचाने की जुगत में हैं ।

      जिनका अपना कोई इतिहास नहीं रहा है , वह इतिहास संरक्षण के पुरोधा बने बैठे हैं , दूसरों के द्वारा पकाई गई खीर की हांडी , अपने चूल्हे पर रख तस्माई  स्वाद पर प्रवचन करने वाला वर्ग ,पाक कला का विशेषज्ञ मान लिया जाता है । 

इस गांधारी युग में विदुर का  बथुआ और  अर्जुन की छाल का अनोखा सामंजस्य ऐसा लगता है जैसे विवेकी राय के ललित निबंध और रविंद्र नाथ त्यागी के व्यंग्य एक ही चाशनी में घोट दिए गए हों और फिर इस चाशनी से बाहर जो पदार्थ निकलता है , उसे चख कर सभी चहक उठते हैं । 

खंड खंड भोगे जा रहे  कोरोना कालखंड में दवाई हेतु तरसाव  व्याप्त है और दारू की होम डिलीवरी का प्रबंध वाहवाही बटोर रहा है । दवा - दारू का यह मणिकांचन संयोग , कल्पनातीत  है ।

देश का प्रथम नागरिक, अपनी सैलरी और कराधान व्यवस्था से व्यथित है ,  जनपद के प्रथम नागरिक की पदवी प्राप्त करने हेतु, किए गए कर्मकांड समुचे  प्रांत में गूंज रहे हैं। इस व्यवस्था में जिस अलोकतांत्रिक ढंग से , लोकतंत्र भरतनाट्यम कर रहा है , वह सीता के स्वर्ण मृग प्राप्त करने की लालसा को सही सिद्ध कर देता है ।

सत्तान्नोमुख प्रशासन हमेशा अपने आकाओं के फरमान , बजाने में सिद्धहस्त माना जाता है । डंडा प्रत्येक कालखंड में वही रहता है बस आस्थाओं के साथ झंडा मात्र बदलना होता है , और इस प्रक्रिया में ब्यूरोक्रेसी का कभी कोई सानी नहीं रहा है । वाहन चलाने हेतु लुंगी को वैधानिक पोशाक नहीं माना गया है , लेकिन शासन लुंगी धारण कर बखूबी चलाया जा सकता है । जहां तक चित्रपट जगत का सवाल है तो वहां लुंगी डांस काफी पहले से प्रतिष्ठित है । अब लुंगीडांस  समाज को अपने आगोश में ले चुका है । कोई भी सक्षम अधिकारी कभी भी त्वरित निर्णय लेने की भूल नहीं करता , यदि पीड़ित जनसामान्य उसे अपनी समस्याओं से अवगत कराते हुए , कोई आवेदन देता है - तो उसे वह अपने अधीनस्थ को जांच उपरांत आख्या और उचित कार्रवाई हेतु थमा देता है । और बस इसी के साथ समस्या की अंतिम क्रिया संपन्न हो जाती है । उच्च अधिकारी अधीनस्थ को फाइल पर 'देखें की टिप्पणी देता है और  अधीनस्थ  फाइल  पर  'देखा ' टीप देता  है । और इस देखें और देखा के बीच फाइल में दबी समस्या , स्वयं शांत हो जाती है । ईमानदारी और सिद्धांत , गुजरे जमाने की बात हो चुकी है , अब तो जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिलता वह ईमानदारी का मुखौटा धारण कर लेता है तथा सिद्धांतहीन होना ही , आज का सिद्धांत हो गया है ।

न्यायाधीश ,सत्ता हेतु किसी भी समस्या के निस्तारण हेतु समय सीमा निर्धारित करते हैं, लेकिन न्याय प्रदान करने  में स्वयं के लिए कोई समय सीमा नहीं होती । यही विरोधाभास न्यायहंता बन जाता है । सेवानिवृत्ति के उपरांत मलाई चाटने की आकांक्षा में तथाकथित न्यायालय , सत्ता के इशारे पर मुजरा करने लगते हैं और बस यहीं से कोठागिरी आरंभ हो जाती है । सत्ता के दलाल बरबस खीसें दिखाने लगते हैं । शिक्षा व्यवस्था संकटग्रस्त हो स्वयं को , निशंक सिद्ध करने में लगी है । शिक्षा की  मूल भावना को स्ववित्तपोषित व्यवस्था के माध्यम से , भ्रूण हत्या कर , आगामी सभी आशंकाओं को समाप्त कर दिया जाता है । सत्ता को हमेशा खतरा शिक्षित समाज से होता है , अपने गंभीर प्रयासों द्वारा सत्ता,  अशिक्षा के प्रसार में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती । रही सही कमी , कोरोना  पूरी कर देता है ।

परिवार को विस्तारित ना कर पाने की कसक, अपने  मंत्रिमंडल को विस्तारित कर पूरा करने का प्रयास किया जाता है । हमारे देश को ठगने में सिद्धहस्त लॉर्ड विलियम बेंटिग ने अपने समय में ठगों का समापन कर दिया बताते थे । लेकिन यह विद्या आज समूची राजनीति में व्याप्त हो चुकी है , बनारस के ठग इतिहास प्रसिद्ध रहे हैं । वर्तमान भी इसका सहज  साक्षी है  । जनता को ठगने की संपूर्ण कला , बरास्ता  बनारस ही फलती फूलती है । इस विद्या में निष्णात होने हेतु किसी को भी बनारसी बाबू बनना ही पड़ता है , और बस समूचा देश इसकी जद में आ जाता है ।

विसंगतियों के इस कालखंड पर कुछ लिख पाना भी एक विसंगति से कम नहीं है , क्योंकि अधिकांश कलम  गिरवी रखी हैं और अपने आकाओं की आवश्यकता /  निर्देशानुसार , स्याही को रोशनाई सिद्ध करने का असफल प्रयास करती है।  आसमान से बरसती चैनल संस्कृति , इसी तथ्य का एक सार्थक और सटीक उदाहरण है ।

पहले लोग बाग  सठिया जाते थे , लेकिन आजकल जन्म लेते ही कुर्सियां जाते हैं । एक कुर्सी पाने की लालसा में बुद्धिबल के अलावा सभी कुछ इस्तेमाल किया जाता है , यथा- धनबल ,बाहुबल । बलबलाती राजनीति के इस रेगिस्तान में , कारूं का खजाना पा लेने की होड़ किसी मृगतृष्णा  से कम नहीं मानी जाती । साहित्य  भी  इससे इतर कुछ नहीं है । 

इस संदर्भ में , अंत में यह पंक्तियां देखिएगा -

रहने और ना रहने के बीच ,

जो रहता है - 

वही तो जीवन है ,

वरना तो एक कलश 

घूमता रहता है -

दधीचि की अस्थियों को , 

अपने में समेटे 

मुंगेरीलाल के सपनों सहित , 

चुनावी वज्र बनने की कामना लिए 

घाट घाट , तीरे तीरे ,

धीरे धीरे -

स्वार्थ  साधते रहते हैं , 

राजनीति के समर में 

नरो वा कुंजरो वा के - 

उद्घोष  / जयघोष के 

सनातन कोलाहल सहित ।


✍️भोलानाथ त्यागी, 49 / इमलिया परिसर,  सिविल  लाइन , बिजनौर (उ. प्र.), मोबा - 7017261904


मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य विमर्श ---- तथाकथित व्यंयकारों को सादर सप्रेम--- नख दंत विहीन सरकारी और असरकारी व्यंग्य

 


जब से सत्ता की चाल ,चरित्र और चेहरे मोहरे में बदलाव हुआ है व्यंग्य की जमीन बंजर हो गयी है ।पता नहीं कब किस बात पर व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट को नक्सली बताकर उसकी सरकारी हत्या कर दी जाये ।अच्छा हुआ परसाईजी व्यंग्य की एवज में टाँग तुड़वाकर मामूली सी गुरुदक्षिणा देकर समय से विदा हो गये अन्यथा उनकी सद्गति कलबुर्गी जैसी ही होती ।

सत्ताधारी ताकतवर व्यक्ति और कट्टरपंथी समूह के पास व्यंग्य को बर्दाश्त करने की सहनशक्ति प्रायः नहीं होती ।तानाशाह को तो कतई नहीं ।हिटलर और चार्ली चैपलिन का द्वंद्व जगजाहिर है ।शार्ली एब्दो का उदाहरण तो एकदम समकालीन है ।

व्यंग्य वैसे भी व्यवस्था की विसंगतियों और बिडम्बनाओं से उपजता है जो शिकार में प्रतिहिंसा को जन्म देता है ,जिसका कोई भी दुष्परिणाम हो सकता है।जेल जाने से तथाकथित लेखक और बुद्धिजीवी भी नहीं डरता क्योंकि उसके बाद बाजार में उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है ,सत्ता के बदलने से तो  पदम् सम्भावना भी ।

अमूमन हास्य व्यंग्य साथ साथ चलते हैं इसलिए उनके बीच का फर्क नजरअंदाज किया जाता है ।कविसम्मेलन तो अब हास्य व्यंग्य के ही पर्याय हो गये हैं जबकि दोनों के बीच बड़ा फर्क है ।हास्य जहाँ अपने हर रूप में गुदगुदाता है वहाँ व्यंग्य नश्तर चलाता है ,कई बार ख़ंजर भी ।कई बार व्यंग्य जब कटु उपहास और कटाक्ष का रूप ले लेता है तो उसके परिणाम भयंकर होते हैं ।इसीलिए व्यंग्य को केवल नकारात्मक न होकर सकारात्मक और सुधारात्मक होना चाहिए ।  हल्के फुल्के हास्य को लोग हँसकर झेल जाते हैं जबकि व्यंग्य को दुर्योधन की तरह दिल पर ले लेते हैं और मौका मिलते ही बदले की फ़िराक में रहते हैं।कितना ही लोग ऊपरी मन से  निंदक को नियरे रखने की उदारता दिखाएं लेकिन आलोचक की तरह व्यंग्यकार भी अझेल है।उसे हर जगह गालियां ही मिलती हैं ।यही उसका दुर्भाग्य है ।

जिन महापुरुषों ने साहित्य को सत्ता का स्थायी विपक्ष बताया था उन्हीं को बाकी कलाएँ गोल मोल नजर आती थीं, जिनकी न कोई प्रतिबद्धता थी ,न जोखिम।हर समय राग दरबारी जिसका नया नामकरण गोदी मीडिया हो गया है ।नख दंत विहीन कला की तुलना शालिग्राम से होती थी जिसमें कोई काँटा ही नहीं होता ।एकदम आशुतोष।उनकी स्प्रिंगदार जीभ इतनी घुमावदार थी कि उसमें अनेकान्तवाद की अपार संभावनाएं थीं ।वे ब्रह्म की तरह सर्वकालिक, होने के साथ ही कालातीत कला के पुरोधा थे ।वे साक्षात विरुद्धों के सामंजस्य थे ।उनके इशारों पर कलाओं के भूगोल खगोल बदलते थे ।प्रकाशकों की बत्ती जलती बुझती थी ।

