बुधवार, 17 जुलाई 2024

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी.....“निर्वासन”


  उद्विग्नता दीक्षा के मनोमस्तिष्क के साथ-साथ देह के अंग-अंग पर भी प्रभावी हो गई थी।रह-रहकर भाभी के विषाक्त तीक्ष्ण शर जैसे शब्द कानों में पिघले सीसे की तरह घुस सनसनी मचाने लगते–’जीजी! इस घर पर तुम्हारा क्या अधिकार है? क्यों अकारण हर वक्त अपना बड़प्पन प्रदर्शित कर हमारी सुखशांति भंग करती रहती हो? क्या हमारी खुशी तुम्हें पसंद नहीं?’

     यहां तक भी कुछ सह्य था। किंतु भैया के आचरण ने तो मर्म ही बेध डाला था।भाभी का कटाक्ष सुन दीक्षा ने मिट्टी के माधो बने खड़े भैया को पुकारा था –’सुन रहा है छोटे! जरा इसे बता तो सही कि इस घर पर मेरा क्या अधिकार है?’

     वह पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदता हुआ निगाह झुकाए बोला था –’याची ठीक कह रही है जीजी! तुम बेवजह छोटी-छोटी बातों पर हमें डांट-फटकारकर अपमानित करती रहती हो, जैसे हम कोई कूड़े-कचरे के ढेर पर से उठाकर लाए गए अनाथ बालक हों। इस हर समय की चिक-चिक से हम तंग आ चुके हैं। बस अब बहुत हो चुका, और नहीं सहा जा सकता। जीजी! अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहां से कहीं और चली जाओ!’

     ‘छोट्टे!’ दीक्षा आवेश में थरथराने लगी थी –’यह तू कह रहा है तू? जिसकी खुशी के लिए मैंने अपने जीवन का सर्वाधिक संवेदनशील यौवन तक न्यौछावर कर दिया। तू आज मुझे बोरिया-बिस्तर समेटने को कह रहा है? कुछ लाज-शरम आंखों में बची है कि नहीं?’

     ‘चिल्लाओ मत जीजी!’ छोटे ने प्रतिवाद किया था –’तुमने विवाह नहीं किया तो किसी पर कोई अहसान नहीं कर दिया। दूसरी बहन की तरह तुम भी कहीं अपना घर-बार बसा लेतीं तो आज पापा की इतनी कीमती दुकान पर किसी नागिन की भांति कुंडली मारे तो न बैठी होतीं। और न हमें इस तरह घुट-घुटकर जीने को बाध्य होना पड़ता कि हम स्वच्छंदता की दो सांसें लेने को भी छटपटाकर रह जाते हैं।’

     सन्न रह गई थी दीक्षा…तन-मन में समाहित आवेश पिघलकर नीर के रूप में आंखों की राह प्रवाहित हो चला था।तब से अब तक वह निरंतर रोती रही थी…बस रोती रही थी…

     जीवन में शायद दूसरी बार वह इतना रोयी थी…

     पहली बार तब… जब कैंसरग्रस्त मम्मी को अकाल मृत्यु के दानव ने अपने पाशविक पंजों में दबोच लिया था। पूरे घर में कोहराम मच गया था। मां की याद आते ही बीस वर्षों पूर्व का अतीत उसकी मोटे-मोटे आंसुओं से डबडबाई आंखों में किसी चलचित्र की तरह झिलमिलाने लगा……… 

      मां की जब मृत्यु हुई तब कला में एम.ए. कर रही थी वह। दोनों बड़ी बहनों का विवाह हो चुका था। मां उसका विवाह भी अपनी आंखों के सामने कर देना चाहती थी किंतु स्वयं उसी ने स्पष्ट इन्कार कर दिया था–’मम्मी! जब तक मैं स्वयं अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती तब तक विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे अपने जीवन में केवल स्वावलंबन पसंद है परनिर्भरता नहीं।’

      भैया तीनों बहनों के बाद ही इस घर में आया था इसलिए घरभर का लाड़ला था। मां के तो प्राण बसते थे उसमें। मृत्यु का पूर्वाभास होते ही मां बहुत चिंतित हो उठी थी। दीक्षा का हाथ अपने पीताभ व कमजोर हाथों में लेकर लरजते स्वर में बोली थी–’बेटी! चिंता मुझे मौत की नहीं है क्योंकि कैंसर तो नाम ही काल का है। चिंता मुझे छोटे की है। उसकी परवरिश कौन करेगा? वह अभागा तो मेरे बिना ढंग से पेट भी नहीं भर सकता। भूखा मर जाएगा बेचारा। मेरे बाद कैसे जी पाएगा वह?’

