सोमवार, 8 जुलाई 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर के चार नवगीत

 


एक

सावन -भादों ने देखी फिर, 

बूँदो की मनमानी। 


हाथ -पांँव फूले सड़कों के, 

छपक- छपक जब चलतीं । 

बढ़े बाढ़ के पानी में सब, 

आशाएँ भी गलतीं। 

सहम गए छप्पर के तिनके, 

दरकी नींव पुरानी। 


कंगाली में गीला आटा, 

सीला चूल्हा -चौका। 

चतुर सियासत इसमें भी तो, 

ढूँढ रही है मौका। 

कुछ तो गलती पानी की, कुछ.. ! 

प्रायोजित शैतानी। 


मटमैली आँखों से घूरे, 

पीली नदिया धारा। 

लोकतंत्र में देख रही है , 

लूटतंत्र का गारा, 

डूबे वैभव के कंगूरे, 

डूब रही रजधानी। 


दो

जले जेठ ने जाने अबके 

क्या करने की ठानी।


रौब झाड़कर सोख लिए हैं,

सारे ताल तलैया। 

तेज धूप भी काट रही है, 

मानो बनी ततैया ।

बना लिया गरमी को इसने, 

अपने मन की रानी।

जले जेठ ने जाने अबके

क्या करने की ठानी ।।


वरदहस्त सूरज का इस पर, 

लंपट लू से यारी।

ठनी हुई बरखा से इसकी, 

पड़ता उस पर भारी।


स्वेद छिड़कता ऐसे भर-भर,

जैसै छिड़के पानी। 

जले जेठ ने जाने अबके

क्या करने की ठानी ।।

भून दिए सब चिड़िया- तीतर, 

हिरण कर दिये काले।

इसके डर से लोग लोगनी 

निकलें घूँघट डाले।

हाय आदमी ! पेड़ काटकर 

कर बैठा नादानी।

जले जेठ ने जाने अबके

क्या करने की ठानी ।।


तीन

सोच रहा है आम आदमी 

वह भी होता खास आदमी। 


भाग रहा रोटी के पीछे, 

खुद को आगे  ठेल रहा है।

सुबह- शाम की चिंताओं से

अक्कड़-बक्कड़ खेल रहा है। 

घिसी- पिटी सी वही कहानी, 

मजबूरी का दास आदमी। 


ताक रही हैं आसमान को, 

सूनी आँखें, ज़र्द पनीलीं। 

चौमासे में बैठ गयीं घर,

उम्मीदें सब , होकर गीलीं। 

भूरे, मटमैले बोरे में, 

ढोता फिर भी, आस आदमी। 


किस्मत के सौतेलेपन से, 

बुझा- बुझा सा रहता चूल्हा। 

महंँगाई से टूट गया है, 

छोटे से वेतन का कूल्हा। 

पूछ रहा है, क्या हो जाता, 

खा लेता यदि घास आदमी? 


चार

पीत- वसन, सुरभित आभूषण 

ठाठ बड़े ऋतुराज के !


नर्म हुआ दिनमान गुलाबी, 

मधुमास संग मुस्काया। 

पूस ठिठुरता चला गया है, 

माघ बावरा मदमाया। 

पीली सरसों नाच रही है 

मस्त मगन बिन साज के।



छेड़ी कोयल ने मृदु सरगम, 

बौर आम की इतरायी। 

बैरागी वृक्षों के तन पर, 

अनुरागी रंगत छायी। 

वासंती वसुधा का वैभव 

क्या कहने हैं आज के !


लीप लिए केसर हल्दी से 

खेतों ने अपने आंगन, 

फूलों के खिलते यौवन पर, 

अलियों के रीझे हैं मन।

कलियों ने सकुचा कर खोले, 

घूंघट- पट अब लाज के।


✍️मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बढ़िया और प्रशंसनीय नवगीत आदरणीया मीनाक्षी ठाकुर जी... हार्दिक बधाई।
    डॉ अशोक रस्तोगी अग्रवाल हाइट्स राजनगर एक्सटेंशन गाजियाबाद

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