शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से 14 जुलाई 2023 को काव्य गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से 14 जुलाई 2023 को जंभेश्वर धर्मशाला मुरादाबाद में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ रमेशचन्द्र कृष्ण   ने राम भक्त हनुमान जी पर गहन उदबोधन दिया।

   मुख्य अतिथि रघुराज सिंह निश्चल ने कहा ....

   पहले होते सड़क में गडढे। 

   अब तो गडढों में  सड़क होती है ।

 विशिष्ट अतिथि ओंकार सिंह ओंकार का कहना था ....

 बारिश में सड़कें हुईं हैं गडढों से युक्त।

जाम लग रहे हर जगह, वाहन सरकें सुस्त।।

रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ ने कहा...

 अश्रु प्रेम का गंगा जल है, 

 पावन है यह अति निर्मल है  । 

 मानव मन तो बडा़ सरल है,

 राजनीति भर देती गरल है । 

   राम दत्त द्विवेदी ने कहा -

बादल छाये हैं अम्बर में भीगी हैं रातें। 

रातों में ढिंग बैठ तुमसे करनी  हैं बातें।

संचालन करते हुए अशोक विद्रोही ने रचना प्रस्तुत की - 

गाँव-गाॅव में बाढ़ है,

शहर शहर बेहाल। 

खाना -पानी के बिना, 

जीना हुआ मुहाल ।

लगी झड़ी बरसात की,

हुए प्रलय से पस्त।

हे प्रभु!अब बस भी करो! 

जन जीवन है त्रस्त।।

रामसिंह निशंक का गीत था.....

 आई ऋतु पावस की छाए हैं काले घन। 

बरखा की फुहार में प्रमुदित हैं सबके मन 

डाॅ मनोज रस्तोगी ने कहा -

खत्म हो गई है अब 

झूलों पर पेंग बढा़ने की रीत,

नहीं होता अब हास परिहास

 दिखता नहीं कहीं 

 सावन का उल्लास।

 राजीव प्रखर का कहना था .....

 अधरों पर महबूब के, आई जब मुस्कान।

दिल ने माना पड़ गई, फिर सावन में जान।।

 कृपाल सिंह धीमान का स्वर था ......

 राहें मेरा जीवन मेरी मंजिल दूर जहान है।

  गोष्ठी में  रमेशचन्द्र गुप्त, कुन्दनलाल सहगल आरके आर्य आदि  ने भी भाग लिया।  संस्था के अध्यक्ष रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ ने आभार व्यक्त किया। 











मुरादाबाद के साहित्यकार दिग्गज मुरादाबादी की छह बाल पहेलियां । इनका प्रकाशन हुआ है वर्ष 1996 में अखिल भारतीय साहित्य कला मंच चांदपुर,बिजनौर द्वारा प्रकाशित बाल काव्य संग्रह ..,"बाल सुमनों के नाम " में। इस संग्रह के संपादक हैं डॉ महेश दिवाकर और डॉ अजय जनमेजय ।