     किंतु दीक्षा के सुदृढ़ आश्वासन ने मां की पीड़ा को बहुत कम कर दिया था–’मम्मी! आप छोटे की चिंता तो दिल से निकाल दो! जब तक यह दीक्षा इस धरती पर है तब तक छोटे को आंच भी नहीं आ सकती। उसकी परवरिश मैं करूंगी… मैं स्वयं…मैं खुद उसकी मां बन जाऊंगी।’

     मां की असमय मौत ने घरभर को हिलाकर रख दिया था। निश्चेतन शरीर से लिपटकर दीक्षा इतना रोई, इतना रोई कि दीवारें तक दहल गईं और पापा पर तो ऐसा वज्रपात हुआ था कि सारे संसार से ही मोह टूट गया था। न किसी को सांत्वना देते, न धैर्य बंधाते,न किसी से अपने हृदय की पीड़ा कहते, न कहीं आते-जाते, न दुकान पर बैठते, न कुछ खाते-पीते। बस अपने बिस्तर पर चुपचाप लेटे सूनी छत को निहारते रहते।रीती दीवारों को तकते रहते जैसे उन दीवारों और सूनी छत पर सहचरी का प्रतिबिंब उभर रहा हो और वह उनसे मन ही मन वार्त्तालाप कर रही हो। दीक्षा उन्हें बहुत कुरेदती, बहुत प्रकार से धैर्य बंधाती, गुदगुदाने का प्रयास करती। पर उस पाषाणी चेहरे पर कोई भी तो प्रतिक्रिया नहीं होती, न ही कोई भाव आता जाता। जैसे अनुभूतियों के विहंगम कहीं दूर उड़ गए हों।

      शनै:-शनै: टूटन की स्थिति में पहुंचते गए थे पापा। एक ऐसी शुष्क शाख में परिणत हो गए थे वे जो किसी भी पल वृक्ष से अलग हो सकती थी। उसे यही भय खोखला किए दे रहा था कि पापा के बाद इस घर का क्या होगा? उसके नन्हें कमजोर कंधे कैसे इस विशाल गृह का संरक्षण कर सकेंगे? वह कैसे मां को दिया वचन निभा सकेगी? कैसे एकाकी छोटे की परवरिश कर सकेगी? समाज के भूखे भेड़िए उसे जिंदा कैसे रहने देंगे? अवसर मिलते ही नोच-नोचकर खा जाएंगे। 

     महीना भर भी नहीं लगा था पापा को सारी चिंताओं से मुक्त होने में। एक सुबह को वह जब उन्हें जगाने गई तो तब भी उनकी आंखें अपलक सूनी छत को निहार रही थीं।उसने उन्हें पूरी शक्ति से झिंझोड़ दिया। लेकिन, नि:स्पंद देह में स्फुरण तो तब होता जब उसमें चेतन तत्व होता। चेतन तत्व तो पता नहीं कब पिंजरा खाली कर नीलांबर कि उन्मुक्त उड़ान के लिए निकल पड़ा था।भैया पापा की नश्वर देह से लिपटकर बिलख-बिलखकर रो पड़ा था। ससुराल से अपने पतियों के साथ दौड़ी-भागी आईं बहनें भी छाती पीट-पीटकर ऐसे रोईं जैसे सर्वाधिक दुःख उन्हें ही हो। किंतु दीक्षा की आंखों से एक भी अश्रु नहीं टपका। पता नहीं अश्रुओं के समुद्र को उसने कहां सोख लिया था? अद्भुत धैर्य उपजा लिया था उसने। छोटे को भी अपने कलेजे से चिपटाकर हर प्रकार से आश्वस्त किया था उसने –’पगले तू क्यों चिंता करता है? मैं हूं ना तेरी मां भी और बाप भी। मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े किंतु तुझे कभी मम्मी-पापा का अभाव नहीं सहने दूंगी। मैं स्वयं भूखी रह जाऊंगी लेकिन तुझे कभी भूखे पेट नहीं सोने दूंगी। मैं अपनी पढ़ाई छोड़ दूंगी लेकिन कभी तेरी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने दूंगी। मैं स्वयं फटे चीथड़ों से अपनी आबरू ढक लूंगी लेकिन तेरे कपड़ों को नहीं फटने दूंगी।’ 

