मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गा दत्त त्रिपाठी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख



 हिन्दी के प्रख्यात कवि, कहानीकार, पत्रकार और लेखक दुर्गादत्त त्रिपाठी का जन्म 19 मई 1906 को बरेली में हुआ था । उनके पूर्वज मूलतः अल्मोड़ा जिले के चौसर के निवासी थे । किन्तु कालान्तर में वे मुरादाबाद जनपद के चंदौसी नगर में आ गये । आपके पिता श्री गोविन्द दत्त त्रिपाठी रेल कर्मचारी थे । आपके पितामह श्री गोपाल दत्त त्रिपाठी अध्यापक थे, उन्नति करते- करते इंस्पैक्टर ऑफ स्कूल्स हो गये । वह भी एक अच्छे कवि थे । उनके नाना श्री हरदेव पंत आगरा के महाराजा के राजगुरू थे ।

    आपकी प्रारम्भिक शिक्षा काशी में हुई । सैन्ट्रल स्कूल काशी से एडमीशन परीक्षा कक्षा 10 उत्तीर्ण की । उनके पश्चात् रामजस इंटर कालेज, तथा रामजस कालेज आनन्द पर्वत दिल्ली से इंटरमीडिएट तथा बीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर महात्मा गाँधी की 'पढ़ना छोड़ो' आज्ञा पर पढ़ाई छोड़कर कांग्रेस के स्वयं सेवक बन गये ।

      इसी दौरान वह फिल्मों में काम करने के विचार से द्वितीय महायुद्ध के समय कलकत्ता चले गये और वहाँ कुछ समय तक रहे । वहाँ उनकी भेंट जाने-माने फिल्म निर्देशक श्री देवकी कुमार बोस से हुई । वे त्रिपाठी जी की योग्यता से बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने त्रिपाठी जी को अपने यहाँ हिन्दी उच्चारण विभाग में सहयोगी के रूप में सवेतन काम दिया और फिल्म 'रामानुज में सवेतन भूमिका भी दी । कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने हिन्दी की 'मतवाला' और अंग्रेजी की 'मॉर्डन रिव्यू' जैसी स्तरीय पत्रिकाओं का संपादन भी किया । कलकत्ता प्रवास के दौरान ही उनके पिता श्री का देहान्त हो गया । इस प्रकार अपने पिताश्री की दिवंगति से त्रिपाठी जी पर अकस्मात् अपने परिवार का भार आ पड़ा । उघर द्वितीय महायुद्ध अपने पूरे जोरों पर था । लेखकों पर ब्रिटिश सरकार भाँति-भांति के अत्याचार कर रही थी । पुलिस आये दिन उनकी तलशियाँ लेती और उनकी पाण्डुलिपियाँ उठाकर ले जाती । उन सब प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुए वे विवश कर मुरादाबाद लौट आये। कलकत्ता से वापस आने के उपरान्त उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अपने समय के प्रसिद्ध हिन्दी मासिक महारथी में सहायक सम्पादक पद पर लगभग 3 वर्ष तक कुशलता पूर्वक कार्य किया । 

   आजीविका की दृष्टि से सम्पादन कार्य में त्रिपाठी जी ने यह अनुमव किया कि उससे उनकी और उनके परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं हो सकेगी इस स्थिति में उन्होंने अपने पिताश्री की भांति रेल विभाग में ही नौकरी की । वे वहाँ गार्ड के रूप में सन 1961 तक सेवारत रहे ।

    हिन्दी साहित्य के प्रति उनकी रुचि विद्यार्थी जीवन से जागरूक हो चुकी थी। काशी में शिक्षा प्राप्ति के दौरान अध्यापक के रूप में हास्य रस के सुविख्यात कवि कृष्णदेव गौड़,बेढब बनारसी और ब्रज भाषा के सुकवि श्री भगवान दीन 'दीन' का उन्हें स्नेह प्राप्त हुआ । पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र, विनोद शंकर व्यास, लक्ष्मीनारायण मिश्र, कमलापति त्रिपाठी उनके सहपाठी तथा मित्र रहे थे । काशी में ही श्री जयशंकर प्रसाद, श्री रामनाथ 'सुमन' ,पंडित जनार्दन झा द्विज, पंडित शिवपूजन सहाय, शिवदास गुप्त 'कुसुम', आदि स्थापित साहित्यकारों की महत्वपूर्ण संगति में रहे । इसके अतिरिक्त उन्हें पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला', पं. सुमित्रानंदन पंत, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, पं. अनूप शर्मा 'अनूप, श्री अमृत लाल नागर, डॉ. इलाचन्द्र जोशी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री आदि साहित्य - महारथियों का भी सान्निध्य प्राप्त हुआ था । 'महारथी' पत्रिका में कार्य करते हुए वह हिन्दी के महान कथाकार जैनेन्द्र कुमार तथा भगवती प्रसाद वाजपेयी के सम्पर्क में आये । इन समस्त साहित्यकारों के सनिध्य का प्रभाव उनकी लेखन एवं रचनात्मक शैली पर पड़ा । उन्होंने न केवल काव्य विधा में लेखन किया अपितु वह एक सिद्धहस्त कहानीकार उपन्यासकार एवं निबन्धकार भी थे । उनकी प्रकाशित कृतियों में गाँधी संवत्सर (महाकाव्य) शकुन्तला (खण्ड काव्य), तीर्थ शिला (काव्य संग्रह), अमर सत्य (उपन्यास) तथा मंटो मिला था (उपन्यास), स्वर्ग( महाकाव्य), सन्धि और विच्छेद(खण्ड काव्य),निर्बलता का शाप ( महाकाव्य) , कल्पदुहा ( काव्य) उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपने  शंकराचार्य, आरोहा, आसव, अनुजा,  सौम्या, कृतम्भरा, भूयसी, श्रेयम्वदा,  मधुलिपि, पत्रांक, रक्त ग्रन्थि, वृन्दा, मामिका, यज्ञशेप, कलापी, प्रेयति, सघस्का,त्वदीया,उर्वरा, वेशिका, छन्दा, कदित्सा,कन्था, गतिका, स्वरन्यास, प्रत्यय, प्रकाम, उपनाह, गेया, शरण्या, प्रत्यक्ष, मुहूर्त, युगीन, निबन्ध गीत, गीतिका, वेणुजा, निशार्क, प्रेयम्वदा, परिचित और प्रशस्तियाँ, अनुश्रतियाँ ( सभी काव्य ), उत्तरदायी,जहां बंटवारा नहीं होता, बर्लिन की रक्तरेख (सभी उपन्यास) क्रमगत, विश्वास का लक्ष्य, जीने का सहारा, उतरा हुआ मद, अन्तरे अनेक टेक एक( सभी कहानी संग्रह) कृतियों की भी रचना की । इनमें से अधिकांश अप्रकाशित हैं ।

     श्री त्रिपाठी जी की दिल्ली और उत्तर प्रदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी एवं कविता प्रायः प्रकाशित होती रही है । मुरादाबाद से प्रकाशित 'अरुण' और 'प्रदीप'  से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आपका निधन 30 जनवरी 1979 को हुआ।


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख -----






हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया।  पदम् श्री गोपालदास नीरज के शब्दों में कहा जाए तो  हुल्लड़ मुरादाबादी की ख्याति हास्य व्यंग विधा के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में है लेकिन उन्होंने जो दोहे और गजलें कहीं हैं वे उन्हें एक दार्शनिक कवि के रूप में भी स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। हास्य के लहजे में कुछ शेर तो उन्होंने ऐसे कहे हैं जो बेजोड़ हैं और जो हजार हजार लोगों की जुबान पर हैं। हिंदी में तो कोई भी हास्य का ऐसा कवि नहीं है जो उनकी ग़ज़लों के सामने सिर ऊंचा करके खड़ा हो सके।

हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब  हुल्लड़ मुरादाबादी  अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।

आजादी से पहले मुरादाबाद आकर बसा था परिवार

हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म 29 मई 1942 को गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है )हुआ था।  उनके पिता श्री सरदारी लाल चड्डा बर्तनों का व्यवसाय करते थे। उनकी माता जी का नाम विद्यावंती था। यह संभवतः कम लोगों को ही मालूम होगा कि आप का वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्ढा था।  भारत के आजाद होने से पहले ही आपका पूरा परिवार मुरादाबाद आकर बस गया था। 

  चार भाइयों और तीन बहनों  विजय कुमार चड्ढा, सुभाष चड्ढा, अशोक चड्ढा, शशि कोहली, सुधा आनन्द और नीलम सेठी में सबसे बड़े हुल्लड़ मुरादाबादी की शिक्षा दीक्षा मुरादाबाद में ही हुई। सन 1958 में आपने पारकर इंटर कॉलेज से हाईस्कूल तथा वर्ष 1960 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।बीएससी सन 1965 में तथा सन 1971 में हिंदी विषय से स्नातकोत्तर की परीक्षा स्थानीय हिंदू डिग्री कॉलेज से  उत्तीर्ण की । इसी बीच 1969 में आपका विवाह हो गया। वर्ष 1970-71 में आपने एस एस इंटर कॉलेज तथा 1971-72 में आरएन इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य किया । इसी बीच 30 नवम्बर 1969 को उनका विवाह अजमेर निवासी पन्ना लाल अरोड़ा की सुकन्या कृष्णा के साथ हुआ । उनसे उन्हें एक सुपुत्र नवनीत और दो सुपुत्रियाँ सोनिया व मनीषा चड्ढा की प्राप्ति हुई। ( नवनीत का असमय निधन 2018 में हो गया। वर्तमान में सोनिया दुबई और मनीषा पूना में निवास कर रही हैं। ) 

