(एक)
अच्छा लगता है
तुलसी के पास
एक पल रुक जाना
अच्छा लगता है
यह तुलसी की पौध
तुम्हारी थाती है
इससे पावन महक
तुम्हारी आती है
फूल पँखुरियों वाले
जल से
इसे सवेरे अरघाना
अच्छा लगता है
पात -पात में इसके
दृष्टि तुम्हारी है
झलक रही इसमें
संतुष्टि तुम्हारी है
दरवाजे के निकट
आज भी
इसका दिन दिन हरियाना
अच्छा लगता है
जब भी खुद को
कभी अकेला पाता हूँ
बरसों पीछे
लौट-लौट में जाता हूँ
खड़े-खड़े ही
तब ने बोले
मन-ही-मन कुछ बतियाना
अच्छा लगता है।
(दो)
अब इस
तरतीब से लगे घर का
ख़ालीपन सहा नहीं जाता
शोकेसों के भीतर
सजी हुई
ये चीजें
जानी पहचानी हैं।
सब-की-सब हुईं आज
बेमौसम अर्थहीन
बिल्कुल बेमानी हैं।
घर के
हर कोने तक उग आया
बीहड़ बन सहा नहीं जाता ।
होली, दीवाली आईं
आकर
चली गईं
अनमनी अलूनी
राख की परत में
लिपटी
सुलगा करती है
अनदेखी धूनी
तुम बिन
हरियाली तीजों वाला
अब सावन सहा नहीं जाता।
(तीन)
दौड़ रहा है शोर
सड़क पर
फिर भी है गूँगे -से दिन
धुएँ- धुँध के घेरे
बोए-से लगते हैं
सभी अलग सपनों में
खोए- से लगते हैं।
घुटन भरी इन दुर्गंधों में
हुए साँपसूँघे-से दिन ।
पहली किरण तरसती है
घर में आने को
भीतर के कोने-कोने से
बतियाने को
उन्हें न भाती
सुबह गुलाबी
वे मोती-मूँगे- से दिन।
(चार)
ऐसा बाग़ लगा है
जिसमें जगह-जगह गिरगिट फैले हैं
जैसा रंग दीखता
वैसा रंग उन्हें भाने लगता है
परिवर्तन के संग
कंठ उस सुर में ही गाने लगता है
छवि है बिल्कुल भोली-भाली
बाहर से देखते हैं खाली
किंतु कार में अशर्फियों से
भरे कई भारी थैले हैं।
मिलते हैं वह सभी वर्ग में ,
राजनीति में,धर्म क्षेत्र में,
तन लिपटे उजले वस्त्रों में
लेकिन रखते कपट नेत्र में
जिस पलड़े को देखा भारी
उसी तरफ़ की बाजी मारी
ऐसे सरवर के स्वामी हैं
जिसके उद्गम ही मैंले हैं ।
अपने सुख की अधिक
न उनको लगती कोई कथा सुहानी
देश धर्म की श्रेष्ठ कर्म की बातें
हैं उनको बेमानी
जीवनमूल्य न उनको भाते
ऊँची बातों से कतराते
कभी न ऊपर आँख उठाते
ऐसे चीकट गुबरैले हैं।
(पांच)
आओ करें साधना
हमको सबसे पीछे खड़े व्यक्ति के
शब्दों को ताकत देनी है ।
चारों तरफ भीड़ है
आपाधापी ऐसी
आपस में न कहीं कोई रिश्ता नाता है
आगे वाले को धकिया कर
पीछे वाला
गर्व- सहित उससे भी आगे बढ़ जाता है
लेकिन सबसे दूर
खड़ा जो निर्विकार है
बित्ता भर अपना पग नहीं बढ़ा पाता है
हमें उन्हीं सब लोगों से
लोहा लेने की
उसके मन को बहुत सबल चाहत देनी है ।
जितनी धाराएं हैं
जिनमें लहर न उठती
शांत दीखते हैं ऊपर के कुल- किनारे
जो कि राख की
कई सघन परतों के नीचे
मौन छिपाए रखते दबे हुए अंगारे
आने वाली
सभी परिस्थितियों को अपनी
नियति मानकर बैठे रहते हैं मन मारे
हमें हवा देनी है
उनकी दबी आग को
दहकाकर दुनिया को गर्माहट देनी है।
(छह)
हम जो भी हैं
अपने कारण हैं
आओ यह सत्य आज स्वीकारें
सुख-दुख
यश-अपयश के थे विकल्प
पर हम ने स्वेच्छा से
एक को स्वयं ही तो छाँटा है।
युग-युग से निर्विवाद सत्य यही है केवल
जैसा बोया हमने वैसा ही काटा है
हम ही लाए
अपने आँगन पर
बादल के दल,
बिजली,बौछारें
आओ यह सत्य आज स्वीकारें
सौंपें दायित्व
किसी सत्ता को नहीं
स्वतः जीवन में उठ रहे
अदम्य चकवातों का
मढ़ें नहीं दोष
किसी मौसम के माथे पर
ठिठुर दिशाओं का, खौलते प्रपातों का
नहीं किसी की
भेजी हैं बहती
तरल भयंकर पावक की धारें
आओ यह सहज स्वीकारें ।
हमने ही
अपने सुकुमार हृदय को
अपनी हठधर्मी से ही
शरबिद्ध किया बार-बार
शाश्वत स्रोतों से कटकर
केवल वृर्त्तों की
सीमा में यौवन को वृद्ध किया बार -बार
हमने सरिता पर तटबंधों की
निर्मित खुद की ऊँची दीवारें
आओ यह सत्य आज स्वीकारें।
(सात)
यह बहू जो छोड़ सब-कुछ
आ गई अनजान घर में
है अकेली तुम इसे अपनत्व देना।
माँ -पिता,भाई बहन का
प्यार छोड़ा
आँगना-दालान,
देहरी -द्वार छोड़ा
छोड़ सखियाँ ,
राखियाँ तीजें यहाँ आई शहर में
है अकेली,तुम इसे अपनत्व देना।
एक तुलसी पौध है
सुकुमार है यह
स्वस्थ्य प्राणों का
सुखद संचार है यह
ध्यान रखना
यह न मुरझाए सुलझती दोपहर में
है अकेली तुम इसे अपनत्व देना।
मायका था बस
भरा-पूरा सरोवर
तब अपरिचित था
न कोई भी वहाँ स्वर
ताल की मछली
यहाँ भेजी गई बहने लहर में
है अकेली, तुम इसे अपनत्व देना।
(आठ)
किसको कहें
कौन है मेला
कौन यहाँ बेदाग !
कितने भी
दिखते पवित्र हों
रिश्ते- नाते
शत्रु-मित्र हों
नए-नए संबोधन वाले
कितने भी उजले चरित्र हों
सब बाहर से
संत दीखते
भीतर से हैं घाघ
मोड़ भरी
सड़कों राहों में
आम,नीम
बट की छांहों में
तीर्थभूमि
आश्रम या गुरुकुल
देवालयों ईदगाहों में
नज़र नज़र में
सबकी बैठा
एक भयंकर बाघ।
:::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत मोबाइल फोन नंबर 9456687822
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