बुधवार, 12 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के नौ गीत ...…


1. अभिमन्यू है चक्रव्यूह में

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पता नहीं पल कैसे होंगे 

आने वाले कल के।

अभिमन्यू है चक्रव्यूह में 

कपटी कौरव दल के।


धरती अम्बर एक करेंगे

झूठ पुलिंदे मिलकर।

रेबड़ियों की ले आए हैं 

नई थैलियाँ सिलकर।।

अंकित हैं माथें पर ठप्पे 

जबकि पुराने छल के।


जिनके घर के कोने-कोने

अटे पड़े हैं धन से।

करी कमाई कैसे इतनी

पूछें अपने मन से।।

पिला पिलाया चले पेलने 

हाल न जाने खल के।


तरह-तरह के नाटक इनपर

नाटक में नौटंकी।

जन रोगों की एक दवा बस

राजनीति की फंकी।।

दे खैरात उन्हें क्या पाई 

जो प्यासे थे जल के।


शब्दकोश से बाहर की जिन

अधरों पर हर गाली।

छोड़ेगी तस्वीर बनाकर  

काली से भी काली।।

चुभे पुराने कंटक अबतक

निकल न पाए गल के।


एका है पर खबर नहीं है 

कौन रहेगा आगे।

लोक चदरिया बुनने निकले 

जले-भुने सब धागे।।

रात दिवस गरियाकर इच्छुक

लोकतंत्र के फल के।


गीता प्रेस बहाना भर है 

कुरक रही है गीता।

जल स्रोतों की निन्दा करके

सागर समझो रीता।।

रामचरित मानस पर हमले

सिर्फ सियासी मल के।


आया मौसम अब वैसे तो 

लौट पुनः वोटों का।

स्वर्ण काल पर निकल गया है

सब खारिज नोटों का।।

अब तो रण में जाना होगा

सच्चाई में ढल के।


2. थक जाती थी जब माँ मेरी

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करते-करते काम दिवस भर

थक जाती थी जब माँ मेरी।

कहती! पहले घर सुनना है

उसके बाद सुनूँगी तेरी।।


भले नहीं वह फिर भी मुझसे

अब भी बात वही कहती है।

घर चिंता में मैं रहता हूँ

इस चिंता में वह रहती है।

घर को ख़ुशी सुखी रखने में 

सदा मुसीबत उसने पेरी।


अथक परिश्रम उसका ही तो

आसपास में रँग लाया था।

एक जून जो खा न सका था

उस घर ने छक कर खाया था।।

सबके संकट काट दिए थे

खोल गाँव में उसने डेरी।


परधानी जीती तो उसने

घर के सँग-सँग गाँव सँभाला।

सूरत बदल गाँव की रखदी 

बिना पढ़ी ने लिखा खँगाला।।

सामूहिकता सींच-सींचकर

दूर भगा दी तेरी मेरी।


नियम गाँव को समझाकर वह

सौ नंबर से पास हुई थी।

पुरस्कार पा महामहिम से

दूर-दूर की खास हुई थी।।

उसने ही सिखलाया था यह 

अच्छी नहीं काम में देरी।


नहीं सोचता कोई भी जो

वही सोचती है माँ सबकी।

माँ चिंताओं से लड़-भिड़कर 

जिंदा अबतक,मरकर कब की।।

गाँव-गाँव जब सोते मिलते

वह देती फिरती है फेरी।


3. कोशिश है खरपतवारों की 

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कोशिश है खरपतवारों की 

मटियामेट फसल हो।


नए सृजन पर असमंजस में

तुलसी सूर कबीरा।

गान आज का गाने में सुन 

दुखी हो उठी मीरा।।

देख निराला भी कह उठते 

नव की नई शकल हो।


बचा-खुचा इस मोबाइल ने

जकड़ लिया अब सारा।

दुखती रग को पकड़ सभी की

परस दिया है चारा।।

जिसमें ख़तरा छुपा हुआ सा 

बैठा अगल-बगल हो।


बूँद-बूँद से भर इठलाए

बची नहीं वह गागर।

पोखर झील नदी नद नाले

आज सभी हैं सागर।।

जिनके दर्शन कर आभारी 

हुआ हरेक पटल हो।


कोई बड़ा न कोई छोटा 

अब तो सभी बराबर।

सभी मियां मिट्ठू अपने मुँह 

बनते फिरें परापर।।

हाथी के कद पर ज्यों चींटी 

लेने चली दखल हो।


इसी तरह तो खंड-खंड सब

अपना होता आया ।

सदा जिए अति विश्वासों में 

हमने गोता खाया।।

मौज मस्तियाँ पागल जैसे  

मौसम गया बदल हो।


4. उधड़ा!रफू इसी से होता 

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झोला छाप जमे हैं अबतक

झोलों के दम पर।


चर्चित हैं,सँग बीमारों के

ये खिलवाड़ करें।

अपना ठिया जमाकर उनसे 

पैसा झाड़ धरें।।

उधड़ा! रफू इसी से होता 

मोलों के दम पर।


आए दिन अखबारों का भी 

मुद्दा बना रहे।

उरे परे होते रहने का

किस्सा कौन कहे।‌।

भारी भरकम मसले निबटे

बोलों के दम पर।


यह भी सच है बिन इनके भी

काम नहीं चलना।

ये जानें बिगड़े से बिगड़ा 

हर रोग पकड़ना।।

गाड़ी कभी न चलती देखी 

चोलों के दम पर।


5. सबको गले लगाने की 

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शान्त भाव की धुन में यह तो 

आदत मंगल गाने की।

जुर्म नहीं है धमकी धड़ से

शीश उतारे जाने की।।


मंगल यही अमंगल जमकर 

सदियों से करता आया।