 पहली बार लाल किले पर 1962 में पढ़ी कविता

 पारकर इंटर कॉलेज में जब वह पढ़ते थे तो वहां हिंदी के एक अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास थे जो  एक चर्चित साहित्यकार व संगीतकार भी थे उन्हीं की प्रेरणा व निर्देशन में हुल्लड़ मुरादाबादी का साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ।  वह दिवाकर उपनाम से वीर  रस की कविताएं लिखने लगे।  2 दिसम्बर 1962 में आपने पहली बार किसी स्तरीय मंच से काव्य पाठ किया । भारत चीन महायुद्ध के संदर्भ में उस वर्ष राष्ट्रीय रक्षा कोष सहायतार्थ एक अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन लालकिला दिल्ली में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे । उक्त कवि सम्मेलन में एक श्रोता के रूप में हुल्लड़ जी भी मौजूद थे । कविसम्मेलन के दौरान राष्ट्र की रक्षा के लिए कुछ देने का प्रश्न आया तो उन्होंने अपनी एक सोने की अंगूठी उतार कर दे दी तथा देशभक्ति से ओतप्रोत एक वीर रस की रचना भी पढ़ी, जिसकी पंक्तियां थी -

 तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहां गया।

बोलो राणा की संतानों, वह जोश तुम्हारा कहां गया।।

 जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ ।

जाकर देखो भारत मां के, माथे पर जो आघात हुआ।।

गर अब भी खून नहीं ख़ौला, गर अब तक जाग न पाए हो ।। 

मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत मां के जाए हो ।।

इसके बाद तो न जाने कितने कवि सम्मेलनों में रचना पाठ किया और एक तरह से वे हास्य के पर्याय बन गए । आपने मुरादाबाद के कुछ बुद्धिजीवियों व रचनाकारों को साथ लेकर हास परिहास नामक संस्था का भी गठन किया। वर्ष 1971 में यहीं से हास परिहास नामक एक मासिक पत्रिका भी संपादित की जो वर्ष 1975 तक प्रकाशित होती रही।  

 फिल्मों में भी किया अभिनय

आपकी रचनाओं की ख्याति को देखते हुए वर्ष 1977 में मशहूर हास्य अभिनेता व निर्माता निर्देशक आई एस जौहर ने उन्हें फिल्मों में लिखने का ऑफर भी दिया। उस समय वह नसबंदी फिल्म का निर्माण कर रहे थे।  उन्होंने हुल्लड़ जी का उसमें एक गीत क्या मिल गया सरकार तुझे इमरजेंसी लगा कर लिया जिसे संगीतबद्ध कल्याणजी-आनंदजी ने किया तथा महेंद्र कपूर व मन्ना डे ने गाया। इस तरह धीरे-धीरे उनका फिल्मों की ओर झुकाव होने लगा और वर्ष 1979 में वह मुरादाबाद छोड़कर मुंबई जाकर स्थाई रूप से रहने लगे। वहां प्रसिद्ध अभिनेता निर्देशक निर्माता मनोज कुमार को अपना गुरु बनाया तथा उन्हीं की प्रेरणा से आगे बढ़ते गए । फिल्म सन्तोष में भी उन्होंने एक अच्छी भूमिका निभाई । इससे पूर्व शिवानी की कहानी पर आधारित फिल्म बंधन बांहों का में भी उन्होंने अभिनय किया। दरअसल अभिनय करने के अंकुर भी उनमें छात्र जीवन में ही फूटे । वर्ष 1960-61 में हिंदू डिग्री कॉलेज की हिंदी साहित्य परिषद द्वारा आयोजित एकांकी नाटक प्रतियोगिता में उन्हें सर्वोत्तम अभिनय करने पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था । इसके अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा के एकांकी नाटक दो कलाकार , ऋषि भटनागर रचित सफर के साथी, डॉ शंकर शेष रचित एक और द्रोणाचार्य में भी  उन्होंने प्रमुख भूमिकाएं अभिनीत की।

 सन 1989 में सपरिवार लौटे मुरादाबाद

परिवार के साथ मुंबई चले जाने के बाद भी मुरादाबाद से उनका जुड़ाव बना रहा। यही कारण रहा कि वर्ष 1989 में  गर्दिश के दिनों में वह पुन: सपरिवार यहां वापस लौट आए। मुंबई से जब वह वापस मुरादाबाद आए तो साहित्य के प्रति उनका मन उचट सा गया था। उनका साहित्य से पुन: रिश्ता कायम हुआ दैनिक स्वतंत्र भारत के माध्यम से।  अपने मित्र चुन्नी लाल अरोड़ा के बहुत आग्रह के बाद उन्होंने स्वतंत्र भारत के लिए लिखना शुरू किया। उसके बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।  वर्ष 2000 में  वह फिर मुरादाबाद की पंचशील कालोनी छोड़कर पूरी तरह मुम्बई में बस गए।  12 जुलाई 2014 को उन्होंने मुंबई के  गोरेगांव स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली ।

 प्रकाशित साहित्य एवं सम्मान

हुल्लड़ मुरादाबादी की  प्रमुख कृतियों में इतनी ऊंची मत छोड़ो, मैं भी सोचूं तू भी सोच, अच्छा है पर कभी कभी, तथाकथित भगवानों के नाम,सत्य की साधना, त्रिवेणी , हज्जाम की हजामत, सब के सब पागल हैं , हुल्लड़ के कहकहे ,हुल्लड़ का हंगामा,   हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य व्यंग रचनाएं ,हुल्लड़ सतसई, हुल्लड़ हजारा, क्या करेगी  चांदनी, यह अंदर की बात है,जिगर से बीड़ी जला ले  मुख्य हैं । एचएमबी द्वारा आपकी हास्य रचनाओं के अनेक रिकॉर्ड्स एवं कैसेट्स रिलीज हो चुके हैं जिनमें प्रमुख रूप से हंसी का खजाना , हुल्लड़ का हंगामा , हुल्लड़ के कहकहे, हुल्लड़ मुरादाबादी से मिलिए बेहद पसंद की गई हैं । आपको विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया जिनमें प्रमुख रूप से काका हाथरसी पुरस्कार, महाकवि निराला सम्मान, हास्य रत्न अवार्ड, कलाश्री पुरस्कार, ठिठोली पुरस्कार, इंडियन जेसीज का टी ओ वाई पी अवार्ड  मुख्य हैं। 

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डॉ मनोज रस्तोगी

 8, जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख














इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता एवं साहित्यकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता पंडित रामस्वरूप वैद्यशास्त्री रामपुर जनपद की शाहबाद तहसील के अनबे ग्राम से चंदौसी आकर बसे थे।उनकी आयुर्वेद जगत में अच्छी ख्याति थी। उनके द्वारा स्थापित धन्वतरि फार्मसी द्वारा निर्मित औषधियाँ देश भर में प्रसिद्ध है । आपके पितामह पंडित बिहारी लाल शास्त्री थे।

   आपकी प्रारम्भिक शिक्षा चंदौसी में पंडित गोकुलचन्द्र के विद्यालय में हुई। तदुपरान्त आपने एसएम इंटर कालेज में कक्षा तीन में प्रवेश ले लिया। वर्ष 1953 में आपने इसी विद्यालय से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1955 में आपने शिक्षाध्ययन त्याग दिया और साहित्य सेवा को पूर्ण रूप से समर्पित हो गये ।

   15 अप्रैल 1955 को उनका विवाह सोरों के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं दामोदर शर्मा की पुत्री और जिला सूचना अधिकारी ‘प्रियदर्शिनी’ महाकाव्य के अमर प्रणेता पं॰ राजेंद्र पाठक की छोटी बहन विमला के साथ सम्पन्न हुआ | उनके दो सुपुत्र अतुल मिश्र व विप्र वत्स मिश्र तथा दो सुपुत्रियाँ प्रज्ञा शर्मा व प्रतिमा शर्मा हैं।

     बचपन से ही आपकी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में रुचि थी। पं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, डॉ हरिवंश राय बच्चन जैसे अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्य आपने पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था में ही पढ़ लिया था ।साहित्य अनुराग के कारण ही आप कविता लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उधर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में गाये जाने वाले कोरसों का भी मन पर पूरी तरह प्रभाव पड़ा। 

आपकी प्रथम कविता दिल्ली से प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई । उस समय आपकी अवस्था मात्र सोलह वर्ष की थी। इसके पश्चात् आपकी पूरी रुचि साहित्य लेखन की ओर हो गयी लेकिन आपके पिता को यह सहन न था। वह चाहते थे कि उनका पुत्र अपने अध्ययन में मन लगाये व वैद्यक व्यवसाय में उनका सहयोग करें।  एक दीपावली की रात्रि को उन्होंने पिताश्री के पूजा-गृह मे लक्ष्मी और रजत मुद्राओं के आगे यह कहकर सिर नवाने से इंकार कर दिया- ‘मैं सरस्वती का पुत्र हूँ, लक्ष्मी के आगे सिर नही नवाऊंगा |’ 

    प्रारम्भ में आपने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें लिखी जिनका प्रथम संग्रह मधुगान वर्ष 1951 में प्रकाशित हुआ, उस समय उनकी अवस्था मात्र 19 वर्ष की थी । इस संग्रह को काफी सराहना मिली । वर्ष 1955 में उनके प्रकाशित दूसरे संग्रह 'कल्पना कामिनी' में श्रृंगार रस से भीगी रचनायें थीं। वर्ष 1982 में आपकी हास्य कविताओं का एक संग्रह कविता नियोजन' प्रकाश में आया । वर्ष 1985 में ए कैटलॉग ऑफ संस्कृत मैन्युस्किरपट इन चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय का प्रकाशन हुआ। वर्ष 1993 में बदायूं के रणबांकुरे राजपूत(इतिहास) ,वर्ष 1999 में हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह कवयित्री सम्मेलन, वर्ष 1997 में इतिहास के झरोखों से सम्भल (इतिहास) ,2001 में ऐतिहासिक उपन्यास शहीद मोती सिंह, वर्ष 2003 में मुरादाबाद जनपद का स्वतंत्रता संग्राम (काव्य),  मुरादाबाद व अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी(काव्य), पवित्र पंवासा (ऐतिहासिक खण्ड काव्य), मीरापुर के नवोपलब्ध कवि (शोध) तथा वर्ष 2008 में आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं (शोध) प्रकाशित हो चुकी हैं । 

