मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की संस्था "प्रगति मंगला" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा

   
           एटा के वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस द्वारा वाट्स एप पर गठित साहित्यिक समूह " प्रगति मंगला " की ओर से प्रत्येक  शनिवार को "साहित्य के आलोक स्तम्भ" शीर्षक से देश के प्रख्यात दिवंगत साहित्यकारों   के व्यक्तित्व और कृतित्व पर  साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया जाता है । इसी श्रृंखला में शनिवार 29 अगस्त 2020 को हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार हुल्लड़ मुरादाबादी पर ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया गया। मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी के संयोजन में हुए इस आयोजन की अध्यक्षता आचार्य डॉ प्रेमी राम मिश्र ने की । पटल प्रशासक नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा उदघाटन व दीप प्रज्ज्वलन के  साथ कार्यक्रम का आरम्भ हुआ।
  स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी  का विस्तृत जीवन परिचय, साहित्यिक योगदान और उनकी रचनाएं प्रस्तुत करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब हुल्लड़ मुरादाबादी  अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।
एटा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं जे एल एन कालेज के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ प्रेमी राम मिश्र ने कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादजी का नाम स्मरण होते ही चेहरे पर  मुस्कुराहट आ जाती है -जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले !कौन जानता था कि श्रीसरदारी लाल चड्ढा, बर्तन व्यापारी का लाड़ला पुत्र सुशील कुमार चड्ढा एक दिन हुल्लड़ मुरादाबादी बनकर मुरादाबाद की शान बन जाएगा! 29 मई 1942 में गुजरांवाला पाकिस्तान में जन्मे हुल्लड़ जी यहां आकर मुरादाबादी संस्कारों में रस बस गए थे। यहीं उन्होंने एम ए हिंदी तक की शिक्षा ग्रहण की। धन्य है पारकर इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास जी ,जिन्होंने अपनी साहित्य और संगीत कला से सुशील कुमार चड्ढा को तराश कर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान बनाने में मार्गदर्शन दिया।संत कबीर ने उचित कहा है- गुरु ज्ञाता परजापति गढले कुंभ अनूप। हुल्लड़ जी ने इस कथन को चरितार्थ करा दिया। वर्ष 1962 के लालकिला कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि  रामधारी सिंह दिनकर जी की अध्यक्षता में उन्होंने ओज और राष्ट्रीय चेतना की रस वर्षा कर जो प्रशंसा अर्जित की थी ,उसके बाद कौन सोच सकता था कि वह हास्य रस की कविता के शिखर पुरुष बन जाएंगे! उनकी जुझारू मनोवृत्ति और बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें फिल्म जगत में सम्मान प्रदान कराने में योगदान दिया था। अपनी प्रतिभा के बल पर वे अनेक फिल्मों में गीत लेखन और अभिनय के द्वारा चर्चित हुए ।उनमें  अभिनय के संस्कार  तो  विद्यार्थी जीवन में ही पल्लवित  और पुष्पित हो गए थे ,जहां उन्होंने  अनेक नाटकों में  नायक की भूमिका  में भूरि भूरि प्रशंसा  प्राप्त की थी।  फिल्म जगत के सियाह पक्ष से समझौता न कर पाने के कारण वे पुनः मुरादाबाद आ गए और फिर से अपनी कवि सम्मेलनों की यात्रा पर उत्तरोत्तर आरूढ़ होते चले गये। आगे चलकर उनका नाम  कवि सम्मेलनों की प्रतिष्ठा और सफलता का पर्याय बन गया । भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में हास्य रस को एक सुखात्मक रस कहा है ।उनके अनुसार इसकी उत्पत्ति श्रृंगार रस से हुई है। साहचर्य भाव से हास्य रस श्रृंगार ,वीर, अद्भुत, करुण आदि  रसों का भी  पोषक है ।आपकी कविताओं ने इस सत्य का प्रमाण प्रस्तुत किया है।     हिंदी साहित्य में हास्य रस का शुभारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से हो गया था।उन्होंने हास्य रस पर पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। यह परंपरा निरंतर गतिशील है ।हुल्लड़जी की हास्य रस की श्रेष्ठता का यह प्रमाण है कि साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उनकी रचनाओं को विशेष स्थान प्राप्त होता था। उनके 10 से अधिक कविता संग्रह अनेक सीडी, कैसेट आदि आज भी देश विदेश में लोगों को गुदगुदाती रहती हैं ।
समूह के संस्थापक वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस ने कहा कि वह भी क्या जमाना था जब मंच पर चार नाम हास्य व्यंग्य और फुलझड़ियों के लिए कवि सम्मेलनी श्रोताओं के दिल और दिमाग में छाये रहते थे। काका हाथरसी,बाबा निर्भय हाथरसी,शैल चतुर्वेदी और हुल्लड़ मुरादाबादी। हुल्लड़ जी के सानिध्य में मंच साझा करने का अवसर तो मुझे नसीब नहीं हुआ लेकिन एटा प्रदर्शनी के कवि सम्मेलनों में श्रोता की हैसियत से बहुत बार सुना। एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में बहुत पढ़ा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान का होली विशेषांक तो हुल्लड़ जी के बिना पूरा होता ही नहीं था। मंच पर बोलते हुल्लड़ कवि की छवि आज भी जहन में जिन्दा है।
बदायूं के वरिष्ठ कवि उमाशंकर राही ने कहा कि स्वस्थ हास्य के सिद्धहस्त अंतरराष्ट्रीय कवि हुल्लड़ मुरादाबादी जी एक ऐसा व्यक्तित्व थे  जो लोगों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । गोरा चिट्टा बदन, चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट, जिससे भी मिलते थे खुले दिल से मिलते थे कविताओं में भी उनके व्यवहार की झलक दिखलाई देती थी मुझे भी उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है उनकी आत्मीयता उनका आत्मीय व्यवहार सदैव स्मरणीय रहने वाला रहता था । आदरणीय डॉ उर्मिलेश शंखधार, डॉ विजेंद्र अवस्थी जी उनको बदायूं में होने वाले कवि सम्मेलन पर बुलाते थे । पूज्य गुरुदेव डॉ बृजेंद्र अवस्थी जी को वह अपना गुरु मानते थे । वह अनेक बार उनके घर भी आए । मेरी भी वहां अक्सर उनसे मुलाकात होती थी । उनसे बात करके मन प्रसन्न हो जाता था । ऐसे व्यक्तित्व को भला कैसे भुलाया जा सकता है। हुल्लड़ जी को मैंने सुना तो अनेक बार था लेकिन उनको पढ़ने का अवसर प्रथम बार मिला है ।
नई दिल्ली की कवियत्री आशा दिनकर आस ने कहा कि  उनके व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में खूब पढ़े हैं । उनकी रचनाएं इतनी कुशलतापूर्वक और आम भाषा में रची हुई होती थी कि आम आदमी को भी वह अपनी जैसी बात लगती है, ये है हुल्लड़ मुरादाबादी जी के लेखनी का जादू जो सबके सर चढ़कर बोलता है | तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था | यही कारण है उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं से खूब धूम मचायी । मैं भी हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानती थी लेकिन जब ये जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी खूब लिखीं हैं तो उन्हें पढ़कर जानने की जिज्ञासा हुई कि उनका गजलकार वाला अवतार कैसा होगा । उनकी ग़ज़लों को कम आंकना हमारी भूल होगी सरल कहना और सहज लिखना केवल हुल्लड़ मुरादाबादी जी ही कर सकते हैं  सरलता और सहज लेखन के कारण ही हुल्लड़ मुरादाबादी जी जन-जन में मशहूर हुए । उनकी रचना एक अनपढ़ आदमी और गैर साहित्यिक पारखी आदमी को भी भली प्रकार समझ में आती है | सबकी बात को अपनी कलम से पन्नों पर उतार देना एक अद्भुत स्मरणीय सृजन है ।
कानपुर के साहित्यकार जयराम जय  ने कहा कि
हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य रसावतार थे। मैंने देखा है वह जिस मंच पर होते थे वहां उनको सुनने के लिए लोग प्रतीक्षा में सुबह तक बैठे रहते थे। हुल्लड़ मुरादाबादी साहब की हास्य व्यंग की रचनाएं सीधे लोगों के दिलों तक उतरती थी और लोग आनंद लेकर ठहाके लगाते थे ।उनके कविता   पढ़ने का अंदाज अलहदा था। वह अपनी प्रस्तुति बड़े ही नाटकीय शैली में देते थे जिससे वह और प्रभावी हो जाते थे । हुल्लड़ मुरादाबादी कभी हूट नहीं हुए। वह हास्य व्यंग्य की रचनाओं के अतिरिक्त  गीत और कविता की अन्य विधाओं पर भी अपनी कलम चलाने में सफल रहे हैं ।
कवियत्री नूपुर राही (कानपुर) ने कहा कि हुल्लड़  जी मेरे पिता  पं.देवीप्रसाद राही जी के परममित्र थे ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए। पिता जी अक्सर उनको कानपुर अपने संयोजन में होने वाले कवि सम्मेलनों में बुलाते थे और वह हमारे घर पर ही ठहरते थे। ज्यादातर लोग हुल्लड़ जी को हास्य कवि समझते हैं , पर उनकी ग़ज़लें और कुन्डलियां कमाल की होती थी। जब हुल्लड़ जी घर में आते थे उस समय मैं बहुत ही छोटी थी पर मुझे उनकी एक कविता आज तक याद है जो कुछ इस तरह थी "एक टूटी खाट और हम पाँच"।