पता सभी को अब इसका भी

क्या खोकर क्या है पाया।।

आदत फिर भी पड़ी हुई है

सबको गले लगाने की।


दया भाव के सभी आचरण

मकसद अच्छा गढ़ने के।

बुरा भला भी सुन-सुन लक्षण

क्षमा दिशा में बढ़ने के।।

सीख न पाए लड़ना-भिड़ना

और जुगत लड़वाने की।


अनेकांत में भाव एकता

पीढ़ी दर पीढ़ी पहना।

करी विविधता आत्मसात फिर

उसको बना लिया गहना।।

आज जरूरत इसी भाव पर

आगम के इतराने की।


इस धरती पर मिसरी जैसी

कहीं न कोई वाणी है।

फसलें मीठी रहा उगाता

खारा भी यदि पानी है।।

ऊपर से नीचे तक फिर भी

चली सदा उकसाने की।


इस धरती ने मान दिया है

सूफी पीर मजारों को।

फिर भी घायल करते रहते

कुछ हैं लोग बहारों को।।

असली कथा छुपाकर अपनी 

गाते रहे ज़माने की।


रातों में खुल दरवाजों ने

बड़े-बड़े उपकार किए।

उलटे पाँव प्रार्थना लौटी

अबकी तो फटकार लिए।।

भूल समझ में आई जल्दी 

याची को हड़काने की।


6. बता अकेले कबतक ढोएँ 

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गंगा जमुनी चलन तुझे हम

बता अकेले कबतक ढोएँ।


धार अलग गंगा यमुना की

संगम तक ही तो रहती है।

आगे फिर सागर तक यमुना

गंगा होकर ही बहती है।।

इसी सत्य को समझा-समझा

आँसू-आँसू कबतक रोएँ।


भाव घिरा निरपेक्ष धर्म से

हुआ व्यथित सा खुद लगता है।

तथाकथित सब पहले जैसा 

तथाकथित ही अब लगता है।।

शुद्ध भाव की रोटी को हम

एक हाथ से कबतक पोएँ।


लिबरल खेती के खेतों में

बुए पड़े हैं बस उकसावे।

कारोबार झूठ की खेती 

उगते रहते खुक्खल दावे।।

कड़ी नींद से घिरे हुए हम

खुली आँख से कबतक सोएँ।


एक पिता की संतानें सब

इन ऋतुओं के सारे मौसम।

यही सत्य समझाने भर में

अपनों से ही हारे मौसम।।

मौसम के सद्भाव घाव हम

और बताओ!कबतक धोएँ।


7. गीतों में नानी लिखना

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झुलस रहे हैं बाग बगीचे

गीतों में पानी लिखना।


तपे दिनों में बच्चे व्याकुल

गर्मी से उकताए हैं।

ननिहालों से उन्हें बुलाने

कई बुलावे आए हैं।।

इस मौसम में खुश रखने को

गीतों में नानी लिखना।


चले छतों से बरसे पत्थर

दिन हों जैसे दंगल के।

गंगा जमुनी के धोखे में

पल गायब हैं मंगल के।।

तर कर दे जो बादल को भी

गीतों में वानी लिखना।


इधर-उधर से चली हवाएँ

आकर हममें पसर गईं।

कल ही तो थी आग लगाई

आज सबेरे मुकर गईं।।

सुनो!ठीक से इनके रुख को

गीतों में ज्ञानी लिखना।


8. सबको पानी दो

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अर्थहीन हो चुका बहुत सा

उसको मानी दो।

प्यासे झील नदी नद पोखर

सबको पानी दो।।


जल जीवन है तो उसका भी

जीवन बचा रहे।

और धरा पर जो-जो हमने

खोया,रचा रहे।।

मूक पड़ा जो ज्ञान ध्यान है

उसको बानी दो।


पंचतत्व में घोली हमने

एकमात्र विषता।

अपना इससे जाने क्या-क्या

रोज़ रहा रिसता।।

उजड़ रहे से इस मौसम को

रंगत धानी दो।


जिनसे भू पर मानवता के

उपवन मुस्काएँ।

हमें बचाओ!बोल रहीं सब

मिटती धाराएँ।।

मन से इन्हें पोसने वाले

राजा रानी दो।

=9. गौरैया गीत

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लुप्त हुईं गौरैया

कुछ तो ठीक नहीं।


उनकी फुदक-फुदक से

घर-आंगन फुदके

बिखरे मिल जाते थे

कुछ लक्षण शुभ के

पुनः बुला लाने की

दिखती लीक नहीं।


नीड़ बना रहती थीं

घर के खोडर में

घर ही होते थे तब

गांव औ' शहर में

लुप्त घरौंदे, घर भी

उठती चीक नहीं।


तप्त रेत मल-मल कर

जेठ दुपहरी में

नहा, मेघ ले आतीं

एक फुरहरी में

ज्ञान जगत पर ऐसी

कुछ तकनीक नहीं।


खेत फदोरा करतीं

खेल दिखाती थीं

छिटक गये बीजों को

खुद बो जाती थीं

देखे गये न पंछी

इतने नीक, नहीं।


कीट-पतंगे घर के

और खेत के भी

चुग, संवार देती थीं

भाग्य रेत के भी

बिन उनके,जीवन का

सुख निर्भीक नहीं।


चीं चीं चूज़े करके

सूनापन हरते

निर्जन में भी जैसे

वो हलचल भरते

होते आये बखान

हुए सटीक नहीं।


चहक-चहक से उतरा

उत्सव सा लगता

जन-जीवन में पसरा

सन्नाटा भगता

लुटी सम्पदा सारी

सदियां ठीक नहीं।


✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

     झ-28, नवीन नगर

     काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

     मोबाइल:9319086769


  





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