   अप्रकाशित कृतियों में महाभारत और पुरातत्व, मुरादाबाद जनपद की समस्या - पूर्ति, स्वतंत्रता संग्राम: पत्रकारिता के साक्ष्य, चंदौसी का इतिहास, भोजपुरी कजरियाँ, राधेश्याम रामायण पूर्ववर्ती लोक राम काव्य, बृज के लोक रचनाकार, चंदौसी - इतिहास दोहावली, बरन से बुलंदशहर तक, हरियाणा की प्राचीन साहित्य धारा, स्वतंत्रता संग्राम का एक वर्ष, दिल्ली लोक साहित्य और शिला यंत्रालय, रूहेलखण्ड की हिन्दी सेवाएं, हिन्दी पत्रकारिता का साधना-काल, रूहेलखण्ड के प्रमुख हिन्दी पत्रकार, हिन्दी-पत्रों की कार्टून- कला के दस वर्ष, एक शहर पीतल का, संभल क्षेत्र की इतिहास - यात्रा, गंगा-घाटी का त्यागी-समाज, मध्य प्रदेश: भूले-बिसरे साहित्य-प्रसंग, रसिक कवि तुलसीदास,पूर्वी कौरवी के लोक-काव्य मुख्य हैं । आपकी रचनाओं और शोध परक लेखों का प्रकाशन साप्ताहिक हिन्दुस्तान (दिल्ली), कादम्बनी (दिल्ली), नव भारत टाइम्स तथा अमर उजाला दैनिक पत्रों में नियमित रूप से होता रहा है। 

  वर्ष 1955 में ही उनकी रुचि पुरातात्विक महत्व की वस्तुएँ एकत्र करने में हो गयी। इसी वर्ष उन्होंने ‘चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय’ की नींव डाल दी जो बाद में मुरादाबाद के दीनदयाल नगर में हिन्दी संस्कृत शोध संस्थान, पुरातत्व संग्रहालय के रूप में संचालित होता रहा। उन्होंने अपने जीवन के स्वर्णिम 25 वर्ष मुरादाबाद, बरेली बदायूँ गंगा रामगंगा बीच भूभाग पुराने टीलों, पुरानी इमारतों, जर्जर किलों और ऐतिहासिक महत्व स्थानों खाक छानते हुए गुजारे है। वह रोज सुबह से साइकिल लेकर निकलते और रात लौटते थे। कभी-कभी उन्हें वापस लौटने कई-कई दिन लग जाते थे। इस बीच घर वालों को यह भी पता नहीं रहता था कि वह कहाँ जब वह घर से निकलते, तो उनका थैला गुब्बारों भरा होता और जब वापस लौटते, तो उस थैले में होतीं तरह-तरह की मृण्मूर्तियां, सिक्के, पुरानी किताबें और ऐतिहासिक महत्व की दूसरी चीजें।

    पुरातत्व वस्तुओं की खोज के दौरान उन्होंने प्राचीन युग के अनेक अज्ञात कवियों प्रीतम, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्र मधुसूदन दास, संत कवि लक्ष्मण, बालकराम आदि की पाण्डुलिपियाँ  खोजीं। हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि इनमें से अनेक ग्रन्थ दुर्लभ थे। श्री मिश्र जी के संग्रहालय में लगभग 4450 मृणमूर्तियाँ, 200 प्रस्तर मूर्तियाँ, 55 मृण्पात्र 40 लघु चित्र, 4000 सिक्के और मनके, 9 अभिलिखित मुहरें, 250 लीयो चित्र, हिन्दी और संस्कृत की 2000 पाण्डुलिपियाँ, 600 लीथो प्रकाशन तथा हिन्दी की हजारों प्राचीन पत्रिकाएँ थीं ।

     उनकी समस्त पुरातात्विक धरोहर वर्तमान में उनके सुपुत्र अतुल मिश्र के अलावा बरेली के पांचाल संग्रहालय तथा स्वामी शुकदेवानंद महाविद्यालय, शाहजहांपुर में 'पं.सुरेंद्र मोहन मिश्र संग्रहालय' में सुरक्षित है।

    उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर हुआ ।


 


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

 8, जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद  244001

 उत्तर प्रदेश, भारत 

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख

 




श्री वीरेंद्र कुमार मिश्र
का जन्म मुरादाबाद में 3 फरवरी 1922 (शैक्षिक अभिलेखानुसार 1 जुलाई 1922) को हुआ। आपके पितामह डॉ मुन्नालाल उस समय के चर्चित चिकित्सक थे तथा पिता पंडित मुरारी लाल रेल विभाग में कार्यरत थे। आप की माता जी का नाम सावित्री देवी था।

 श्री मिश्र ने राजकीय हाई स्कूल नजीबाबाद (जिला बिजनौर) से कक्षा 3 व 4 की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने राजकीय इंटर कॉलेज मुरादाबाद में प्रवेश ले लिया। यहां से वर्ष 1938 में हाईस्कूल और वर्ष 1940 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1941 में अपने प्रयाग केंद्र से साहित्य रत्न की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1945 में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में सीनियर कैंब्रिज की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात एक विषय अंग्रेजी से इंटरमीडिएट की परीक्षा वर्ष 1946 में उत्तीर्ण की तथा वर्ष 1949 में एक विषय अंग्रेजी लेकर स्नातक किया। वर्ष 1950 में बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा से तीन माह का रिफ्रेशर कोर्स किया और उसके पश्चात वर्ष 1951 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की । इतने अध्ययन के बाद भी आप को सन्तोष नहीं हुआ और आप ने वर्ष 1954 में केजीके महाविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षा अंग्रेजी में प्रवेश ले लिया परंतु एक अंग्रेजी प्रवक्ता जो ईसाई थे, से हिंदू धर्म की आलोचना करने पर विवाद हो गया। परिणाम यह हुआ कि उनकी उपस्थिति कम कर दी गई और वे परीक्षा में नहीं बैठ सके। बाद में वर्ष 1957 में उन्होंने संस्कृत विषय में स्नातकोत्तर उपाधि आगरा विश्वविद्यालय से प्राप्त की। वर्ष 1964 में डॉ गोविंद त्रिगुणायत के निर्देशन में हिंदी के नवीनतम नाट्यरूप- उद्भव विकास और शिल्प विधि विषय पर शोध हेतु आप की रूपरेखा स्वीकृत हुई परंतु विद्यालय से सेवा मुक्त कर दिए जाने से उत्पन्न विवाद में उलझ जाने के कारण आपका शोध कार्य पूर्ण न हो सका।

    वर्ष 1944 में आपकी अस्थाई नियुक्ति जूनियर हाई स्कूल मुरैना (ग्वालियर) में हो गई लेकिन तीन माह पश्चात वह नौकरी छोड़कर मुरादाबाद आ गए। फरवरी 1945 में आपके मामा श्री कैलाश चंद्र त्रिवेदी जो झांसी में डिप्टी कलेक्टर थे, ने झांसी में मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में ऑफिसर ट्रेनिंग के लिए भर्ती करा दिया। नौ  माह बाद द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के कारण यह ट्रेनिंग भी समाप्त हो गई । बाद में वर्ष 1946 में वह ऋषिकुल जूनियर हाई स्कूल कटघर मुरादाबाद में अध्यापक हो गए। वर्ष 1947 में उनकी नियुक्ति एच एस बी इंटर कॉलेज मुरादाबाद में अध्यापक के पद पर हो गई जहां से वर्ष 1948 में उनकी नियुक्ति हैविट मुस्लिम इंटर कॉलेज मुरादाबाद में हो गई। वर्ष 1964 में विद्यालय के तत्कालीन प्रबंधक ने रुष्ट होकर उन्हें निलंबित कर दिया जिसके खिलाफ वह उच्च न्यायालय चले गए । इसी समय उन्होंने लाला राम कीर्ति शरण सोशलिस्ट के कहने पर अपने अंतरंग मित्र  शिवशंकर सक्सेना तथा कुमार आनंद सिंह के सहयोग से लाइनपार में आचार्य नरेंद्र देव श्रमिक जूनियर हाई स्कूल की स्थापना की। वर्ष 1965 में उच्च न्यायालय के आदेश से उनका निलंबन समाप्त हो गया और उन्होंने पुनः हैबिट मुस्लिम इंटर कॉलेज में अध्यापक के पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया। वर्ष 1982 में वह सेवानिवृत्त हो गए।

     वर्ष 1948 जनवरी में श्री मिश्र का विवाह डॉ रामचंद्र शर्मा निवासी नवाबपुरा मुरादाबाद की पुत्री प्रकाश देवी से हुआ। आपके बड़े सुपुत्र मधुप मिश्र वर्तमान में रेती स्ट्रीट में ही निवास कर रहे हैं । छोटे सुपुत्र महेंद्र मिश्र इटौंजा (लखनऊ) में एक विद्यालय संचालित कर रहे हैं। एक पुत्र मनोज मिश्र का निधन हो चुका है। आपकी तीन पुत्रियों रेखा, पूर्णिमा और रीता में पूर्णिमा का निधन हो चुका है।