व्यंग्य तो वैसे भी क्षत्रिय विधा है जो दीन हीन हो ही नहीं सकती ।व्यापारियों ने इसे भी सरकार की चापलूसी में लगा दिया है ।पता ही नहीं चलता कि व्यंग्यकार जूते चाट रहा है या जूते मार रहा है ।वह विषहीन डिंडिभ सर्प की तरह है जिसका अचार डाला जा सकता है ।सत्ता जब ऐसी कटु सत्यवाचक विधा को भी अपनी जरखरीद दासी बना ले तो फिर कहने को बचता ही क्या है ? एक वक्त था जब सत्ताधीश कार्टूनों के आप्तवाक्यों के पीछे जनमत के कूटार्थ बाँचते थे ।अब तो वे दम ही तोड़ चुके हैं ।

सरकारी ठप्पा लगते ही लेखक की हर रचना विज्ञापन और क्रांति विरोधी हो जाती है।तब क्या रचना के लिये जेल जाये बिना क्रांति सम्भव ही नहीं ?पुरस्कार वापसी गैंग इसीलिए अब प्रतिक्रान्तिकारी होने का लाभ नहीं उठा सकता ।यानी राष्ट्रवादी होने की सारी सम्भावनाएं हमेशा के लिये समाप्त।अब सरकार बदलने पर ही शहर की सम्भावना सम्भव है ।गाँव का जीवन यों भी कष्टकारी है ।अतीत में चिरगांव से  राज्यसभा जाना सम्भव था लेकिन अब वहाँ सिर्फ मनरेगा की मजदूरी मिल सकती है ।उसमें भी पत्ती तय है ।

जब से मीडिया में सम्पादक की जगह मालिक ने जबरिया छीन ली है तब से वह सरकारोन्मुख हो चुका है ।मालिक का शुभ लाभ सरकार से ही सधता है तो उसके विरुद्ध कौन मतिमन्द जाना चाहेगा? अब हर जगह सम्पादक नाम का एक रीढ़हीन जीव दिखावे के लिये रख लिया जाता है जो मालिक की इच्छा के अनुसार कठपुतली की तरह नाचता रहता है ।थोड़ी सी आजादी उसे मालिक दे देता है ताकि उसे जीवित होने का अहसास बचा रहे ।वह इतना आत्मानुशासित हो जाता है कि सत्ता विरोधी लोकतांत्रिक आलोचना और रचना को विमर्श से बाहर रखने में ही पूरी ताकत लगा देता है ।यही ऑटो दिमागी कंडीशनिंग बाकी व्यक्तित्वहीन पुतलियों की हो जाती है जो उसको सन्तुष्ट रखती हैं।कहीं से कोई संकट या आपत्ति आती है तो सबसे पहले इसी निरीह प्राणी की बलि चढ़ाई जाती है ।अपवादस्वरूप किसी के कुछ कील कांटे बचे हैं तो उन्हें सीबीआई और आईडी के छापों ने झाड़ दिया है और वह चुपचाप मुख्यधारा में घिस और घुस चुका है ।जिंदा रहने की शर्त ही जब सरकारी विज्ञापन हो तो विकल्प भी क्या हो सकता है ।यानी राजनीति की तरह विकल्पहीनता का संकट यहाँ भी है ।ऐसे में न असरकारी पत्रकारिता की गुंजाइश है ,न साहित्य की ।सब कुछ तात्कालिक  उत्पादन में बदल चुका है आदतन कि इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते।

अब सबसे बड़ा संकट उन पत्रकारों ,रचनाकारों के सामने है जो अपने औज़ारों से क्रांतिकारी काम लेना चाहते हैं।उन्हें कोई मीडिया समूह झेलने को तैयार नहीं।पार्टियों की अपनी शर्तें हैं।सब कुछ ऐसे छद्म में तब्दील हो चुका है जहाँ कोई पहचान ही नहीं बची है ।कुल मिलाकर यह विचार और विचारधारा की निराशा का दौर है ।ईश्वर के साथ इतिहास की मौत काफी पहले हो चुकी है ।ऐसी उच्च नैतिकता में केवल शुध्द धंधा सम्भव है और कोई रास्ता नजर नहीं आता ।जो यह नहीं कर सकते वे मरने के लिये आजाद हैं।

प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के बाद की खाली जगह को सोशल मीडिया ने भर दिया है ।मोबाइल के डिजिटल कैमरे के वीडियो ने प्रत्यक्ष साक्षी की भूमिका अदा की है ।उसके आधार पर कार्रवाई  हो रही है और निर्णय भी दिये जा रहे हैं।दुष्कर दुनिया अब इतनी नजदीक हो चुकी है कि वाकई वह मुट्ठी में है ।अफवाहों और फेकन्यूज ने मीडिया का एक नया ही रूप खोल दिया है।साइबर क्राइम ने पारम्पिक अपराध को पीछे छोड़ दिया है ।अब तकनीक में पिछड़ा हुआ ही सही मायने में पिछड़ा है ।

साहित्य की दुनिया में साहित्यकारों की छवि का कोई ठिकाना नहीं ।उनके मूल्यांकन के लचीले अवसरवादी मूल्य कब बदल जाएंगे कोई ठिकाना नहीं ।एवरेस्ट पर बैठी महानता कब भूलुंठित हो जायेगी कह नहीं सकते।उसे गिराने उठाने में सम्पूर्ण पुरुषार्थ की इतिश्री हो रही है ।

साहित्य के राष्ट्रवादी उभार में आये बदलाव में यह देखा जा सकता है कि कैसे पुराने दौर में कीड़े मकोडों में शुमार लेखकों पर लक्ष्मी बरसने लगी है ।उनके अभिनंदन ,वंदन और चंदन की चर्चा चहुं ओर है ,जबकि पुराने प्रतिष्ठित महामानवों पर मक्खियाँ भी नहीं भिनक रहीं ।हां ,अचूक अवसरवादियों के दोनों हाथों में लड्डू हैं।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम, शक्तिनगर, चंदौसी (जनपद सम्भल ) -244412, उत्तर प्रदेश,भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9412322067


मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----हमारे पूर्वजों पर एक स्कूली बहस

   


 “चलो बच्चो, बताओ कि हमारे पूर्वज कौन थे ?” मास्टर साहब ने प्राचीन इतिहास का एक ऐसा सवाल छात्रों से पूछ लिया, जिसको लेकर छात्रों में अक्सर मतभेद होता था और जो वानर-जाति से खुद को जोड़े जाने कि वजह से था!

“सर, हमारे पूर्वज तो हमेशा से ही ग्राम-प्रधान रहे हैं! और लोगों के या आपके पूर्वजों के बारे में हमें जानकारी नहीं है कि वे कौन थे?” देहात के एक खुराफाती इतिहास-छात्र ने इतिहास-सिद्ध जानकारी को नज़रअंदाज करते हुए जबाव दिया!

    “मैं तुम्हारी वंशावली नहीं पूछ रहा! तमाम इंसानों कि बात कर रहा हूं कि उनके पूर्वज कौन थे?” मास्टर साहब ने बन्दर की शक्ल से मिलते-जुलते एक ऐसे छात्र से सवाल किया, जिसको लेकर वह अपने चिंतन के क्षणों में डार्विन की थ्योरी पर अपनी प्रमाणिकता की मोहर लगा दिया करते थे कि उसने कुछ सोचकर ही इंसानों को ‘वानरों की औलादें’ कहा होगा!“सर, आप यह सवाल मुझसे ही क्यों पूछते हैं? मैं तो कई मर्तबा बता चुका हूं हमारे और आपके पूर्वज बन्दर थे और पेड़ों पर ही रहा करते थे!” वानरमुखी छात्र ने अपनी मुखाकृति को ‘पूर्वज गिफ्टेड’ सिद्ध करते हुए निस्संकोच मास्टर साहब को याद दिलाया!“………..फिर भी……. तुम सही जवाब देते हो, इसलिए तुमसे पूछ लेता हूं!” वानर-वंश के नवनिर्मित दस्तावेज़ के तौर पर वानारमुखी छात्र को प्रोत्साहित करते हुए मास्टर साहब ने कहा!

    “मेरे पिताजी बुरा मानते हैं कि इतिहास का यह सवाल तुमसे ही क्यों पूछते हैं तुम्हारे मास्टर साहब?” ऐतिहासिक धरोहर सिद्ध होते छात्र ने अपनी पारिवारिक समस्या की ओ़र ध्यान खींचते हुए मास्टर साहब के सामने अपनी बात रखने की कोशिश की!“मैं तुम्हारे माताजी और पिताजी की समस्या को बखूबी समझ सकता हूं! डार्विन का नाम सूना है तुमने? वो भी यही सोचते थे,जो मैं सोचता हूं कि आदमी के पूर्वज बन्दर रहे होंगे!” सार्वजनिक तौर पर बंदरों द्वारा की जाने वाली अश्लील हरकतों का स्मरण करते हुए इतिहास के मास्टर साहब ने छात्र से भविष्य में ऐसे सवाल न पूछने के लिए आश्वस्त किया और ब्लैक बोर्ड पर बन्दर और बंदरियानुमा कुछ अजीब से चित्र बनाने में व्यस्त हो गए!

    ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ---मिस यू ऊषा


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य -हम दो हमारे एक

     


लोगों ने "हम दो हमारा एक" की नीति को गंभीरता से नहीं लिया । खुद सरकार ने जो ड्राफ्ट बनाया तो उसमें उसे गरीबी के साथ जोड़ दिया गया । जैसे "हम दो हमारा एक" योजना की आवश्यकता केवल गरीबों को हो ! 

       यह बात सही है कि गरीब लोग खुद एक से ज्यादा बच्चे कैसे पालेंगे ? उनका तो एक बच्चा भी सरकार की सब्सिडी पर पलेगा और सरकार अपनी सब्सिडी से किसी के दस बच्चे पाले ,इसमें घाटा सरकार का ही है । इसलिए गरीबों के मामले में "हम दो हमारा एक" की नीति लागू करने में सरकार का दीर्घकालिक फायदा है । यह दूरंदेशी से भरी हुई नीति है । पता नहीं क्यों कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं ? 