::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
 

बुधवार, 12 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के नौ गीत ...…


1. अभिमन्यू है चक्रव्यूह में

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पता नहीं पल कैसे होंगे 

आने वाले कल के।

अभिमन्यू है चक्रव्यूह में 

कपटी कौरव दल के।


धरती अम्बर एक करेंगे

झूठ पुलिंदे मिलकर।

रेबड़ियों की ले आए हैं 

नई थैलियाँ सिलकर।।

अंकित हैं माथें पर ठप्पे 

जबकि पुराने छल के।


जिनके घर के कोने-कोने

अटे पड़े हैं धन से।

करी कमाई कैसे इतनी

पूछें अपने मन से।।

पिला पिलाया चले पेलने 

हाल न जाने खल के।


तरह-तरह के नाटक इनपर

नाटक में नौटंकी।

जन रोगों की एक दवा बस

राजनीति की फंकी।।

दे खैरात उन्हें क्या पाई 

जो प्यासे थे जल के।


शब्दकोश से बाहर की जिन

अधरों पर हर गाली।

छोड़ेगी तस्वीर बनाकर  

काली से भी काली।।

चुभे पुराने कंटक अबतक

निकल न पाए गल के।


एका है पर खबर नहीं है 

कौन रहेगा आगे।

लोक चदरिया बुनने निकले 

जले-भुने सब धागे।।

रात दिवस गरियाकर इच्छुक

लोकतंत्र के फल के।


गीता प्रेस बहाना भर है 

कुरक रही है गीता।

जल स्रोतों की निन्दा करके

सागर समझो रीता।।

रामचरित मानस पर हमले

सिर्फ सियासी मल के।


आया मौसम अब वैसे तो 

लौट पुनः वोटों का।

स्वर्ण काल पर निकल गया है

सब खारिज नोटों का।।

अब तो रण में जाना होगा

सच्चाई में ढल के।


2. थक जाती थी जब माँ मेरी

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करते-करते काम दिवस भर

थक जाती थी जब माँ मेरी।

कहती! पहले घर सुनना है

उसके बाद सुनूँगी तेरी।।


भले नहीं वह फिर भी मुझसे

अब भी बात वही कहती है।

घर चिंता में मैं रहता हूँ

इस चिंता में वह रहती है।

घर को ख़ुशी सुखी रखने में 

सदा मुसीबत उसने पेरी।


अथक परिश्रम उसका ही तो

आसपास में रँग लाया था।

एक जून जो खा न सका था

उस घर ने छक कर खाया था।।

सबके संकट काट दिए थे

खोल गाँव में उसने डेरी।


परधानी जीती तो उसने

घर के सँग-सँग गाँव सँभाला।

सूरत बदल गाँव की रखदी 

बिना पढ़ी ने लिखा खँगाला।।

सामूहिकता सींच-सींचकर

दूर भगा दी तेरी मेरी।


नियम गाँव को समझाकर वह

सौ नंबर से पास हुई थी।

पुरस्कार पा महामहिम से

दूर-दूर की खास हुई थी।।

उसने ही सिखलाया था यह 

अच्छी नहीं काम में देरी।


नहीं सोचता कोई भी जो

वही सोचती है माँ सबकी।

माँ चिंताओं से लड़-भिड़कर 

जिंदा अबतक,मरकर कब की।।

गाँव-गाँव जब सोते मिलते

वह देती फिरती है फेरी।


3. कोशिश है खरपतवारों की 

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कोशिश है खरपतवारों की 

मटियामेट फसल हो।


नए सृजन पर असमंजस में

तुलसी सूर कबीरा।

गान आज का गाने में सुन 

दुखी हो उठी मीरा।।

देख निराला भी कह उठते 

नव की नई शकल हो।


बचा-खुचा इस मोबाइल ने

जकड़ लिया अब सारा।

दुखती रग को पकड़ सभी की

परस दिया है चारा।।

जिसमें ख़तरा छुपा हुआ सा 

बैठा अगल-बगल हो।


बूँद-बूँद से भर इठलाए

बची नहीं वह गागर।

पोखर झील नदी नद नाले

आज सभी हैं सागर।।

जिनके दर्शन कर आभारी 

हुआ हरेक पटल हो।


कोई बड़ा न कोई छोटा 

अब तो सभी बराबर।

सभी मियां मिट्ठू अपने मुँह 

बनते फिरें परापर।।

हाथी के कद पर ज्यों चींटी 

लेने चली दखल हो।


इसी तरह तो खंड-खंड सब

अपना होता आया ।

सदा जिए अति विश्वासों में 

हमने गोता खाया।।

मौज मस्तियाँ पागल जैसे  

मौसम गया बदल हो।


4. उधड़ा!रफू इसी से होता 

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झोला छाप जमे हैं अबतक

झोलों के दम पर।


चर्चित हैं,सँग बीमारों के

ये खिलवाड़ करें।

अपना ठिया जमाकर उनसे 

पैसा झाड़ धरें।।

उधड़ा! रफू इसी से होता 

मोलों के दम पर।


आए दिन अखबारों का भी 

मुद्दा बना रहे।

उरे परे होते रहने का

किस्सा कौन कहे।‌।

भारी भरकम मसले निबटे

बोलों के दम पर।


यह भी सच है बिन इनके भी

काम नहीं चलना।

ये जानें बिगड़े से बिगड़ा 

हर रोग पकड़ना।।

गाड़ी कभी न चलती देखी 

चोलों के दम पर।


5. सबको गले लगाने की 

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शान्त भाव की धुन में यह तो 

आदत मंगल गाने की।

जुर्म नहीं है धमकी धड़ से

शीश उतारे जाने की।।


मंगल यही अमंगल जमकर 

सदियों से करता आया।

पता सभी को अब इसका भी

क्या खोकर क्या है पाया।।

आदत फिर भी पड़ी हुई है

सबको गले लगाने की।


दया भाव के सभी आचरण

मकसद अच्छा गढ़ने के।

बुरा भला भी सुन-सुन लक्षण

क्षमा दिशा में बढ़ने के।।

सीख न पाए लड़ना-भिड़ना

और जुगत लड़वाने की।


अनेकांत में भाव एकता

पीढ़ी दर पीढ़ी पहना।

करी विविधता आत्मसात फिर

उसको बना लिया गहना।।

आज जरूरत इसी भाव पर

आगम के इतराने की।


इस धरती पर मिसरी जैसी

कहीं न कोई वाणी है।

फसलें मीठी रहा उगाता

खारा भी यदि पानी है।।

ऊपर से नीचे तक फिर भी

चली सदा उकसाने की।


इस धरती ने मान दिया है

सूफी पीर मजारों को।

फिर भी घायल करते रहते

कुछ हैं लोग बहारों को।।

असली कथा छुपाकर अपनी 

गाते रहे ज़माने की।


रातों में खुल दरवाजों ने

बड़े-बड़े उपकार किए।

उलटे पाँव प्रार्थना लौटी

अबकी तो फटकार लिए।।

भूल समझ में आई जल्दी 

याची को हड़काने की।


6. बता अकेले कबतक ढोएँ 

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गंगा जमुनी चलन तुझे हम

बता अकेले कबतक ढोएँ।


धार अलग गंगा यमुना की

संगम तक ही तो रहती है।

आगे फिर सागर तक यमुना

गंगा होकर ही बहती है।।

इसी सत्य को समझा-समझा

आँसू-आँसू कबतक रोएँ।


भाव घिरा निरपेक्ष धर्म से

हुआ व्यथित सा खुद लगता है।

तथाकथित सब पहले जैसा 

तथाकथित ही अब लगता है।।

शुद्ध भाव की रोटी को हम

एक हाथ से कबतक पोएँ।


लिबरल खेती के खेतों में

बुए पड़े हैं बस उकसावे।

कारोबार झूठ की खेती 

उगते रहते खुक्खल दावे।।

कड़ी नींद से घिरे हुए हम

खुली आँख से कबतक सोएँ।


एक पिता की संतानें सब

इन ऋतुओं के सारे मौसम।