     अरिष्टि तक दोनों बहनें पतियों सहित घर पर ऐसे आधिपत्य जमाए रहीं जैसे इस घर के संरक्षण की सर्वाधिक परवाह उन्हें ही हो।और अरिष्टि निपटते ही दोनों अपने वास्तविक प्रयोजन पर आ गईं।दीक्षा को समझाने का अभिनय करते हुए बोलीं –’बहन देख! सिर पर अब मां-बाप का साया तो रहा नहीं जो हमारा अच्छा बुरा सोच सकते।अब तो तेरा भी जो कुछ करना है हमें ही करना है। तेरा भी कहीं घरबार बस जाता तो अच्छा रहता।तब निपटारा भी अच्छी तरह करने में सुविधा रहती।’

     ‘कैसा निपटारा?’ दीक्षा चौंक पड़ी थी।

     ‘तू तो ऐसे बन रही है जैसे दूध पीती बच्ची हो।’ बड़ी बहन ने कटाक्ष किया था–’मम्मी के ढेर सारे गहनों, महंगी  साड़ियों व पापा की धन दौलत पर स्वयं ही कुंडली मारे बैठी रहेगी या कुछ हिस्सा हमें भी मिलेगा? आखिर हमारा भी तो कुछ न कुछ अधिकार होगा ही इस सब पर?’

      बड़ी की बात पूर्ण होने से पूर्व ही मझली बोल पड़ी थी–’इसीलिए तो मैं तुझे समझा रही थी कि मेरे देवर के साथ तेरी जोड़ी खूब फबेगी। वह पापा की दुकान भी अच्छी तरह संभाल लेगा। और निपट भी सस्ते में ही जाएगा। ऐसे कीमती लड़के आजकल लाखों खर्च करने पर भी नहीं मिलते। पर मैं उसे किसी न किसी तरह मना ही लूंगी। फिर सब कुछ हम तीनों आपस में बांट लेंगे।’

     ‘और भैया? वह कहां जाएगा?’ दीक्षा आवेश में आ गई थी।

     ‘भैया को हम हॉस्टल में रख देंगे। और खर्चा तीनों आपस में बांट लेंगे।’ दोनों जैसे सोची समझी रणनीति के अंतर्गत किसी योजना पर कार्य कर रही थीं। उन्होंने भैया का भी समाधान प्रस्तुत कर दिया था।

      दीक्षा बिफर पड़ी थी–’नहीं! यह नहीं हो सकता। मैं भैया को अनाथों की तरह कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने दूंगी। वह जैसे पढ़ रहा है वैसे ही पढ़ता रहेगा। मैं उसपर लेशमात्र भी आंच नहीं आने दूंगी। उसके मां-बाप मर गए तो क्या हुआ? मैं तो हूं उसकी मां भी और बाप भी। रही  मेरे घर बसाने की बात तो उस बारे में तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। अपना अच्छा बुरा सोचने में मैं स्वयं सक्षम हूं।’

    ‘इसका मतलब सीधी तरह तू हमें कुछ भी नहीं देगी?’ जीजा भी आक्रामक मुद्रा में आ गए थे –’या तो पंचायत जोड़नी पड़ेगी या फिर कोर्ट कचहरी में मामला ले जाना पड़ेगा।पर तुझे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अपना अधिकार हम तरह से लेकर रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं।’ 