        जहां तक समृद्ध वर्ग का प्रश्न है ,उसको तो आंख मीच कर "हम दो हमारा एक" की नीति स्वीकार कर लेनी चाहिए । जितनी ज्यादा संपन्नता होगी ,उतना ही इस नीति को अपनाने से परिवार को लाभ पहुंचेगा। ज्यादातर परिवारों में जहां जमीन-जायदाद है, सिर-फुटव्वल इसी बात पर हो रही है कि किस भाई को कितना मिले ,किस बहन को कितना दिया जाए ? बड़े संपन्न घराने जमीन-जायदाद के बंटवारे को लेकर कोर्ट-कचहरी में उलझे हुए हैं । अगर "हम दो हमारा एक" की नीति पर वह लोग चले होते ,तो आज घरों में दीवारें खड़ी होने तथा अदालतों में चक्कर काटने की नौबत नहीं आती । क्या किया जाए ? जो गलती हो गई तो हो गई । अब दस बच्चे अगर परदादा ने परंपरा के अनुसार पैदा किए हुए हैं तो वह तो समस्या भुगतनी ही पड़ेगी । मगर आगे के लिए तो सीख ली जा सकती है ।

        पुराने जमाने में राजा महाराजाओं ने "हम दो हमारा एक" की नीति को अप्रत्यक्ष रूप से अपनाया था । अप्रत्यक्ष रूप से इसलिए कह रहा हूं कि उन्होंने अपने बड़े बेटे को रियासत का उत्तराधिकारी मान लिया। अब उसके बाद दस,बारह,पंद्रह जितने भी बच्चे होंगे ,वह सब उत्तराधिकार की लाइन से हट कर खड़े रहेंगे । इससे फायदा यह हुआ कि राजमहल दस टुकड़ों में बँटने से बच गया । अब रियासतें खत्म हो गईं और भूतपूर्व राजा - महाराजाओं की संपत्तियों को लेकर मुकदमेबाजी चल रही है । इन मुकदमेबाजियों के मूल में "हम दो हमारे अनेक" की गलती ही है । न एक से ज्यादा बच्चे होते ,न आपस में झगड़ते ,न अदालत में मुकदमे जाते और न राजमहल के बंटवारे होते ! 

               अब बेचारा एक राजमहल है । सौ कमरे हैं । दस उत्तराधिकारी हैं । अदालतों में सब चक्कर काट रहे हैं । किसी को दस साल हो गए ,किसी को बीस साल ,कोई पचास साल से तारीखों पर जा रहा है । अब अगर बँटवारा हो भी जाता है तो दस उत्तराधिकारियों में से हर एक के हिस्से में दस-दस कमरे आएंगे । दस कमरे तो फिर भी ठीक रहेंगे। लेकिन अब आप उन दस कमरों वालों के दस-दस उत्तराधिकारियों के बारे में सोचिए । उन्हें तो अपने हिस्से के राजमहल में फ्लेट बनाने की नौबत आ जाएगी।  साठ-सत्तर साल बाद राजमहल में जो राजपरिवार रहेंगे ,उनके "राजतिलक"- संदेश का कुछ इस प्रकार लोगों के पास मैसेज जाएगा :-

       *" महोदय ,अत्यंत हर्ष के साथ सूचित किया जा रहा है कि भूतपूर्व रियासत के भूतपूर्व राजकुमार का राज्याभिषेक अमुक तिथि को राजमहल के फ्लैट संख्या पिचहत्तर ( नौवीं मंजिल )पर किया जाएगा। सूक्ष्म जलपान अर्थात चाय और समोसे का भी प्रबंध है ।"* 

          क्या किया जाए ? अगर "हम दो हमारा एक" की नीति पर लोग नहीं चले तो भूतपूर्व  राजा-महाराजा और बड़े खानदानों तक में हालत खस्ता होने वाली है । एक बड़े उद्योगपति की तीन फैक्ट्रियां थीं। बेटे चार थे। चालीस साल से मुकदमा चल रहा है। कैसे बँटे ? अगर बच्चे चार की बजाए तीन किए होते तो कम से कम एक-एक फैक्टरी तो बांट लेते ! संपन्न लोगों को "हम दो हमारे एक" पर अत्यंत गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए । जमीन - जायदाद वाले संपन्न लोगों को एक बच्चा रखने की ज्यादा जरूरत है । उनका शांतिमय भविष्य इसी में निहित है।

✍️  रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद सम्भल) के साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की कहानी ---पछतावा


"देखो जी, मेरी बात कान खोलकर सुन लो. बाबूजी को हम अपने साथ ही रखेंगे. आखिर इतने वर्षो से सचिन ही तो बाबूजी की पेंशन ले रहा है. बाबूजी की पेंशन पर आखिर हमारा भी तो हक़ है।" राजेश की पत्नी आशु ने पति के कान भरते हुए कहा। 

"ठीक है बाबा,मै बाबूजी से कहकर देखता हूं .वह माताजी से अलग रहना भी तो नही चाहते और तुम कहती हो कि माताजी को सचिन के पास ही रहने दो ।" राजेश ने आशु की बात का जवाब देते हुए कहा ।

अगले दिन राजेश ने माताजी और बाबूजी से कहा कि वह बाबूजी को अब अपने साथ लेकर जाना चाहता है. कुछ वर्ष वह उसी के पास रहेंगे. वह उनका शहर में अच्छे से इलाज भी करा देगा. थोड़ा ना नुकर के बाद आखिर बाबूजी राजेश के साथ जाने को तैयार हो ही गये।

 राजेश उन्हें अपने साथ शहर ले आया हर माह वो ए टी एम के जरिये बाबूजी की पेंशन बैंक से ले आता था. बाबूजी का चंद माह में ही वहाँ से दिल उचाट होने लगा उन्हें फिर से अपना कस्बा याद आने लगा. वहाँ सब एक दूसरे से घुले मिले थे. यहाँ सब अनजान थे. कोई नमस्ते करना तो दूर नमस्ते का जवाब देना भी गवारा नही करता था। बाबूजी यहाँ पहले से और अधिक बीमार रहने लगे.  और एक रात हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई. घर मे कोहराम मच गया।

 आशु बाबूजी से ज्यादा यह सोचकर रो रही थी कि हर माह बाबूजी की पेंशन के अब चालीस हजार कहां से आएंगे. बाबूजी की मौत को सुनकर माताजी और सचिन भी परिवार सहित राजेश के यहां आये और अंतिम संस्कार के बाद वापस अपने कस्बे लौट गये। बाबूजी की पेंशन अब माताजी को मिलने लगी थी उधर माताजी के मायके में  उनका छोटा भाई अमेरिका में जा बसा और जाते जाते उसने गांव का घर व ज़मीन अपनी बहन यानी माताजी के नाम कर दी। यह सुनकर आशु व राजेश पछता रहे थे कि काश वह बाबूजी के साथ माताजी को भी अपने साथ ले आते।

✍️ कमाल ज़ैदी "वफ़ा", सिरसी (संभल), मोबाइल फोन नम्बर 9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ---बंटवारा


एक शहर में दो सगे भाई थे।दोनों बहुत पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ चतुर और चालाक भी थे ।हिसाब किताब में उनकी बुद्धिमत्ता के चर्चे दूर-दूर तक मशहूर थे। पाई-पाई का हिसाब रखते थे।पिताजी के रिटायर होते ही दोनों भाइयों ने बड़ी होशियारी से उन्हें समझा-बुझाकर  शांति पूर्वक संपत्ति के दो बराबर हिस्से करवा लिए। कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ। एक हिस्से में पिताजी आ गए और दूसरे हिस्से में मां!


✍️ डॉ पुनीत कुमार, T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

मुरादाबाद 244001, M 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा की लघुकथा ---- शोषण

     


"निजी क्षेत्रों के स्कूल-कॉलेज, लघु उद्योग, कारखाने, बैंक, मॉल, नैट वर्किंग, मनोरंजन के अनेक क्षेत्र, भवन निर्माण आदि  या कृषि से जुड़े सभी मालिकान  के कारण ही लोगों को रोज़गार मिला हुआ है । इससे ही लोगों का जीवनयापन हो रहा है अन्यथा सरकार किस-किस का प्रबंध कर सकती है?" -- प्रश्नभरे अंदाज़ में अनुपम ने श्रेयांश को बताया ।

  तभी श्रेयांस ने भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा ही दिया--"जिन सरकारी क्षेत्रों में लोग अपना जीवनयापन कर रहे हैं; वे सभी सुखी हैं । काम के घंटे नियत हैं ।समय पर वेतन मिलता है । अच्छा काम करने वाला उन्नति पाता है और मक्कार को अवनति मिलती है । यह चिंता भी नहीं रहती कि कब रोजी-रोटी हाथ से चला जाये? और निजी क्षेत्रों वाले मालिकान रोजगार देने के नाम पर केवल शोषण करते हैं । कर्मचारी के काम पर आने का समय नियत है पर काम समाप्त करके कब घर जायेगा; कुछ पता नहीं । वेतन के नाम पर पूरा पारिश्रमिक नहीं देते । मनमानी रकम पर काम पर रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि बेरोजगारी अधिक है । उतने पैसे नहीं देते जितना खून चूस लेते हैं । वे उसका अनुचित लाभ उठाते हैं । अवकाश नहीं देते ।"                             ‌    अपनी बात को जारी रखते हुए श्रेयांश ने कहा-- "यही सत्यता है अनुपम जी । रोजगार सरकार का ही अच्छा है । निजी क्षेत्र के लोगों ने ही सरकारी सेवकों को बुरा बना रखा है ‌। यही लोग इन्हें बिगाड़ते हैं । अपना काम जल्दी करवाने के चक्कर में तरह-तरह के लालच देते हैं और फिर बुरा कहते हैं । हाँ, सरकार को हर क्षेत्र में सरकारीकरण पर बल देना चाहिए । नहीं तो नियम ऐसे बनाये जायें जिसे निजी क्षेत्र के मालिकान सरकार की तरह अपने कर्मचारियों को सभी सुविधाएं उपलब्ध करायें ।"

अब अनुपम चुप रह कर श्रेयांश की बातों को गंभीरता से ले रहा था ।

 ✍️ राम किशोर वर्मा,रामपुर (उ०प्र०)


मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा --..'आस्तीन का सांप '​


"देखो मैं अछूत हूँ ...तुम्हारे घरवाले मुझे कभी स्वीकारा  नहीं करेंगे l"अ  ने श नाम की लड़की से परेशान होते हुए कहा .

​"नहीं ...आपने मेरा कितना ख्याल रखा है बचपन से लेकर अब तक ...सब कुछ l"श ने रोकर उसके कांधे पर सिर लगाते हुए कहा 

​"वह तो ठीक है मगर ...तुम्हारा भाई और तुम्हारे पापा का वह चमचा मिश्रा क्या हमको जीने देगा ?"अ ने संदेह प्रकट किया l

​"हमारा परिवार ऐसा नहीं है ....तुम तो बचपन से पापा जी को जानते हो ...कितना विश्वास करते हैं तुम पर ?"श ने उसके चेहरे को मासूमियत से अपनी कोमल हथेलियों में भरते हुए कहा l

​"यह सच है कि हम दोनों एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं ...और तुम्हारे लिए तो मैं अपनी जान भी दे दूंगा l"

​"तो फिर परेशानी क्या है ...मैं तुमसे शादी करना चाहती हूँ ...ले चलो मुझे अपने साथ ...l"उसने उतावलेपन से कहा l

​"मैं तुमसे उम्र में दस साल बड़ा हूँ ...l"

​"तो क्या हुआ मैं तुमसे प्यार करती हूँ ...तुम जैसा कहोगे वैसा ही होगा l"

​उसकी तो वाछे खिल गयीं ...यह सुनकर कि कल तक जिस घर की चाकरी की ...लड़की के दिमाग को ऐसा धोया कि दामाद बनाने को आमादा है .

​इस सुनहरे मौके को भला वह कैसे हाथ से जाने देता ....ऊंची जाति वालों  को नीचा दिखाने का अद्भुत अवसर जो उसके हाथ लगा था .