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि बचपन से ही टी.वी.में कवि सम्मेलन आने पर उसे तल्लीनता से देखने वाली घर भर में मैं अकेली दर्शक होती थी।पर टीवी पर हुल्लड़ जी के आने पर दर्शकों की संख्या बढ़ जाती थी,जिसमें मेरे डैडी भी होते।तब शायद मैं मुरादाबाद से भी परिचित नहीं थी लेकिन तब कहाँ पता था कि हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे जिस कवि को हम इतने चाव से सुन रहे हैं,कभी उनके ही मुरादाबाद में बसना होगा । हुल्लड़ जी को सुनना,पढ़ना चेहरे पर मुस्कान ला देता था,लेकिन यह हास्य फूहड़ नहीं था और न ही केवल मनोरंजन मात्र।वे समाज की विद्रुपताओं को हास्य की कोटिंग में लपेटकर इस तरह पेश करते कि जब यह कोटिंग उतरती तो  विद्रुपताओं का नग्न स्वरूप मस्तिष्क को कचोटने लगे और हम सोचने को मजबूर हों।वे निश्चित ही हास्य व्यंग्य के बड़े रचनाकार थे और उनके द्वारा प्रयुक्त हर विधा में हास्य व्यंग्य का पुट यत्र तत्र मिल ही जाता है।
जयपुर के वरिष्ठ साहित्यकार वरुण चतुर्वेदी ने अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा बात  सन् १९६८ की है। उस समय मैं १८ वर्षीय आयु का कालेज विद्यार्थी हुआ करता था। यह बात भरतपुर में प्रतिवर्ष दशहरे पर लगने वाले जशवंत प्रदर्शनी के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की है जिसमें भरतपुर के केवल तीन कवियों को काव्यपाठ का अवसर दिया गया था जिनमें स्व.धनेश 'फक्कड़',स्व.मूल चंद्र 'नदान' और मैं मंच पर उपस्थित थे। उस कवि सम्मेलन की टीम में देश के सिरमौर गीतकारों व सिरमौर हास्य-व्यंग्य कवियों का जमघट था।गीतकारों‌ में, स्व.नीरज जी,स्व.शिशु पाल निर्धन जी, आदरणीय बड़े भाई सोम जी, हास्य-व्यंग्य कवियों में स्व.काका हाथरसी जी, स्व.निर्भय हाथरसी जी, जैमिनी हरियाणवी जी,स्व.अल्हड़ बीकानेरी जी,स्व. मुकुट बिहारी 'सरोज' जी, स्व.विश्वनाथ विमलेश जी,स्व. हुल्लड़ मुरादाबादी जी व वीर रस के कवियों में स्व.देव राज दिनेश जी,स्व.राजेश दीक्षित जी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन सुविख्यात मंच संचालक स्व.बंकट बिहारी जी पागल कर रहे थे।कवि सम्मेलन निरंतर यौवन की ओर बढ़ रहा था। जब स्व. हुल्लड़ जी को काव्यपाठ के लिए बुलाया गया तो उनका नाम सुनते ही‌ करीब २५/३० हजार श्रोताओं ने तालियों से जो स्वागत किया वह अविस्मरणीय है।तत्पश्चात उनके काव्यपाठ का जादू मैंने मंचस्थ कवि के रूप में देखा वह अद्भुत था। हुल्लड़ जी से सान्निध्य का यह पहला अवसर था।चूँकि वह हास्य-व्यंग्य के कवि थे और मैं भी हास्य-व्यंग्य की पैरौडियाँ लेकर मंच पर आया था तो उनके साथ कितने कवि सम्मेलन शेयर किये यह अब याद नहीं।
सब टी वी के बहुत खूब और वाह वाह क्या बात है ‌सैट‌ पर भी मिलना भी होता रहता था।
उनके जीवन काल में ही‌ उनके सुपुत्र स्व.नवनीत ने भी हास्य कवियों में अच्छा स्थान बना लिया था। लेकिन क्रूर काल ने उसे अल्पायु में ही ग्रस लिया।
उसके साथ किया मथुरा का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आज भी स्मृतियों में घूमता है।उस कवि सम्मेलन के करीब एक महीने बाद ही उसका स्वर्गवास हो गया था।
हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मैं , सन् १९७० में ही अपनी मित्र मंडली के साथ हुल्लड़ जी के संपर्क में आ गया था।श्रद्धावनत उनके प्रति यही कह सकता हूं कि यदि सुशील कुमार चड्ढा हुल्लड़ मुरादाबादी न हुए होते तो कारेन्द्र देव त्यागी मक्खन मुरादाबादी न हुआ होता। हुल्लड़ जी को जीने के लिए प्रसिद्धि का चरम मिला है साथ ही इसी दुनिया में पीने के लिए वह भी,जो उन्हें नहीं मिलना चाहिए ।
आगरा की ऋचा गुप्ता नीर ने कहा कि कवि सम्मेलन के बड़े कवि मंच पर वही सुनाते हैं जो श्रोता सुनना चाहता है। इससे उनकी मूल रचनाओं से श्रोता वंचित रह जाता है। धन्यवाद प्रगति मंगला परिवार जो ऐसे कवियों से परिचित कराता है जिनकी रचनाओं से हम अब तक वंचित रहे हैं। हुल्लड़ जी के व्यंग्य, कुन्डलियां, गजलें पढ़ कर बहुत कुछ ज्ञान लाभ हुआ।         
मुरादाबाद के युवा ग़ज़लकार जिया जमीर ने कहा कि मैं  हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानता था। मगर जब जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी कहीं हैं तो उन्हें पढ़ा। दो चार जगहों को छोड़ कर उन ग़ज़लों में कहीं भी कोई कमी नहीं है, अगर व्याकरण की बात की जाए। हैरत होती है कि क्या आसान ज़बान, क्या आम बोलचाल की हिंदुस्तानी ज़बान का इस्तेमाल हुल्लड़ जी ने अपने यहां किया है। अगर कोई यह देखना चाहिए और सवाल पूछना चाहे कि हुल्लड़ मुरादाबादी इतने मशहूर क्यों हुए। तो उसका सबसे अच्छा जवाब उनकी ग़ज़लें हैं और ग़ज़लों की यह ज़बान है। बिल्कुल सामने के बोलचाल वाले बल्कि कहना चाहिए जिन्हें हम साहित्यकार गैर साहित्यिक अल्फ़ाज़ कहते हैं उनको उठा कर उन्होंने साहित्यिक अल्फ़ाज़ बना दिया। उनके मक़बूले-आमो-ख़ास होने की सबसे बड़ी वजह मुझे लग रही है कि उनकी साहित्य और व्यंग पर पकड़ तो थी ही, इसके अलावा उन्होंने जितनी सादा ज़बान में उन्होंने अपने एहसासात को शायरी और कविता बनाया, वो कमाल किया। यह बड़ा मुश्किल काम है। सड़क पर चलने वाला एक आम आदमी जिसे सिर्फ़ आम ज़बान आती है उस तक उनकी रचनाएं पहुंचती थीं और वह आनंदित होता था और उसका आनंद तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था। यही सबब है कि उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं और रचनाओं से धूम मचायी।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि हुल्लड़ जी की रचनाएं पढ़ने के बाद अंदाजा होता है कि हुल्लड़ जी की मकबूलियत का राज उनकी भाषा में छिपा हुआ है। उन्होंने आम आदमी के दुख दर्द को समझा और उसी की भाषा में पेश करके यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
उनकी रचनाएं बताती है कि उन्होंने बड़ा बनने के लिए शायरी नहीं की बल्कि उन्होंने बुनियाद के उन पत्थरों को देखा जिस पर समाज की नींव टिकी होती है, उनकी पीड़ा को समझा जो समाज के कर्णधार होते हैं, उन्होंने समाज को हर दृष्टि से देखा समझा और उसे आत्मसात किया फिर उन तमाम कड़वाहटों को हास्य व्यंग की चाशनी लगाकर पेश किया क्योंकि उनकी शायरी बामकसद थी, सिर्फ हंसना हंसाना , व्यंग के तीर चला ना ही उनका मकसद नहीं था बल्कि समाज को सही दिशा देना भी उनका मकसद था। अतः जो बात उन्होंने कही वह दिल से कही लिहाजा दिलों तक पहुंची, जिस दिल तक भी पहुंची उस दिल में उनके लिए घर बनता चला गया और वह हर दिल की आवाज बन गए। उन्होंने समाज को एक सही दिशा में ले जाने का काम किया जो एक सच्चे साहित्यकार की पहचान है। अतः वह अपने इस कार्य के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे,जब जब हास्य व्यंग का इतिहास लिखा जाएगा वह उसमें अवश्य ही जगह पाएंगे।
मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा कि आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी का मुझे बहुत स्नेह मिला। बात 1990-91 की है। मैं अमर उजाला में सर्विस करता था। ड्यूटी रात की होती थी, दोपहर में फ़्री होता था। उस समय हुल्लड़ जी का मकान बन रहा था। मोबाइल तो उस समय थे नहीं। शाम के समय अमर उजाला में ही हुल्लड़ जी का फोन मेरे पास पहुंच जाता था- "नाज़ भाई, कल हमारी तरफ़ आइएगा। मैं पहुंचता था और घंटों तक साहित्य पर चर्चा होती रहती थी। हुल्लड़ जी का सान्निध्य मुझे लगातार मिला। एक-दूसरे की रचनाएं सुनते-सुनाते रहते थे। उस समय हुल्लड़ जी का ग़ज़ल लेखन आरंभ हुआ। बातचीत के दौरान उनसे ग़ज़ल पर चर्चा भी होती थी। मुझे उनसे सदैव बड़े भाई का प्यार मिला। मैं उनके पारिवारिक सदस्य की तरह था। हुल्लड़ जी मंच के स्टार थे। लोग उनको सुनने के लिए देर रात तक बैठे रहते थे। महानगर में विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों में वह मुझे अपने साथ ले जाते थे। मैं भी उस समय मुरादाबाद में नवागत था। हुल्लड़ जी मुझे बाहर भी कई कार्यक्रमों में अपने साथ ले गए। उनकी एक विशेषता मैंने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की। यह उनका प्यार ही था कि अन्य शहरों में आयोजित कार्यक्रमों में ले जाते समय भी वह मुझे ख़र्च नहीं करने देते थे। एक सुंदर घटना याद आ रही है। अक्टूबर 1992 में मेरे जुड़वां पुत्र पैदा हुए। उनमें जन्म के बाद ही एक बच्चा अत्यंत बीमार पड़ गया, तो मैंने उसे डॉक्टर वी.के. दत्त के क्लीनिक में भर्ती करा दिया। हुल्लड़ जी को पता चला तो वे क्लीनिक में आए, मुझसे मिले और ₹1000 मेरी जेब में डाल दिए। मैंने पूछा भाई साहब यह किसलिए, तो बोले कोई बात नहीं, बाद में मुझे लौटा देना। उसके बाद वह चले गए। तीन-चार दिन तक अस्पताल में रहने के बाद जब डिस्चार्ज होने के समय बिल बना तो वह बहुत मामूली था। दत्त जी जैसे महंगे डॉक्टर का बिल इतना कम देखकर मुझे हैरत हुई। मुझे लगा कि इसमें कुछ जोड़ने से शेष रह गया है। मैंने कंपाउंडर से कहा कि भाई पूरा बिल लेकर आइए। उसने कहा कि आपका पूरा बिल यही है। मैं जब डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो राज़ खुला। डॉक्टर साहब बोले कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी आए थे और आपके बारे में कह रहे थे कि यह मेरे छोटे भाई हैं, ख़याल रखना। तब मुझे समझ मे आया कि मेरा बिल इतना कम क्यों है।

