बुधवार, 30 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा ......


 वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा  "विरासत जगमगाती है" शीर्षक के तहत मुरादाबाद मंडल के बिजनौर जनपद के साहित्यकार दुष्यंत कुमार को उनकी पुण्यतिथि पर 29 व 30 दिसम्बर 2020 को याद किया गया। ग्रुप के सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा की।   

सबसे पहले ग्रुप एडमिन ज़िया ज़मीर ने उनके जीवन के बारे में विस्तार से बताया कि दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के रहने वाले थे। दुष्यन्त कुमार का जन्म बिजनौर जनपद उत्तर प्रदेश के ग्राम राजपुर नवादा में एक सितम्बर 1933 को और निधन भोपाल में 30 दिसम्बर 1975 को हुआ था| इलाहबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे बाद में प्रोड्यूसर पद पर ज्वाइन करना था लेकिन तभी हिन्दी साहित्याकाश का यह सूर्य अस्त हो गया| वास्तविक जीवन में दुष्यन्त बहुत सहज और मनमौजी व्यक्ति थे| सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यन्त कुमार को मिली वो दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब होती है| दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं| दुष्यंत का लेखन का स्वर सड़क से संसद तक गूँजता है| दुष्यंत कुमार अपने हाथों में अंगारे लिए ऐसा शायर है जो अपने लोगों की ज़िंदगियां अन्धेरी होने के कारण ही नहीं बताता बल्कि उन्हें रौशन करने के उपाय भी सुझाता है। इस कवि ने कविता, गीत, गज़ल, काव्य नाटक, कथा आदि सभी विधाओं में लेखन किया। उन्होंने पटल पर उनकी निम्न रचनाएं भी प्रस्तुत कीं-----

*1.*

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए

यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो

इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके

जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ

हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

*2.*

ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

और हर गाम हो रही है अब

जिस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब

अज़मते—मुल्क इस सियासत के

हाथ नीलाम हो रही है अब

शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं

सुब्ह बदनाम हो रही है अब

जो किरन थी किसी दरीचे की

मरक़ज़े बाम हो रही है अब

तिश्ना—लब तेरी फुसफुसाहट भी

एक पैग़ाम हो रही है अब

*3.*

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है

मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं

यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन

ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना

ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी

कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं

ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है

चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं

*4.*

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

*5.*

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ

मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह

तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ

अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर

तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ

ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो

तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

*6.*

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो

अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा

इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे

आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे

आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया

इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की

तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

*7.*

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

*8.*

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो

धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं

बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है

ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है

पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं

आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर

आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं

सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत

हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

 ***अपनी प्रेमिका से

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी

जो तुम्हें शीत देतीं

और मुझे जलाती हैं

किन्तु

इन हवाओं को यह पता नहीं है

मुझमें ज्वालामुखी है

तुममें शीत का हिमालय है।

फूटा हूँ अनेक बार मैं,

पर तुम कभी नहीं पिघली हो,

अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं

पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं

तनी हुई.

तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की

जो गर्म हो

और मुझे उसकी जो ठण्डी!

फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति

जो दुखाती है

फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का

जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है

काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।

तुम जो चारों ओर

बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो

(लीन... समाधिस्थ)

भ्रम में हो।

अहम् है मुझमें भी

चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ

लेकिन क्यों?

मुझे मालूम है

दीवारों को

मेरी आँच जा छुएगी कभी

और बर्फ़ पिघलेगी

पिघलेगी!

मैंने देखा है

(तुमने भी अनुभव किया होगा)

मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को

जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे

लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई।

देखो ना!

मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,

सूर्योदय मुझमें ही होना है,

मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,

इसीलिए कहता हूँ-

अकुलाती छाती से सट जाओ,

क्योंकि हमें मिलना है।

***फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं

चापल्य नहीं उन्माद नहीं

सूना-सूना सा जीवन है

कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं


तव स्वागत हित हिलता रहता

अंतरवीणा का तार प्रिये ..


इच्छाएँ मुझको लूट चुकी

आशाएं मुझसे छूट चुकी

सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ

मेरे हाथों से टूट चुकी


खो बैठा अपने हाथों ही

मैं अपना कोष अपार प्रिये

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..


***सूना घर


सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।


पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर

अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर

खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।


पर कोई आया गया न कोई बोला

खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला

आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।


फिर घर की खामोशी भर आई मन में

चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में

उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।


पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं

कमरे के कोने पास खिसक आए हैं

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

***एक आशीर्वाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना की गोद से उतर कर

जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये

रूठना मचलना सीखें।

हँसें

मुस्कुराएँ

गाएँ।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें

उँगली जलाएँ।

अपने पाँव पर खड़े हों।

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

***सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन

सूरज जब

किरणों के बीज-रत्न

धरती के प्रांगण में

बोकर

हारा-थका

स्वेद-युक्त

रक्त-वदन

सिन्धु के किनारे

निज थकन मिटाने को

नए गीत पाने को

आया,

तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,

ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप

और शान्त हो रहा।


लज्जा से अरुण हुई

तरुण दिशाओं ने

आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!