      छात्र जीवन में पंडित अंबिका प्रसाद जी, पंडित मूल चंद्र शर्मा तथा हिंदी शिक्षक पंडित रघुनंदन प्रसाद जी की प्रेरणा से साहित्य के प्रति रुचि जागृत हुई और वह लेखन कार्य करने लगे। वर्ष 1940 में उन्होंने विद्यालय के वार्षिक उत्सव में मंचन के लिए लघु नाटक 'उद्धार' की रचना की। इसके बाद उन्होंने अनेक कहानियों, कविताओं और नाटकों की रचना की। वर्ष 1958 में उनकी प्रथम नाट्य कृति छत्रपति शिवाजी प्रकाशित हुई । इस कृति का द्वितीय संस्करण वर्ष 1990 में प्रकाशित हुआ। उनका कहानी संग्रह पुजारिन वर्ष 1959 में प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी 14 कहानियां संकलित हैं। इस कृति का द्वितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ इस कृति की भूमिका डॉ गोविंद त्रिगुणायत ने लिखी। उनकी इस कृति का समीक्षात्मक अध्ययन वर्ष 1995 में (लेखक - जयप्रकाश तिवारी जेपेश) अहिवरण प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ। वर्ष 1990 में नाटक गुरु गोविंद सिंह, वर्ष 1992 में नाटक सम्राट हर्ष और आचार्य चाणक्य प्रकाशित हुए । उनकी अप्रकाशित नाट्यकृतियों में शेरशाह सूरी और विक्रमादित्य उल्लेखनीय हैं । उन्होंने हाई स्कूल, प्रथमा और अन्य समकक्ष परीक्षाओं के लिए उपयोगी पुस्तक विनोदिनी हिंदी साहित्य सफलता की भी रचना की।

       नाटक छत्रपति शिवाजी के लिए शारदा विद्यापीठ द्वारा उन्हें साहित्य वाचस्पति उपाधि से सम्मानित किया गया।इसके अतिरिक्त  साहू शिव शक्ति  शरण कोठीवाल स्मारक समिति मुरादाबाद समेत अनेक संस्थाओं द्वारा उन्हें समय-समय पर सम्मानित भी किया जाता रहा। उनका निधन 28 अप्रैल 1999 को हुआ।


 ✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष राजेंद्रमोहन शर्मा श्रृंग पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख ---

 





श्री राजेंद्र मोहन शर्मा श्रृंग 
का जन्म अपनी ननिहाल चंदौसी में ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या विक्रमी संवत 1991 तदनुसार 12 जून 1934 को हुआ। आपके पिता पंडित रामगोपाल शर्मा झांसी में नायब तहसीलदार थे। आप मूल रूप से काशीपुर के रहने वाले थे। वर्ष 1958 में आप मुरादाबाद में आकर बस गए। आपकी माता जी का नाम जानकी देवी शर्मा था।

आप की प्रारंभिक शिक्षा झांसी तथा काशीपुर में हुई। वर्ष 1950 में आपने उदय राज हिन्दू हाई स्कूल काशीपुर से हाई स्कूल, वर्ष 1952 में श्यामसुंदर मैमोरियल कॉलेज चंदौसी से इंटरमीडिएट, वर्ष 1954 में इसी कॉलेज से बीए, वर्ष 1971 में हिंदू कॉलेज मुरादाबाद से हिंदी में स्नातकोत्तर की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात 24 जुलाई 1954 को विद्युत विभाग में उपखंड अधिकारी मैनपुरी कार्यालय में पर्यवेक्षक पद पर आप की पहली नियुक्ति हुई। विद्युत विभाग की सेवा छोड़कर वर्ष 1957 में आपने उत्तर रेलवे प्रधान कार्यालय बड़ौदा हाउस नई दिल्ली की सामान्य शाखा में लिपिक पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया। वर्ष 1958 में आप का स्थानांतरण मुरादाबाद हो गया। विभिन्न पदों पर कार्य करने के उपरांत वर्ष 1996 में आप अधीक्षक यांत्रिक शाखा के पद से सेवानिवृत्त हुए।

 5 दिसंबर 1962 को मुरादाबाद के मोहल्ला किसरौल, दीवान का बाजार निवासी वैद्य विशम्भर नाथ त्रिवेदी की सुकन्या लक्ष्मी त्रिवेदी से आपका विवाह हुआ। आप के चार पुत्र अनुराग मिश्र, मुकुल मिश्र, पराग मिश्र, दीपक मिश्र तथा दो पुत्रियां अल्पना शर्मा तथा गरिमा शांख्यधार हैं।

 वर्ष 1950 में जब वह हाई स्कूल के छात्र थे, आपकी रुचि लेखन कार्य की ओर प्रवृत हुई और वह कविताएं, लेख, कहानी, रेखाचित्र, संस्मरण, एकांकी लिखने लगे। उनकी रचनाएं देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं साहित्य संदेश (आगरा), सरस्वती संवाद (आगरा ) , स्वतंत्र भारत( लखनऊ), भारत( प्रयाग),  आज(वाराणसी), नवयुग (जयपुर), उल्का (लखनऊ), आदर्श (कोलकाता), विश्वज्योति (होशियारपुर), लोकतंत्र (काशीपुर), नवनीत( मुंबई), नवभारत टाइम्स (दिल्ली), प्रदेश पत्रिका (मुरादाबाद) में प्रकाशित भी हुई । उनकी काव्य रचनाएं श्रृंग, कहानियां ऋतुराज और हास्य व्यंग्य कविताएं मच्छर मुरादाबादी उपनाम से  प्रकाशित हुई। स्वतंत्र रूप से उनका प्रथम गीत संग्रह 'अर्चना के गीत' वर्ष 1960 में प्रकाशित हुआ। एक लंबे समय अंतराल के पश्चात मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम के सद्प्रयासों से प्रबंध काव्य 'शकुंतला' और गीत संग्रह 'मैंने कब ये गीत लिखे हैं' वर्ष 2007 में प्रकाशित हुए। उनकी अप्रकाशित रचनाओं में मुक्तक शतक (मुक्तक संग्रह), गहरे पानी पैठ (लघुकथा संग्रह), श्रृंगारिकता( मुक्त छंद), सीख बड़ों ने हमको दी (बालोपयोगी कविताएं), भूली मंजिल भटके राही, अंबर के नीचे (कहानी संग्रह), अंतर्दृष्टि , लेखांजलि, साहित्य के गवाक्ष में मुरादाबाद (मुरादाबाद के साहित्यकारों के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विवेचनात्मक लेख) उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त उनकी रचनाएं तीर और तरंग, उन्मादिनी, स्वप्न गीत, जय जवान जय किसान, युद्ध नद के किनारे, ज्योति पुरुष, नई काव्य प्रतिभाएं एवं 31 अक्टूबर के नाम आदि साझा संकलनों में भी प्रकाशित हुईं। उन्होंने मोदी जीरॉक्स रामपुर के तकनीकी कार्यक्रम लीडरशिप थ्रू क्वालिटी की तीन अंग्रेजी पुस्तकों  का हिंदी अनुवाद भी किया। उन्होंने एक हस्तलिखित मासिक पत्र 'साहित्य संवाद' का भी संपादन किया। आकाशवाणी के रामपुर केंद्र से भी उनकी रचनाओं का समय-समय पर प्रसारण होता रहा।


 *हिन्दी साहित्य संगम का किया गठन*

 वर्ष 1960 में उन्होंने स्थानीय साहित्यकारों के साथ 'हिन्दी साहित्य संघ' की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से वह समय-समय पर काव्य गोष्ठियों का आयोजन करते रहे। वर्ष 1964 में इस संस्था का नाम 'हिंदी साहित्य संगम' कर दिया गया। वर्तमान में भी यह संस्था संचालित हो रही है। इस संस्था  द्वारा प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को काव्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या 13 सितंबर को एक साहित्यकार को हिंदी साहित्य गौरव सम्मान से सम्मानित किया जाता है। प्रत्येक वर्ष दिसंबर माह में एक साहित्यकार को श्री राजेंद्र मोहन शर्मा श्रृंग स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जाता है। वर्तमान में इसके अध्यक्ष राम दत्त द्विवेदी हैं।

 *पंडित नेहरू की स्मृति में प्रकाशित किया था साझा काव्य संग्रह महामानव नेहरू* 

पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन पर वर्ष 1964 में उन्होंने हिंदी साहित्य संगम की ओर से साझा काव्य संग्रह 'महामानव नेहरू' प्रकाशित किया था। इसका संपादन उन्होंने, सुशील दिवाकर (हुल्लड़ मुरादाबादी) और संदेश भारती ने किया था। प्रकाशन समिति के अध्यक्ष ब्रह्मानंद राय, उपाध्यक्ष मनोहर लाल वर्मा तथा मोहदत्त साथी थे। इस संकलन में 74  साहित्यकारों की रचनाएं शामिल हैं। इस संकलन का विमोचन 27 मई 1965 को हिंदू महाविद्यालय के सभागार में केजीके महाविद्यालय मुरादाबाद के तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष महेंद्र प्रताप के कर कमलों द्वारा हुआ।

 *विभिन्न संस्थाओं से रहा जुड़ाव* 

 श्रृंग जी ने अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच नई दिल्ली की जनपदीय शाखा की मुरादाबाद में स्थापना की तथा उसके अध्यक्ष रहे । इसके अतिरिक्त वह राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति, एकता साहित्यिक मंच और विविध कला संगम आदि संस्थाओं से भी जुड़े रहे।

