त्रिवर्णी, शचींद्र भटनागर जी द्वारा रचित अनमोल कृति है। प्रस्तुत पुस्तक में 1960 से 1970 के मध्य लिखी गई पुस्तक "खंड खंड चांदनी से 18 गीत,उसके बाद 1970 से 1995 के मध्य लिखी गई पुस्तक" हिरना लौट चलें " से 20 गीत "ढाई अक्षर प्रेम के" से 16 गीत संकलित हैं सभी नवगीतों में अंतर्मन की जीवन अनुभूतियों का बहुत ही सुंदर चित्रण है रचनाएं छंदबद्ध है काव्य सौंदर्य की अनुभूति प्रत्येक गीत से फूटती प्रतीत होती है। जीवन संघर्ष एवं जिजीविषा के आत्मसात प्रतिबिंब ,मिथक, संकेत स्पष्ट होते हैं । सामाजिक विद्रूपताओं विसंगतियों का पर्दाफाश करती हुई मन: स्थितियों को गीतों में पिरोया गया है जिन तीन पुस्तकों से गीत संकलित किए गए हैं ,खंड खंड चांदनी, ,हिरना लौट चलें, और ,ढाई आखर प्रेम के, वह एक लंबे कालखंड में बदलती परिस्थितियों का समय रहा है जिसको बड़े ही सुंदर ढंग से कवि ने उत्कृष्ट शब्द चयन लेखन में प्रस्तुत किया है
खंड खंड चांदनी से उद्धरित जनसंख्या नियंत्रण को दर्शाता गीत देखिए
आओ हम रोपें दो पौधे फुलवारी में
इतने ही काफी हैं
छोटी सी क्यारी में
हर पौधे की अपने सपनों की बस्ती हो अपनी कुछ धरती हो
अपनी कुछ हस्ती हो
हर पौधे के द्वारे गर्वीली गंध रुके
बासंती यानों पर उड़ता आनंद रुके
भटनागर जी ने जनसंख्या विस्फोट पर इसी गीत के उत्तरार्ध में लिखा है --
भीड़ भरी बस्ती में लूट हुआ करती है
सब कुछ कर सकने की
छूट हुआ करती है
कोई व्यक्तित्व वहां उभर नहीं पाता है
संवर नहीं पाता है
उभर नहीं पाता है
धूप नहीं मिलती है ,वायु नहीं मिलती है उपवन के उपवन को आयु नहीं मिलती है सारे पौधे
सूखे सूखे रह जाते हैं
प्यासे रह जाते हैं
भूखे रह जाते हैं
जो बदलाव समाज में होते हैं उनको परिलक्षित करते हुए वह लिखते है -----
हर दिशा से
आज कुछ ऐसी हवाएं चल रही है
आदमी का आचरण बदला हुआ है
इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर
बात मन से
मन नहीं करता यहां पर
हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है
कि जिसको देखकर
सागर स्वयं डरता यहां पर
कल्पना विध्वंस की करता यहां पर
दिन ठहर गया गीत में वह कहते हैं---
अभी-अभी इमली के पीछे
दिन ठहर गया
रोक दिया वाक्य
जो विराम ने
पत्तों के पीछे से
झांक लिया लंगड़ाते धाम ने
जैसे मुड़कर देखा हो
सजल प्रणाम ने
लंबाए पेड़
पात शाखाएं
छायाएं दिशा दिशा नापतीं
एक सलेटी साड़ी पर
एक और गीत देखिए ------
अंधकार उतरा
पिघल गया सूर्यमुखी रूप
बिल्लोरी जल में
एक लहर सोना मढी
एक लहर मूंगे जड़ी
एक लहर मोथरी छुरी
जैसे हो सान पर चढ़ी
शाम के लुहार ने
तपा हुआ लोहखंड
अग्नि से निकाला
पल भर में बुझा हुआ दिवस पड़ा काला
कितना सुंदर प्रकृति चित्रण इस गीत में किया है
मनोभावों को गीत में उतारते हुए वह लिखते हैं-----
पूस की रात
कांप रही कोने में रात पूस की
धवलाई किरणों को
कुतर गई सांझ
गोधूली ओढ़
मौन पीछे दीवार सिटी सीढ़ी से
उतर गई सांझ
और किसी वृद्धा सी दुबक गई
डरी डरी