यही सत्य समझाने भर में

अपनों से ही हारे मौसम।।

मौसम के सद्भाव घाव हम

और बताओ!कबतक धोएँ।


7. गीतों में नानी लिखना

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झुलस रहे हैं बाग बगीचे

गीतों में पानी लिखना।


तपे दिनों में बच्चे व्याकुल

गर्मी से उकताए हैं।

ननिहालों से उन्हें बुलाने

कई बुलावे आए हैं।।

इस मौसम में खुश रखने को

गीतों में नानी लिखना।


चले छतों से बरसे पत्थर

दिन हों जैसे दंगल के।

गंगा जमुनी के धोखे में

पल गायब हैं मंगल के।।

तर कर दे जो बादल को भी

गीतों में वानी लिखना।


इधर-उधर से चली हवाएँ

आकर हममें पसर गईं।

कल ही तो थी आग लगाई

आज सबेरे मुकर गईं।।

सुनो!ठीक से इनके रुख को

गीतों में ज्ञानी लिखना।


8. सबको पानी दो

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अर्थहीन हो चुका बहुत सा

उसको मानी दो।

प्यासे झील नदी नद पोखर

सबको पानी दो।।


जल जीवन है तो उसका भी

जीवन बचा रहे।

और धरा पर जो-जो हमने

खोया,रचा रहे।।

मूक पड़ा जो ज्ञान ध्यान है

उसको बानी दो।


पंचतत्व में घोली हमने

एकमात्र विषता।

अपना इससे जाने क्या-क्या

रोज़ रहा रिसता।।

उजड़ रहे से इस मौसम को

रंगत धानी दो।


जिनसे भू पर मानवता के

उपवन मुस्काएँ।

हमें बचाओ!बोल रहीं सब

मिटती धाराएँ।।

मन से इन्हें पोसने वाले

राजा रानी दो।

=9. गौरैया गीत

========

लुप्त हुईं गौरैया

कुछ तो ठीक नहीं।


उनकी फुदक-फुदक से

घर-आंगन फुदके

बिखरे मिल जाते थे

कुछ लक्षण शुभ के

पुनः बुला लाने की

दिखती लीक नहीं।


नीड़ बना रहती थीं

घर के खोडर में

घर ही होते थे तब

गांव औ' शहर में

लुप्त घरौंदे, घर भी

उठती चीक नहीं।


तप्त रेत मल-मल कर

जेठ दुपहरी में

नहा, मेघ ले आतीं

एक फुरहरी में

ज्ञान जगत पर ऐसी

कुछ तकनीक नहीं।


खेत फदोरा करतीं

खेल दिखाती थीं

छिटक गये बीजों को

खुद बो जाती थीं

देखे गये न पंछी

इतने नीक, नहीं।


कीट-पतंगे घर के

और खेत के भी

चुग, संवार देती थीं

भाग्य रेत के भी

बिन उनके,जीवन का

सुख निर्भीक नहीं।


चीं चीं चूज़े करके

सूनापन हरते

निर्जन में भी जैसे

वो हलचल भरते

होते आये बखान

हुए सटीक नहीं।


चहक-चहक से उतरा

उत्सव सा लगता

जन-जीवन में पसरा

सन्नाटा भगता

लुटी सम्पदा सारी

सदियां ठीक नहीं।


✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

     झ-28, नवीन नगर

     काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

     मोबाइल:9319086769


  





मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ....फट गया लो मेघ सावन आ गया लो मेघ आंगन


फट गया लो मेघ सावन 

आ गया लो मेघ आंगन 

कह रही चारों दिशाएं 

यह कभी टिकता नहीं है


रूपसी तो रूप की है

यह कली तो धूप सी है

आज है पर कल नहीं है

कल भी एक पल नहीं है

पकड़े रहना आशाएं

वक़्त फिर मिलता नहीं है


बरसेगा इक दिन सावन

बोलेगा  तुझको साजन

बूँद का इतिहास मन है

सर सर सर बहता तन है

भीगी भीगी  अलकाएँ

जल वहाँ रुकता नहीं है।


देख ले तू चाँद यारा

मेघ में भी और प्यारा

यात्रा रुकती नहीं है

मात्रा गिनती नहीं है

तोड़ दे तू वर्जनाएं

मन कभी मरता नहीं है।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

सोमवार, 10 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार की रचना ...आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर जहरीले साँपों का पहरा है


निकल पड़े घर-बार छोड़कर अपनी क्षमता, प्रतिभा को लेकर 

राजपथ के आह्वान पर कब किसका तन-मन ठहरा है 

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर जहरीले साँपों का पहरा है।

घूम-फिरकर चंद वे ही लोग सत्ता में आ जाते हैं।

कभी इस दल से, कभी उस दल से, हम दलदल में फँसते जाते हैं

बेटा मुख्यमंत्री, बाप मंत्री, भाई का संसद में आसन है

ये लोकतंत्र नहीं केवल कुछ परिवारों का शासन है।

अरबों-खरबों के घोटाले इनके साए में पलते हैं।

न्याय और धर्म भी इशारों पर इनके चलते हैं।

साज़िशों का ताना-बाना देखो कितना गहरा है

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर जहरीले साँपों का पहरा है

नोटों के हार पहनकर हैलीकाप्टर में उड़ते

ये उन लोगों के मसीहा हैं 

जो भूख से खुदक़शी करते

लंबी-लंबी लाइनें बेरोजगारों की लग जाती हैं।

नौज़वान बेटियाँ अपनी पुलिस के डंडे खाती हैं

झूठे वादे, झूठी कसमें, झूठे इनके भाषण हैं

वोटों के व्यापार के लिए ही करते ये आरक्षण है।

सत्ता के गलियारों में हर चेहरा नकली चेहरा है।

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर ज़हरीले सौाँपों का पहरा है

पाँच हजार करोड़ का एक उद्योगपति घर बनाता है।

घर की छत पर फिर देखो हैलीपैड बनवाता है

कहने को आज़ाद हैं हम, पर दासता की वही कहानी

लाखों-करोड़ों को नहीं मयस्सर पीने का पानी है।

कितनी ही रैलियाँ निकालो या फिर तुम करो रैला

गंगा का पानी अब सब जगह हो गया मैला

कोई नहीं कुछ सुनने वाला शासन गूँगा-बहरा है।

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर ज़हरीले साँपों का पहरा है।

✍️ आमोद कुमार, दिल्ली

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार का बाल गीत ....गौरेया

 क्लिक कीजिए 

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मुरादाबाद के साहित्यकार पंडित नरोत्तम व्यास की कृति ......परशुराम । यह कृति वर्ष 1922 में निहाल चंद एंड कंपनी कलकत्ता द्वारा प्रकाशित की गई थी ।

 



सम्पूर्ण कृति पढ़ने के लिए क्लिक कीजिए

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::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

शनिवार, 8 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार शालिग्राम वैश्य का नाटक ...माधवनल कामकंदला । उनकी यह कृति वर्ष 1889 में श्री वेंकटेश्वर छापाखाने मुम्बई से प्रकाशित हुई थी ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी के नौ दोहे .....

