शुक्रवार, 6 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में आगरा निवासी) ए टी ज़ाकिर की नज़्म --मुजरिम


मेरे किरदार कॊ मगरूर कहने वाले,

मेरे शेरों की ज़ुबां तल्ख़ बताने वाले।

आ, मेरे दिल की ज़रा सैर करा दूं तुझको,

अपने ज़ख्मों के बागी़चे से मिला दूं तुझको।


मेरे माज़ी पे दगे दाग़ दर्द करते हैं,

दिल के नासूर हर इक सांस खूं उगलते हैं।

इसलिए शेर मिरे तल्ख़ ज़ुबां होते हैं,

उनके हर्फों में मिरे दर्द बयां होते हैं।


मैंने बचपन से ज़‌माने की है नफ़रत को जिया,

सिर्फ तौहीन सही और हिक़ारत को पिया।

इसलिए जब भी दिल के वलवले उबलते हैं,

कलम की नोंक से शोले-ग़िले निकलते हैं।


जिगर की सारी तल्ख़ी शेरों में उतरती है,

दिल की हर टीस, मेरी नज़्म में उभरती है।

उरियां जज़बातों को मैं पैरहन पहनाता नहीं,

साफ़ कहता हूं सच को मैं झुठलाता नहीं।


इसलिए बात मिरी तल़्ख नज़र आती है,

मिरे क़िरदार पे उंगली उठाई जाती है।

मिरा हर तंज़ उन्हें आईना दिखाता है,

जो हैं बदकार मगर सभ्य बने रहते हैं।


मेरे जज़वात के तेज़ाब से झुलसे चेहरे,

इसलिए जल के मुझे तल्ख़ ज़ुबां कहते हैं।


✍️ ए टी ज़ाकिर

आगरा

उत्तर प्रदेश, भारत

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