 जयपुर की साहित्यकार डॉ सुशीला शील ने कहा कि
मैं 12 वीं कक्षा में पढ़ती थी,तब सुनी थीं उनकी कविताएं टेपरिकार्डर के माध्यम से अपने मामाजी के यहाँ ।नहीं मालुम था कि ईश्वर सौभाग्य देगा सुनाने वाले से न सिर्फ मिलने का,अपितु  उनके साथ बहुत से मंचों पर काव्य-पाठ करने का और उनके आमंत्रण पर मुरादाबाद में कविसम्मेलन पढ़ने का,उनके घर आतिथ्य प्राप्त करने का । मुझे पहली बार कहाँ मिले ये तो याद नहीं,परन्तु उनके स्नेहिल निमंत्रण पर मुरादाबाद उनके घर रुकना,जिसमें श्रद्धेय कृष्णबिहारी नूर जी ,सोम ठाकुर जी,कुँवर बैचैन जी,सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी,सुरेन्द्र सुकुमार भी थे। दोपहर का भोजन हुल्लड़ जी के घर में ही था । मैंने भी रसोईघर में सहयोग किया और सबने मिलकर भोजन का आनंद लिया । रात्रि में कविसम्मेलन बहुत शानदार रहा। उनकी बहुत सी कविताओं में से  एक प्रसिद्ध कविता थी- अच्छा है पर कभी-कभी
  निम्बाहेड़ा के कविसम्मेलन में उन्होंने यह कविता पढ़ी,तुरंत मेरा नाम पुकारा गया और मेरे आशु रचनाकार मन ने दो पंक्तियाँ सृजित कर हास्य के लिए सुनाईं-
  बहुत बार सुन ली ये कविता,अब तो नया सुनाओ जी
श्रोताओं से पंगा लेना अच्छा है पर कभी-कभी ।।
   हँसी के फुहार उठी और मैंने अपना वास्तविक काव्यपाठ के बाद मंच पर बैठकर उनसे क्षमा याचना की। बड़े सरलता से उन्होंने कहा-अरे कोई बात नहीं,ये तो चलता है,चलता रहना चाहिए पर मुझे अच्छी लगी तुम्हारी पँक्तियाँ,खूब लिखो और आगे बढ़ो ।
डॉ रंजना शर्मा, कोलकाता ने कहा कि पटल पर उनकी कविताएं पढ़ कर सचमुच आनंद से भर उठी । कई साल पहले घर में दो पत्रिकाएं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान आती थीं। हिंदी प्रदेश से बंगाल पिताजी के तबादले के कारण चले आने से पत्रिकाएँ  बमुश्किल मिलती थी। उनमें हुल्लड़ जी की कविता हम मजे लेकर पढ़ते थे, आपने पुरानी याद ताजी कर दी।
गुना( मध्य प्रदेश) की साहित्यकार नीलम कुलश्रेष्ठ ने कहा कि मुझे भी बस उन्हें टी वी कार्यक्रमों में सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने का ही अवसर मिला था। इस पटल पर उनकी रचनाएं एवं साहित्य कीर्ति को पढ़कर आज उनकी रचनाधर्मिता से खासा परिचय हो गया। उनकी रचनाएं वास्तव में ऐसी हैं जिन्हें लोग आज भी  सुनकर या पढ़ कर ठहाके लगाने पर विवश हो जाते हैं।
साहित्यकार  डॉ प्रतिभा प्रकाश , रोपड़ (पंजाब) ने प्रगति मंगला पटल की सराहना करते हुए कहा कि इस आयोजन के माध्यम से  मैंने आज पहली बार हुल्लड़ मुरादाबादी के बारे में गम्भीरता से सोचा समझा और जान सकी । इसके लिए मै सभी प्रस्तुति कर्ताओं का आभार व्यक्त करती हूं ।
जयपुर की साहित्यकार प्रशंसा श्रीवास्तव ने कहा कि हुल्लड़ जी मेरे पिता स्व० कवि बंकट बिहारी "पागल" जी के परममित्रों मे से एक थे , ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए।  उनके दोहे सुनकर श्रोता हंसते हंसते लोटपोट होने लगते थे। हुल्लड़ चाचा के कुछ ऐसे ही दोहों पर नजर डालिए-
कर्जा देता मित्र को वो मूरख कहलाय
महामूर्ख वो यार है
जो पैसे लौटाय
पुलिस पर व्यंग्य करते हुए लिखा है-
बिना जुर्म के पिटेगा
समझाया था तोय
पंगा लेकर पुलिस से
साबित बचा न कोय
उनका एक दोहा- पूर्ण सफलता के लिए, दो चीजें रख याद, मंत्री की चमचागिरी, पुलिस का आशीर्वाद।’ राजनीति पर उनकी कविता- ‘जिंदगी में मिल गया कुरसियों का प्यार है, अब तो पांच साल तक बहार ही बहार है, कब्र में है पांव पर, फिर भी पहलवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं...।’ उन्होंने कविताओं और शेरो शायरी को पैरोडियों में ऐसा पिरोया कि बड़ों से लेकर बच्चे तक उनकी कविताओं में डूबकर मस्ती में झूमते रहते थे ।
नोएडा की साहित्यकार
नेहा वैद का कहना था कि हुल्लड़ जी की लेखनी को एक साथ इतने रुपों में पढ़ना जानना, बड़ी सुखद अनुभूति है। चंदौसी की वार्षिक छपने वाली स्मारिका 'विनायक' में मेरे गीतों को भी छपने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। 1982-83 में इगलास में उनके साथ मंच पर होना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उनके सुपुत्र नवनीत जी के साथ कुछ वर्ष पहले जब मैं भी  मुंबई गोरेगांव ही रहती थी, स्थानीय मंचों पर कई बार गीत पढ़ें। आज आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी को समर्पित पटल सचमुच धन्य हो रहा है। आप सभी विद्वान-साहित्यकारों द्वारा संचालित/सांझा की जा रही उनकी रचनाओं और संस्मरणों से मन अभिभूत हो रहा है।
गुना (मध्य प्रदेश) की रानी शक्ति भटनागर ने अतीत की स्मृतियां साझा करते हुए कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी  उनके भाई श्री ज्ञान स्वरूप भटनागर जी की  के सहपाठी व मित्र रहे । उन्होंने उनके कॉलेज के समय का एक संस्मरण भी प्रस्तुत किया ।
हुल्लड़ मुरादाबादी जी की सुपुत्री मनीषा चड्डा ने कहा कि ऐसा कोई समय नही होता था कि पापा लिख न रहे हों।चाहे रात के 2 बजे हों अगर उन्हें कोई पंक्ति सूझ गयो तो उठ कर पूरी कविता पूरी करते थे।ट्रैन की टिकट हो या कोई रसीद जो जेब में होता था उसपर भी लिख देते थे।मंच पर बैठे बैठे भी उसी वक़्त कविता बना लेते थे। उनका जन्म ही लेखन के लिए हुआ था। उनका प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा था।अंत समय तक वो लिखते रहे और ज़िद करते थे कविसम्मेलन में जाने के लिए। घर में ठहाकों की गूंज होती थी उनकी और भैया की।वो हमारे बीच में अपनी अनगिनत कविताओं ,गीतों,और ग़ज़लों के रूप मे हमेशा जीवित रहेंगे।