 


1. 

सत्ता मद  में डूबकर,करो न अत्याचार

सच्चाई के सामने, झूठ मानता हार।

2. 

निर्धन की संपत्ति पर, करो नहीं अधिकार

निर्बल के अभिशाप से, होता बंटाधार।

3. 

उसके घर माफ़ी नहीं,सुन ले साहूकार

तेरी करनी की सज़ा, देगा पालनहार।

4.

 दुर्गा माँ का रूप है, बेटी का अवतार

 अपने हाथों से करे, दुष्टों का संहार।

5. 

अहम् वहम में मत रहो, धनबल सुख का सार,

मिट्टी में मिल जाएगा, मायावी संसार।

6. 

बेटी की किलकारियाँ, ईश्वर का उपहार

जिस घर में बेटी नहीं,वह घर है बेकार।

7. 

आदर्शो की बेल पर, खिलें ख़ुशी के फूल

नहीं सताते राह में विपदाओं के शूल।

8. 

बेटों से कमतर नहीं,बेटी का किरदार

सुख-दुख में रहती सदा सेवा को तैयार।

9. 

कभी किसी से मत करो, कटुता का व्यवहार

सबके ही एहसान का, करो व्यक्त आभार।

          

✍️वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर   9719275453

                        .......

गुरुवार, 6 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार राशिद हुसैन की कहानी ......किट्टू

 


आज घर में खाना नहीं बना था। घर के सभी लोग उदास थे, खामोश थे। सब एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे। कोई कुछ बोलता तो सिर्फ किट्टू का ही ज़िक्र करता उसी की बातें करता। आज हमारा किट्टू दूर बहुत दूर चला गया था। वह कम समय में ही परिवार का सदस्य बन गया था। सभी के साथ खेलता और सभी उससे प्यार करते थे। आज घर में सन्नाटा सा छाया हुआ था। कोई परिचित या संबंधी सांत्वना देने भी नहीं आया।

 मैं कभी घर में कोई भी पालतू जानवर या पक्षी पालने के पक्ष में नहीं रहा। एक दिन बच्चे अपनी बुआ के घर से एक बिल्ली का बच्चा जो मात्र डेढ़ माह का था, ले आए। उसका नाम किट्टू रखा गया मुझे उस समय काफी बुरा लगा लेकिन बच्चों की मोहब्बत के आगे मैं कुछ कह न सका। धीरे-धीरे वक्त गुजरने लगा। बच्चे किट्टू के साथ बहुत खुश रहते और किट्टू उनके साथ उछल–कूद करता रहता। मैं किट्टू से थोड़ा अलग- थलग ही रहता। मैं जब सुबह ऑफिस के लिए घर से निकलता तो किट्टू मेरे पीछे -पीछे छोटे -छोटे कदमों से दरवाजे तक आता जब मैं घर से बाहर निकल जाता तो वह लौट जाता। शाम को जब मैं ऑफिस से घर लौटता तो किट्टू मुझे बड़ी मासूम नज़रों से देखता, जब घर में टहलता तो वह घर की लॉबी के कोने में जहां उसके सोने बैठने के लिए एक छोटे गद्दे का इंतजाम किया गया था और टेडी बियर बॉल और कुछ खिलौने दे दिए गए थे उनसे  खेलता रहता था। वहां बैठकर मुझे गर्दन घुमा कर देखता रहता। यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। एक दिन जब शाम को मैं ऑफिस से घर लौटा तो किट्टू मेरे पैरों में आकर लिपट गया इससे पहले कि मैं छुड़ाने की कोशिश करता वह प्यार करने लगा । मैं हतप्रभ  उसे देखता रहा और कुछ न कह सका फिर थोड़ी देर बाद उसने मुझे छोड़ा और अपनी जगह जाकर बैठ गया। बच्चों को तो जैसे खिलौना मिल गया था वह उसके साथ खूब खेलते उसे गोद में उठाए_ उठाए फिरते सुबह  जब स्कूल जाते तो उससे खेल कर जाते जब स्कूल से आते तो फिर उस में लगे रहते मैं इस बात से संतुष्ट था थी चलो बच्चों को मोबाइल देखने की लत से छुटकारा मिला। बच्चों को पढ़ाई के बाद जितना भी समय मिलता वह किट्टू के साथ गुजारते। किट्टू अब बड़ा होने लगा था और पूरे घर में उछल कूद करता रहता उसकी शरारतें अब दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी।

    एक दिन देर रात को बहुत तेज आंधी बारिश होने लगी और बिजली चमकने लगी सभी लोग सोए हुए थे तब ही बादलों की तेज गरज से मेरी आंख खुल गई मैं उठा और अपने कमरे से बाहर आकर  देखा तो किट्टू लॉबी के एक कोने में डरा सहमा हुआ बैठा था वह मुझे देखकर म्याऊं- म्याऊं करने लगा। मुझे लगा कि वह डर गया है और मुझसे कुछ कहना चाह रहा है। मैंने उसको उठाया और अपने कमरे में ले गया जहां वह बारिश रुक जाने और बादलों की गरज बिजली की गड़गड़ाहट समाप्त हो जाने तक वहीं रहा उसके बाद बाहर आकर अपनी जगह लेट कर सो गया।