  *विभिन्न संस्थाओं ने किया सम्मानित*

 अखिल भारतीय कला संस्कृति साहित्य परिषद मथुरा द्वारा उन्हें उनकी कृति अर्चना के गीत पर साहित्यालंकार की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त साहू शिव शक्ति शरण कोठीवाल स्मारक समिति, ज्योत्सना, पुरालेखन केंद्र, सागर तरंग प्रकाशन, केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद नई दिल्ली, सरस्वती साधना परिषद मैनपुरी, विप्रा कला साहित्य मंच द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया गया। उनका निधन 17 दिसंबर 2013 को हो गया।

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष बलदेव प्रसाद मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख



हिन्दी, संस्कृत, फारसी, बंगला, मराठी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता, उपन्यासकार, नाटककार, इतिहासकार, टीकाकार, कवि एवं सम्पादक पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने अत्यन्त अल्प समय में हिन्दी साहित्य की जो सेवा की है उसे शब्दों की सीमा रेखाओं में बाँधना असम्भव है । मात्र 36 वर्ष के जीवन काल में उन्होंने पचास से भी अधिक कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी तथा अनेक समाचार पत्रों का सफलतापूर्वक सम्पादन किया ।

     विद्यावारिधि पंडित ज्वाला पंसाद मिश्र के भ्राता, *इस बहुमुखी प्रतिभा का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद नगर में पौष शुक्ल 11 संवत् 1926 (सन् 1869 ई०) में हुआ था।* इनके पिता का नाम पंडित सुखानंद मिश्र तथा माता का नाम श्रीमती गंदा देवी था । कात्यायन मुनि के गोत्र में उत्पन्न पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र के पूर्वज सुठियांय के रहने वाले थे । इनके दादा पंडित शिवदयालु मिश्र आयुर्वेद के प्रसिद्ध वैद्य थे। कहा जाता है कि एक बार पटना जिलाधीश विल्सन क्यालेक्टर की पत्नी के पेट में शूल का दर्द उठा। अनेक कुशल चिकित्सकों को दिखाने के उपरान्त भी उनकी पत्नी रोगमुक्त नहीं हुई तो पंडित शिवदयाल मिश्र जी को बुलाया गया उन्होंने मात्र एक घंटे में श्रीमती विल्सन को दर्द से मुक्ति दिला दी। यह देखकर जिलाधीश महोदय ने पंडित शिवदयालु मिश्र को एक बहुमूल्य शाल, पाँच सौ रूपये तथा प्रशंसापत्रादि से सम्मानित किया । साथ ही उन्हें अपना पारिवारिक चिकित्सक भी बना लिया । कुछ समय पश्चात् जब श्री विल्सन का स्थानान्तरण पटना से मुरादाबाद हुआ तो पंडित शिवदयालु मिश्र भी यहाँ आ गये ।

      पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र को आरम्भ में देवनागरी की शिक्षा दी गयी थी। अंग्रेजी शिक्षा के लिए आपके पिता ने इनका प्रवेश गवर्नमेंट हाईस्कूल में कराया जहाँ आपने लगभग 6 वर्ष अध्ययन किया। उन्हें बहुभाषाविद थे। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी के अतिरिक्त बंगला, मराठी और गुजराती भाषाओं में आपने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। बांग्ला भाषा का ऐसा अभ्यास था कि बंगला पुस्तक हाथ में लेकर एक साथ ही उसका अनुवाद असली पुस्तक के समान बोलते जाते थे, यही नहीं वह मराठों के साथ मराठी,गुजरातियों के साथ गुजराती और बंगालियों के साथ बंगाली में ही बोलते थे।

    वर्ष 1886 से अपने हिन्दी भाषा में लेखादि लिखने आरम्भ कर दिये । 20 वर्ष की अवस्था में आपने समाचार-पत्रों का सम्पादन करना आरम्भ कर दिया । आपने 'साहित्य सरोज', सत्य-सिंधु, भारतवासी, भारत भानु और सोलजर पत्रिका का सम्पादन किया। कुछ समय पश्चात आपने मुरादाबाद नगर में ही मित्रों के साथ 'तन्त्र - प्रभाकर' प्रेस खोला तथा एक साप्ताहिक पत्र तन्त्र प्रभाकर निकाला । कुछ समय बाद वह उससे अलग हो गए।

      पंडित बलदेव प्रसाद समाचार-पत्रों के पढ़ने के शौकीन थे। आयुर्वेद और तन्त्रशास्त्र में भी विशेष रुझान था । इतिहास, धर्म आदि में भी उनकी रूचि थी । दिन-रात आप स्वाध्याय व लेखन कार्य में संलग्न रहते थे। इस कारण आपको विवाह करने की तनिक भी इच्छा नहीं थी। कुटुम्ब तथा माता और पं० ज्वाला प्रसाद मिश्र के आग्रह पर आपने सन् 1900 ई० में दिनरा (बरेली) निवासी श्रीमती केतकी देवी के साथ विवाह किया।  

     हिन्दी नाट्य साहित्य को उनकी प्रथम भेंट मीराबाई नाटक है। जिसका प्रकाशन श्री बैंकटेश्वर स्टीम मुद्रणालय से हुआ है। इस नाटक का रचनाकाल सन् 1897 है। 96 पृष्ठों के इस धर्मगुलक ऐतिहासिक नाटक की प्रस्तावना में मुरादाबाद निवासी लाला शालिग्राम तथा विद्यावारिधि पंडित ज्याला प्रसाद मिश्र द्वारा रचित नाटकों का भी उल्लेख किया गया है । मीराबाई नाटक को पाँच अंकों में विभक्त किया गया है। नाटक में पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने गीत, गजल, पद, चौपाई, ठुमरी, दादरा, हरिगीतिका छन्द का भी भरपूर प्रयोग किया है । ऐतिहासिक दृष्टि से नाटक में काफी विसंगतियाँ है इस नाटक को रचने का मुख्य उद्देश्य जनता में भक्ति भावना पैदा करना ही रहा है।

     पंडित बलदेव प्रसाद का दूसरा नाटक प्रभास मिलन है। इसका कुछ अंश 'सत्य- सिन्धु' मासिक पत्र में प्रकाशित हुआ था जिसे बाद में पुस्तकाकार रूप में श्री वेंकटेश्वर प्रेस ने प्रकाशित किया 144 पृष्ठों के इस नाटक में छह अंक है। यह एक पौराणिक एवं भक्तिप्रधान नाटक है। इसके उपरान्त मौलिक नाटक के रूप में तीसरा 'नन्द विदा नाटक है । इसका प्रकाशन मुरादाबाद स्थित 'लक्ष्मी नारायणः यन्त्रालय में सन् 1906 ई० में हुआ था। 66 पृष्ठ के इस नाटक को पाँच अंकों में विभक्त किया गया है।

      पंडित बलदेव प्रसाद जी ने सन् 1900 में 'लल्ला बाबू' शीर्षक से एक प्रहसन की  भी रचना की। तीस पृष्ठीय इस प्रहसन के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, आर्थिक विषमताओं को भी बखूबी उजागर किया है

       हिन्दी उपन्यास साहित्य को भी पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने कई अच्छी कृतियाँ दी। आपके द्वारा रचित उपन्यास 'पानीपत', पृथ्वीराज चौहान' 'तांतिया भील', का उल्लेख मिलता था। इसके अतिरिक्त आपने 'संसार वा महास्वप्न' नामक उपन्यास की भी रचना की 127 पृष्ठ के इस उपन्यास का प्रकाशन श्री बॅकटेश्वर स्टीम प्रेस, बम्बई से हुआ है । प्रेम परक सामाजिक उपन्यास की श्रेणी में आने वाला आपका 'मयंकमाला' उपन्यास है। यह 60 पृष्ठ का उपन्यास है ।

    मौलिक उपन्यासों की रचना के अतिरिक्त पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने बंगला भाषा के भी कई उपन्यासों का अनुवाद किया है। सर रमेश चन्द्र दत्त कृत शिवाजी विजय' उपन्यास का आपने 'जीवन प्रभात' शीर्षक से अनुवाद किया । इस उपन्यास का अनुवाद लगभग सन् 1889 ई0 के आसपास किया गया है। उपन्यास की शुरूआत में महाराज शिवाजी की जन्म - पत्रिका भी दी गयी है । यह 224 पृष्ठों का उपन्यास है तथा प्राप्य प्रति का प्रकाशन काल सन् 1909 ई० है ।

    बंगला भाषा के किसी उपन्यासकार के देवी उपन्यास का भी आपने अनुवाद किया था । उपन्यास की भूमिका पढ़ने से ज्ञात होता है कि इसका अनुवाद सन् 1887 ईo में हुआ था लेकिन उस समय कोई मित्र उनसे वह हस्तलिखित प्रति माँग कर ले गया तब बलदेव प्रसाद जी ने इसका सन् 1890 में दोबारा अनुवाद किया । बंगला भाषा से अनुदित एक अन्य उपन्यास 'कुन्दनदिनी या विषवृक्ष' का उल्लेख प्राप्त होता है

   भाषा टीकादि ग्रन्थों में पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र के पुरूषसूक्त, लघु भागवतामृत, कल्कि पुराण, आध्यात्म रामायण, बाराही संहिता, सूर्य सिद्धान्त, आयुर्वेद चिन्तामणि, चिकित्साजन, रखेन्द्र चिन्तामणि, आश्चर्य योगमाला तंत्र, गायत्री तंत्र, मंत्र चिन्तामणि, क्रिपोहीश तन्त्र, नित्य तंत्र तथा मेघदूत प्रमुख है ।

  पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र को मेसरेजिम से भी अत्यधिक प्रेम था। मेसमरेजिम विद्या की सर्वप्रथम 'जागती कला' नामक पुस्तक आपने लिखी । इसका द्वितीय संस्करण सन् 1897 ई० में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद 'मृतक मिलाप' (सन् 1897 ई0), 'महाविद्या' (सन् 1914 ई0) पुस्तकें प्रकाश में आयी ।