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी जी को सात साहित्यिक संस्थाओं - अक्षरा, विप्रा कला साहित्य मंच, परमार्थ, हिंदी साहित्य संगम, अंतरा, राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति एवं हिंदी साहित्य सदन ने 26 अगस्त 2012 को 'साहित्यादित्य सम्मान' से किया अलंकृत

 

मुरादाबाद की सात साहित्यिक संस्थाओं - अक्षरा, विप्रा कला साहित्य मंच, परमार्थ, हिंदी साहित्य संगम, अंतरा, राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति एवं हिंदी साहित्य सदन के संयुक्त तत्वावधान में 26 अगस्त 2012 को कंपनी बाग़ मुरादाबाद स्थित प्रेस क्लब सभागार में एक भव्य सम्मान समारोह आयोजित किया गया जिसमें नवगीत के अद्भुत हस्ताक्षर माहेश्वर तिवारी जी को उनकी अमूल्य नवगीत साधना एवं आकाशवाणी के केन्द्रीय संग्रहालय हेतु 'आर्काइव' के रूप में विशेष उपलब्धि हेतु 'साहित्यादित्य सम्मान' से सम्मानित किया गया। श्री तिवारी को सम्मान स्वरूप प्रतीक चिन्ह, मानपत्र, श्रीफल एवं सातों संस्थाओं द्वारा अंगवस्त्र पहनाकर भेंट किया गया।

       कार्यक्रम के मुख्य अतिथि देहरादून से पधारे सुप्रसिद्ध गीत कवि डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र ने इस अवसर पर कहा- "माहेश्वर जी के नवगीतों में जहाँ एक और ताजगी है वहीँ दूसरी और आंचलिक मिठास भी उनकी रचनाधर्मिता को महत्वपूर्ण बनाती है।" 
वरिष्ठ कवि  शचीन्द्र भटनागर एवं विशिष्ट अतिथि लेखिका डॉ. बीना रुस्तगी सहित अनेक वक्ताओं - डॉ. अजय 'अनुपम', आनंद कुमार 'गौरव', डॉ.कृष्ण कुमार 'नाज़', प्रो. ओमराज, मनीष मिश्र, डॉ. मक्खन मुरादाबादी, अनुराग गौतम, विवेक 'निर्मल', सुरेन्द्र राजेश्वरी आदि ने श्री तिवारी जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व के सन्दर्भ में अपने-अपने विचार रखते हुए उनके सृजन को स्तुत्य बताया। 
      कार्यक्रम में श्री तिवारी जी का एकल काव्यपाठ भी हुआ जिसमें उन्होंने अपने कई गीतों का सस्वर पाठ भी किया- 'एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/ बेजुबान छत, दीवारों को घर कर देता है.' तथा 'धूप में जब भी जले हैं पाँव/घर की याद आयी'।
    कार्यक्रम का सफल संचालन आनंद 'गौरव' ने किया एवं आभार अभिव्यक्ति योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने प्रस्तुत की। इस अवसर पर मुख्यरूप से राजेंद्र मोहन शर्मा 'शृंग', रामदत्त द्विवेदी, ब्रजगोपाल 'व्यास', अशोक विश्नोई, अंजना वर्मा, मनोज 'मनु', बलवीर पाठक, शिशुपाल 'मधुकर', डॉ. जगदीप कुमार, डॉ.पूनम बंसल, डॉ. मीना नकवी, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, विशाखा तिवारी, सुप्रीत गोपाल, योगेन्द्रपाल सिंह, आदि अनेक स्थानीय साहित्यकार एवं गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे ।

::::::प्रस्तुति::::::::
 
योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
संयोजक - 'अक्षरा' साहित्यिक संस्था
ए.एल.- 49 ,सचिन स्वीट्स के पीछे, 
दीनदयाल नगर-प्रथम,
कांठ रोड, मुरादाबाद 
उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 31 अगस्त 2020

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से प्रख्यात साहित्यकार फ़िराक़ गोरखपुरी की जयंती पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा


      वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' की ओर से शुक्रवार 28 अगस्त 2020 को " विरासत जगमगाती है" शीर्षक के तहत प्रख्यात साहित्यकार फ़िराक गोरखपुरी को उनकी जयन्ती पर याद किया गया। ग्रुप के सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर ऑन लाइन चर्चा की।
सबसे पहले ग्रुप एडमिन ज़िया ज़मीर ने उन के जीवन के बारे में विस्तार से बताया कि फ़िराक़ गोरखपुरी का अस्ल नाम रघुपति सहाय था। वो 28 अगस्त 1896 ई. को गोरखपुर में पैदा हुए। उनके वालिद गोरख प्रशाद ज़मींदार थे और गोरखपुर में वकालत करते थे। उनका पैतृक स्थान गोरखपुर की तहसील बाँस गांव था। फ़िराक़ ने उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा घर पर प्राप्त की, इसके बाद मैट्रिक का इम्तिहान गर्वनमेंट जुबली कॉलेज गोरखपुर से सेकंड डिवीज़न में पास किया। फ़िराक़ को नौजवानी में ही शायरी का शौक़ पैदा हो गया था और 1916 ई. में जब उनकी उम्र 20 साल की थी और वो बी.ए के छात्र थे, पहली ग़ज़ल कही। सियासी सरगर्मियों की वजह से 1920 ई. में  उनको गिरफ़्तार किया गया और उन्होंने 18 माह जेल में गुज़ारे। 1922 ई. में वो कांग्रेस के अंडर सेक्रेटरी मुक़र्रर किए गए। 1930 ई. में उन्होंने प्राईवेट उम्मीदवार की हैसियत से आगरा यूनीवर्सिटी से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. का इम्तिहान विशेष योग्यता के साथ पास किया और कोई दरख़ास्त या इंटरव्यू दिए बिना इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में लेक्चरर नियुक्त हो गए। 1961 ई. में उनको साहित्य अकादेमी अवार्ड से नवाज़ा गया, 1968 ई. में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू सम्मान दिया गया। भारत सरकार ने उनको पद्म भूषण ख़िताब से सरफ़राज़ किया। 1970 ई. में वो साहित्य अकादेमी के फ़ेलो बनाए गए। उनको काव्य संग्रह “गुल-ए-नग़्मा” के लिए अदब के सबसे बड़े सम्मान ज्ञान पीठ अवार्ड से नवाज़ा गया। 1981 ई. में उनको ग़ालिब अवार्ड भी दिया गया। उन्होंने कहा कि अगर आप रिवायत की पगडंडियों को न छोड़ते हुए जदीद रास्तों की तलाश में निकलना चाहते हैं तो फ़िराक़ इस सिलसिले का पहला पुल साबित होते हैं। इस मरहले में हमारे लिए यह लाज़िम है कि हम फ़िराक़ को पढ़ें और बार-बार पढ़ें। फ़िराक़ के यहां आलमी अदब, ख़ासतौर पर अंग्रेज़ी अदब और भारतीय दर्शन आपस में ऐसे घुल मिल गए हैं कि हमें एहसास ही नहीं होता कि हम दूसरी ज़बानों में भारतीय दर्शन पढ़ रहे हैं या भारतीय दर्शन में दूसरी ज़बानों का अदब दर आया है। फ़िराक़ मेरी नज़र में वो नाम है कि जिसे अगर हटा दिया जाए तो शायरी में रिवायत और जदीदियत का रिश्ता तो कमज़ोर होगा ही, साथ ही साथ शायरी को समझने और उस पर बात करने की तरबियत भी कहीं गुम हो जाएगी।
 विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि फ़िराक़ साहब को याद करना आधुनिक शायरी की एक किताब के वज़नी वॉल्यूम को दिल और दिमाग के दो हाथों के संतुलन से उठा कर पढ़ते-पढ़ते अदब की एक विशाल इमारत के तमाम कमरों से होकर गुज़रने जैसा है। फ़िराक़ साहब को सुनने और मजनूँ साहब से दो साल पढ़ने का सौभाग्य मिला है मुझे।
मशहूर और मक़बूल शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि इस पटल पर फिराक साहब की चर्चा एक बड़ी उपलब्धि है। मैं फिराक साहब को अपने रंग का इस सदी का बहुत बड़ा शायर मानता हूँ। उनके बारे में मैंने बहुत कुछ लिखा है और बेशुमार शहरों में बहुत कुछ कहा है। फिराक साहब ने गजल को परिभाषित करते हुए लिखा था "गजल ला-महदूद इंतहाओं का सिलसिला है"। इसी तरह उन के बेशुमार शेर हैं जिनकी मिसाल पूरे अदब में नहीं मिलती, यही वो खासियतें हैं जो फिराक को अदब में हमेशा जिंदा रखेंगी।
वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि फ़िराक़ साहब पर होते चर्चों को सुनकर यह अवश्य महसूस किया है कि फ़िराक़ साहब ने उर्दू शायरी के बड़े गैप को भरने का काम करके एक ऐसी शख्सियत का निर्माण किया, जिसके आगे हर कोई नतमस्तक हुआ और उन्हें सराहे बिना नहीं रह सका।
मशहूर शायरा डॉ० मीना नक़वी ने कहा कि फ़िराक़ उन चुनिंदा फ़नकारों में से एक हैं जो महज़ शायरी तक महदूद नहीं रहे। वो खूब पढ़े-लिखे आदमी थे। उन्होंने मज़हबी फलसफों पर भी लिखा और राजनीति पर भी। आलोचनात्मक लेख भी लिखे।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कल तक मैं फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में किस्सों के जरिये थोड़ा बहुत जानता तो था लेकिन उनकी शायरी कभी भी नहीं पढ़ी या कहिये कि उर्दू शायरी में कभी कोई खास रुचि ही नहीं रही।  क्लब से जुड़ने के बाद ही इस ओर रुचि हुई है। कल रात पहली बार मैंने नेट पर सर्च करके फिराक साहब को पढ़ा। उनकी शायरी पढ़ी उनके तमाम किस्से पढ़े।
युवा शायर मनोज वर्मा मनु ने कहा कि आदरणीय रघुपति सहाय 'फिराक़' गोरखपुरी साहब को मुख़्तसर पढ़ा भी है। उस समय के और आज तक भी अपने लहजे की जदीदयत समेटे उनके कलाम जो बहुत मक़बूल हुए। उनकी नज्में जो अपना अलग अंदाज रखती हैं ,को पढ़कर दिल यह सोचने को मजबूर हो जाता कि जब इतने वक़्त पहले ही हमारे तसव्वुर से आगे की चीजें पढ़ी जा चुकी हैं। कही जा चुकी हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि रघुपति सहाय फ़िराक़ 'गोरखपुरी', शायरी के इतिहास में हुए एक ऐसे महा-तपस्वी, जिनके अन्तस से निकल कर कागज़ तक  पहुँचा प्रत्येक शब्द, अवलोकनकर्ता से संवाद स्थापित करता है। निश्चित रूप से उनकी गणना उन महान शायरों में की जा सकती है जिन्होंने साहित्य में अपने समय के पूर्व से चले आ रहे अनेक बंधनों को सफ़लतापूर्वक तोड़ा। महान भारतीय संस्कृति को अपनी हृदयस्पर्शी शायरी में पिरो कर उन्होंने समाज को एक ऐसा साहित्यिक खजाना दिया, जो आगामी पीढ़ियों का भी निरंतर मार्गदर्शन करेगा।
युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि हालांकि फिराक को इश्किया शायर कहा गया लेकिन उनका प्यार केवल औरत तक सीमित नहीं रह गया। उन्होंने कुदरत और इंसानियत से प्यार करना सिखाया। फिराक साहब शायरी में भारी भरकम और जटिल शब्दों को व्यर्थ मानते थे। एक चर्चा में उन्होंने कहा कि शायरी वही अच्छी हो सकती है, जिसे 10 साल के बच्चे से लेकर 80 साल तक का बुजुर्ग तक समझ सके।

::::::प्रस्तुति:::::::
ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
मुरादाबाद लिटरेरी क्लब
मो०8755681225

रविवार, 30 अगस्त 2020

मुरादाबाद मंडल के हसनपुर (जनपद अमरोहा) निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र कुमार गुप्त मधुकर की पांच रचनाएं । ये उनके काव्य संग्रह "गीतिका गुंजन"से ली गई हैं । यह संग्रह तीस साल पहले वर्ष 1990 में गोविंद प्रकाशन हसनपुर द्वारा प्रकाशित हुआ था ।







मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता ----प्रधानता


हमारे इकलौते पुत्र ने
एक दिन हमसे कहा
पिताजी
मेरा मार्गदर्शन कीजिए
भारत कृषिप्रधान देश है
इस पर निबंध लिखवा दीजिए
मैंने विषय पर
गम्भीरता से चिन्तन किया
मुझे लगा
भारत के कृषिप्रधान होने का
जमाना गया
आजकल
आवास और पुनर्वास के नाम पर
गांवो का शहरीकरण किया जा रहा है
खेती योग्य उपजाऊ जमीन को
मकान बनाने के लिए
जबरदस्ती लिया जा रहा है
खाने में मांसाहारी चीज़ों का
प्रयोग बढ़ रहा है
भारत खाद्यान्नों का
आयात कर रहा है
जो इन तथ्यों से अनजान हैै
उसी की नजर में
आज का भारत कृषि प्रधान है
मैं इसी सोच मेेें डूबा था
मेरा पुत्र बोला पिताजी
आप निबंध लिखवाने में
जितनी देर लगायेंगे
मेरे सफल होने के चांस
उतने ही कम रह जायेंगे
क्योंकि ये निबंध
कल के प्रश्नपत्र में आ रहा है
मैंने चौक कर पूछा
तू ये किस आधार पर बता रहा है
पुत्र बोला,मास्टर साहब के
पक्के चमचे ने बताया है
और चमचा हर बात की
सही जानकारी रखता है
येे आपने ही समझाया है

चमचा शब्द ने
मुझे भीतर तक छुआ
मुझे महसूस हुआ
भारत चमचा प्रधान देश है
हर क्षेत्र में चमचो का बोलबाला है
तरह तरह के चमचे है
चमचों के भी चमचे हैं
सरकार चमचों के
बल पर चलती है
हर सफल मंत्री की छाया में
चमचों की पूरी जमात पलती है
चमचों के बिना आदमी
आगे नहीं बढ़ पाता है
बढ़ भी जाए तो टिक नहीं पाता है
सभी महत्वपूर्ण मामलों में
चमचों की भूमिका विशेष है
भारत चमचा प्रधान देश है
हमने अपने निर्णय को
अन्तिम रूप दे डाला
तभी आ पहुंचे हमारे मित्र चौटाला
 बोले,तुम गलत हो
भारत नेता प्रधान देश है
जो कुछ नहीं बन पाता
उसे नेता बनने का पूरा अधिकार है
और भारत में
ऐसी पब्लिक की कमी नहीं है
जो बेरोजगार है
गली हो मोहल्ला हो
दफ्तर हो बाजार हो
स्कूल हो कालेज हो
खिलाड़ियों का संसार हो
बनिया हो पण्डित हो
या हो फल बिक्रेता
सबका है कोई ना कोई नेता
अन्याय के खिलाफ बोलने का
अधिकतर लोगों में दम नहीं है
इसी कमजोरी को देखते हुए
भारत में नेता भी कम नहीं है

मित्र की बात ने
हमको उलझन में डाल दिया
हमारी धर्मपत्नी ने
हमको इस संकट से उबार लिया
अंदर से आवाज़ लगाई
छुट्टी का दिन है
इसे फिजूल मेेें मत गंवाओ
अपने दोस्तो को
चाय पिलाना चाहते हो तो
जल्दी से बाजार चले जाओ
चूड़ी के डिब्बे में रुपए रखे हैं
मिट्टी का तेल और चीनी ले आओ
दोस्तो पर आघात
हम कैसे करते वर्दाश्त
फौरन मान ली पत्नी की बात
बस स्टॉप पर भीड़ थी भारी
एक घण्टे बाद आई हमारी बारी
बस के अंदर भी बुरा हाल था
भेड़ बकरी की तरह भरी थी सवारी
जब हमारा दम घुटना शुरू हुआ
हमको महसूस हुआ
भारत भीड़ प्रधान देश है
बस में भीड़,रेल में भीड़
सड़क पर भीड़,बाजार में भीड़
कॉलेजों मेेें छात्रों की भीड़
धार्मिक स्थलों पर
भिखारियों की भीड़
कचहरी में मुकदमों की भीड़
अस्पतालों में मरीजों की भीड़
रोज़गार कार्यालयों में
बेरोजगारों की भीड़
मेलों मेेें जेबकतरों की भीड़
हर जगह भीड़ है
सरकार सड़को को
चौड़ा करवा रही है
नई बसें और ट्रेन चला रही है
लेकिन भीड़ बड़ी बेशर्म है
कम नहीं हो पा रही है
भारत वास्तव में भीड़ प्रधान देश है
जब तेल की दुकान पर भी
भारी भीड़ नजर आईं
हमने अपने चिन्तन पर
पुष्टि की मोहर लगाई