     ‘नहीं!’ दीक्षा सिंहनी की तरह गरज पड़ी थी–’इस घर की मान-मर्यादा को मैं कोर्ट कचहरी अथवा पंचायत की आश्रिता कभी नहीं बनने दूंगी। लोग हम पर कितना थूकेंगे कि लाला लक्ष्मीनारायण की बेटियां कितनी निकृष्ट निकलीं, बाप के प्राण निकलते देर नहीं हुई की लगीं आपस में लड़ने-झगड़ने,जैसे कुत्ते बिल्लियां हों।इस घर में से तुम्हें जो कुछ भी चाहिए ले जाओ किंतु घर की कलह सड़कों पर नहीं आनी चाहिए। लाला लक्ष्मी नारायण के नाम पर लांछन नहीं लगना चाहिए।’

      ‘और यह लाखों रुपए की मकान दुकान?… इन पर क्या स्वयं ही कब्जा जमाए रहेगी? ना बहन ना इतनी आसानी से हम अपना हिस्सा नहीं छोड़ने वालीं।’ बड़ी और मंझली दोनों सामूहिक स्वर में बोली थीं।

     ‘मकान की एक-एक ईंट तुम दोनों ले जाओ! लेकिन दुकान की ओर आंख उठाकर देखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। उस पर भैया का अधिकार है। मैं अपना अधिकार तो छोड़ सकती हूं किंतु भैया का अधिकार नहीं। जब तक वह दुकान संभालने लायक नहीं हो जाता तब तक मैं उसे संभालूंगी।’ वसुधा ने अपना वज्र निर्णय सुनाकर दोनों बहनों के मुंह पर ढक्कन लगा दिया था।

      उसी समय उसने अपना और भैया का सामान अटैचियों व दो बड़े बैगों में समेटा और भैया की उंगली थाम दुकान पर पहुंच गई। दुकान के पिछले हिस्से को जहां पापा खाली समय में विश्राम कर लेते थे सुव्यवस्थित कर दोनों के रहने योग्य स्थान बना सामान रख दिया। और भविष्य की योजनाओं का ताना-बाना बुनने में जुट गई कि परिस्थितियों का सामना करते हुए कैसे जीवन चक्र को आगे बढ़ाना है?

      उसने दुकान में विद्यमान वस्तुओं और लेखाबहियों का अवलोकन किया तो भोंचक रह गई। दुकान में व्यापार करने योग्य पर्याप्त सामग्री भी नहीं थी और व्यापारियों का ऋण भी बहुत था। शायद मम्मी के कैंसर ने ही पापा और दुकान दोनों को टूटन की स्थिति में पहुंचा दिया था। किंकर्तव्यविमूढ़ सी, नन्हें-नन्हें कंधों वाली दीक्षा समझ नहीं पा रही थी कि कैसे अपने अस्तित्व की रक्षा करे? कैसे भैया के भविष्य को संवारे? भैया का भविष्य नहीं बन पाया तो वह स्वर्गासीन मां को क्या उत्तर देगी? जटिल दुविधा नागिन सा फन फैलाए सामने आ खड़ी हुई थी। 

     कई दिन बड़ी अन्यमनस्कता में गुजरे। दुकान पर बैठी-बैठी वह खाली कनस्तरों व खाली अलमारियों को घूरती रहती। दुकान पर सामान नहीं तो ग्राहक कैसे आते? जो छुटपुट ग्राहक आते भी वे सामग्री को पुरानी व गंदी बताकर वापस कर जाते अथवा लड़ने पर उतारू हो जाते। कई बार मन होता कि जीवन से ही मुक्ति पा ले। किंतु भैया का ध्यान आते ही वह आत्मघाती कदम आगे बढ़ने से पूर्व ही पीछे हट जाता।

      कोई उपाय समझ में नहीं आया तो उसने पुराने अखबारों की विभिन्न आकारों वाली थैलियां बनाकर दुकानों- दुकानों पर बेचनी प्रारंभ कर दीं। लोग कटाक्ष करने से नहीं चूकते –’लाला लक्ष्मी नारायण की बेटी को इस तरह दुकानों-दुकानों घूमते लाज नहीं आती क्या?या बाप के साथ सारी शरम हया भी चली गई?’