क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने

मुख-लाल कुछ उठाया

फिर मौन सिर झुकाया

ज्यों – 'क्या मतलब?'

एक बार सहमी

ले कम्पन, रोमांच वायु

फिर गति से बही

जैसे कुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन

ईश्वर की शपथ!

सूरज के साथ

हृदय डूब गया मेरा।

अनगिन क्षणों तक

स्तब्ध खड़ा रहा वहीं

क्षुब्ध हृदय लिए।

औ' मैं स्वयं डूबने को था

स्वयं डूब जाता मैं

यदि मुझको विश्वास यह न होता –-

'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य

ज्योति-किरणों से भरा-पूरा

धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को

जोतता-बोता हुआ,

हँसता, ख़ुश होता हुआ।'

ईश्वर की शपथ!

इस अँधेरे में

उसी सूरज के दर्शन के लिए

जी रहा हूँ मैं

कल से अब तक!

   


चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि दुष्यन्त मुहावरों की तरह आम आदमी की ज़बान पर चढ़ कर आज भी जहां-तहां कभी तबीयत से पत्थर उछालता मिल जाता है तो कभी हिमालय से गंगा निकालने लगता है राजा भगीरथ की तरह। 


वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि दुष्यंत कुमार एक ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने न केवल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विद्रूपताओं- विसंगतियों के खिलाफ अपनी रचनाओं के जरिए आवाज उठाई बल्कि वे उस आवाज में असर के लिए बेकरार थे। वे बंद दरवाजे को तोड़ने का जतन कर रहे थे। वे जर्जर नाव के सहारे लहरों से टकरा रहे थे । वे देख रहे थे- इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पांव घुटनों तक सना है । उनके सामने स्थितियां थी- इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं खिड़कियां। वह हतप्रभ थे यह देखकर- यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं । इन तमाम स्थितियों को खत्म करने के लिए उनकी लेखनी ने आह्वान किया - कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं। पुराने पड़ गए डर को फेंक दो तुम । चारों तरफ बिखरी राख में चिंगारियां देखो और पलकों पर शहतीर उठाकर एक पत्थर तो तबीयत से उछालो। उनका मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना नहीं था, वह पर्वत सी हो गई पीर को पिघलाना चाहते थे, हिमालय से गंगा निकालना चाहते थे। वे चाहते थे बुनियाद हिले और यह सूरत बदले ।

प्रसिद्ध गीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि दुष्यंत कुमार स्थापित परंपराओं के विरुद्ध जाकर नई परंपराओं को इस तरह विकसित करने वाले रचनाकार थे कि नई पीढ़ियां उनसे प्रेरणा हासिल कर सकें। 


युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि उनके महान व क्रांतिकारी रचनाकर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह   तात्कालिक रूप से प्रभावशाली होने के साथ-साथ भविष्य की तस्वीर को भी स्वय॔ में समाहित किये रहा।

युवा कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि दुष्यंत कुमार अपने रचनाकर्म के माध्यम से आमजन में इतने रचे बसे हैं कि दुष्यंत के बिना कोई महफिल, कोई कार्यक्रम यहाँ तक कि संसद के अधिवेशन भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। 

:::::;;प्रस्तुति::::::

 ज़िया ज़मीर

ग्रुप एडमिन

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब

मो०8755681225

2 टिप्‍पणियां:

  1. कितनी भी हो तारीफ़ मगर कम ही रहेगी,
    दुष्यंत की तारीफ़ का तो अंत नहीं है।
    हकदार बहुत ज्यादा हैं प्यारे मनोज जी,
    तारीफ़ की सीमाएं दिग्-दिगंत नहीं हैं।
    तारीफ़ तहेदिल से है इस ब्लॉग की जनाब,
    इसके बिना अदब के घर वसंत नहीं है।
    'निष्पक्ष ' कह रहा हूँ कि दौर में जनाब,
    शायर तो बहुत हैं कोई 'दुष्यंत ' नहीं है।

    इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिए अनन्त साधुवाद।

    हिमांशु श्रोत्रिय 'निष्पक्ष '

    मूल निवास सम्भल
    अभी बरेली में उपलब्ध हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. कितनी भी हो तारीफ़ मगर कम ही रहेगी,
    दुष्यंत की तारीफ़ का तो अंत नहीं है।
    हकदार बहुत ज्यादा हैं प्यारे मनोज जी,
    तारीफ़ की सीमाएं दिग्-दिगंत नहीं हैं।
    तारीफ़ तहेदिल से है इस ब्लॉग की जनाब,
    इसके बिना अदब के घर वसंत नहीं है।
    'निष्पक्ष ' कह रहा हूँ कि दौर में जनाब,
    शायर तो बहुत हैं कोई 'दुष्यंत ' नहीं है।

    इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिए अनन्त साधुवाद।

    हिमांशु श्रोत्रिय 'निष्पक्ष '

    मूल निवास सम्भल
    अभी बरेली में उपलब्ध हूँ।

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