गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी के संदर्भ में ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख..... "आ, लौट के आजा मेरे मीत "


शायद वर्ष 1972 था या 1973, उन दिनों मैं मुजफ्फरनगर से स्टेट बैंक की अपनी नौकरी छोड़ के मुरादाबाद  लौट चुका था और शायद "साईको" उपन्यास के अनुवाद की तैयारी में व्यस्त था।  परंतु , साहित्यिक गोष्ठियों व सम्मेलनों में गाहे-बगाहे जाता रहता था। एक शाम हमारे साहित्यिक मित्र और मेरे वरिष्ठ कवि डा विनोद गुप्त जी के निवास, सब्जी मंडी पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन था। मैं भी आमंत्रित था। वहीं लम्बे चौड़े गोरे से चश्मा लगाये एक नवीन साहित्यकार से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने अपना नाम प्रकाश चन्द्र सक्सेना ’दिग्गज’ बतलाया। वे सफेद पाजामें– कुर्ते में बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, और काफी हंसमुख भी थे।

बोले, "अरे, जाकिर साहब, मैंने आपका बहुत नाम सुन रखा है। आज आपसे मिल कर तबियत खुश हो गयी, मेरी।"

मैं हंसा, " श्रीमन तबियत तो मेरी भी खुश क्या डबल खुश हो गयी आपसे मिल के !"

वे बोले, "मतलब, डबल खुश कैसे ? " मैंने समझाया, " सादर प्रणाम ! श्रीमन मेरे श्वसुर महोदय का भी यही नाम है, श्री प्रकाश चन्द्र सक्सेना ! उपस्थित सभी लोग हँसने लगे।

 ‌‌यही थी मेरी 'दिग्गज जी' से पहली मुलाकात की बानगी !

 ‌उन्होंने बड़े ऊंचे स्तर की उर्दू नज़्में में सुनाई ।

बस, उस शाम के बाद उनका बारादरी स्थित मेरे निवास पर आना-जाना होने लगा और हम अक्सर मिलने लगे।

 जब मिलते थे, तो सुनना-सुनाना भी हो जाता था। पर उस समय तक वो शायर

 " दिग्गज' थे, "दिग्गज मुरादाबादी 'नहीं! और सिर्फ उर्दू में कलम चलाया करते थे। एक शाम को अपने साथ एक अन्य वरिष्ठ साहित्यकार को मेरे घर ले आये, परिचय कराया श्री बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी'! प्रवासी जी उच्च कोटि के कवि थे और तहसीली स्कूल में अध्यापन कार्य करते थे। वह" मैढ़ बालक" नामक एक बाल पत्रिका का संचालन भी करते थे। 

 अब हमारी काव्य गोष्ठियों में दिग्गज जी प्रवासी जी के साथ ही आने लगे। दिग्गज जी बहुत उच्च कोटि को नज़्मकार थे और मंच को जीत लेने वाली अनेक नज़्में कह चुके थे। मुझे उनका कलाम बहुत पसंद आता था और हम दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उन्ही दिनों मुझे पता चला कि दिग्गज जी, मुरादाबाद कचहरी में अर्जी नवीस का काम करते थे।

शायद, एक बार मैं किसी काम से कचहरी के पोस्ट आफिस गया तो, कचहरी में जाकर उनके बस्ते पर बैठ कर  एक प्याला चाय भी पी आया। वहीं बातचीत में उनसे पता चला कि वे कटघर में पचपेड़ा नामक स्थान पर रहते थे। इसके बाद तो साहित्यक गोष्ठियों में वे हुल्लड़ मुरादाबादी, ललित मोहन भारद्वाज, पुष्पेन्द्र वर्णवाल, डा० विनोद गुप्ता, ओम प्रकाश गुप्ता, प्रवासी जी, कौशल शलभ और मक्खन जी के साथ मुझे मिल ही जाते थे। वैसे, उन्होंने बहुत कुछ कहा था, कहते ही रहते थे मगर उनकी एक नज़्म "झांसे वाली रानी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी, मुझे भी पसंद थी। उसकी प्रारंभ की कुछ  पंक्तियां मुझे आज 52-53 वर्षों के बाद भी याद है?

सरल,सौम्य आकृति, मगर कुछ थोड़ी सी अभिमानी है ,

है प्रयाग से प्यार, कि जिससे इसकी जुड़ी कहानी है। 

सब लोगों,कुल अखबारों में खबर यही छपवानी है, 

कि एक थी झांसी वाली,पर यह झांसे वाली रानी है।

सैकुलर नारों की सारी शेखी  चकनाचूर हुयी, 

बाईस वर्षों में भी तुमसे नहीं गरीबी दूर हुयी। 

कुछ भी तुमसे हो न सका, पर इतनी बात ज़रूर हुयी, 

कि भूखी-नंगी भारत माता दूर-दूर मशहूर हुयी ।

 इस पर भी तू अपने मन में फूली नहीं समानी है। 

 एक थी झाँसी वाली पर ये झांसे वाली रानी है । (रचना काल 1969)

इसी प्रकार उनकी एक और नज़्म थी.. " मेहतर की बेटी ", उसे भी वो बड़े चाव से पढ़ते थे।

असल में उन दिनों कविता ' लुहार की लली' काफ़ी प्रसिद्धि पा रही थी, उसी से प्रभावित होकर दिग्गज जी ने यह कविता या नज़्म जो कुछ भी यह थी उसे लिखा। 

 प्रोफेसर एन० एल० मोयात्रा के घर पर होने वाली मासिक हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमनी काव्य गोष्ठी " बज़्मे मसीह" में दिग्गज जी हमेशा भाग लेते थे और खूब सराहे जाते थे।

परन्तु, इस सारे समय में वे जो डायरी अपने साथ लाते थे, उसमें  जो कुछ भी उनकी हस्तलिपि में होता था, वो सब उर्दू में ही होता था।

  इन कुछ महीनों के  साथ के बाद मेरा उनसे ही क्या मुरादाबाद से ही साथ छूट गया, जब मैं मुरादाबाद से प्रस्थान कर गया। पर उन्हें और उनके साहित्य और अपनत्व को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा । इसी लिये चाहता हूं, वो एक बार फिर हमारे बीच लौट आएं और अपने  क़लाम से हमें नवाज़ें !


✍️ ए टी ज़ाकिर 

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001  मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com

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