पिता का श्राद्ध है आज…
निकेत बड़े श्रद्धा भाव से पूजा पाठ की तैयारियों में लगा है…और पत्नी रसोई में विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में व्यस्त है…श्वसुर की पसंद का मटर पनीर, कोफ्ते, बूंदी का रायता,मेवे पड़ी मखाने की खीर, शुद्ध गोघृत का सूजी का हलवा,उड़द की दाल की कचोड़ियां आदि आदि।
मां का कमरा रसोई से कुछ दूर है। उच्च रक्तचाप व मधुमेह की रुग्णा मां की दो कदम चलने में ही श्वास फूलने लगती है। बार-बार कण्ठ शुष्क हो जाता है और बार बार प्यास लगती है। और थोड़ी-थोड़ी देर में मूत्र त्याग की इच्छा होने लगती है। अन्य दिनों में तो बेटा अथवा पौत्र उन्हें शौचालय ले जाकर मूत्र विसर्जन करा लाते थे…परंतु आज तो कोई भी उनके समीप नहीं आया…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…जिन्हें मरे हुए आज पूरे पांच वर्ष हो चुके हैं…प्रति वर्ष उनका श्राद्ध मनाया जाता है…सुस्वादु व्यंजन उनके नाम पर पंडित और कौए को खिलाए जाते हैं। पंडित पूजा पाठ का उपक्रम करता है, दक्षिणा लेता है और सामान की पोटली बांधकर घर ले जाता है…बस हो गया श्राद्ध…
वह अलग की बात है कि जब तक वे जीवित रहे तब तक पुत्र और पुत्रवधू दोनों ही उनकी घोर उपेक्षा करते रहे। उनकी पसंद के सुस्वादु व्यंजन तो क्या सामान्य भोजन के लिए भी तरसाया जाता था…
मधुमेह की रुग्णा होने के कारण मां को भूख सहन नहीं हो पाती…हर दो घण्टे पर उन्हें कुछ न कुछ खाने के लिए चाहिए, वरना उन्हें कमजोरी और चक्कर महसूस होने लगते हैं।
लेकिन आज तो उन्हें सुबह से कुछ भी नहीं मिला…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…बेटा और बहू तैयारियों में व्यस्त हैं न…श्राद्ध के विधि विधान में कोई कमी न रह जाए…किसी भी तरह पितर न रुष्ट होने पाएं…
भूख बड़ी तेजी से सता रही है उन्हें…टकटकी बांधे वे निरंतर रसोई की ओर निहार रही हैं…हर आहट पर उन्हें लगता है कि कुछ खाने को मिलने वाला है…इस मध्य हांफती-कांपती वे कई बार शौचालय हो आयी हैं और लौटते हुए तिर्यक दृष्टि से वे रसोई में भी झांक आयी हैं।
जब उन्हें लगा कि यदि कुछ देर उन्हें खाने को कुछ न मिला तो रक्त शर्करा शून्य हो जाएगी और वे मूर्छित हो जाएंगी। तो उन्हें बहू से याचना भाव से कहना ही पड़ा– "बहू!भूख सहन नहीं हो रही…रात का ही कुछ रखा हो तो वही खाने के लिए दे दे!"
बहू की त्योरियां चढ़ गयीं – "मां जी कुछ तो धीरज रखा करो!आज पिताजी का श्राद्ध है तो बिना पूजा पाठ किए, बिना पंडित जी को भोग लगाए आपसे कैसे झुठला दें? पुण्य कार्य में विघ्न बाधा डालकर क्यों अनर्थ करने पर तुली हुई हो?"
पौत्र को उनसे कुछ सहानुभूति हुई तो वह उन्हें आश्वस्त करने आ पहुंचा – "अम्मा! पापा पंडित जी को बुलाने गये हैं बस आने ही वाले होंगे। जैसे ही पंडित जी को भोग लगाया जाएगा वैसे ही सबसे पहले मैं आपका थाल लेकर आऊंगा।"
उनके मन में आशा की एक नन्ही सी किरण जगी । और वे अपने बिस्तर पर लेटी मुख्य द्वार की ओर अनिमेष निहारने लगीं…पुत्र के पंडित जी के साथ आने की प्रतीक्षा में…
किंतु पुत्र अकेला ही बाहर से ही तीव्र स्वर में कहते हुए भीतर घुसा चला आया – "पंडित जी को आने में कुछ देर लगेगी क्योंकि वे अन्य घरों का श्राद्ध निपटाने गये हैं।इन लोगों के लिए कोई एक घर तो होता नहीं जो सुबह से ही जाकर जम जाएं,दस घर जाना होता है। कहीं चेले चपाटों को भेज देते हैं कहीं खुद जाते हैं। हमारे घर तो वे स्वयं ही आएंगे,हमारा श्राद्ध कर्म अच्छी तरह जो निपटाना है। यहां से उन्हें दक्षिणा भी अच्छी मिलती है।"
मां जी के मन में टिमटिमा रहा आशा का नन्हा दीप भी बुझ गया…पता नहीं पंडित जी कब आएंगे?...कब तक उन्हें इस भूख से तड़पना होगा?
साहस जुटा कर वे किसी भिक्षुणी की भांति पुत्र के सामने गिड़गिड़ाने लगीं – "बेटा!तू मेरे मरने के बाद भी तो मेरा श्राद्ध कर्म करेगा ही न,तो वह श्राद्ध मेरे जीते जी कर ले! बेटा बहुत जोर की भूख लगी है,बस तू मुझे दो सूखी रोटी दे दे! चाहे मेरे मरने के बाद मुझे कुछ मत देना खाने के लिए।"
पुत्र की भृकुटि वक्र हो गयी– "अम्मा! तुम भी हर समय कैसी कुशुगनी की बातें करती रहती हो? पंडित जी को जिमाने से पहले तुम्हें कैसे जिमां दें? क्यों हमसे घोर पाप कराने पर तुली हो? जब इतनी देर रुकी हो तो थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं क्या?"
मां जी की आंखों में अश्रु छलछला आए…अपने रक्तांश से ऐसे तिरस्कार की तो उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं थी।
लड़खड़ाते बोझिल से कदमों से वे अपनी कोठरी में घुसीं और निढाल सी, निष्प्राण सी ओंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ीं।सिकुड़ी आंखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित हो पड़ी…और पता नहीं कब तक होती रही?
कुछ समय उपरांत पंडित जी बाहर से ही शोर मचाते हुए घर में प्रविष्ट हुए – "जल्दी करो भाई! मुझे और घरों में भी जाना है।"
पूजा पाठ की औपचारिकता पूर्ण होते ही पंडित जी के सामने सारे व्यंजनों से सजा थाल लाया गया तो उन्होंने क्षणिक दृष्टिपात थाल पर करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा –"ऐसा करो यजमान!इसे खाने का मेरे पास वक्त नहीं है,अभी और भी घर निपटाने हैं। इसमें दक्षिणा रखकर इसे मेरे घर दे आओ! भगवान तुम्हारे पिता की आत्मा को संतृप्त रखे।"
पंडित जी के जाने के बाद मां जी को सुस्वादु व्यंजनों से भरा भोजन थाल पहुंचाया गया…
किंतु यह क्या?...मां जी तो तब तक उसे ग्रहण करने की स्थिति में ही नहीं रही थीं…शायद उन्हें मधुमेही संज्ञाशून्यता ने आ दबोचा था।
✍️ डॉ अशोक रस्तोगी
अफजलगढ़, बिजनौर
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल 8077945148
वर्तमान में अधिकांश घरों में यही तो हो रहा है... यथार्थ परक कहानी
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