घर की लॉबी के एक कोने में जहां किट्टू का बिस्तर खिलौने रखे थे वहीं पर उसके खाने के लिए एक प्लेट और दूध पीने के लिए कटोरी और पानी पीने के लिए एक छोटा लोटा रख दिया गया था। घर में सुबह सबसे पहले जो उठता किट्टू उसको देखकर म्याऊं- म्याऊं करने लगता और अपने खाने-पीने के बर्तनों की तरफ इशारा करता। हम समझ जाते उसको भूख लगी है और खाने को दे देते उसके लिए फिक्र से कैट फूड बाजार से लाकर रखे जाते वह अपना खाना खाकर शांत हो जाता।

एक दिन रात को मैं अपने बिस्तर पर लेटा सोने की कोशिश कर रहा था और नींद का कहीं अता पता नहीं था। मैं करवटें बदल रहा था उस दिन मां की बहुत याद आ रही थी। उनकी कभी ना पूरी होने वाली कमी का बहुत एहसास हो रहा था अचानक मुझे ख्याल आया कि जब मेरी मां इस दुनिया ए फानी से रुखसत हुई थी तब मेरी उम्र पैंतीस साल थी। मुझे एकदम ध्यान आया अरे हमारा किट्टू तो मात्र डेढ़ माह का ही था जब वह अपनी मां से जुदा हुआ। यह सोच कर मेरा दिल भर आया और उसके लिए मन में प्यार उमड़ने लगा और सोचने लगा अब तो हमारा परिवार ही उसका परिवार है। उसका ख्याल हमें ही रखना है ।उसको प्यार की जरूरत है। मैं जो उस से हटा बचा रहता था अब मेरे मन में उसके लिए प्रेम उमड़ आया अब मैं ऑफिस जाते और आते समय उसको देखता बातें करता यहां तक की ऑफिस से घर को फोन करके किट्टू की खैरियत लेता रहता। रात घर आने पर अब किट्टू मेरी गोद में आकर काफी देर तक बैठ जाता।

वक्त गुजर रहा था और यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। किट्टू भी अब बड़ा हो गया था। अब उसकी इच्छा बाहर इधर-उधर घूमने की होती तो वह अक्सर छत पर चला जाता वहां छत से होते हुए पड़ोसियों के घर भी चला जाता। सभी पड़ोसी जान गए थे की वह हमारे घर का किट्टू है। किट्टू घर में रहे बाहर सड़क पर न निकले इसके लिए हमेशा घर का मुख्य द्वार बंद रखते लेकिन एक दिन बे ध्यानी से घर का मुख्य द्वार खुला रह गया और किट्टू घर से बाहर चला गया इसी बीच गली के कुत्तों ने उस पर हमला कर दिया । उसकी आवाज सुन मैं बाहर निकला, कुत्तों से उसे छुड़ाया तब तक वह किट्टू को काफी जख्मी कर चुके थे। किट्टू लहूलुहान था वह मेरे पैरों पर आया, सिर रखा और हल्की आवाज से एक बार म्याऊं की आवाज निकाली और हमेशा के लिए सो गया। मैंने उसे उठाया फिर एक कपड़े में रखकर नदी के किनारे ले गया जहां गड्ढा खोदकर उसे दबा दिया। जब मैं उसे दबा कर लौट रहा था तब मेरी आंखों में आंसू थे। घर आकर सबसे पहले मैंने बहुत सख्त लहजे में ताकीद की अब  इस घर में कोई किट्टू नहीं लाया जाएगा क्योंकि जब कोई किट्टू हमेशा के लिए चला जाता है तब उसके जाने का गम भी इंसानों के जाने के गम के बराबर ही होता है।

✍️ इंजीनियर राशिद हुसैन

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी के आठ गीत, उन्हीं की हस्तलिपि में ....

 













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डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
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बुधवार, 5 जुलाई 2023

मुरादाबाद मंडल के ग्राम सतुपुरा जनपद सम्भल ( वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार देवेश त्यागी की 25 ग़ज़लें


 

(1)

सच बोलता हूँ अपनी सफाई नहीं देता

मैं अपने हक़ में अपनी गवाही नहीं देता

इस रास्ते से ऊब चुके हैं तमाम लोग

ये रास्ता अब आबलापाई नहीं देता

संसद में बार बार बताना पड़ा मुझे

अंधे हैं हम अंधों को दिखाई नहीं देता

जिस झील ने निगले थे कई तपते हुए दिन

उस झील में अब चाँद दिखाई नहीं देता

कोई भी मेरे जख्म पे मरहम नहीं रखता

इस दर्द की कोई भी दवाई नहीं देता

हर शहर हरेक गांव बहुत चीख़ रहा है

दिल्ली को लखनऊ को सुनाई नहीं देता

कुछ बात तो हुई जरूर है कि इन दिनों

आँखों को तेरा ख्वाब तराई नहीं देता


(2)

तमाशा बन गए हैं हम तमाशा देखिये क्या हो

पराये लोग हैं इनमे शनाशा देखिये क्या हो

वही क़ातिल वही मुंसिफ भी है उसके हवाले से

हमारे क़त्ल का पूरा खुलासा देखिये क्या हो

हमारी प्यास को नीलाम करने की मुनादी पर

बजा तो है कहीं पर झुनझुना सा देखिये क्या हो

चराग़े आखिरे शब और थोड़ी देर भड़केगा

उजाला फूटते ही मर्सिया सा देखिये क्या हो

कोई टहनी तो क्या अब एक भी पत्ता नही हिलता

शज़र के वास्ते कुछ अब बुरा सा देखिये क्या हो


(3)