     ‘काम ही तो कर रही हूं किसी से भीख तो नहीं मांग रही।’ आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूर वह आगे बढ़ जाती।

      किंतु थैलियों के इस कार्य में दो वक्त की रोटी तो जुटाई जा सकती थी भैया के स्कूल की महंगी फीस नहीं भरी जा सकती थी। उसके खर्च पूर्ण नहीं किए जा सकते थे। समस्याएं किसी भयावह अजगर की भांति मुंह फैलाए उसे समूचा निगल जाने को उतावली थीं।ऐसे निराशाजनक और अंधकारपूर्ण क्षणों में यकायक ही उसे प्रकाश की एक नन्ही सी किरण दिखाई दे गई… क्यों न पापा के व्यवसाय का मोह त्यागकर अपनी प्रतिभा का उपयोग किया जाए। बस यही युक्ति उसकी जटिल राह को आसान बना गई।

      पिछले जन्म दिवस पर पापा द्वारा उपहार स्वरूप पहनाई गई स्वर्णमाला को किसी अपरिचित सर्राफ को बेचकर वह कैनवास, पेंसिल, रबर, ब्रुश, रंग आदि पेंटिंग का सामान व फ्रेमिंग की सामग्री खरीद लाई और दुकान में ही बैठ विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां तैयार करने लगी।

     लोग किराने की दुकान में किसी लड़की को कलाकृतियां तैयार कर सजाते देखते तो उपहास उड़ाए बिना नहीं रह पाते–’भाई वाह क्या जमाना आ गया, अब दाल आटे की दुकानों पर तस्वीरें भी मिला करेंगी। पांच किलो दाल पर एक तस्वीर फ्री, दस पर दो…’

     किंतु वह सब कुछ सुनकर भी चुपचाप अपने कार्य में बड़ी तन्मयता से जुटी रहती। उसी में से समय निकालकर वह भैया के कार्य भी निपटाती। तैयार करके उसे स्कूल भेजती। उसे उसकी पसंद का खाना खिलाती चाहे स्वयं भूखी रह जातीऔर उसके स्कूल का कार्य भी करती करवाती।

     कला रसिक उसकी उंगलियों में रंगों के तालमेल से सृजित कलाकृतियों को बड़ी तन्मयता से निहारते परंतु खरीदने का साहस नहीं कर पाते। विभिन्न प्रकार की विभिन्न आकारों वाली कलाकृतियों का ढेर लगता जा रहा था जबकि खरीदार कहीं दिखाई नहीं पड़ते थे। एक बार पुनः हताशा के भंवर में डूबने उतराने लगी वह। सारा प्रयत्न निष्प्रयोज्य प्रतीत होने लगा था। पास भी कुछ नहीं बचा था जो आगे का कार्य चल पाता।

      संयोग ही था कि सफेद कैनवास पर मात्र गहरी काली पेंसिल से उकेरे गए जीवंत से प्रतीत होने वाले राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों के स्मृतिचित्रों पर नगर भ्रमण पर निकले प्रादेशिक  कला एवं सांस्कृतिक मंत्री की पारखी निगाह पड़ गई। अपने ऐश्वर्यमयी भवन के विशाल सभागार की शोभावर्धन हेतु उन्होंने वीर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल, रामप्रसाद बिस्मिल आदि अनेकों चित्रों को खरीद लिया। उनके साथ चल रहे पत्रकारों ने अपने-अपने समाचार पत्रों में इस समाचार का खूब महिमामंडन किया। फिर क्या था फिर तो लोगों का उसके चित्रों के प्रति प्रषुप्त कौतुक जाग पड़ा। और उसके चित्रों की महत्ता तत्काल बढ़ गई। उसके बनाए चित्रों को खरीदने की लोगों में होड़ सी मच गई। हर कला रसिक के अतिथि कक्ष में उसकी कलाकृतियां सजने लगीं। कला के क्षेत्र में उसका नाम नगर की सीमाओं को पार कर दूर तक छा गया। 