लौटते वक्त
समाज सुधारक जी से नज़रें टकराई
हमने पूछा
आजकल क्या कर रहे हो भाई
उन्होंने एक अख़बार दिखाया
एक नवयौवना के
जल कर मरने का समाचार पढ़ाया
फिर करुण स्वरो मेेें बोले
दहेज़ की समस्या बढ़ती जा रही है
रोज़ किसी ना किसी
दुल्हन की जान जा रही है
हमारे देश को
आजकल क्या हो गया है
समूचा देश समस्याओं की
भूल भुलैया मेेें खो गया है
कहीं हरिजनों पर
अत्याचार की समस्या है
कहीं अबलाओं पर
बलात्कार की समस्या है
कहीं विदेशियों की
समस्या चल रही है
कहीं अलग राष्ट्र बनाने की
बात उछल रही है
कहीं छात्रों मेेें असंतोष की समस्या है
कहीं आरक्षण के विरोध कि समस्या है
कहीं डाकुओं की समस्या है
कहीं बाढ़ की
कहीं बिजली की समस्या है
कहीं अकाल की
महंगाई ने समूचे देश की
कमर तोड़ डाली है
शिक्षा की समस्या
और अधिक खतरे वाली है
देश क्या है
समस्यायों का पुलिंदा है
इन समस्यायों को
निपटाना ही अपना धंधा है
भ्रष्टाचार उन्मूलन समिति की
मीटिंग से आ रहा हूं
सफाई की समस्या पर
भाषण देने जा रहा हूं
इतना कहकर
समाज सुधारक जी चल पड़े
हम सोचते रहे खडे़ खडे़
समाज सुधारक जी की बातों से
अलग निष्कर्ष निकलता है
भारत समस्या प्रधान देश लगता है

विषय ने हमको ऐसा उलझाया
हमारे मन में विचार आया
पब्लिक का मत जानना चाहिए
बहुमत के आधार पर
कोई निष्कर्ष निकालना चाहिए
हमने एक सम्मेलन करवाया
हर धर्म, हर जाति, हर वर्ग के
प्रतिनिधियों को बुलवाया
एक साहब बोले
भारत चन्दा प्रधान देश है
मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारा
सब चंदे से बनते है
अनाथ आश्रम चंदे से चलते है
रामलीला होनी है
चन्दा इकट्ठा कीजिए
होली जलनी है,चन्दा दीजिए
सड़क पर नल लगना है
चन्दा चाहिए
कहीं बंदर मर गया
चन्दा करके शमशान पहुंचाइए
समूचा लोकतंत्र चंदे पर टिका है
सरकारों का इतिहास
चंदे ने लिखा है
राजनीतिक पार्टियां उद्योगपतियों से
जबरन चन्दा वसूलती आई हैै
शायद यही कारण है
महंगाई नहीं मिटा पाई हैं।
विलायती राम हिंदुस्तानी का मत था
भारत मिलावट प्रधान देश है
अभिनय सिंह नौटंकीवाला ने
राम कृष्ण बुद्ध महावीर,जीसस
जयगुरुदेव साईबाबा आदि का
नाम गिनाया
भारत को भगवान प्रधान देश बताया
कुछ की नज़रों में
भारत चाय प्रधान देश था
कुछ के अनुसार
यह कवि प्रधान देश रहा
कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका
सम्मेलन के प्रतिनिधियों मेेें
अत्यधिक मतभेद रहा
इस पर किसी की प्रतिक्रिया थी
सम्मेलन से सबक लिया जाए
भारत को मतभेद प्रधान देश
घोषित किया जाए

एक लंबे अंतराल के बाद
समूचे विषय पर मैंने
नए सिरे से विचार किया है
मेरे छोटे से दिमाग ने
निष्कर्ष दिया है
सबकी बातें सही हैं
भारत में अनेक चीज़ों की प्रधानता है
यही तो भारत की महानता है
यहां हर चीज मिलती है
बस अच्छे चरित्र की कमी खलती है
काश कोई भारत भू पर
चरित्र के बीज बो जाता
हमारा भारत
चरित्र प्रधान देश भी हो जाता
मेरे देशवासियों
अन्य सब चीज़ों की प्रधानता
चरित्र की प्रधानता के आगे बेकार है
अच्छा चरित्र
हर राष्ट्रीय बीमारी का सही उपचार है
आओ हम सब मिलकर दुआ करें
आने वाली पीढ़ी के खून में
चरित्र के भी अंश हुआ करें

डाॅ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद 244001
M - 9837189600

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ एम खुशदिल की रचना । यह रचना उनके वर्ष 1961 में प्रकाशित काव्य संग्रह "युग दीपक" से ली गई है ।



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो.महेन्द्र प्रताप का गीत - घिरे व्यथा के बादल मन में ....यह गीत लगभग 70 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है केजीके महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 1950-51 में ।




गुरुवार, 27 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की दो व्यंग्य कविताएं ...... ये कविताएं 37 साल पहले प्रकाशित हुई थीं दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक हिंदुस्तान के अंक 11 दिसंबर 1983 में .....




मुरादाबाद मंडल के कुरकावली ( जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के तीन गीत । ये गीत लगभग 38 साल पहले दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान के अंक 28 फरवरी 1982 में प्रकाशित हुए थे -----






मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ललित मोहन भारद्वाज के तीन मुक्तक ---- ये लिए गए हैं मुरादाबाद से लगभग 46 वर्ष पूर्व प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका "प्रभायन" के जनवरी1974 के अंक से । इस पत्रिका के संपादक भी ललित मोहन भारद्वाज थे ।



बुधवार, 26 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष मदन मोहन व्यास की चार कुंडलियां--- पैसा जिसके पास में वह परमादरणीय। कोलतार सा कृष्ण भी, कहलाता कमनीय । कहलाता कमनीय, गधा भी घोड़ा होता। कुल कलंक को कंचन की गंगा में धोता......। ये ली गई हैं मुरादाबाद से लगभग 47 वर्ष पूर्व प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका "प्रभायन" के अक्टूबर 1973 के अंक से । इस पत्रिका के संपादक थे ललित भारद्वाज ।



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष कैलाश चन्द्र अग्रवाल का गीत --- गीत कहा जाता है जिनको ,गीत नहीं वे पूजा के स्वर । यह गीत लिया गया है मुरादाबाद से 47 वर्ष पूर्व प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका "प्रभायन" के जून 1973 के अंक से । इस पत्रिका के संपादक थे ललित भारद्वाज ।


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दुर्गा दत्त त्रिपाठी का गीत --- विश्व अचेतन रहा, चेतना बनी रही अनजानी । श्रोता सोता रहा, और मैं कहता रहा कहानी । यह गीत लिया गया है मुरादाबाद से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका प्रभायन के मई 1973 के अंक से । इस पत्रिका के संपादक थे ललित भारद्वाज ।

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो. महेंद्र प्रताप की जयंती पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" की ओर से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर परिचर्चा ......