पत्थर के शहर में हैं पथराई हुई ऑंखें

ख्वाबों से परीशां हैं मुरझाई हुई ऑंखें

तहज़ीब के हलके में बे अदबी से वाकिफ़ हैं

घबराए हुए चेहरे घबराई हुई ऑंखें

ये सनअते हक़ है तो इसमें क्या बुराई है

लहराई हुई ज़ुल्फ़ें इतराई हुई ऑंखें

बेगाने हों अपने हों या लोग हों अनजाने

इस भीड़ में रहकर भी तन्हाई हुई ऑंखें

मुंसिफ की ज़रूरत की बेकार की बाते हैं

तहरीर सी पढ़िए तो घबराई हुई आँखें

एक अर्ज़े वफ़ा की थी हमने भी रक़ीबों से

उस दिन से बहुत ज़्यादा रुसवाई हुई ऑंखें


(4)

हमारे बाद रहेगी ये रहगुज़र तन्हा

नदी के सूखते ही हो गया सागर तन्हा

खला में ढूंढने वालों ज़मीन पे देखो

सड़क पे दौड़ रहा है ये अब शहर तन्हा

किसी जगह पे ठहरना तो ध्यान में रखना

किनारे हो गयी आती हुई लहर तन्हा

चराग रखके हथेली पे चल रहा हूँ मैं

किसी सवेरे की कोशिश में रात भर तन्हा


(5)

बिछड़ते वक़्त बड़ी बेबसी से तकती रही

फिर उसके बाद फ़िज़ा देर तक दहकती रही

कोई चराग़ था न जुगनू न चाँद न तारा

अकेली रात सवेरे तलक सिसकती रही

न चूड़ी खनकी न पाज़ेब न कोई पायल 

बड़ी मलूल हवा बादलों को तकती रही

खुद अपनी प्यास ने बेचैन कर दिया इतना

नदी किनारों पे अपना ही सिर पटकती रही

हमारे बाद भी जारी है खुशबुओं का सफर

हमारे बाद भी हर्फ़े वफ़ा महकती रही


(6)

सुबह होने तक खुद अपनी मौत मर जायेगी रात

जैसे गुज़री है उसी तरह गुज़र जायेगी रात

चाँद की ठंडी सुलगती आंच से झुलसी हुई

मेरी तरह सिर्फ आँखों में उतर जायेगी रात

ओस की चादर में लिपटीं दुल्हनों सी घास की

सुब्ह की पहली किरन से मांग भर जायेगी रात

तुम अगर चाहो तो सदियों तक सवेरा ही न हो

मैं अगर चाहूँ तो पल भर में गुज़र जायेगी रात

हाथ में सूरज को बस पत्थर उठाने दीजिये

किरचा किरचा आईने जैसी बिखर जायेगी रात

हम चराग़े शब् चराग़े शब् की किस्मत है यही

हम उधर ही जायेंगे जब भी जिधर जायेगी रात

(7)

जिस्म से बैर तो साये से वफ़ादारी क्यूं

भले चंगे हो अगरचे तो ये बीमारी क्यूं

बिखर गए है ख़लाओं में हम धुआं जैसे

तो बरख़िलाफ़ हवाओं की तरफदारी क्यूं

बहुत से ख्वाब लड़कपन के साथ छूट गए

बहुत से ख्वाबों की बाक़ी है देनदारी क्यूं

गई रुतें कभी अपनी न हो सकीं तो फिर

नई रुतों की वही शक्ल इतनी प्यारी क्यूं

वो नज़र जो कभी पत्थर बना गयी थी मुझे

उसी नज़र का नशा आज तक भी तारी क्यूं


(8)

सूखे पेड़ों में हौंसले रक्खे

हम परिंदों ने घौंसले रक्खे

चश्मे शबनम ने सब्जाज़ारों पे

कितने रंगीन सिलसिले रक्खे

कोई ग़ैरत सवार थी सिर पर

हमने पानी गले गले रक्खे

उम्र भर हमने तो परस्तिश की

उम्र भर तुमने फासले रक्खे

अपनी यादों के तपते सहरा में

तेरी यादों के ज़लज़ले रक्खे

सनअते हक़ भी एक मुसीबत है

आजु बाजू में मनचले रक्खे


(9)

मेरे होने में पोशीदा है न होने का मतलब

कैसे समझाऊं मैं तुझको खोने का मतलब

धरती डोली कांपा सूरज उजड़ गयी दुनिया

रोने वाले ही समझेंगे सबके रोने का मतलब

कुछ मांगे से नहीं मिलेगा दुनिया के रखवाले से

पत्थर है भगवान नहीं इस औने पौने का मतलब

ध्यान साधना जप तप पूजा सब विभ्रम हैं निष्फल हैं

समझ सको तो समझो बंजर धरती बोने का मतलब

मन्दिर मस्ज़िद गुरुद्वारे में रहने वाला क्या जाने

क्या होता है खोने का ग़म क्या है खोने का मतलब

बहुत सुना प्रकाश पुंज है तू ही उजाला देता है

बुझा दिया क्यूं, भूल गया क्यूं  दीपक होने का मतलब


(10)

सिर्फ़ मैं और तू नहीं बीमार था परमात्मा

बेबसों पर कितना अत्याचार था परमात्मा 

हर तरफ़ रोती बिलखती भीड़ थी कोहराम था

आदमी की तरह ही लाचार था परमात्मा

जल रहीं थी हर तरफ सौ सौ चिताएं एक साथ

सब अंधेरे में थे और गुलज़ार था परमात्मा

एन मौके पर ज़रुरत पड़ गयी तो सच खुला

उर्वशी और रम्भा का दरबार था परमात्मा

एक ही झौंके में दीपक को बुझाकर ले गया

पीठ पर पीछे से करता वार था परमात्मा

आस्तिक हूं इसलिए ही अपने मन के खेत से

काट डाला सिर्फ़ खरपतवार था परमात्मा

बंद कमरे में किसी लाचार पर हंसता हुआ

बाल विधवा से छिना श्रृंगार था परमात्मा

उफ़ हमारी बेकसी ये बेहिसी ये बेबसी

कुछ नहीं इन सबका उपसंहार था परमात्मा

मुझमें उसमें फ़र्क़ कोई भी नहीं है इन दिनों

मैं भी था बेज़ार तो बेकार था परमात्मा

हम बुज़ुर्गों से सुना करते थे उनके दौर में

सबकी सुनता था तो इज़्ज़तदार था परमात्मा


(11)