​कुटिलता उसके चेहरे पर नाचने लगी ...."बात आई गई भी हो सकती है ...हो सकता सच में लड़की का बाप लड़की प्रेम के आगे नतमस्तक होकर उसे माँफ कर दे और उसको अपना दामाद स्वीकार कर ले ...नहीं नहीं ..यह तो ठीक नहीं होगा ...इससे तो उसकी अछूत आत्मा को शांति नहीं मिलेगी ...कुछ नया करते हैं l"अ ने मन ही मन सोचा l

​"मैं तुमसे शादी करूंगा ...मगर l"

​"मगर क्या ?"

​"तुमको एक काम करना होगा ?"

​"क्या ?"

​"अपने पापा और घरवालों के विरुद्ध एक वीडिओ बनाना होगा ....ताकि वे हमको नुकसान न पहुंचा पाएं ...दिखा दो सारी दुनियाँ को कि हम एक दूसरे को कितना प्यार करते हैं ?"उसने एक और तीर छोड़ा जो निशाने पर जा लगा , क्योंकि शिकार मूर्ख है ..नादान है ...अधीर है ...अपनों के खिलाफ ही खड़ा हो गया ...तोड़ने के लिए ...मारने के लिए ....समाज में सिर झुकाने के लिए .

​और फिर उन्हौने बाकायदा वीडिओ बनाकर वायरल कर दिया ....पिता भी अवाक ....समाज भी अवाक ...क्या सिला दिया उस शक्स ने जिसे बेटी की हिफाजत के लिए रखा था वही ....छी ...

​पूरी दुनियाँ को पता चल गया कि फलाने की बेटी भाग गई ...और उनको मरने के लिए छोड़ गई ...तड़पने के लिए छोड़ गई .

​बहुतेरे बापों के मुंह से निकल रहा है .....बिटिया न दीजो ....

​प्रेम त्याग का नाम है ...प्रेम महसूस किया जाने का नाम है ...एक एहसास है ...जिसे डंके की चोट पर नहीं ह्रदय की गहराइयों से महसूस करो ...प्रेम पाने का नहीं ....अपनों को दर्द देने का नहीं ....दर्द सहने का नाम है l

​✍️ राशि सिंह , मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 


गुरुवार, 15 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी----एक इंच ज़मीन!


एक दूसरे के खून के प्यासे बने दो ऐसे परिवारजो आपस में सगे चाचा-ताऊ की औलाद होते हुए भी आपस में एक दूसरे की सूरत तक देखना भी पसंद नहीं करते।

      दोनों ओर के लोगों के हाथों में एक से एक भयानक हथियार देखकर मुहल्ले के लोगों के साथ-साथ वहां से गुजरने वाले हर एक व्यक्ति के मन में एक अजीब सा भय व्याप्त था।पता नहीं कब कोई अनहोनी हो जाए।

     किसकी तरफ से कौन काल के गाल में समा जाए।इतना विस्फोटक माहौल देखकर कोई  भी उनके पास जाकर उनसे इसका कारण जानने की हिम्मत तक नहीं कर जुटा पाता।

     तभी एक बूढ़ा व्यक्ति जो फटे-पुराने कपड़े पहने था।पैरों में जूते भी न होने के कारण दोनों पैर  बुरी तरह से घायल और ऊपर तक सूजे हुए थे। रूखा-रूखा चेहरा,बिखरे-बिखरे  बाल,बुझी-बुझी सी आँखें,सूखी हुई काया किसी अस्थिपंजर से कम नहीं लग रही थी। ने पास जाकर उन दोनों क्रोधित परिवार के सदस्यों को शांत करते हुए पूछा, बेटा ऐसी क्या समस्या है जिसका परिणाम इतना भयंकर होने जा रहा है।

   तभी दोनों परिवारों के सदस्य एक साथ बोल पड़े बाबा यह हमारी एक इंच जमीन पर जबरदस्ती कब्ज़ा करना चाहते हैं।जो हम इन्हें करने नहीं देंगे।चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए।

    तभी दूसरी तरफ के लोगों ने भी अपने कागजात दिखाते हुए कहा कि इन पर हम सबके नाम देखकर आप खुद ही फैसला करें बाबा,कि कौन सही और कौन ग़लत है।

      बाबा ने मुस्कुराते  हुए दोनों पक्षों से एक सवाल किया कि आप मुझे यह बताएं कि आप अपने परिवार के किस-किस सदस्य को खोना पसंद करेंगे।अपने बाप-दादा को,अपने भाइयों को,चाचा-ताऊ, या अपनी माँ,बहन,बेटियों के अलावा अन्य सगे रिश्तेदारों को।

    अगर एक इंच ज़मीन का टुकड़ा आपकी शांति को भंग करके आपको मेरी तरह बेसहारा और भिखारी बना दे,क्या यह अच्छा लगेगा आपको,,,

   मेरा भी बहुत सम्पन्न परिवार था।सभी में बहुत एका था।सब एक दूसरे पर जान छिड़कते थे।सब हमारे परिवार की एकता की मिसालें देते नहीं थकते थे। परन्तु

तभी  मेरे परिवार में भी सिर्फ एक इंच ज़मीन के टुकड़े को लेकर ऐसा महाभारत हुआ कि मेरे सिवाय पूरा परिवार ही लालच की भेंट चढ़ गया।

      आज मैं अकेला इस संसार में अपने दिन पूरे कर रहा हूँ।भीख मांग कर पेट भर लेता हूँ।कभी-कभी तो भूखे पेट ही सो जाता हूँ।हर समय अपने उन सुनहरे दिनों की शानदार यादों को 

संजोते हुए केवल और केवल अपनी आंखों से आंसू बहा कर अपने मन को हल्का कर लेता हूँ।

    ओ प्यारे बच्चो आपसी झगड़ों से कुछ हासिल नहीं होता।मिलती है तो सिर्फ बर्बादी की चुभन।

   इसलिए आपस में गले मिलो और भयानक अपराध से बचो।इसी में समस्त परिवार का भला है।सभी ने बाबा की बातों पर अमल करते हुए अपने-अपने हथियार फेंक कर एक दूसरे को प्यार से गले लगाते हुए अनर्थ होने से बचा लिया।     बाबा ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आशीर्वाद देते हुए कहा। सभी का कल्याण हो।            

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी",मुरादाबाद/उ,प्र,

मोबाइल फोन नम्बर  9719275453

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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ---सपने


मधु जब मात्र छह वर्ष की थी, उसके पिता तिलक गुजर गए थे । एक भाई जो उस समय चार वर्ष का था उसे मालूम नही था कि जिंदगी किसे कहते हैं ।माँ मेहनत मजदूरी करके पेट भरती रही ।कहने को मामा साथ रहते ,लेकिन उनकी तरफ से जरा सी भी मदद की उम्मीद न थी ।मामी को मामा का मिलना -जुलना भी पसंद न था ।खैर ,समय बीतता गया ।मधु और उसका भाई राजीव बड़े हो गए थे ।राजीव को मिर्गी के दौरे पड़ते थे ।सो वह ज्यादा न पढ़ पाया लेकिन मेहनत करती माँ को देख मधु का मन कुछ करके हासिल करने को आतुर हो जाता ।वह नहीं चाहती थी ,कि माँ अब इस उम्र में भी मेहनत करे ।वह अपनी माँ को वो तमाम खुशियाँ देना चाहती थी ,जिससे वह वंचित रह गई।मधु जानती थी ,सपने बंद आँखों से नही खुली आँखों से देखने वालों के ही पूरे होते है और  दिन -रात कड़ी मेहनत कर मधु ने अपनी मंजिल पा ही ली और उसका बैंक में चयन हो गया ।वह जानती थी ,मेहनत करने वालों की कभी हार नही होती ।जो सपना उसने देखा ,कि वह माँ, भाई को अपने साथ रखेगी आज वह पूरा हो गया ।

✍️  शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) निवासी साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ---- "जन्मदिन "

   


आज दिन भर नितिन उदास रहा। मम्मी के बार बार कहने पर भी उसने केक काटने से मना कर दिया छोटा भाई सचिन भी उससे कहते हुए ख़ुद को नहीं संभाल पा रहा था। पिछले वर्ष पापा ने सब कुछ कितने अच्छे से किया था।... प्लीज पापा आ जाओ..... कहते हुए फूट फूटकर रोने लगे दोनों भाई ,अब तो घर भर में करुण स्वर पसर गया था। ....प्लीज़ पापा आप एक बार तो आ जाओ। .....देखो आप नहीं आओगे तो मैं न तो केक काटूंगा और न ही खाना खाऊंगा।...... पता नहीं सुबकते सुबकते दोनों भाई एक दूसरे से लिपट कर जाने कब सो गए। .....मां की भी सुबकियाँ रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। तभी एक आवाज़ सुनाई दी "अरे नितिन ! उठ चल, केक काट.... आवाज़ सुनते ही.... नितिन उठा देखा पापा पुलिस की वर्दी में मुस्कुरा रहे थे और उसका सिर सहला रहे थे। 

    नितिन उठा .......मोमबत्तियां जलाकर टेबल पर रखे हुए केक पर सजाकर फूंक मारकर केक काटते हुए बोला... "पापा अब मत जाना ।"

    मां आंसुओं को पोंछती हुई मुस्कुरा कर अपने लाल को लंबी उम्र की दुआएं देती रही।....

  सचिन यह सब देखकर हतप्रभ सा हो गया..... कि क्या पापा सितारों की दुनिया से वापस लौट आए हैं या सिर्फ़ एक सपना था या केवल अहसास था अपनों का ....