ऐतिहासिक पुस्तकों में आपके द्वारा 'टाड राजस्थान' का हिन्दी अनुवाद प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'नेपाल का इतिहास भी आपने रचा।

    महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत 'सत्यार्थ प्रकाश' का खण्डन करते हुए आपके ज्येष्ठ भ्राता विद्यावारिधि पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने 'दयानन्द तिमिर भाष्कर की रचना की थी। यह ग्रन्थ सन् 1890 में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रन्थ का मेरठ के किसी आर्यसमाजी पं० तुलसीराम ने खण्डन करते हुए 'भाष्कर प्रकाश' रचा जिसमें 'सत्यार्थ प्रकाश' का मण्डन करते हुए सनातन धर्म पर अनेक आक्षेप लगाये । 'भाष्कर प्रकाश' के उत्तर में पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने पं० ज्वाला प्रसाद रचित 'दयानन्द तिमिर भाष्कर का मण्डन और दयानंदीय मत का खण्डन करते हुए 'धर्म- दिवाकर' की रचना की । यह कृति सन् 1898 ई० में आर्य भाष्कर प्रेस से प्रकाशित हुई थी।

     पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र की अधिकांश कृतियाँ श्री बैंकेटेश्वर स्टीम प्रेस से ही प्रकाशित हुई है। इसके अतिरिक्त भगवान जैन प्रेस लखनऊ, हिमालय प्रेस मुरादाबाद, लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद, तंत्र प्रभाकर प्रेस मुरादाबाद, तंत्र प्रभाकर प्रेस मुरादाबाद तथा हरि प्रसाद भागीरथ बम्बई से भी कुछ कृतियों का प्रकाशन हुआ है ।

     आपका निधन श्रावण शुक्ल सप्तमी, संवत् 1962 तदनुसार 6 अगस्त 1905 ई० को रात्रि आठ बजे हुआ था । 

✍ डॉ मनोज रस्तोगी

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मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी पर केंद्रित डॉ मनोज रास्तो




रामावतार त्यागी का जन्म 8 जुलाई सन 1925 को जनपद संभल के कुरकावली नामक ग्राम के त्यागी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके दादा चौधरी श्री इमरत सिंह एक अच्छे जमींदार थे । उनके पिता का नाम श्री उदल सिंह तथा माता का नाम भागीरथी देवी था। निरंतर मुकदमें बाजी में लगे रहने के कारण इनका परिवार कालांतर में एक मामूली किसान परिवार में बदल गया परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होते हुए भी उनके परिवार के रीति रिवाज व्यवहार सब जमींदारों जैसे ही थे।

    चार भाइयों रामावतार त्यागी, रामकुमार त्यागी, रामनिवास त्यागी, राजेन्द्र त्यागी एवं एक बहन लीलावती  में सबसे बड़े रामावतार त्यागी छोटी जाति के बच्चों के साथ खेलते थे जो उनके परिवार को पसंद नहीं था। यही नहीं वह अपने विरोधी परिवारों में भी प्रतिदिन आया जाया करते थे।इस पर उन्हें परिवार से प्रताड़ना भी मिलती थी । इसका परिणाम यह हुआ कि अपने जीवन के प्रारंभिक काल में ही उनके अंदर विद्रोह के स्वर फूटने लगे । उनकी रुचि भजन, गाने ,कीर्तन, रामायण , आल्हा आदि में शुरू से ही अधिक थी। वह बचपन से ही तुकें मिलाया करते थे इस प्रकार उनके अंदर काव्यांकुर भी फूटने लगे थे 

  उन्होंने संभल के किंग जॉर्ज यूनियन हाई स्कूल जो वर्तमान में हिंद इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है, से वर्ष 1944 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। मैट्रिक के बाद उन्होंने आगे पढ़ने की इच्छा प्रकट की तो घर वालों ने इसका विरोध किया । इसके बावजूद उन्होंने चंदौसी के एसएम डिग्री कॉलेज में दाखिला ले लिया और वहां से 1948 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वह दिल्ली चले गए व हिंदू कॉलेज से उन्होंने 1950 में एम ए हिंदी की परीक्षा उत्तीर्ण की।

   रामावतार त्यागी का विवाह वर्ष 1941 में उस समय हो गया था जब वह सातवीं कक्षा में अध्ययन रत थे। कालांतर में उनकी पत्नी क्रांति ने उनसे नाता तोड़ लिया था। उनसे उनकी पुत्री राजबाला त्यागी का जन्म हुआ । वह वर्तमान में दिल्ली निवास कर रही हैं । दूसरा विवाह वर्ष 1960 में सुश्री सुयश से हुआ। उनसे उन्हें पुत्र सन्देश पवन त्यागी की प्राप्ति हुई । वह वर्तमान में मुंबई निवास कर रहे हैं।

  सन 1950 में उनकी भेंट नवभारत टाइम्स के रविवारीय संस्करण के संपादक और नवयुग के सहायक संपादक श्री महावीर अधिकारी से हुई और इसके बाद उनकी  रचनाओं का प्रकाशन नवभारत टाइम्स और नवयुग में शुरू हो गया। धीरे धीरे उनकी ख्याति एक कवि के रूप में फैलने लगी। इसी दौरान उन्होंने दिल्ली में ही राम रूप विद्या मंदिर नामक शिक्षण संस्था में अध्यापन कार्य भी किया लेकिन कुछ समय बाद उनकी यह नौकरी छूट गई और वह बेरोजगार हो गए। 

 लगभग दो साल तक बेरोजगार रहने के बाद उन्होंने समाज पत्रिका में 6 महीने संपादन का कार्य भी किया उसके बाद वह समाज कल्याण पत्रिका में 1 साल तक संपादक रहे ।कुछ दिन साप्ताहिक हिंदुस्तान में भी काम किया। उसके बाद वह नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग में कार्यरत रहे ।

उनका पहला काव्य संग्रह वर्ष 1953 में 'नया खून' नाम से पुष्प प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उनका विद्रोही स्वर मुखरित हुआ है। उसके पश्चात 1958 में 'आठवां स्वर' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उनके 58 गीत हैं । इस कृति की भूमिका प्रख्यात साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने लिखी । 'मैं दिल्ली हूं'( 1959), 'सपने महक उठे'( 1965), 'गुलाब और बबूल'( 1973), ' गाता हुआ दर्द'( 1982), ' लहू के चंद कतरे'( 1984), 'गीत बोलते हैं'(1986) काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। वर्ष 1954 में उनका उपन्यास 'समाधान' प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त 1957 में  उनकी कृति 'चरित्रहीन के पत्र'  पाठकों के समक्ष आई ।

     राजपाल एंड संस प्रकाशन दिल्ली ने आज के लोकप्रिय हिंदी कवि पुस्तक माला के अंतर्गत रामावतार त्यागी परिचय एवं प्रतिनिधि कविताएं का प्रकाशन प्रकाशन किया । क्षेमचंद्र सुमन के संपादन में प्रकाशित इस कृति में उनके 45 गीत संग्रहित हैं। इसके अतिरिक्त वाणी प्रकाशन द्वारा शेरजंग गर्ग के संपादन में' हमारे लोकप्रिय गीतकार - रामावतार त्यागी' तथा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा केशव प्रसाद वाजपेई के संपादन में 'रामावतार त्यागी- व्यक्तित्व एवं कृतित्व' कृतियों का भी प्रकाशन हो चुका है ।

उनका निधन 12 अप्रैल 1985 को हुआ ।

 चर्चित रहा फ़िल्म में लिखा गीत 

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रामावतार त्यागी ने महावीर अधिकारी की कहानी पर केंद्रित उमेश माथुर के निर्देशन में निर्मित फ़िल्म 'जिंदगी और तूफान' के लिए एक गीत ' जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है' भी लिखा था यह गीत हिंदी फिल्मों के सर्वश्रेष्ठ गीतों में गिना जाता है। इस गीत को सुप्रसिद्ध गायक मुकेश ने गाया था। संगीत दिया था। यह फ़िल्म 1975 में रिलीज हुई थी।

 हिंदी पाठ्यक्रम में भी शामिल रही उनकी रचनायें

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उनकी रचनाएं एनसीईआरटी के हिंदी पाठ्यक्रम में भी शामिल की गई । उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के कक्षा 8 के पाठ्यक्रम में  शामिल उनका गीत 'मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित / चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं। ' सर्वाधिक चर्चित रहा ।

व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोधकार्य

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स्मृति शेष रामावतार त्यागी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संभल की सिंधु त्यागी ने प्रख्यात साहित्यकार एवं एमजीएम कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ डीएन शर्मा के निर्देशन में शोध कार्य पूर्ण किया है। इसके अतिरिक्त धनोरा के अंकित त्यागी गुलाब सिंह पीजी कॉलेज चांदपुर की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ साधना के निर्देशन में 'रामावतार त्यागी के गीतों का विश्लेषणात्मक अध्ययन' शीर्षक पर शोध कार्य कर रहे हैं।

 पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और संजय गांधी को पढ़ाई थी हिंदी 

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पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रामावतार त्यागी को राजीव गांधी और संजय गांधी की हिंदी स्पीकिंग क्लास के लिए निजी शिक्षक भी नियुक्त किया था बाद में इंदिरा गांधी द्वारा उन्हें गुलमोहर पार्क दिल्ली में मकान भी आवंटित किया गया । 

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

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 मुरादाबाद 244001

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष राम लाल अनजाना पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख

 