अपना हत्यारा हूं मैं

वक़्त का मारा हूं मैं

मोच से लाचार पांव

मन से बंजारा हूँ मैं

क्या न खोया इस बरस

ज़िन्दगी हारा हूं मैं

रौशनी खोता हुआ

डूबता तारा हूं मैं

हाय क़ुदरत का निज़ाम

क्या क्या न हारा हूं मैं

पानियों के बीचो बीच

सूखती धारा हूं मैं


(12)

क़ातिल कहने वाले मेरा अंतर्मन भी देख

बिन बादल बरसात बरसता ये सावन भी देख

दावानल ने तहस नहस कर डाला है सब कुछ

सिर्फ़ राख के ढेर बचे हैं अब ये वन भी देख

आर्तनाद है चीत्कार है कोहराम भी है

चिंताओं की चिता में जलते अंतर्मन भी देख

रेत के दरिया में डूबा हूं उबर नहीं सकता 

कश्ती मांझी तिनका सबका मनरंजन भी देख

मेरी नाकामी पर ताना देने वाले सुन

कितना सूना सूना है घर आंगन में भी देख

कालिख़ का टीका जैसा है माथे पर ये घाव

फांसी के फंदे सा हाथों में कंगन भी देख


(13)

तुम्हारी वन्दना का फल मिला है

मुझे उजड़ा हुआ जंगल मिला है

सियासत में तुम्हारी साज़िशों से

बिछौना ओढ़ना कंबल मिला है

मुझे रस्ते में हमसाया मेरा ही

बहुत बेकल बहुत घायल मिला है

मेरी आँखों में दीपक जल रहा है

बड़ी मुश्किल से ये एक पल मिला है

हमारे पूण्य में भी पाप हावी

हमें सूखा हुआ बादल मिला है

हलक में डाल दो तेज़ाब जैसा

बवक़्ते मर्ग गंगाजल मिला है


(14)

बंट गए है रिश्ते नाते सारे मां के सामने

दूर तक बंज़र जमीनें आस्मां के सामने

उस जहां में कौन कैसा है कहां है क्या पता

इस जहां में लपटें  ठंडी हैं धुआं के सामने

आप अपनी फ़िक्र अपने ज़िक़्र की चर्चा करें

कोई तो तसवीर उभरे कारवां के सामने

बदगुमानी बदमिजाजी के बहुत इल्ज़ाम हैं

मुन्सिफों इनको भी लाओ दास्तां के सामने

बंट गए है रिश्ते नाते सारे मां के सामने

दूर तक बंज़र जमीनें आस्मां के सामने

उस जहां में कौन कैसा है कहां है क्या पता

इस जहां में लपटें  ठंडी हैं धुआं के सामने

आप अपनी फ़िक्र अपने ज़िक़्र की चर्चा करें

कोई तो तसवीर उभरे कारवां के सामने

बदगुमानी बदमिजाजी के बहुत इल्ज़ाम हैं

मुन्सिफों इनको भी लाओ दास्तां के सामने


(15)

धूप के इस तपते सहरा में धूल और धुआं बरसते हैं

मौसम मौसम आग लगी है बादल कहां बरसते हैं

यहां यास है यहां प्यास है साया है न हमसाया

जहां प्यास का मोल नहीं है बादल वहां बरसते हैं

दहकानों से दूर चलो अब बस्ती छोड़ो बंजारो

आओ मिलजुलकर खोजेंगे बादल कहां बरसते हैं

फसले गुल हो दौरे खिंज़ा हो मौसम यकसां रहता है

जिनको सब आंखें कहते हैं बादल यहां बरसते हैं

धूंपें सनकी पागलपन में झुलसाती दहकाती हैं

इधर खुशकसाली रहती है बादल वहां बरसते हैं


(16)

जो हार जाओ तो खुद को ज़लील मत करना

सबूत लाख हों लेकिन अपील मत करना

अदालतों का तशककुर वजा सही लेकिन

जो सच को सच कहे ऐसा वक़ील मत करना

तमाम ज़ुल्मों तशद्दुद के बावजूद ए दोस्त

हम इन दिनों भी सलामत हैं फील मत करना

अभी बुजुर्गों की अज़मत के निशां बाक़ी हैं

विरासतों को अभी खील खील मत करना

दयारे गैर  की तन्हाई मार डालेगी

तालुकात की राहों को सील मत करना

जो चाहते हो की इज़्ज़त करें बड़े छोटे

ज़मीर बेच कर कोई भी डील मत करना


(17)

माना कि है हराम तबीयत उदास है

लाना इधर भी जाम तबीयत उदास है

बरसे बिना इधर से घटा भी गुज़र गयी

ऐसे में तिशनाकाम तबीयत उदास है

क्या राम क्या रहीम जो दे उसका शुक्रिया

कोई हो इंतज़ाम तबीयत उदास है

जाहिद हमारी शाम की तौहीन तो न कर

तौबा भी है हराम तबीयत उदास है

क़तरा ही संमन्दर से मिले प्यास तो बुझे

छलके नज़र का जाम तबियत उदास है


(18)