     चित्रों की प्रसिद्धि हुई तो कला प्रेमी शिक्षार्थियों की भी उसके पास भीड़ जुट गई। अनेक विद्यार्थी अलग-अलग समूहों में उससे कला का ज्ञान प्राप्त करने लगे। दुकान का सीमित स्थान अपर्याप्त लगा तो समीपस्थ  एक पूरा भवन ही उसने अपने कला केंद्र के लिए किराए पर ले लिया।

     जीवन में खुशियों का मलय पवन एक बार पुनः मधुर सुगंध के साथ प्रवाहित हो उठा। कलाकृतियों के निर्माण तथा शिक्षार्थियों के शिक्षार्जन में वह इतनी व्यस्त रहने लगी कि अपने लिए लेशमात्र भी समय नहीं निकाल पाती। किंतु भैया के प्रति वह पूर्ण सजग थी। उसके भविष्य निर्माण में कोई कमी न रह जाए इसका हर पल ध्यान रखती। उस पर ममत्व उड़ेलती।हर कदम पर उसका ऐसे मार्गदर्शन करती जैसे कोई मां हो, उसे आकाश की ऊंचाइयों के स्पर्शन के लिए ऐसे उत्प्रेरित करती जैसे कोई पिता हो। उसे शैक्षिक क्षेत्र के अस्पर्श्य, अदृश पहलुओं का ऐसे ज्ञान कराती जैसे कोई गुरु हो।

     जिंदगी में सर्वाधिक खुश,सर्वाधिक उत्साहित, सर्वाधिक रोमांचित वह उस दिन हुई थी जब भैया ने अपनी डी. लिट की उपाधि उसके हाथों में थमा चरणों में शीश झुकाया था और साथ ही डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पा लेने का समाचार भी सुनाया था। हर्षाश्रु उमड़ पड़े थे उसके बंद नेत्रों से। मम्मी-पापा के तैलीय चित्र के सामने पता नहीं कितनी देर तक सुबकती रही थी वह। उस सुबकने में आत्मिक संतोष की अनुभूति थी, तपस्या सार्थक हो जाने का हर्ष था, लक्ष्य पा लेने की भावुकता थी और सपना पूरा हो जाने की खुशी थी।

      किसी अपनी पसंद की लड़की से भैया का विवाह करने को अधीर हो उठी थी वह। उमंगों को पंख लग गए थे। कभी भी वह कल्पनाओं के आकाश में उड़ने लगती… उड़ते-उड़ते घोड़ी पर दूल्हा बने बैठे भैया के सामने झूम- झूमकर नाचने लगती, इठलाने लगती, गाने लगती, नवागत भाभी पर किसी सास की तरह अधिकार जताने लगती।  परिश्रम, त्याग और अभावों के पाषाणी मार्ग पर चलते-चलते कर्कश और रुक्ष हुए अपने पैरों को भाभी के कोमल  हाथों से दबाए जाने का सुख अनुभूत करने लगती। 

     किंतु कल्पनाओं के आकाश से जब यकायक ही वह यथार्थ के कठोर अकल्पित धरातल पर गिर पड़ी तो उसका समूचा अस्तित्व ही बिखरकर रह गया। लगा… उसका अस्तित्व तो कुछ भी नहीं है,जो कुछ था भी वह शून्य में विलीन हो चुका है… किरचा-किरचा होकर बिखर चुका है।

     भैया लाल जोड़े में लिपटी, छुईमुई सी, लाज से सकुचाई हुई नववधू के साथ उसके सामने दृष्टि नत किए दबे स्वर में आशीर्वाद मांग रहा था–’जीजी हमें आशीर्वाद दीजिए! हमने सप्ताह भर पूर्व आर्य समाज मंदिर में शादी कर ली है। कुल्लू मनाली की यात्रा से हम अभी अभी ही लौटे हैं। और सबसे पहले आपका ही आशीर्वाद मांगने आए हैं।’

      स्तब्ध रह गई थी दीक्षा और केवल स्तब्ध ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे विचारों अथवा संवेदनाओं के विहंगम कहीं दूर नीलगगन में उड़ गए हों। बड़ी मुश्किल से अथरोष्ठ खुल सके थे उसके और उनसे लरजते-कंपकंपाते मात्र कुछ शब्द निकल सके थे–’हमेशा खुश रहो!’