रामलाल अंजाना का जन्म 20 जून 1939 को ग्राम व पोस्ट खुनक जिला बदायूं में हुआ था। वह मार्च 1982 में मुरादाबाद आए थे और यहीं की होकर रह गए। उनके पिता का नाम हीरालाल और माता का नाम प्रेमवती था।
बचपन में स्कूल की शिक्षिका द्वारा पिटाई किए जाने पर उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया था और उनमें शिक्षा के प्रति अरुचि हो गई। परिजनों के काफी प्रयासों के पश्चात जब वह पढ़ने को स्कूल नहीं गए तो उनके माता-पिता ने उन्हें उनके नाना के पास भेज दिया। उनके नाना की परचून की दुकान थी साथ ही वे सिलाई का कार्य भी करते थे । वह वहीं पर सिलाई का कार्य सीखने लगे। एक दिन गांव में रामायण पाठ हुआ। वहां उन्होंने एक किशोर बाबूराम द्वारा रामायण की चौपाइयों का गायन सुना, जिसे सुनकर उन्हें लगा कि यदि वे भी पढ़े लिखे होते तो रामायण को इसी तरह पढ़ सकते थे। बस, यहीं से उनके मन में पढ़ने लिखने की इच्छा जागृत हो गई और उन्होंने चुपचाप अपने बराबर के लड़कों तथा गांव के पढ़े लिखे लोगों से पढ़ना लिखना सीख लिया। धीरे-धीरे वह पूरी तरह किताबें पढ़ने लगे। पहाड़े और अंग्रेजी अक्षरों का भी उन्हें ज्ञान हो गया।
एक साल गांव के कई लड़कों का प्रवेश शहर के स्कूल में होना था। जून का महीना था। अनजाना जी के मामा और गांव के ही जगनराम पाली श्रीकृष्ण इंटर कालेज बदायूं में अध्यापक थे। अनजाना जी के नाना की दुकान में काफ़ी जगह थी जिन लड़कों का प्रवेश होना था, उनकी परीक्षा ली जा रही थी। सबसे पहले सामूहिक इमला बोला गया, फिर एक-एक करके कापियों की जांच की गई। किसी-किसी का तो हर शब्द गलत था और किसी-किसी की कुछ कम गलतियां थीं। अनजाना जी मशीन की कुर्सी पर बैठे एकटक देख रहे थे। इधर-उधर दुकान के भीतर-बाहर बहुत से बच्चे और लोग खड़े इस दृश्य का आनंद ले रहे थे। अनजाना जी अपनी गांव की शैली में बोल पड़े। इतने आसान इमले में इतनी सारी गलतियां हैं। ये क्या पढ़े-लिखे हैं। इनके मामा जो अध्यापक थे, वे बोले कि क्या तुम लिख लोगे। अनजाना जी कहने लगे और क्या नहीं लिख लेंगे। हम तो इससे भी कठिन लिख लेंगे। मामा समझे कि झूठ बक रहा है। यह बिना पढ़ा कैसे लिख लेगा। अनजाना जी कहने लगे, लाते क्यों नहीं कोई कठिन सी किताब, इमला बोलने के लिए। अनजाना जी के मामा साहित्य-सरिता मिडिल की किताब उठा लाये और पेंसिल दी गई, अनजाना जी फटाफट लिखते चले गए, जिसमें कोई भी गलती नहीं थी। फिर उन्हें सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दिया गया, उसे भी जितना बताया गया, बेहिचक पढ़कर सुना दिया। यह देखकर सब दंग रह गए। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति कोई करिश्मा कर रही है। सभी आश्चर्यचकित थे, सोच रहे थे कि जिसे पढ़ाने की हर कोशिश बेकार हो गई थी, वह विद्वानों की तरह से सत्यार्थप्रकाश को पढ़ रहा है। इसने कब और कहां पढ़ना लिखना सीख लिया। इसी प्रकार गणित के प्रश्न सभी को गुणा-भाग के दिए गए, इनसे कहा गया कि तुम भी इन्हें हल करो। अनजाना जी बोले कि यह लोग तो लिखकर सवाल हल करेंगे, हम ऐसे ही जवाब बताएंगे और सही उत्तर बता दिए। इस प्रकार उन्हें हर परीक्षा में सबसे आगे देखकर उनके मामा ने फैसला लिया कि इसे दसवीं कक्षा में प्रवेश करा दिया जाए। इस पर श्री जगनराम पाली ने सलाह दी कि यदि इसे पढ़ाना ही है तो नींव मजबूत होनी चाहिए। इसलिए आठवीं कक्षा में प्रवेश कराओ। अनजाना जी का जुलाई से कक्षा आठ में सीधे-सीधे टीचर्स-वार्ड में प्रवेश करा दिया गया। इसके बाद उनका मन पूरी तरह पढ़ाई में रम गया और उन्होंने इंटर तक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। काफी समय बाद उन्होंने  बी कॉम की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली।
      लगभग 18-19 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया। उनकी पत्नी का नाम उर्मिला देवी है। वर्तमान में वह अपने पुत्र के साथ बरेली में निवास कर रही हैं। उनके चार पुत्र रजनीश, राजीव, अवनीश, राजेंद्र कुमार और एक पुत्री रजनी है।
      अनजाना जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षों में ही रहा। उन्होंने लगभग पांच माह तहसील में चपरासी की नौकरी भी की। मंडी में गजक भी बेची, आढ़त पर नौकरी की, रजा टैक्सटाइल्स की ब्रांच ज्वाला फ्रेबरेस रामपुर में नौकरी की। इसके बाद तीस रुपया महीने के वेतन पर विज्ञानंद वैदिक इंटर कॉलेज बदायूं में अस्थाई तौर पर शिक्षक हो गए। इसी बीच मिशन स्कूल में बाबू का पद रिक्त हुआ था। कुछ साल उन्होंने इस पद पर कार्य किया। 1965 में राजकीय सेवा हेतु शिक्षा विभाग के लिए लिपिकों के पद के आवेदन पत्र आमंत्रित किए गए। उन्होंने भी आवेदन कर दिया और उनकी नियुक्ति आर आई जी एस बरेली के कार्यालय में हो गई। मुरादाबाद मंडल बनने के बाद मार्च 1982 को उनका स्थानांतरण मुरादाबाद हो गया और वे यहीं के निवासी हो गए। जिला विद्यालय निरीक्षक मुरादाबाद के कार्यालय अधीक्षक पद से वह सेवानिवृत्त हुए।
      अंजाना जी 9-10 वर्ष की उम्र से ही तुकबंदी करने लगे थे। कबीर-रहीम और निराला जी से बहुत प्रभावित थे। इनका कोई काव्य गुरु नहीं था। बचपन में जो कोर्स की किताबें पढ़ते, उन्हीं के आधार पर लिखा करते थे । वर्ष 1971 में उनका  प्रथम काव्य संग्रह "चकाचौंध" प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात वर्ष 2000 में उनके दो काव्य संग्रह "गगन ना देगा साथ" और "सारे चेहरे मेरे" का प्रकाशन हुआ । वर्ष 2003 में उनका दोहा संग्रह "दिल के रहो समीप" प्रकाशित हुआ। वर्ष 2009 में उनकी काव्य कृति "वक्त ना रिश्तेदार किसी का" प्रकाशित हुई। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मोहन राम मोहन की कृति " मानव मूल्य और रामलाल अनजाना" का प्रकाशन वर्ष 2006 में हुआ।
      जनकवि पं. भूपराम शर्मा 'भूप' पुरस्कार समिति, बदायूं द्वारा उन्हें विधानसभा अध्यक्ष श्री केशरीनाथ त्रिपाठी के कर कमलों से रु. 11001/- से सम्मानित भी किया गया। इसके अतिरिक्त 'रचना' बहजोई द्वारा 'लोकरत्न' सम्मान, अ.भा. साहित्य कला मंच, चांदपुर द्वारा 'साहित्य श्री' सम्मान, बदायूं क्लब बदायूं द्वारा नागरिक अभिनंदन, सागर तरंग प्रकाशन, मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2001 के 'सर्वोच्च शब्द' सम्मान से सम्मानित, संस्कार भारती द्वारा संस्कार भारती सम्मान 2001 से सम्मानित, आकार मुरादाबाद द्वारा शब्द श्री सम्मान, परमार्थ संस्था द्वारा शब्द भूषण, आर्य समाज मुरादाबाद द्वारा आर्य भूषण सम्मान, हिन्दी साहित्य संगम द्वारा हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान से विभूषित किया गया।
      उनका निधन 27 जनवरी 2017 को हुआ ।



✍️डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दयानन्द गुप्त पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का जन्म प्रबुद्ध आर्य समाजी डा रामस्वरूप के यहाँ राजा की हाट झाँसी में 12 दिसम्बर 1912 को हुआ था। परन्तु आपके जीवन का अधिकांश भाग मुरादाबाद में ही व्यतीत हुआ। आपकी माता जी श्रीमती रामप्यारी थी ।

      हरदोई में हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् आपने जनपद के चन्दौसी नगर स्थित एसएम इंटर कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की । तदुपरान्त आपकी प्रतिभा का निखार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुआ जहाँ से आपने स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त की । सन 1936 में मुरादाबाद नगर में अधिवक्ता के रूप में आपने अपने को प्रतिष्ठित किया।   वर्ष 1977 में जब वह लगभग 65 वर्ष के थे तो उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से  स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की । जीवन के अंतिम दो वर्ष में वह  अंग्रेजी साहित्य के भूले बिसरे कवि और लेखक एडमिन म्यूर पर शोध कार्य में संलग्न थे।
     