   ✍️  रेखा रानी, विजय नगर गजरौला, जनपद अमरोहा ,उत्तर प्रदेश।

मुरादाबाद के साहित्यकार राशिद हुसैन की कहानी ---वो कौन थी

जाड़ों की सर्द हवाएं चल रही थी रात के लगभग दो  बज चुके थे थोड़ी-थोड़ी देर बाद कुत्तों के भौंकने की आवाजें सन्नाटे को चीर रही थी अरुण जो अभी ऐसे बैठा था जैसे अभी शाम ही हुई हो। उसकी टेबल पर कुछ कोरे कागज बिखरे पड़े थे। साथ ही शराब से आधा भरा गिलास रखा था अरुण अपनी उंगलियों में दबे पेन से सर को खुजा रहा था बीच-बीच में गिलास उठा कर घूंट भर लेता लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी वह आज कुछ लिख नहीं पा रहा था। इसी बीच अरुण के नौकर बहादुर जिसे वह अपने साथ पहाड़ों से लेकर आया था और अब उसी के साथ रहता था दबी आवाज मे कहा साहब खाना लग गया है। अरुण ने उसकी तरफ ऐसे देखा जैसे अभी-अभी वह कहीं बाहर से आया हो और अभी रुकने का इशारा किया इस पर बहादुर विनर्म मुद्रा में साहब चार बार खाना गर्म कर चुका हूं अगर आप नहीं खाएंगे फिर ठंडा हो जाएगा इस पर  अरुण चुप रहा और ये कहकर बहादुर वहां से चला गया।

फरवरी माह की आज वही तारीख जिस दिन नीलिमा अरुण से पहली बार मिली थी बहुत कोशिश करने के बाद भी वो उसको भुला नहीं पा रहा था और बीती जिंदगी के ख्यालों में खोता चला गया।

बचपन से प्राकृतिक सौंदर्य का प्रेमी को जब पहली नौकरी का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो वह बहुत खुश था। लेकिन जब पहली पोस्टिंग ही उत्तराखंड के पहाड़ों में बसा सुंदर शहर अल्मोड़ा में मिली तब उसकी खुशी का ठिकाना ही ना रहा। अरुण ने जल्द ही अपनी पैकिंग की और कंक्रीट के जंगल एवं भागदौड़ से भरी जिंदगी से भरे शहर दिल्ली को अलविदा कहकर अल्मोड़ा चला गया।

अरुण ने अल्मोड़ा में नौकरी ज्वाइन करने के साथ ही पहाड़ों की सुंदरता को निहारने की अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए समय निकालना शुरू कर दिया वह छुट्टी के दिन अक्सर कभी रानीखेत कभी बिनसर कभी कौसानी तो कभी बागेश्वर घूमने चला जाता। कार्य दिवस में भी वह साइट और ऑफिस के काम निपटा कर अल्मोड़ा में ही दूर एक सुनसान पहाड़ की चोटी पर जाकर बैठ जाता और वहां से खूबसूरत शहर को निहारता रहता।

फरवरी की नर्म धूप में एक दिन अरुण उसी चोटी पर बैठा था दोपहर हो चुकी थी तभी पीछे से किसी की आहट हुई और कुछ ही देर में एक परछाई उस पर पड़ी वह कुछ घबरा गया उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई तब एक सुरीली आवाज ने कुछ इत्मीनान दिया जब तक उसके सामने पहाड़ी वेशभूषा में एक खूबसूरत लड़की आ चुकी थी। शहर में आप  अभी नए आए हैं साहब जी अरुण हकला गया हां ___क्या नाम है आपका जी जी _____अरुण और आपका और उन्हें खुद को संयम करते हुए पूछा नीलिमा_ नीलिमा रावत ओह बहुत सुंदर नाम है आपकी तरह वह मुस्कुरा कर चली गई। अरुण उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया। और साप्ताहिक छुट्टी का इंतजार करने लगा की एक बार फिर मुलाकात हो जाए और सप्ताह भर बाद फिर उसकी मुलाकात हो ही गई फिर यह सिलसिला चलता रहा। दोनों के दिल में कब प्यार के अंकुर फूट गए पता ही नहीं चला। एक दिन नीलिमा रोती हुई अरुण से मिली और परिवार में झगड़े की बात कहते हुए सीधे शादी की बात कर डाली

 अरुण को जैसे इस दिन का बेसब्री से इंतजार था। प्यार में पागल अरुण ने ना ही नीलिमा के परिवार के बारे में जाना और ना ही अपने माता पिता से इजाजत लेना मुनासिब समझा। ऑफिस में काम करने वाले बुजुर्ग रहमान भाई जिनकी सभी इज्ज़त करते थे और अरुण भी अपनी हर बात उनसे साझा करता था उनके लाख समझाने के बावजूद भी अरुण ने मंदिर में जाकर नीलिमा से शादी रचा ली।

समय बीतता गया अरुण और नीलिमा का उस दिन खुशी का कोई ठिकाना ना रहा जिस दिन उनके घर मे औलाद के रूप में पुत्र का जन्म हुआ। अब उनके आंगन में भी बेटे की किलकारियां गूंजने लगी थी और उनका जीवन पहले से भी ज्यादा खुशगवार हो गया था। दोनों का जीवन सुकून से गुज़र  रहा था।

अल्मोड़ा में अरुण के अब कई यार दोस्त भी बन गए थे। एक दिन शाम को अरुण अपने मित्रों के साथ बैठा गपशप कर रहा था दारू के  गिलास छलकाए जा रहे थे। सभी मित्र अपनी_ अपनी गुजरी बातें कर रहे थे। माहौल रंगीन था। एक ने कहा रात देर से घर  पहुंचने पर खाना नहीं मिला तो दूसरा बोला रात पत्नी ने दरवाजा ही नहीं खोला तब रात संजय के घर बितानी पड़ी तब तीसरे ने कहा यार यह बातें तो रोज होती रहती हैं तीनों की बातें सुनकर अरुण मुस्कुराया और बोला मेरी शादी को दो 2 साल हो गए हैं लेकिन मैं जब भी घर पहुंचता हूं पहली ही नॉक पर दरवाजा खुल जाता है और खाना भी ऐसा गर्म मिलता है जैसे अभी_ अभी ताजा बना हो। सभी यार दोस्त ताज्जुब से अरुण की ओर देखने लगे और कहा एक बार भी ऐसा नहीं हुआ हम नहीं मानते हां_ हां यही सच है सभी मित्र अचंभित फिर उनमें से एक ने कहा आज रात तुम दरवाजा खटखटा कर खिड़की से झांकना फिर देखना यह सब क्या है ? अरुण ने उस रात न चाहते हुए भी मित्रों की बात मानी और देर रात घर गया। ठंड का मौसम था उसने देखा कि नीलिमा सामने कमरे में जो लगभग मेन गेट से बीस 20 फुट की दूरी पर था बेड पर लेटी बेटे को थपकी देकर  सुला रही थी जैसे ही अरुण ने नॉक किया नीलिमा ने वहीं से हाथ बढ़ाया और दरवाजा खोल दिया इतने किवाड़ खुलते वह अंदर आया तो वह किचन में थी जब अरुण हाथ धोकर बेडरूम में पहुंचा तो गर्म खाना लगा था जबकि हाथ धोने में मुश्किल से एक 1 मिनट भी नहीं लगा होगा! यह सब देख वह थोड़ा घबरा गया फिर हिम्मत जुटाते हुए अरुण ने नीलिमा से पूछ ही लिया कौन हो तुम.? वह बोली आपकी पत्नी वह तो मैं भी जानता हूं मगर तुम हो कौन? नीलिमा भी अब समझ चुकी थी कि मेरा राज़ फाश हो चुका है। नीलिमा ने आंखों से छलकते अपने आंसुओं को रोक कर खुद को संभालते हुए कहा आपकी तरह हम भी भगवान की बनाई इस कायनात का हिस्सा हैं। अरुण ने फिर कहा लेकिन तुम हो कौन? नीलिमा के चेहरे पर अब कठोर भाव थे मैं बताना जरूरी नहीं समझती आप बस इतना जान लो कि कोई है दुनिया में जो तुमसे प्यार करता है और हमेशा करता रहेगा । इतना कहकर वह हमारे बेटे को गोद में लेकर चल पड़ी अरुण चाहते हुए भी उसको रोक नहीं पाया। आधी रात के अंधेरे में धीरे _धीरे वह घूम होती चली गई। इस बात को को गुजरे हुए बीस 20 साल हो चुके हैं मगर उसकी पायल की छम _छम की आवाज आज भी अरुण के कानों में गूंजती हैं।

अरुण का अल्मोड़ा में रहना अब मुश्किल हो चुका था।

अब अरुण अमर प्रेम की निशानी के रूप में दुनिया भर में मशहूर ताज नगरी यानी आगरा में आकर बस गया। वह यहां रहते हुए आज भी अक्सर ताजमहल का दीदार  करते हुए नीलिमा के अक्स को तलाशने की नाकाम कोशिश करता है।  चिड़ियों की चहचहाहट से अरुण खयालों की खुमारी से जब बेदार हुआ और खिड़की से झांक कर देखने लगा सुबह हो चुकी थी। फिर उसने अपने घर में चारों तरफ नगर घुमाई नौकर बहादुर ड्राइंग रूम के सोफे से लगकर फर्श पर बैठा खर्राटे भर रहा था ।अरुण की  आंखों में भी नींद की खुमारी छा चुकी थी वह चुपचाप अपने बेड पर लेट कर सो गया।

✍️  इंजीनियर राशिद हुसैन, मुरादाबाद


मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी ज़ाकिर की कहानी -मोटी उलझन

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🎤ए टी ज़ाकिर

फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर

पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी

ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड

आगरा -282 001

मोबाइल फ़ोन नंबर। 9760613902,

847 695 4471.

मेल- atzakir@gmail.com

बुधवार, 14 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत--


 

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का छंद ---घनश्याम घटा घनघोर घनी...


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी का मुक्तक


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार राम किशोर वर्मा की रचना --कविता


 

मुरादाबाद मंडल के साहित्यकार अशोक विद्रोही का गीत ---आओ आज हम सभी शहीदों को नमन करें ..


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार शिव कुमार चंदन का गीत --सुधियों के जंगल मन को छल रहे हैं ..... ...


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की रचना -----


 

मुरादाबाद की साहित्यकार कंचन खन्ना की ग़ज़ल ---जब से आई है चुनाव की तारीख नजदीक , वो जनता के बीच नजर आने लगे हैं ....


 

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की रचना --- अस्तित्व


 

मुरादाबाद की साहित्यकार ( वर्तमान में जकार्ता इंडोनेशिया निवासी )वैशाली रस्तोगी की रचना ---मां


 

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की रचना -- आज है बेबस हर इंसान, सभी के संकट में है प्राण


 

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) की साहित्यकार रेखा रानी की रचना --- मजदूर हूं मैं...


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार विपिन शर्मा का मुक्तक ,-------


 

सोमवार, 12 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन

 


हिन्दी एवं संस्कृत के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से नौ और  दस जुलाई 2021 को दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। आयोजन में साहित्यकारों ने कहा कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ भूपति ने साहित्य सृजन के साथ देश के अहिन्दी भाषी प्रान्तों तथा अनेक देशों में  हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया।

 


मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तंभ के तहत आयोजित इस कार्यक्रम के संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने डॉ भूपति शर्मा का परिचय देते हुए कहा कि तहसील अमरोहा के ग्राम सरकड़ा कमाल में 13 दिसंबर 1920 को जन्मे डॉ भूपति शर्मा जोशी हिंदी, संस्कृत, उर्दू, बंगला, असमिया और मलयालम भाषाओं में पारंगत थे। इसके अलावा उन्हें फारसी भाषा का भी ज्ञान था। उन्होंने विविध भाषा मर्मज्ञ डॉ रमानाथ त्रिपाठी के निर्देशन में शोध कार्य पूर्ण किया ,जिसका विषय था- 'फारसी भाषा से हिंदी में आगत शब्दों का भाषा शास्त्रीय अध्ययन' । उन्होंने हिंदी के साथ-साथ संस्कृत भाषा में भी गीतों और छंदों की रचना की । इसके अतिरिक्त बंगला भाषा के पद्य नाटक 'मीराबाई' और असमिया के उपन्यास 'सपोन जोतिया मांगे' का हिंदी में अनुवाद किया। मलयालम की अनेक कविताओं का भी पद्यानुवाद किया।  पुष्पेंद्र वर्णवाल के खंडकाव्य 'विराधोद्धार' का संस्कृत भाषा में रूपांतर भी किया। यही नहीं उन्होंने अहिन्दी भाषी प्रदेशों के अलावा अनेक देशों में हिन्दी व भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार भी किया। उनका निधन 15 जून 2009 को गांधीनगर स्थित आवास पर हुआ।          

केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि प्रदीप्त चेहरा, भावमयी आंखे ,मनीषी व्यक्तित्व के धनी कवि भूपति शर्मा जी का साधारण व्यक्तित्व उन्हें एक अलग  पहचान देता है।आजीवन हिंदी के प्रचार- प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित करते हुए माँ भारती की सेवा में लगे रहे।देश-विदेश का  भृमण करते हुए अपनी भाषा की श्रेष्ठता व गरिमा बनाये रखने में उनका अप्रतिम योगदान देखा जा सकता है ।बहुभाषी होने के साथ ही शिक्षकीय दायित्व का निर्वाह करते हुए वैश्विक क्षितिज पर  उनका भाषायी प्रेम सदा ही उनके व्यक्तित्व को सरस करता रहा है ।बाल्यावस्था से ही कविता उनकी अनुगामिनी रही है ,जो समय के साथ- साथ निरन्तर प्रौढ़ होती गयी है ।भूपति जी सादगी और सरल जीवन पसंद व्यक्ति थे, उनके लिए व्यक्ति से बड़ा समाज और राष्ट्र था। अन्ततः देखा जाय तो भूपति शर्मा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को उनकी कविता एक नया आयाम देती  है।उनके साहित्य में कहीं सुख -दुःख की पीड़ा दिखती है तो, कहीं प्रेम और श्रृंगार की झलक दिख पड़ती है तो कहीं देश -प्रेम की मशाल जलती दिखायी पड़ती है । मृदुल हृदय भूपति जी सौम्य ,सरल व विनम्र प्रकृति के  सर्जनशील प्रतिभाशाली व्यक्ति थे ,बहु भाषाओं का ज्ञान उनके व्यापक जीवन दृष्टि का परिचायक है ।

मथुरा के प्रभारी सहायक निदेशक (बचत)  राजीव सक्सेना ने कहा कि डॉ० भूपति शर्मा जोशी ने आजीवन हिन्दी प्रचार-प्रसार का व्रत धारण किया और  अंतिम समय तक निष्ठा और समर्पण के साथ  इसका निर्वाह किया। देश-विदेश में  देवभाषा और देवसंस्कृति का प्रचार जोशी जी ने किया और उन्हें हिन्दी का सम्यक ज्ञान कराया। डॉ० जोशी ने विदेशियों के साथ-साथ देश में भी हिन्दी अध्यापकों की पूरी खेप तैयार की है। वे लम्बे समय तक भारत के उत्तर पूर्वी प्रान्तों में अधिकारियों को हिन्दी सिखाते रहे है।उन्होंने हिन्दी और सँस्कृत में अनेक गीतों का प्रणयन किया है जो न केवल छन्द या शिल्प की दृष्टि से बल्कि कथ्य के स्तर पर भी अद्वितीय है। उन्होंने लोकजीवन, लोकआख्यानों और लोकपरम्पराओं पर आधारित अनेक मौलिक गीतों का सृजन किया है और कृष्ण की बाललीलाओं का अपनी पद्य रचनाओं में सजीव और मनोहारी चित्रण किया है।

   

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्त ने कहा कि स्मृति शेष डाक्टर भूपति शर्मा जी की समस्त रचनाएँ संवेदनाओ से भरी, मानवीय अनुभूतियों से रंगी सजी हृदय को छू जाती हैं। मनुष्य की कोमलतम भावनाये व संवेदनशीलता, चाहे प्रकृति के प्रति अथवा देश व समाज के प्रति हमेशा प्रेरणा देती हैं। अध्यात्म की ओर इंगित करती: "जग एक मनोहर माया है / जिसका कण-कण मन भाया है / जो इसकी महिमा जान गया, / उसने ही प्रभु को पाया है। " उक्त पंक्तियाँ मन को विभोर कर देती हैं और जगत नियन्ता के लिये पाठक को नमन करने को विवश कर देती हैं। 

डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने कहा कि डॉ भूपति शर्मा जोशी साहित्य को पूर्ण ब्राह्मणत्व के आवरण में समेटे एक निश्छल सन्त थे। वे एक ऋषि थे जिनका कार्य सदैव खोज करना होता है । संस्कृत हिंदी अंग्रेजी सब पर उनकी विशिष्ट पकड़ थी । ऐसा आभास होता था कि सभी भाषाओं का उद्गम उनसे ही  हुआ हो ।सदैव मुस्कराते रहने का स्वभाव ।वेद स्मृति पुराण व्याकरण उनमें सहज रूप में समाहित थे। जोशी  जी स्वम् में साहित्य का भंडार थे ।आचरण से ,व्यवहार से,  ज्ञान से अति विलक्षण प्रतिभा थे। 

डॉ श्वेता पूठिया ने कहा कि सँस्कृत भाषा मे रचे उनके गीत उनके व्यक्तित्व के सुकोमल पक्ष की अभिव्यक्ति है।संस्कृत मे काव्य गीत एक कठिन विधा समझा जाता है किन्तु उसमें सहजता एवं सरलता उनके ज्ञान की ही पुष्टि करते है।उनके संस्कृत गीतों मे पांडित्य प्रदर्शन के स्थान पर भाव प्रदर्शन महत्वपूर्ण है।शब्दों में क्लिष्टता के स्थान पर मधुरता है यथा-द्विजात्मजाः गीत में 

वेदवेदागं स्वाध्याये पठने पाठ्येरताः।

सन्ध्यावन्दन संलग्ना विराजन्ते द्विजात्मजाः।।

डा.जोशी ने काव्य मे मधुरता को आवश्यक माना है इसलिए कहा है-कर्कशकाव्यकारकःकाकोवर्णे समतां भजति।। कृष्ण गीत मे गेयता के साथ अलंकार का प्रयोग मधुरता की सृष्टि करता है-

कृष्णःपक्षो निशा कृष्णा,कृष्णाssसीत् यमुना सरित्।

तत्र जातोsभवत् कृष्णाः काराकृत्य निवारकः।।

सुमधुर गीतों का सृजन कर डा .भूपति शर्मा जोशी  ने संस्कृत में सरल एवं मधुर साहित्य की विधा को पल्लवित किया है।

 

रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कि मुरादाबाद मंडल के जिन कवियों ने कुंडलिया छंद-विधान पर बहुत मनोयोग से कार्य किया है ,इनमें से एक नाम डॉ. भूपति शर्मा जोशी का भी है ।  कुंडलिया छंद शास्त्र में श्री जोशी की अच्छी पकड़ थी। कुंडलिया लेखन में जोशी जी  ब्रजभाषा अथवा लोक भाषा के शब्द बहुतायत से प्रयोग में लाए हैं । इनसे छंद-रचना में सरलता और सरसता भी आई है तथा वह जन मन को छूते हैं । फिर भी मूलतः जोशी जी खड़ी बोली के कवि हैं । कुंडलियों में कवि का वाक्-चातुर्य भली-भांति प्रकट हो रहा है । वह विचार को एक निर्धारित बिंदु से आरंभ करके उसे अनेक घुमावदार मोड़ों से ले जाते हुए निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल हुआ है। सामाजिक चेतना डॉ भूपति शर्मा जोशी की कुंडलियों में भरपूर रूप से देखने को मिलती है । उन्होंने सामयिक विषयों पर भी कुंडलियां लिखी हैं । 

   

श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि उनकी रचनाओं को पढ़कर सहजता में ही उनकी सृजनशीलता, चिंतन एवं सामाजिक परिस्थितियों के प्रति एक जागरूक नागरिक के दृष्टिकोण और योगदान का भान होता है। उनकी रचनाओं का विषय प्रमुखता से सामाजिक चिंतन, आध्यात्मिकता, तथा सामाजिक बुराइयां ही हैं, कहीं कहीं प्रेम व श्रृंगार का समावेश भी दिखाई देता है। साथ ही उन्होंने सामाजिक, व राजनीतिक विषयों पर कुंडलियां भी लिखी हैं। कुछ विशुद्ध हास्य रस की कुंडलियां भी हैंं जो उनके मनोविनोदी पक्ष को परिलक्षित करती हैं। यही नहीं, उन्होंने संस्कृत में भी छंदों की रचना की है। संस्कृत में रचित उनका काव्य मुख्यत: अध्यात्म व दर्शन पर ही रचित है, तथा उनकी ये समस्त रचनाएं संस्कृत के श्लोकों से किसी भी प्रकार से कम नहीं हैं। उनका बात कहने का अंदाज स्वयं में  विशिष्ट है। भाषा भी सरल है।   

अशोक विश्नोई ने  उनके संस्मरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि बात सन 78-79 की है उन्होंने  अपने घर पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया। मेरे पास भी न जाने कैसे निमंत्रण आया परन्तु परिचय न होने कारण मैं असमंजस में पड़ गया।अगले दिन स्मृति शेष पुष्पेंद्र जी मेरे पास आये । मुझसे बोले जोशी जी के यहाँ नहीं चलना क्या। मैं उनके साथ गोष्ठी में चला गया, तब मेरा प्रथम परिचय हुआ और ऐसा हुआ कि अंत तक रहा। जोशी जी साधारण दिखने वाले असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। एक बार एक काव्य गोष्ठी में वह अध्यक्ष थे कार्यक्रम हिंदू कॉलेज में था।कार्यक्रम का संचालन मैं कर रहा था एक ,दो कवियों ने रचना पाठ किया  ही था कि जोशी जी बीच में ही उठकर चले गए मैं समझ नहीं पाया बहराल गोष्ठी समाप्त होने के बाद मैं और पुष्पेंद्र जी उनके घर पहुँचे हमने गोष्ठी में से बीच में आने का कारण पूछा वह बोले भाई अशोक जी जहां सरस्वती वंदना न होती हो वहाँ मैं नहीं रुक सकता यह अपमान है। 

   

डॉ अजय अनुपम ने कहा कि डॉ भूपति शर्मा जोशी का स्मरण, मुरादाबाद के विद्वानों की अतीत की कड़ियों को जोड़ने के काम जैसा है।सौम्य व्यक्तित्व,सरल। व्यवहार, अपनी विद्वत्ता के प्रति निरभिमान का भाव, मुखमंडल पर मुस्कान और स्वाभिमान दोनों की आभा लिए ,मन से मिलते थे।कई वर्ष अन्नपूर्णा मंदिर,साहू मुहल्ला, मुरादाबाद में, तुलसी जयन्ती के वार्षिक आयोजन में मेरे निमन्त्रण पर वह सप्रेम आशीर्वाद देने आया करते थे।कवि गोष्ठियों में भी उनसे भेंट होने पर उनका साथमिलता था। बड़ों को सम्मान तथा छोटों को प्रोत्साहन देने की उनकी आदत थी। उनमें बनावटीपन नहीं था। संतोषी स्वभाव ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। उनके घर जाकर विद्वान के आश्रम जैसे वातावरण का सुख मिलता था।

डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मैं आदरणीय को जितना जानता हूं, ऐसा लगता है कि हिन्दी के एक संत को जानता हूं।मेरा मन भाव केवल औपचारिकता नहीं है,यह उनके श्रीचरणों में घुला-मिला मन भाव है।उनका प्यार याद है और उनका कर्माधार याद है। मकान किसी के भी कितने सुन्दर बन जायें, पर मजबूत मकानों के कुछ आधार होते हैं।मेरे लिए तो आदरणीय मुरादाबाद की साहित्यिक परंपरा का आधार ही थे, जिस पर हम खड़े हैं।

वीरेंद्र सिंह बृजवासी ने कहा कि स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी जी ने साहित्य साधना के मर्म को केवल साधा ही नहीं अपितु अंतर्मन से जिया भी है। आप संस्कृत के भी प्रकांड विद्वान रहे।जिसका परिचय संस्कृत भाषा में लिखे बहुत से गीतों में मिलता है।स्व0 जोशी जी  बहुत ही सरल स्वभाव के रचनाकार होने के साथ-साथ शब्द पारखी भी थे। किसी भी रचनाकार की रचना को बड़ी ही बारीकी से सुनतेऔर उसमें छांदिक,मात्रिक दोष के अतिरिक्त उसकी लयात्मकता,रागात्मकता एवं उसके प्रस्तुतिकरण पर भी अपनी पैनी दृष्टि का प्रहार करना नहीं भूलते थे। एक बार मैं काव्य गोष्ठी का निमंत्रण देने उनके घर गया।सादर चरण स्पर्श करके मैंने निमंत्रण पत्र उन्हें सौंपते हुए गोष्ठी में पधारने का व्यक्तिगत रूप से आग्रह भी किया। बड़े प्यार से बिठाया स्वयं लाकर पानी भी पिलाया।कुशल क्षेम के पश्चात उस निमंत्रण पत्र को बड़े ध्यान से पढ़ कर बड़े शांत स्वभाव से कहा कि इस में तो कई त्रुटियां हैं।ये या तो छापने वाले ने की या फिर आपने इसे पढ़ने में चूक की है।कहीं विराम कहीं चंद्रबिन्दी तो कहीं मंचासीन अतिथियों के क्रम पर भी आपत्ति व्यक्त की। सादा  जीवन  उच्च  विचार  ही आपके जीवन का मूल मंत्र रहा।

शिशुपाल सिंह मधुकर ने कहा कि आध्यात्म और साहित्य की महान विभूति कीर्ति शेष डा. भूपति शर्मा जोशी जी को याद करते हुए उनके साथ हुई मुलाकातों की एक एक पल की स्मृतियाँ चलचित्र की भाँति मस्तिष्क में चलने लगती हैं। सीधे साधे लिबास में असाधारण व्यक्तित्व वाले वास्तविक संत की उनकी छवि इतनी आकर्षक थी कि उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति उनसे बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकता था। उनके सम्मोहक चेहरे पर विराजमान मृदु मुस्कराहट उनके निष्कलंक मन की गवाही देती रहती थी। उनसे साहित्यिक कार्य क्रमों में असर मुलाकात होती रहती थी और वे मेरी रचनाओं को बहुत गौर से सुनते थे। छांदसिक कसावट लिए उनकी रचनाओं का विषय मूलतः सामाजिक मूल्यों के क्षरण, पारिवारिक समस्याओं हिंदी भाषा और धार्मिक स्तुति गान पर केंद्रित है।

 

दिल्ली के साहित्यकार आमोद कुमार ने कहा कि डॉ जोशी अध्यात्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आभूषणों से सुसज्जित एक सात्विक, सरल व्यक्तित्व थे। हिन्दी एवं संस्कृत दोनो ही भाषाओं मे सृजन. के धनी, गीत,मुक्तक, कुंडली, दोहे आदि सभी विधाओं मे डा. भूपति शर्मा जोशी की रचनाएं साहित्य की धरोहर हैं, दक्षिण भारत मे वहीं की भाषाओं के माध्यम से अहिन्दी भाषी कर्मचारियों को प्रबोध,प्रवीण,प्राज्ञ आदि हिन्दी कक्षाओं मे हिन्दी सिखाने का अति महत्व का प्रशंसनीय कार्य किया ।

अशोक विद्रोही ने कहा कि डॉ भूपति शर्मा  जोशी ने संस्कृत  साहित्य में भी श्रम साध्य सर्जना की और मुरादाबाद  को अपनी तपस्या साधना से गौरवान्वित किया। उन्होंने हिंदी में गीत, कुंडलियां, दोहे, मुक्तक, हास्य व्यंग, जोकि समाज सेवा, से लेकर प्रेम, श्रंगार सभी विधाओं में रचनाएं की उनका हिंदी संस्कृत के अलावा भी अन्य कई भाषाओं पर एकाधिकार रहा स्वयं से बहुत ही सरल हृदय, मुख मंडल पर सदैव एक स्नेह सिक्त मुसकान लिए दुर्लभ व्यक्तित्व के धनी रही , उन्होंने अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में जाकर हिन्दी साहित्य शिक्षा का प्रचार,प्रसार किया । भारत सरकार की  हिंदी शिक्षण योजना के अंतर्गत उन्होंने शिक्षण का कार्य किया विदेशों में जाकर भी उन्होंने हिंदी शिक्षण का कार्य किया जिसके लिए मुरादाबाद साहित्य जगत हमेशा उन पर गौरव करेगा।

डॉ पुनीत कुमार ने कहा कि स्मृतिशेष डॉ भूपतिशर्मा जोशी जी से पहली बार दिशा की कवि गोष्ठी में मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।प्रथम दृष्टया वे एक संत सरीखे नजर आए।मुखमंडल पर तेज,शांत चित्त, सरल, सौम्य एवं विनम्र स्वभाव और एक सीधा सादा प्रभावशाली व्यक्तित्व।धीरे धीरे उनकी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा से परिचय हुआ। विभिन्न विधाओं में सार्थक लेखन और कई भाषाओं पर मजबूत पकड़,रचनाकारों की भीड़ में,उनको अलग पहचान दिलाती हैं। उनके आचरण और व्यवहार से लेशमात्र भी अहंकार नहीं झलकता था , अपितु हम जैसे नौसिखिए रचनाकारों को कभी कभी अहंकार होने लगता था कि हमने उन जैसे युगपुरुष की छत्रछाया में काव्यपाठ किया है।    

राजीव प्रखर ने कहा कि भूपति जी का रचनाकर्म जीवन की विभिन्न संवेदनाओं को गहराई से स्पर्श करता है। वह साहित्य के सृजक ही नहीं अपितु एक ऐसे महान  साधक भी थे जिन्होंने काव्य को स्वयं में जीते हुए साहित्यिक समाज को अपनी लेखनी से आलोकित किया। उपलब्ध रचनाएं यह स्पष्ट दर्शा रही हैं  कि उनकी रचनाधर्मिता बहुआयामी है। जहाँ उनमें विभिन्न सामाजिक मूल्यों के प्रति गहन चिंतन दृष्टिगोचर होता है वहीं उनके भीतर का रचनाकार आध्यात्म जैसे गूढ़ विषय पर भी अपना सशक्त नियंत्रण सिद्ध करता है। "तिल-तिल नित्य जला करता हूँ", "आज मुझे लगता है ऐसा, सारे काम चूक गये.....", "पथिक रे ! साँझ पड़ी गर चल......", "हमारो जीवन घनश्याम ....", " अरी ओ रुक जा आँसू धारा.....", "मैं गीत लिखूँ या सुनूँ  उनकी.....", " कविता से वार्ता...", "याद शहीदों के शोणित की....", " गा दो कवि एक मधुर गीत...."  आदि मनभावन रचनाओं की एक सुदृढ़ श्रृंखला के रूप में उन्होंने जीवन के प्रत्येक पहलू का सफलता से स्पर्श किया है। निःसंदेह, उनकी लेखनी से निकला यह साहित्यामृत उस आधुनिक वर्ग के बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है जो व्यवसायिकता में आकण्ठ डूबा रहकर तथाकथित काव्य मंचों अथवा तथाकथित कविता  को महत्व देता है अपितु, यह उस वर्ग के अन्तस को गहराई से स्पर्श करता है जिसका लक्ष्य वास्तविक रूप से गंभीर व सात्विक साहित्य-साधना ही है। 

हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि उनकी कुछ रचनाएं मुझे बेहद आकर्षक और न्यारी लगी,उन्हें समझने की कुछ कुछ कुंजी की तरह ये मुझे महसूस हुई।जैसे जोंक और जलजात , शलभ क्यों खोते हो प्राण, कविता से वार्ता , पश्चाताप , कवि तुम्हारे रूदन में भी गान बसता है, तिल तिल नित्य जला करता हूँ आदि। उनकी एक कुण्डलिया वाहवाही के इस दौर पर कितना सटीक व्यंग्य है और कितनी बेबाकी से वह अपनी बात रखते हैं,यह वाकई अनुकरणीय है।आप भी आनंद लें।

    हम से दाद ना मांँगिए, हम कितने लाचार

    बिना दाद पढ़ जाइए,कविताएं दो चार

    कविताएं दो चार,वाहवाही यदि चाहो

    बिना सिफारिश मुफ्त,मुक्त हम से पा जाओ

    कह मधुकर कविराय,दाद घातक है जम से

    मत दो तुम भी दाद,और मत चाहो हम से

     उनकी भाषा प्रायः संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है और संस्कृत में भी उन्होंने लिखा है।यह उनके पाण्डित्य को सिद्ध करती है।जहाँ वह गूढ़ आध्यात्मिक सृजन करते हैं वहीं उनकी हल्के फुल्के हास्य विनोद की रचना भी दृष्टिगोचर होती है जो उनके रचना क्षेत्र का विस्तार बताती है।उनका व्यक्तित्व और सृजन निश्चित ही प्रणम्य है।

मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि माँ सरस्वती के अनन्य उपासक कीर्तिशेष डा.  भूपति  शर्मा जोशी जी एक चलता फिरता साहित्यिक  व आध्यात्मिक तीर्थस्थान ही थे,जिन्होंने संस्कृत में काव्यरचना करके सनातन संस्कृति को पोषित  ही किया । संस्कृत पढ़ना, लिखना अलग बात है,परंतु संस्कृत में काव्य लिखना अति कठिन कार्य है और यह कार्य आपने जिस सरलता व सहजता से किया वह आश्चर्यजनक है।देश विदेश में हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु की गयी आपकी साहित्यिक यात्राएँ अनंत काल तक हिंदी साहित्य के पथिकों का  पथ प्रदर्शन करती रहेंगीं।आपकी रचनाओं में आपके व्यक्तित्व के समान ही सरलता व सहजता के दर्शन होते हैं।आपकी विद्धता को अहंकार ने लेश मात्र भी स्पर्श नहीं किया है।आपकी बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी व आपका संत रूप है,उज्जवल   हिमगिरि पर बैठे तपस्वी के समान है,जिसमें कोई बनावट नहीं दिखती। आपके बहुआयामी साहित्यिक व्यक्तित्व के विराट दर्शन आपकी रचनाओं में साक्षात प्रकट हैं। आपने दोहे, गीत, कुंडलिया, मुक्तक, बालगीत, लघुकाव्य, खण्डकाव्य व संस्कृत काव्य की रचना की है जिनकी लेखन शैली सरल व जनमानस को प्रभावित करने वाली है।  अलंकारों व  साहित्य के विभिन्न रसों  का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है।आपने देशभक्ती की रचनाओं, सामाजिक समस्याओं, सकारात्मक भावनाओं, श्रृंगारिक रचनाओं के साथ साथ हास्य पर भी खूब लेखनी चलायी है।

डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि हिंदी साहित्य की महान विभूति कीर्तिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी जी साहित्य की पृष्ठभूमि पर ध्रुव तारे के समान अपने प्रकाश से प्रकाशित करते हुए एक महान स्मृतिशेष हैं ।उन्होंने हिंदी की अनेकानेक विधाओं जिनमें कुंडलिया, गीत ,मुक्तक ,दोहे एवं ब्रज भाषा में मनोहारी गीत लिखे है ।उनका हिंदी ,संस्कृत भाषा के अतिरिक्त अन्य कई भाषाओं पर भी पूर्णाधिकार था ।उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक चिंतन , आध्यात्मिकता ,प्रेम व श्रृंगार का समावेश किया है ।अपनी विभिन्न विधाओं में यथार्थ लेखन और कई भाषाओं में मजबूत पकड़ उन्हें अन्य रचनाकारों से अलग पहचान दिलाती है ।कीर्तिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी जी को मुरादाबाद की साहित्यिक परम्परा का केन्द्र बिंदु कहना गलत न होगा     

 दुष्यन्त बाबा ने कहा कि जोशी जी अपने समय के एक ऐसे लेखक/कवि और समाजसेवी थे जिनकी रचनाओं ने मनुष्य की प्रत्येक मनोवृत्ति (हास्य, व्यंग्य, तर्क, और अध्यात्म) को प्रभावित किया है। साथ ही समाज में व्याप्त कुरीतियों पर सीधा कुठाराघात किया है। उर्दू, हिंदी और संस्कृत तीनों भाषाओं में अपनी मजबूत पैठ रखने वाले जोशी जी ने हिंदी विषय के शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए भी हिंदी की जननी संस्कृत पर अपना रचनाकर्म और शोध जारी रखा। मुझे उनकी रचनाओं में संस्कृत में लिखित मंगलामुखी, द्विजात्मजा: (ब्राह्मण की बेटी), कोकिल: (कोयल), गुर्नष्टकम्,  सर्व देवावाहन, कृष्ण: तथा हिंदी में वीणावादिनी वन्दना व 21 शानदार रचनाओं   के साथ-साथ प्रत्येक रस का रसास्वादन कराती शानदार  हिंदी कुंडलियां, जिनमें एक हास्य कुंडलियां पेंट सिलाने को गये लाला थुल-थुलदास, दस घण्टे में चल सके केवल कदम पचास, मुझे बहुत अधिक पसंद आयी। साथ ही एक पति-पत्नी की तीक्ष्ण हास्य-व्यंग्य रचना ने बहुत अधिक प्रभावित किया है।  

मुरादाबाद की प्राचीन संस्था राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति के संस्थापक सचिव श्री मदन लाल वर्मा क्रांत   (वर्तमान में ग्रेटर नोयडा निवासी) ने अपने  भावपूर्ण विचार कुछ तरह व्यक्त किये है -----

प्रियवर मनोज जिस तरह आप स्मृतियाँ सहज सँजोये हो,

कैसे कह दूँ तन से हो दूर मग़र मन कितना अधिक भिगोये हो।


जोशी जी गान्धी नगर शहर मुरादाबाद 

में रहते थे वहीं पर मेरे घर के पास।

संचालन इतना अधिक सुन्दर और सटीक।

करते थे कि मैं क्या कहूँ मेरे बहुत क़रीब ॥


जब भी कोई कविता लिखते वह मुझे अवश्य दिखाते थे 

जब तक हम गान्धी नगर में रहते थे वह घर आ जाते थे।

सन् उन्निस सौ उन्हत्तर से चौरासी तक जोशी जी से 

जितनी भी आत्मीयता रही वो गयी नहीं मेरे जी से।


कुण्डलियाँ सब पढ़ लिये,

सभी पते की बात।

डाक्टर भूपति जो लिखे,

मन ये नाहिं अघात॥

मन ये नाहिं अघात, 

लिखी सारी जग बीती।

बीच-बीच में एक या दो,

हैं अपनी बीती॥

कहें ‘क्रान्त’ माने या ना माने ये दुनिया।

विद्वानों को भायेंगीं मधुकर की कुण्डलियाँ॥


भूपति शर्मा जोशी ‘मधुकर’

की सब रचनाएँ पढ़ डालीं।

प्रियवर उमेश एवम् मनोज

की वृत्ति प्रखर प्रतिभा वालीं॥

दोनों को शुभ अाशीर्वाद।

चन्दौसी के साहित्यकार रमेश अधीर ने कहा कि जोशी जी ने अपनी  रचनाओं के माध्यम से मानवता का उत्कृष्ट नमूना पेश करते हुए जो प्रबोधन मानव जाति को दिया है, स्तुत्य है। अपनी एक रचना में उन्होंने ठीक ही सचेत किया है कि यदि मानव समय रहते स्वयं के महत्व को पहचान ले और चाँदी अर्थात सम्पन्न होने पर मिट्टी अर्थात विपन्नता को हेय दृष्टि से न देख कर एक संतुलित जीवन जिये और जीने की प्रेरणा दे तो उसको अपने जीवन में अपने कृत्यों पर  कभी भी पछताना नहीं पड़ेगा।ऐसा व्यक्ति सदैव ही ईश-कृपा का सहज पात्र भी होता है।

 

दिल्ली की साहित्यकार डॉ इंदिरा रानी ने कहा कि वह उच्च स्तरीय साहित्यकार होने के साथ साथ अति सज्जन और सम्वेदनशील व्यक्ति थे. विद्वता के साथ यदि मानवता भी हो, तो व्यक्ति अति विशिष्ट हो जाता है. डॉ जोशी जी एक ऐसे प्रज्जवलित दीपक के समान थे जिसके दिव्य आलोक में मानवता और साहित्य का पथ प्रकाशित होता रहेगा.

'जयंति ते सुक्रतीनो रससिद्धाकवीश्वराः

नास्ति येशाम् यशः काये जरा मरन जम भयम्।'

अर्थात उन रससिद्ध कवीश्वरों की जय हो जिनकी यश रूपी काया को वृद्धावस्था या मृत्यु का डर नहीं होता।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्य डॉ स्वीटी तलवाड़ ने कहा कि स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी पर आधारित इस कार्यक्रम के लिये डॉ मनोज रस्तोगी तो साधुवाद के पात्र हैं ही, भूपति जी के सुपुत्र श्री उमेश शर्मा जी भी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अपने पूज्य पिता जी की हस्तलिखित कृतियों को इतना सहेज कर रखा और मनोज जी को सौंपा। मनोज जी अपने इस कार्यक्रम के माध्यम से आप अप्रकाशित रचनाओं को जिस प्रकार संरक्षित कर रहे हैं, उसके लिये आपकी जितनी सराहना की जाए कम होगी। मुरादाबाद के स्मृतिशेष साहित्यकारों के प्रति आपकी ये श्रद्धांजलि अनुपम, अप्रतिम व प्रशंसनीय है। 

अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा ने कहा कि   आप संस्कृत और संस्कृति के सच्चे उपासक रहे हैं । आपकी संस्कृत की रचनाएं आपकी विद्वत्ता का परिचय अपने आप दे रहीं हैं । पटल पर आज उनकी रचनाओं से और उनकी निस्वार्थ सेवाओं के बारे में हमें जानने का सुअवसर मिला और उनका हिन्दी भाषा के विकास में और प्रचार- प्रसार में समर्पण के बारे में जानने का जो सौभाग्य हमें मिला ।  कीर्तिशेष परम आदरणीय डा.भूपति शर्मा जोशी जी की उच्चकोटि की रचनाधर्मिता वास्तव में हमारे साहित्य की अनमोल सहभागिता है उन्होंने आजीवन कितनी निष्ठा से परोपकार से अपने धर्म और कर्म का सांमजस्य स्थापित किया यह हमारे लिए प्रेरणा की बात है  । सच्चे अर्थो में वह एक अनमोल रत्न थे ।

हरि प्रकाश शर्मा ने कहा कि डॉ जोशी जी जितने योग्य थे उतना ही मृदुभाषी व्यक्तित्व था उनका ।कई बार कवि गोष्ठियों और उनके आवास पर उनसे मुझे कुछ प्राप्त करने का स्नेही सानिध्य प्राप्त हुआ । निसंदेह महान व्यक्तित्व के साहित्यिक कृतित्व को नमन ।

गजरौला की साहित्यकार रेखा रानी ने कहा कि दिव्य ज्योति डॉक्टर भूपति शर्मा जी एक साहित्यिक स्तंभ थे। वह साहित्य रूपी भवन का  नींव का वह पत्थर हैं जिस पर आज़  इमारत बुलंद टिकी है। 

सुदेश आर्य ने कहा कि मेरे लिए गौरव की बात है कि हम काफी समय गांधीनगर मुरादाबाद रहे वहां कुछ दूरी पर उनका घर था।पार्क में प्रायः वह बैठकर पूजा अर्चना भी करते थे।कलोनी की बहू होने के नाते आमने सामने होने पर पैर छूने पर अशीर्वाद भी कई बार प्राप्त किया।

रीना मित्तल ने कहा आदरणीय डॉ भूपति शर्मा जोशी सर मेरे grandfather समान हैं । मेरा बचपन आपकी अनेक अच्छी बातें सीखते हुए बीता क्यूँकि मेरा आपके पड़ोस में रहने का सौभाग्य रहा ।

अंत में उनके सुपुत्र उमेश शर्मा  ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सभी विद्वानों ने अपनी स्मृति को कुरेद कर जो विचार हमारे देवतुल्य पिताजी के कृतित्व पर प्रकट किए उनसे हम भाई बहिन और परिवारी जन अभिभूत हैं । बीते क्षण वापिस तो नहीं आते परंतु उनके जाने के उपरांत उत्पन्न शून्य को कुछ समय के लिए भरने का जो भागीरथ प्रयास मित्र मनोज ने किया और उसमें पिताजी के सम्माननीय मित्रों का सहयोग दिया वह सदैव स्मरणीय पिताजी के लिए श्रद्धांजलि पुष्प के रूप में अर्पित है । उनका लिखा काव्य आज अमर हुआ । स्वर्ग से उनका आशीर्वाद हमें मिलता रहे क्योंकि पूज्य पिताजी आशीर्वाद देने में क़तई भी कृपण नहीं थे । एक बार पुन: सभी सम्मानित विद्वत जनों को ह्रदय से नमन ।