       वाट्स एप पर संचालित  साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा "ज़मीं खा गयी आसमां कैसे कैसे" शीर्षक के तहत  मुरादाबाद के साहित्यकार एवं केजीके महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य स्मृतिशेष प्रोफेसर महेंद्र प्रताप को उनकी जयन्ती पर याद किया गया। ग्रुप के सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व एंव कृतित्व पर ऑन लाइन चर्चा की। चर्चा तीन दिन चली। सबसे पहले ग्रुप के सदस्य वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने उन के जीवन के बारे में विस्तार से बताया और उनकी रचनाएं प्रस्तुत कीं
चर्चा शुरू करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि दादा के रचनाकार के विषय में मुझे पहले कुछ विशेष नहीं मालूम था। उसके विषय में कुछ तो अंतरा की गोष्ठियों में, कुछ कटघर पचपेड़ा मेरी ससुराल से और कुछ आदरणीय डॉ. शम्भुनाथ सिंह जी से चर्चा के माध्यम से जानकारी मिली। दादा के गीतों को हम उनका अन्तःगीत कह सकते हैं। उनके एक गीत, मैं तुमको अपना न सकूँगा / तुम मुझको अपना लो, को सुनकर ब्रह्मलीन स्वसुर संत संगीतज्ञ पुरुषोत्तम व्यास गदगद हो उठते थे। यह उनके लिए एक प्रार्थना गीत था। इसी गीत की एक पंक्ति है - मेरे गीत किसी के चरणों के अनुचर हैं। किसी नायिका के चरणों का अनुचर होने की गवाही नहीं देते।
मशहूर शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि प्रो साहब वाकई सायादार शजर थे। मुझे उनका जितना भी सानिध्य मिला मैंने उनसे कुछ न कुछ सीखा ही जिसमें इंसानियत से प्यार और उसका सम्मान बहुत बड़ी दौलत है। 1993 में उप्र उर्दू अकादमी का सदस्य मनोनीत होने पर मेरे मुहल्ले के लोगों ने एक जलसा किया था जिसमें प्रो साहब ने मेरी इज्जत अफजाई करते हुए कहा था कि यह जलसा शहर में कहीं और हुआ होता तो मुझे इतनी खुशी नहीं होती क्योंकि ये जलसा वह लोग कर रहे हैं जिन्होंने मंसूर को बचपन से देखा है और ये मंसूर की बड़ी उपलब्धि है।
वरिष्ठ कवि शचीन्द्र भटनागर ने कहा कि मैंने उन्हें गोष्ठी अथवा कवि सम्मेलन में कभी नहीं सुना पर एक बार मेरे बहुत आग्रह पर उन्होंने घर पर ही एक गीत सुनाया था। गीत पढ़ते समय वह तल्लीन हो गये थे साधक की तरह। उनके प्रणय गीतों में कहीं स्थूलता नहीं है। आत्म प्रेम है, आत्मा से संवाद है।उनकी वाणी में मिठास, होठों पर तनाव रहित मुस्कान और व्यक्तित्व में आकर्षण था। प्राचार्य के प्रशासनिक पद पर नितांत भारतीय वेशभूषा में उन्हें शांतचित्त  देखकर उनके व्यक्तित्व की विलक्षणता का आभास होता था।
वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि हिन्दी साहित्य ही नहीं दादा मुरादाबाद के साहित्यिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक और सामाजिक सरोकारों के अगुआ थे। विषय का इतना सटीक गहराई से विश्लेषण करने वाला मुझे तो अब तक मिला नहीं है। उनके मुख से निकला एक-एक शब्द अपने आप में शिलालेख होता था। वह तार्किक नहीं थे अपितु विषयों के सैद्धांतिक जानकर थे। यदि मैंने आधुनिक हिन्दी साहित्य की विशद व्याख्या की होती तो साहित्य के उस कालखंड के आशु साहित्य की खोजबीन करके उसे  'महेन्द्र प्रताप-युग' का नाम देने के सभी यत्न किए होते।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि मुरादाबाद के महत्त्वपूर्ण विद्वानों में अग्रगण्य स्व प्रो महेंद्र प्रताप जी एक चिन्तक व्याख्याता और ललित कलाओं के ज्ञाता प्रश्रय दाता तथा उन्नायक के रूप में सामने आते हैं। दिनांक छह दिसंबर १९४८को स्थानीय के जी के महाविद्यालय में हिंदी विभाग में कार्यभार ग्रहण करने वाले दिन ही सायंकाल हिन्दू कालेज में आयोजित कवि सम्मेलन में अध्यक्षता करने से उनकी यात्रा यहां आरंभ होती है। यहीं उनकी मित्रता पंडित मदनमोहन व्यास और प्रभुदत्त भारद्वाज से हुई, यह त्रिमूर्ति आगे चलकर मुरादाबाद में सांस्कृतिक और साहित्यिक जगत का पर्याय बन गई।
मशहूर शायरा डॉ० मीना नक़वी ने कहा कि वर्ष 2004 की बात है मेरी पहला ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका था। डॉ.कृष्ण कुमार नाज़ के साथ मेरा स्मृति शेष आदरणीय महेन्द्र प्रताप जी के निवास-स्थान पर  पहली बार जाने का सुवसर प्राप्त हुआ। मैं सकुचाती हुई उनके घर में दाख़िल हुई। आ0 महेन्द्र प्रताप जी ने  बहुत स्नेह से मुझे बिठाया। नाज़ साहब ने मेरा परिचय कराया तो उन्होनेे मेरे डाक्टर होने के साथ हिंदी अंग्रेजी़ पर स्नातकोत्तर होने पर आश्चर्य व्यक्त किया। मैने अपनी पहली पुस्तक सायबान उन्हें भेट की। जो उन्होने सहर्ष स्वीकार की साथ ही मेरा उत्साह वर्धन भी किया। अज़ान के समय शांति से बैठ जाने की शिक्षा देने वाले सर्वधर्म के प्रति आदर व समभाव के वे जीते जागते उदाहरण थे और इसकी मैं साक्षी हूँ। ऐसे व्यक्तित्व वास्तव में युगों में पैदा होते है।
प्रख्यात रंगकर्मी डॉ प्रदीप शर्मा ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते  हुए कहा कि प्रोफेसर महेंद्र प्रताप "आदर्श कला संगम" के संस्थापक अध्यक्ष थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह एक कुशल मार्गदर्शक व पथ प्रदर्शक भी थे । आदर्श कला संगम ने उनकी याद को बनाए रखने के लिए उनकी स्मृति में "प्रोफेसर महेंद्र प्रताप स्मृति सम्मान" देना भी शुरू किया।
वरिष्ठ कवियत्री डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने कहा कि सरलता-सहजता से आच्छादित व्यक्तिव के धनी, विनम्रता की साक्षात प्रतिमूर्ति हमारे स्वर्गीय दादा प्रोफेसर महेंद्र प्रताप जी चिरकाल तक स्मृति में आज भी मार्गदर्शन करते हैं।
महाराजा अग्रसेन पब्लिक स्कूल मंडी बांस की पूर्व प्रधानाचार्य डॉ किरण गर्ग ने कहा कि दादा श्री के स्नेह और कृपा की प्राप्ति को मैं अपने जीवन की विशिष्ट उपलब्धि मानती हूं। उससे उऋण होना न मैं चाहती हूं न हो सकती हूं । दादा ज्ञान के समस्त पक्षों को आत्मसात करने के लिए सदैव आकांक्षी  रहते थे। मनीषियों व ज्ञानियों के साथ वह रात- दिन एक कर सकते थे। उनके लिए यहां तक मशहूर था कि दादा के पास जाओ तो पर्याप्त समय लेकर जाओ क्योंकि यदि किसी भी विषय पर उनसे चर्चा चल पड़े तो घंटों वह धाराप्रवाह बोले चले जाते थे, बिना अपने खाने-पीने की परवाह किए। सादा जीवन उच्च विचार की उक्ति उन पर पूर्णतया चरितार्थ होती है।
वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि दादा कहते थे कि कभी भी प्रसिद्धि की स्प्राह मन में रखकर रचनाकर्म नहीं करना और कुछ भी मत लिखना, जो लिखना सार युक्त लिखना।