मुझे ज़रा सी हयात दे दो मुझे ज़रा सी शराब दे दो

ज़िन्हें मैं कांटे सा चुभ रहा हूँ उन्हें महकता ग़ुलाब दे दो

मैं एक पत्थर था रास्ते का तुम्हीं ने मंदिर में लाके रक्खा

कभी मुझे भी ख़िताब दे दो कभी मुझे भी ग़ुलाब दे दो

ये आंखें हैं संगलाख धरती नमी बची है न कोई क़तरा

ये एक मुद्दत से जागती हैं इन्हे भी कोई तो ख़्वाब दे दो

तुम्हारे मंदिर तुम्हारी मस्ज़िद हमारे हिस्से में मैक़दे हैं

सबाब चाहो तो लब भिगो दो अज़ाब चाहो अज़ाब दे दो

मैं एक पहेली सा हो गया हूँ वज़ह मुझे भी पता नहीं है

जवाब में भी सवाल दे दो सवाल में भी जवाब दे दो


(19)

शराब रौनके गुल है शराब मौसम है

कोई ऐसे में करे क्या ख़राब मौसम है

कभी हमारी नज़र से भी देख दुनिया को

सवाल जो भी हो सबका जवाब मौसम है

बरस रही है घटाओं के संग प्यास मेरी

शबे फिराक़ में कितना ख़राब मौसम है

लचकती टहनी की अंगड़ाइयों के पसमंज़र

अज़ाब है यही मौसम सबाब मौसम है

हमारे ज़िस्म पर बेचैनियों की कौंपल हैं

और इनके फूटने का  इज़तीराब मौसम है


(20)

मुट्ठी में है आसमान तो बाहों को फैलाएं क्या

कदमों में है धरती तो फिर जोड़ें और घटाएं क्या

सबके सब मशगूल बहस में मुद्दा क्या है पता नहीं

ऐसे लोगों की बस्ती में  जागें और जगाएं क्या

चाँद रख दिया चौराहे पर तारे टांके जुगनू में 

रातों के अनचाहे मंज़र रोएं और रुलाएं क्या

ऐसे रिश्ते भाड़ में जाएं अपनों में बेगानापन

घर होकर भी जो घर न हो उसमें आएं जाएं क्या

रिश्तों की सरसब्ज़ ज़मीनें बंज़र में तब्दील हुईं

बादल इन पर क्यूँ कर बरसें बरसें तो बरसायें क्या


(21)

बाजुओं को तौलेंगे कश्तियाँ जला देंगे

नाखुदाओं की सारी बस्तियां जला देंगे

जलते हुए सूरज को बर्फ़ में दबा देंगे

गुनगुनी सी धूपों से सर्दियां जला देंगे

अब हवा से कह भी दो रेत से नहीं खेले

अब दरख़्त धूलों की ज़रसियां जला देंगे

बाड़ किसको खाएगी बाढ़ क्या डुबोएगी 

 फ़स्ले गुल में यादों की बस्तियां जला देंगे


(22)

करवटें गिन रहा हूँ अभी

सलवटें गिन रहा हूँ अभी

आँख में आँख मत डालना

मैं लटें गिन रहा हूँ अभी

तेरे कूँचे में भटका हुआ

चौखंटें गिन रहा हूँ अभी

पास आती हैं नज़दीकियां

आहटें गिन रहा हूँ अभी

कितनी आसां हुई आज तक

झंझटें गिन रहा हूँ अभी

तेरे माथे पे हों या मेरे

सलवटें गिन रहा हूँ अभी

कितने तारे मेरे साथ थे

पौ फटे गिन रहा हूँ अभी


(23)

कोई तो था जो बहुत देर से अंदर निकला

मैं जिसे झील समझता था समन्दर निकला

ज़रा सी गर्द हटाई थी आईने से अभी

तो रौशनी का सफर कितना तेज़तर निकला

रूह में भर गयी है ताज़गी गुलाबों की

आज मैं अपने आप को ज़रा छूकर निकला

फज़ा में तैर गयी दूर तलक खुशबु सी

हमारी सोच का जंगल बहुत बेहतर निकला

बदल दिया है कि मौसम को खुशमिज़ाज़ी ने

आज सूरज भी चाँद तारों से मिलकर निकला

ना कोई पत्थर है न कंकड़ ना कोई कांटा

दूर तक देर तक रस्ता बड़ा बेहतर निकला 


(24)

पहचान अँधेरे में रक्खी हुई बोतल है

आँखों का नशा है और आँखों से ही ओझल है

खवाबों के पुलिंदों का एक बोझ लिए जागा

मन तेरा हो या मेरा ये मन बड़ा चंचल है

खुलते ही नहीं अक्सर सोचों की कलाई से

कंगन हो या चूड़ी हो दोनों में ही हलचल है

शहरों में है बेअदबी गांवों में बदमिज़ाज़ी

थोडा सा बचा है जो तहज़ीब का जंगल है

हसंते हुए रो देना रोते हुए हंस देना

दुनिया ने कहा छोडो ये शख्स तो पागल है

बह जाये तो छू लेना रुक जाये तो चुप रहना

आँखों में तेरी मेरे अरमानों का काज़ल है


(25)

खिड़की है बंद ताज़ा हवा कौन लाएगा

सब लोग ख़ुदा हैं तो ख़ुदा कौन लाएगा

तपते हुए सहरा पे पांव तंज़ कसे हैं

बारिश के लिए दस्ते दुआ कौन लाएगा

उठ्ठी तो है छोटी सी घटा करवटें लेकर

पर इसमें बरसने की हया कौन लाएगा

छांव की तलब धूप के अफ़साने लिए है

इस दर्दे मुजस्सम की दवा कौन लाएगा

धूपों से भर दिए सभी अख़बार के पन्ने

ऐसे में छांव बादे सबा कौन लाएगा

हर सुब्ह नया आफ़ताब ले तो आये हम

अब देखना है बादे सबा कौन लाएगा

✍️देवेश त्यागी              
A ब्लॉक, फ्लैट नंबर 24,
 सोमदत्त सिटी, जाग्रति विहार,
 मेरठ, 250004
उत्तर प्रदेश, भारत                          
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