     उसी दिन से उसके होठों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई थी। दिल में चाहे कितना ही भयंकर झंझावात उमड़ा, किंतु अधरों की सीमा लांघकर कोई भी शब्द ऐसा बाहर नहीं आ पाया जिससे भैया की सुखशांति में व्यवधान पड़ पाता।पर भाभी का उन्मुक्त, अशिष्ट, निर्लज्ज आचरण उसके धैर्य को चुनौती दे गया। उसने भाभी से दबे स्वर में मात्र इतना भर कहा था–’बहू! घर की मान-मर्यादा का कुछ तो ध्यान रखा करो! इस तरह आधे अधूरे से वस्त्रों में तुम वक्त बेवक्त कभी भी बाहर निकल पड़ती हो! भले घर की बहू-बेटियों को यह शोभा नहीं देता।’

     भाभी घायल नागिन की भांति फुफकार उठी थी जैसे न जाने कबसे अपनी आंखों की किरकिरी बनी दीक्षा पर प्रहार करने को छटपटा रही हो–’जीजी! आखिर इस घर पर क्या अधिकार है तुम्हारा?…’ 

     भाभी के विषबुझे शब्द कलेजे में तीर की तरह चुभे थे।और भाभी के शब्दों से ज्यादा पीड़ा तो भैया के आचरण ने पहुंचाई थी। 

      सोचते-सोचते उसके मुख से स्वत: ही एक चीख उस सघन तिमिराच्छादित रात्रि में निकलकर दम तोड़ गई–’नहीं! कोई अधिकार नहीं!…’

      चीख  के साथ ही सद्योदृष्ट अतीत रेत के खोखले भवन की भांति हवा के एक हल्के झोंके से ही कण-कण बिखर गया। वह चैतन्य हुई तो उसने महसूस किया कि उसका सर्वांग स्वेद बिंदुओं से लथपथ है और गला भी शुष्क है। उसने उठकर बाहर झांका। रात आधी से भी ज्यादा व्यतीत हो चुकी थी और उसकी आंखों में दूर-दूर तक भी नींद का नामोनिशान नहीं था।वातावरण में गहन सन्नाटा पसरा पड़ा था। सब निद्रा के आगोश में दुबके पड़े थे। बस आकाश में नन्हें-नन्हें दीप जैसे तारे टिमटिमा रहे थे। उसने एक घूंट जल कंठ में उतारा और सहज होकर मन ही मन एक वज्र निर्णय ले डाला… बिल्कुल वैसा ही वज्र निर्णय जैसा उसने पापा-मम्मी के असामयिक अवसान के बाद बड़ी बहनों के आचरण से क्षुब्ध होकर लिया था।

      उसने एक पेपर पर लिखा– ‘भैया! मैं तो अब तक जिंदा ही तेरी खुशी के लिए थी और तेरी एक नन्ही सी खुशी के लिए मैं एक नहीं अनेक जिंदगियां न्यौछावर कर सकती हूं। वरना मर तो मैं उसी दिन गई थी जब मेरी स्वयं की सहोदरा बहनों ने गृह निर्वासित करके मुझे दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया था। किंतु अब जब जिंदगी की सारी खुशियां तेरे दामन में आ गिरी हैं और तुझे लग रहा है कि मैं तेरी खुशी में बाधक हूं, तो तेरा गृह निर्वासित कर मैं स्वयं ही जा रही हूं। मेरा क्या है कहीं भी किसी भी फुटपाथ पर बैठ दो चित्र बना दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर ही लूंगी। पर तू हमेशा खुश रहे यही मनोकामना है।

 — तेरी शुभाकांक्षी “जीजी”!

     ...... और एक अटैची में अपना घर संसार समेटकर भोर का उजाला धरती पर पसरने से पूर्व ही दीक्षा उस घर से निकल पड़ी… एक अनजान राह, अनजान आश्रय और अनजान भविष्य की ओर…

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़,बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

मो.9411012039

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