मशहूर शायर डॉ कृष्णकुमार 'नाज़' ने कहा कि दादा ऐसे वृक्ष थे जिनकी शीतल छांव में बैठकर मुझे ऐसे बहुत से रचनाकार अपनी अगली मंज़िलों के निशान तलाशते थे। मुरादाबाद में जितने भी साहित्यिक आयोजन होते थे, उनमें अधिकतर की अध्यक्षता दादा महेंद्र प्रताप जी ही करते थे। उनका अध्ययन इतना विषद था कि किसी भी विषय पर उनसे वार्ता की जा सकती थी और उपयुक्त उत्तर मिल जाता था। यदि किसी विषय पर पक्ष और विपक्ष दोनों पर बोलने की आवश्यकता पड़े, तो दादा प्रवीणता के साथ दोनों ही पक्षों पर सम्यक रूप से विचार रखते थे।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि बीती सदी का नवां दशक जब मैंने शुरू की थी अपनी साहित्यिक यात्रा। यही नहीं एक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था ''तरुण शिखा'' का गठन भी कर लिया था। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 'अंतरा' की गोष्ठियां ही मेरे साहित्यिक जीवन की प्रथम पाठशाला बनीं। इन गोष्ठियों में 'दादा', श्री अंबालाल नागर जी, श्री कैलाश चंद अग्रवाल जी, पंडित मदन मोहन व्यास जी, श्री ललित मोहन भारद्वाज जी, श्री माहेश्वर तिवारी जी ने मेरी अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाया और उनके संरक्षण एवं दिशा निर्देशन में मैंने साहित्य- पत्रकारिता के मार्ग पर कदम बढ़ाए । दादा और आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी के सान्निध्य से न केवल आत्मविश्वास बढ़ा बल्कि सदैव ऐसा महसूस हुआ जैसा किसी पथिक को तेज धूप में वृक्ष की शीतल छांव में बैठकर होता है। लगभग सभी गोष्ठियों में दादा उपस्थित होते थे और मुझे प्रोत्साहित करते थे। यह मेरा सौभाग्य है कि लगभग 21- 22 साल तक मुझे दादा का आशीष प्राप्त होता रहा। दादा आज हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी स्मृतियां, उनका दुलार, उनका आशीष सदैव मुझे आगे और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता ही रहेगा ।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि दादा के गीतों से गुज़रते हुए भी उसी चंदन की भीनी-भीनी महक महसूस होती है जिसका ज़िक्र राजीव जी ने अपने वक्तव्य में किया है क्योंकि आध्यात्मिक भाव-व्यंजना के माध्यम से मनुष्यता के प्रति दादा की प्रबल पक्षधरता उनके लगभग सभी गीतों में प्रतिबिंबित होती है। दादा महेन्द्र प्रताप जी का रचनाकर्म मात्रा में भले ही कम रहा हो किन्तु महत्वपूर्ण बहुत अधिक है।उनकी रचनाओं में सृजन के समय का कालखण्ड पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है, निश्चित रूप से दादा की सभी रचनाएँ साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि मुझे यह अवसर तो प्राप्त नहीं हो सका कि मैं महेंद्र प्रताप जी को किसी साहित्यिक संस्था के निजी प्रोग्राम में शरीक होकर उन्हें सुन पाता अपितु सार्वजनिक प्रोग्रामों में उन्हें कई बार सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विशेष रुप से जनता सेवक समाज के कार्यक्रमों में उन्हें अक्सर सुना। सच पूछिए तो उन्हें सुनने के लिए ही प्रोग्राम में जाया करता था। क्योंकि मैं उनकी बोलने की कला से बहुत प्रभावित था। उनका बोलने का अपना अलग अंदाज़ था जो मंत्रमुग्ध कर दिया करता था। वह हर विषय पर धाराप्रवाह बोलते थे। ऐसा महसूस होता था कि वह इस विषय के विशेषज्ञ है। मैंने उन्हें जिगर मेमोरियल कमेटी के मुशायरों में उन्हें जिगर की शायरी पर बोलते हुए ख़ूब सुना है। मुंह में पान की गिलोरी दबाकर मुस्कुराते हुए उनकी गुफ़्तगू का अंदाज़ आज भी याद है। उनकी वाणी से उनके मन की निर्मलता और और भावों की कोमलता साफ़ झलकती थी। हालांकि मेरा छात्र जीवन था और वह मुझसे परिचित भी नहीं थे और मैं भी उनसे इतना परिचित नहीं था जितना आज हुआ। लेकिन मैं कार्यक्रम के पश्चात उनसे मिलकर आशीर्वाद प्राप्त करने की कोशिश ज़रूर करता था।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि निश्चित ही स्मृति शेष दादा महेंद्र प्रताप जी की गणना ऐसी महान साहित्यिक विभूतियों में की जा सकती है जिनके द्वारा प्रदत्त आलोक में बाद की पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त हुआ। आज पटल पर उनके गीतों का अवलोकन करने के पश्चात् मेरा मानना है कि उनकी लेखनी से साकार हुए ये अद्भुत गीत मात्र मधुर कंठ की शोभा बनने हेतु ही नहीं अपितु, उन्हें आत्मसात करते हुए मनन करने के लिए भी हैं। उनके अद्भुत गीतों का एकाग्रचित्त होकर श्रवण व मनन करने का अर्थ है पाठक/श्रोता का स्वयं को पहचानना तथा जीवन से साक्षात्कार करना।
युवा शायर फरहत अली खान ने कहा कि पटल पर तीन दिन तक प्रोफेसर साहब पर चली
चर्चा के ज़रिए ये निष्कर्ष निकलता हुआ देख रहा हूँ कि उन के साहित्य-कर्म पर एक बड़ा काम करने की ज़रूरत है।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि मुरादाबाद के गौरवशाली साहित्यिक इतिहास के अभिन्न और अधिकतम द्युतिमान नक्षत्र स्व०प्रो०महेन्द्र प्रताप जी के बारे में जानने के बाद उन्हें साक्षात देखने व सुनने का अवसर न मिल पाने का अत्यन्त दुख है।
वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि आदरणीय दादा महेंद्र प्रताप जी से मेरा प्रथम परिचय वर्ष 1967 में हुआ था। उसके बाद एक बार वर्ष 1972 में रेलवे मनोरंजन सदन में रेलवे के एक आयोजन में उन्हें सुना। कविता में पूर्णतः डूबकर किये गये उनके कविता पाठ ने मुझे बहुत आकर्षित किया। इन दो अवसरों पर उनके दर्शन का मष्तिष्क पर अमिट प्रभाव आज भी है ।
ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि स्वर्गीय प्रोफेसर महेंद्र प्रताप साहब के गीतों को पढ़कर यह लगता है कि उनका जीवन जहां साहित्य को पढ़ते हुए गुज़रा वहीं साहित्य के बड़े लोगों के साथ बैठते हुए भी उनका जीवन गुज़रा है। मैं यह समझता हूं कि उनके अंदर साहित्य के साथ-साथ साहित्यकारों को भी सहेजने का एक बड़ा गुण था। तभी तो उन्होंने "अंतरा" जैसी संस्था की दाग़-बेल डाली। हम अपने ऊपर गर्व कर सकते हैं कि हमारे शहर में मोहब्बत करने वाली, जोड़ने वाली एक ऐसी शख्सियत भी गुज़री है।
महेन्द्र प्रताप जी के सुपुत्र सुप्रीत गोपाल ने मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से आयोजित इस सार्थक चर्चा के लिए सभी सदस्यों का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा कि दादा आज भी हम सबके प्रेरणास्त्रोत हैं।

:::::::प्रस्तुति:::::::

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
मुरादाबाद लिटरेरी क्लब
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो०8755681225

मुरादाबाद के साहित्यकार विवेक आहूजा की कहानी -–- दरकते रिश्ते


       आज विनय काफी खुश था क्योंकि आज वह अपनी बेटी को  मेडिकल की कोचिंग दिलाने दिल्ली लेकर जा रहा था। विनय की बेटी को मेडिकल की कोचिंग हेतु सौ परसेंट का स्कॉलरशिप जो मिला था और वह दो वर्षीय  वीकेंड क्लासेस के लिए प्रत्येक शनिवार और इतवार को दिल्ली में कोचिंग करने के लिए जा रही थी ।
     विनय रास्ते में सोच रहा था कि दिल्ली में तो उसकी कितनी सारी रिश्तेदारी है अगर वह सबसे एक या दो बार भी मिलेगा तो 2 वर्ष किस तरह बीत  जाएंगे पता ही नहीं चलेगा। विनय ने अपने रहने की व्यवस्था पहले ही कोचिंग क्लास के निकट एक लॉज में कर ली थी। चूंकि  वह उसका प्रथम दिन था उसने सोचा इस बार चलो चाचा जी से मिल लेते हैं क्योंकि चाचा जी कई बार उन्हें दिल्ली नहीं आने का उलाहना दे चुके थे ।
       विनय अपनी बेटी के साथ अपने  चाचा जी के पंजाबी बाग स्थित मकान पर उनसे मिलने पहुंच गया विनय व उसकी बेटी को देखकर चाचा जी बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कुछ देर विश्राम करने को कहा और स्वयं सामान लेने बाजार चले गए । बाजार से लौटकर जब चाचा जी घर आए तो चाची ने उन्हें बाहर दरवाजे पर ही रोक लिया, विनय को कमरे में नींद नहीं आ रही थी और वह खिड़की के पास ही खड़ा था । चाची जी ,चाचा जी से कह रही थी कि अपने भतीजे और पोती की इतनी सेवा सत्कार मत करना कि वह प्रत्येक सप्ताह यहीं पर आ धमके  यह सुन विनय के पैरों तले जमीन खिसक गई और वह मन में सोचने लगा कि वह तो अपनी रिश्तेदारी पर गर्व कर रहा था कि दिल्ली जाकर उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी परंतु रिश्तेदारी का यह चेहरा उसने पहली बार देखा था ।
        चाचा जी ने मकान में प्रवेश किया तो विनय अपने चाचा जी को बताया कि उसने कोचिंग के समीप ही रहने की व्यवस्था कर ली है वह तो बस उनका हालचाल जानने के लिए मिलने चला आया , विनय ने अपनी बेटी को तैयार होने को कहा और कोचिंग के समीप लॉज में प्रस्थान किया ।
        रास्ते में जाते वक्त विनय यह सोच रहा था की आज के दौर में रिश्ते इतने दरक चुके हैं कि वह अपनी सगी रिश्तेदारी का  बोझ एक दिन भी सहन नहीं कर सकते उसके पश्चात विनय हर सप्ताह अपनी बेटी को लेकर दिल्ली आता रहा और उसने किसी रिश्तेदार के यहां जाना मुनासिब नहीं समझा।

✍️  विवेक आहूजा
बिलारी
जिला मुरादाबाद
मोबाइल 9410416986
7906933255
Vivekahuja288@gmail.com

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार रचना शास्त्री की कविता


सुनो!
ओ मेरे जन्मों के साथी ,
मैंने बड़े जतन से
 सुमिरन की थपकी से थपक,
फोड़कर राग द्वेष के ढेले,
इकसार करके
मन का बंजर खेत
बो दिया था प्रेम।

पर अश्रु जल से सिंचित
इस मन के खेत में
प्रेम के संग
उगने लगी है
कामनाओं की विषैली
खरपतवार ।

सुनो!
तुम आ जाओ
विश्वास की खुरपी ले
दोनों करेंगे निराई मिलकर,
और फिर,
खेत की डोल पर
वैराग्य वृक्ष के तले
दोनों बैठ कर,
देखेंगे प्रेम की बेलि को
विस्तृत नभ को छूते हुए ।

मैं प्रतीक्षा में हूं
चले आओ
चले भी आओ
आ भी जाओ न .....।

  ✍️ रचना शास्त्री