शनिवार, 27 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के ग़ज़ल संग्रह "तिराहे पर" की ओंकार सिंह ओंकार द्वारा की गई समीक्षा ....आस्था और चिंतन की गजलें हैं ’तिराहे पर’ में

  ग़जल की यह परंपरा रही है कि ग़जल का हर शेर अपने आपमें स्वतंत्र होता है यानी यह आवश्यक नहीं है कि ऊपर के शेर से मिलती हुई बात ही दूसरे शेर में भी कहीं जाए दूसरे शेर में दूसरी बात हो सकती है तीसरे शेर में कोई और बात हो सकती है चौथे और पाँचवे शेरों में अलग-अलग बातें कहीं जा सकती हैं। परंतु कवि श्री शचींद्र भटनागर जी की यह विशेषता है कि उनकी कृति "तिराहे पर" में संग्रहीत कई ग़ज़लों में एक शेर दूसरे शेर से संबद्ध रहता है जिससे गुज़लों का सौंदर्य और अधिक हो गया है, जो कि पाठक के आनंद को बढ़ा देता है।

   आजकल मनुष्य इतना स्वार्थी होता चला जा रहा है कि वह समृद्धि, संपन्नता, वैभव और सुख तो चाहता है, परंतु उसके लिए सकारात्मक प्रयास नहीं करता। यह बात ठीक उसी तरह से है जैसे कि किसी पुराने कवि की इस पंक्ति में कि 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय' परंतु कवि श्री शचींद्र जी एक मतले के द्वारा इसी बात को सुंदर ढंग से इस तरह से कहते हैं

फूल चाहा, पर न अभिरुचि बागवानी में रही

 हर समय रुचि स्वार्थ के प्रति सावधानी में रही

और इसी प्रकार वे कहते हैं कि

जिक्र ऊँचाइयों का होता है 

पर सफ़र खाइयों का होता है

लाख चलते हैं हम मरुस्थल में

ध्यान अमराइयों का होता है।

राज्य का हर नागरिक पीड़ा से कराह रहा है तरह-तरह से कष्ट एवं कठिनाइयाँ झेल रहा है प्रदूषण, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महँगाई, शोषण, मजहब और धर्म के नाम पर अलगाववाद और आतंकवाद की चपेट में या गिरफ्त में फँसे हुए समाज का हर व्यक्ति इस घुटन से मुक्ति चाहता है। कवि श्री शचींद्र भटनागर जी ने भी इस घुटन से मुक्ति की कामना इस तरह से एक शेर के माध्यम से की है। इससे लगता है कि उनका भरोसा शासन से उठ गया है और जनता को घुटन से मुक्ति का रास्ता खुद तलाशना होगा।

     राज्य के हर नागरिक को जो घुटन से मुक्ति दे

     अब हवा ऐसी न कोई राजधानी में रही।

भीड़ बढ़ती चली जा रही है मगर आदमी अकेला होता चला जा रहा है। और इस भीड़ में तन्हाई के इस दर्द की टीस को कविवर श्री शचींद्र भटनागर ने अपने इस शेर में किस खूबसूरत अंदाज़ में बयान किया है

बढ़ती भीड़ों में रात-दिन केवल 

दर्द तनहाइयों को होता है।

संसार में सारे सुख वैभव मौजूद रहते हुए भी आज का आदमी उनका सुख नहीं भोग पा रहा है और अधिक प्राप्ति की चाह में अपने वर्तमान को नरक बनाए हुए हैं, अधिक से अधिक व्यक्तिगत पूँजी जमा करने में अपना भविष्य सुरक्षित समझता है। कवि श्री भटनागर इस बुराई से निजात पाने के लिए प्रेरित करते हैं और कहते हैं

धन तो चोरों औ' लुटेरों पे बहुत होता है

 मिल सके प्यार औ' सम्मान यही काफ़ी है।

और वे कहते हैं

आदमी है, जो हँसता-हँसाता रहे 

संकटों से भी जो सीख पाता रहे

फूल सा खुशनुमा हो सभी के लिए

 शूल के बीच भी मुस्कुराता रहे

जब लक्ष्य बड़ा होता है तो रास्तों का भी कठिन होना स्वाभाविक है ऐसे में अधिक धन-दौलत, आलीशान महल आदि की सुविधा भोगते हुए उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसी बात को अपने इस शेर में सुंदर ढंग से व्यक्त करते हैं श्री भटनागर जी

दूर जब लक्ष्य हो, राहें भी बहुत मुश्किल हों

 साथ में थोड़ा हो सामान यही काफी है।

समाज में संवेदनहीनता इतनी अधिक है कि यदि सड़क दुर्घटना में कोई व्यक्ति घायल पड़ा मदद के लिए तड़प रहा हो, तब भी उसे अस्पताल पहुंचाने वाला कोई नहीं होगा। भीड़ अनदेखी करती हुई गुजर जाएगी इसके अलावा भी न जाने कितनी ही घटनाएँ, दुर्घटनाएँ हमारे आस-पास होती हैं परंतु कोई किसी का दर्द बाँटने का उपक्रम नहीं करता। शायद इन्हीं बातों से व्यथित होकर श्री शचींद्र भटनागर जी कहते है कि

अब उन्हें देख के हरकत न जरा होती है

 हादिसे सामने हर रोज गुजर जाते हैं।

मनुष्य का जीवन खुशहाल बनाने के लिए सामाजिक ताना-बाना आवश्यक है। परंतु हमारा समाज विभिन्न रोगों से ग्रसित है। यह चिंता कवि श्री शचींद्र भटनागर को साल रही है। इसी से बेचैन होकर वे कहते हैं कि 

कैसे महकेगा कोई फूल किसी डाली पर

बाग का बाग है बीमार भला क्या होगा

द्वार दीवारें हैं कमजोर छतें चटकी हैं 

और तूफों के हैं आसार भला क्या होगा।

जब न हाथों में हो मल्लाह के ताकत बाकी 

लाख मजबूत हो पतवार भला क्या होगा।

श्री भटनागर साहब ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर और उनके निदान पर शेर कहे हैं। इसके अलावा शृंगाररस में भी उन्होंने बेजोड़ शेर कहे हैं, जिनमें हर पंक्ति से सौंदर्यबोध होता है, जो प्यार की खुशबू भरी मिठास पाठक के तक पहुँचाता है। बानगी के तौर पर कुछ शेर देखिए

वक्त के इस तरह से इशारे हुए 

आज के दिन पुनः तुम हमारे हुए

पांखुरी पांखुरी मुस्कुराने लगी 

रात तक जो रही मन को मारे हुए

आप जब भी मेरे उपवन की तरफ़ आते हैं

 वृक्ष किसलय से अनायास ही भर जाते हैं।

काम ही काम करते रहना मनुष्य का सद्गुण है कवि श्री शचींद्र जी कहते हैं....

हमारी व्यस्तता के क्षण कभी भी कम नहीं होंगे

हमारी याद ही रह जाएगी जब हम नहीं होंगे।

अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि श्री भटनागर की गजलों से महसूस होता है कि वे ईश्वर में दृढ़ आस्था रखने वाले पूरी तरह आध्यात्मिक और समाज के प्रति चिंतनशील कवि थे। 






✍️ 'ओंकारसिंह 'ओकार'

1 बी/241, बुद्धि विहार 

आवास विकास कालोनी

मुरादाबाद (उ.प्र.)

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