रीढ़ झुकी कटिया भी पूस की
कांप रही कोने में रात पूस की
कवि जो देखता है उसके मन की व्यथा गीतों में अनायास ही फूट पड़ती है ----
मेरा दर्द कि मैं न गांव ही रह पाया
न शहर बन पाया
लुप्त हुई
कालीनों जैसी
खेत खेत फैली हरियाली
बीच-बीच में पगडंडी की शोभा वह
मन हरने वाली
अब न फूलती सरसों
डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं
तन मन की जो थकन मिटा दे
वह शीतल से ठौर नहीं हैं
सबको छांह बांटने वाला
मैं न सघन पाकर बन पाया
और गांव से शहर की ओर होने वाले पहले पलायन पर कवि ने लिखा
गांव सारा चल दिया
जाने किधर
हम निमंत्रण को तरसते रह गए
रुक गई वे दुध मुंही किलकारियां
मौन भाषा चिट्ठियों की खो गई
थम गईं
रिमझिम फुहारें सांवनी
गंध सोंधी मिट्टियों की खो गई
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कल तक जलजात जहां गंध थे बिखेरते
उग आया वहीं पर
सिवारों का जंगल
इस कदर अंधेरा है
विष भरी हवाएं हैं
पार पहुंच पाना भी लगता है मुश्किल
हम इतनी दूर
चले आए हैं बिन सोचे
आज लौट जाना भी लगता है मुश्किल
सोचा था पाएंगे हम बयार चंदनी
किंतु मिला कृत्रिम
व्यवहारों का जंगल
संवेदनशील देखिएगा.... कवि कहता है-
औरों के क्रूर आचरण
कई बार कर लिए सहन
अपनों का अनजानापन
मीत सहा नहीं जाता
सूरज को
छूने की होड़ लिए वृक्षों से
कहीं नहीं मिलतीं
मनचाही छायाऐं
ऊंचे उठने की लघु ललक लिए बिटपों की
बौनी रह जाती हैं
अनगिनत भुजाएं
एक गीत और देखिएगा-
गंध का छोर मिलेगा
हिरना लौट चलें
अभिनंदन करती
आवाजों के शोर बीच
भाव मुखर एक भी नहीं
सभी यंत्र चालित हैं
बोलते खिलौने हैं
जीवित स्वर ही एक भी नहीं
इन ऊंचे शिखरों पर
बहुत याद आता है
बादल बन बन बगियों में घिरना
लौट चलें
अंत में कुछ गीत "ढाई आखर प्रेम के" से देखिएगा--
एक आकर्षण
अगरु की गंध में
भीगे नहाए क्षण
मलय की छांव छूकर
लौट आए प्रण
फिर भी मौन हूं मै
वह तरल निर्वाधिनी गति
रुक गई
एक ऊंचाई
थरा तक झुक गई
और मेरी दृष्टि
हो आई गगन के पार
गंधिल निर्जनो में
विमल चंदन वनों में
एक आकर्षण
अतल गहराइयों तक
डूब आया मन
खिंचावों में घिरा
मेरा अकेलापन
फिर भी मौन हूं मैं
और देखिए कवि की संवेदना----
कोलाहल जाग गया
सांसों के गांव में
निमिष निमिष भीग गया
रसभीने भाव में
ऊंघ रहा है इस क्षण
उनमन सा एक सुमन एक कली जागी
ऐसी कुछ बात हुई
बनकर ज्यों छुईमुई
सोई है एक डगर एक गली जागी
अंत में एक गीत और --
जाने फिर मिले
या न मिले खुला गगन कहीं
यह नीला नीला आकाश सरल मन सा
आओ कुछ देर यहां बैठे हम ठहरें
यदि शचीन्द्र भटनागर जी को, उनकी संवेदनाओं को जानना है तो यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए।
कृति : त्रिवर्णी (नवगीत संग्रह)
रचनाकार : शचीन्द्र भटनागर
प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत
संस्करण : प्रथम 2015
मूल्य : ₹300
समीक्षक : अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, 8218825541
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