    अध्ययनकाल से श्री गुप्त का रुझान साहित्य की ओर था । लखनऊ तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रवास काल में वे प्रख्यात साहित्यकार श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' के सम्पर्क में आये और यह सम्पर्क घनिष्ठता में परिवर्तित होता हुआ मैत्री में बदल गया।
हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त पश्चिमीय भाषाओं के साहित्य का भी आपने अध्ययन किया । इसीलिए आपकी शैली में उसकी छाया स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
वर्ष 1941 में आपने मुरादाबाद में हिन्दी परिषद की स्थापना की । हिन्दी परिषद की स्थापना के पश्चात् आपकी प्रतिभा निखरती रही परिणामस्वरूप आपकी कहानियों का पहला संग्रह 'कारवां' वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में उनकी 12 कहानियां संगृहीत हैं। इसका प्रकाशन पृथ्वीराज मिश्र ने अपने अरुण प्रकाशन से किया था। इस संग्रह की भूमिका सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी थी। लगभग दो वर्ष पश्चात सन 1943 में उनके 52 गीतों का संग्रह 'नैवेद्य'  नाम से प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन इलाहाबाद से हुआ था। इसी वर्ष अरुण प्रकाशन द्वारा उनका दूसरा कहानी संग्रह 'श्रंखलाएं' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उनकी 17 कहानियां हैं।  वर्ष 1956 में 'मंजिल' कहानी संग्रह अग्रगामी प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में कोई नई कहानी नहीं है बल्कि पूर्व में प्रकाशित दोनों संग्रहों की चुनी हुई बारह कहानियां हैं। आपकी लेखनी 'नाटक' विधा में भी चली। वर्ष 1946 में आपका एक नाटक 'यात्रा का अन्त कहाँ' प्रकाशित हुआ। 'माधुरी', 'सरस्वती', 'वीणा', 'अरुण' आदि उच्च कोटि की मासिकों में आपकी रचनाएँ विशेष सम्मान के साथ छपती रहीं । दयानन्द गुप्त की रूझान पत्रकारिता की ओर भी था। वर्ष 1952 में उन्होंने अभ्युदय' साप्ताहिक का प्रकाशन व संपादन भी किया ।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे दयानन्द गुप्त
दयानन्द गुप्त एक साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे ।अपनी किशोरावस्था में आपने महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाई स्कूल पास करने के उपरान्त वर्ष 1930 में आन्दोलनों में लेना शुरू कर दिया था। सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे।
सर्वहारा वर्ग के नेता भी रहे
सन 1945 में मजदूर आंदोलन में भाग लिया। अनेक श्रमिक संगठनों से आप जुड़े रहे। सन् 1951 में जिनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। हालांकि आपको राजनीतिक विचारधारा कांग्रेसी थी। वर्ष 1972 से 1980 तक मुरादाबाद नगर की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए आपने संगठन का नेतृत्व किया।

शिक्षा जगत में भी रहा अपूर्व योगदान
वर्ष 1952 में आपने नगर में वर्षों से बन्द चली आ रही बल्देव आर्य संस्कृत को पुनः आरम्भ किया। जिसमें संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। उसी वर्ष बल्देव आर्य कन्या विद्यालय की स्थापना की जो बाद में बल्देव आर्य कन्या इंटर कालेज हो गया। वर्ष 1960 में दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त आपने अपने पैतृक ग्राम सैदनगली में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की भी स्थापना की।
25 मार्च 1982 की अपराह्न वह इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

:::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख





 प्रकाश चंद्र सक्सेना ’दिग्गज मुरादाबादी’ का जन्म 5 जनवरी 1930 को जिला बुलंदशहर की तहसील अनूपशहर में हुआ। उनके पिता मुंशी रामचंद्र सहाय सक्सेना एक रियासत के दीवान थे। उनकी माता का नाम अनार देवी सक्सेना था।

उर्दू भाषा से उनका विशेष लगाव रहा। यही कारण था कि उन्होंने उर्दू विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। छात्र जीवन में ही विभिन्न शायरों से प्रभावित होकर वह उर्दू में रचनाएं लिखने लगे थे। बाद में प्रसिद्ध शायर उस्ताद अब्र अहसनी गुन्नौरी के संरक्षण में उन्होंने ग़ज़लें और नज़्में लिखनी शुरू की और मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने हिंदी में भी गीतों की रचना की। इसी बीच उनका रुझान बाल साहित्य लेखन की ओर हो गया और वे बाल/ शिशु गीत लेखन की ओर अग्रसर हो गए। धीरे-धीरे उनकी बाल रचनाएं देश की प्रमुख बाल पत्रिकाओं नंदन, पराग, बाल भारती, सुमन सौरभ, बाल वाटिका, बाल साहित्य समीक्षा में प्रकाशित होने लगीं और वह बाल कवि के रूप में विख्यात हो गए। जीवन के अंतिम दशक में उनका रुझान अध्यात्म की ओर हो गया और वह भक्ति साहित्य लेखन की ओर अग्रसर हो गए। अनेक भक्ति गीतों के अतिरिक्त उन्होंने माता की भेंटे भी लिखीं। उनकी भेंटों की एक ऑडियो कैसेट 'अंबे मेरी अंबे मां' दिल्ली की एक कंपनी ने रिलीज की। इस कैसेट में गीतकार के रूप में उनका चित्र तो प्रकाशित किया गया लेकिन उनका नाम प्रकाश चंद्र सक्सेना के स्थान पर सत्य प्रकाश सक्सेना छापा। इनके भजनों की एक कैसेट ’खूब सजा दरबार पहाड़ों वाली का’ प्रिया सीरीज उत्तरांचल से रिलीज हुआ। उनकी अनेक रचनाओं का प्रकाशन साझा संकलनों क्या कह कर पुकारूं मैं, प्रेरणा के दीप, जागो प्यारे हिंदुस्तान, प्रणाम काव्यधारा, बाल सुमनों के नाम, नेह के सरसिज ,उपासना में हो चुका है। उनकी मात्र दो काव्य कृतियां ’सीता का अंतर्द्वंद’ और ’श्री करवाचौथ की व्रत कथा’  ही प्रकाशित हो सकी।  वर्तमान में उनकी प्रकाशित कृतियां भगवान श्री कृष्ण, भक्त श्रेष्ठ प्रहलाद, श्री कृष्ण भक्त नरसी, द्रौपदी की रक्षा, श्री वैष्णो मां गुणगान तथा दिग्गज मुरादाबादी की श्रेष्ठ बाल कविताएं की पांडुलिपियां अनुपलब्ध हैं । आकाशवाणी के रामपुर केंद्र से भी उनकी अनेक रचनाओं का प्रसारण हुआ। रायबरेली में उन्हें मलिक मोहम्मद जायसी एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान से सम्मानित किया गया। मुरादाबाद के साहित्यिक मंच ’संकेत’ द्वारा वर्ष 2003 में उन्हें निरंकार देव सेवक सम्मान से सम्मानित किया गया। वह रामपुर की संस्था काव्य धारा के संस्थापक थे । एमजेपी रुहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली द्वारा स्वीकृत सरफराज अली के शोध प्रबंध ’स्वातंत्र्योत्तर बाल साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन’( शोध निदेशिका मीना कौल) में भी उनका यथोचित उल्लेख है।
  उनका विवाह शांति सक्सेना से हुआ। उनके तीन पुत्रियां निधि सक्सेना , विधि सक्सेना, सोनिया सक्सेना तथा एक पुत्र सोनू सक्सेना है । राजकीय वाकर हायर  सेकेंडरी स्कूल रामपुर में शिक्षक पद से सेवानिवृत दिग्गज मुरादाबादी का निधन मंगलवार 21 जुलाई 2009 को रात्रि आठ बजे उनके कटघर, छोटी मंडी स्थित आवास पर हुआ ।
  


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख





स्मतिशेष श्री शंकर दत्त पांडे का जन्म 10 जनवरी सन 1925 ई० को नगर के मुहल्ला लोहागढ़ में हुआ। आपके पिता स्व० श्री कुंज बिहारी लाल पांडे स्थानीय प्रिन्स ऑफ वेल्स रेलवे स्कूल में अध्यापक थे।  माता जी का नाम स्व० श्रीमती चन्द्रवती देवी पांडे था। आप मूलतः अल्मोड़ा जनपद के ग्राम बल्दगाड़ (विजयपुर) पाटिया के निवासी थे।

   आपकी प्रारम्भिक शिक्षा लोहागढ़ में ही नगरपालिका के स्कूल में हुई। हाईस्कूल की परीक्षा वर्ष 1942 में राजकीय इण्टर कालेज से उत्तीर्ण की।उसके पश्चात् मद्रास में कोड़ाई केनाल स्थित अड्यार नामक स्थान में डा० मेरिया मौंटेसॉरी द्वारा आरम्भ मौंटेसॉरी शिक्षा पद्धति के ट्रेनिंग कोर्स में एक वर्ष तक ज्ञान प्राप्त किया। उसके पश्चात् आपने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1955 में आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की।

     वर्ष 1943 ई० में आपका विवाह अल्मोड़ा जिले के दनतोला ग्राम के जमींदार हरिकिशन पांडे की सुपुत्री अम्बिका देवी पांडे के साथ हुआ । आपके चार पुत्र रमेश चन्द्र पांडे, नरेश चन्द्र पांडे, सुरेश चन्द्र पांडे, मधुकर पांडे और एक पुत्री शशिप्रभा पांडे उप्रेती हैं।

     वर्ष 1946 से 1963 तक आप शिवसुन्दरी मौंटेसॉरी स्कूल के संस्थापक सहायक निर्देशक रहे । वर्ष 1963 से आप केसीएम स्कूल में चले गये । जहाँ से वर्ष 1978 में प्रबन्ध तंत्र द्वारा मतभेद के कारण आपको हटा दिया गया। 

       लेखन की शुरूआत छठी कक्षा में अध्ययन  के दौरान हुई । उनके काव्य गुरु मास्टर रामकुमार ख्यालबाज थे । आपने हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू तीनों भाषाओं में  विपुल साहित्य की रचना की । बाल साहित्य, काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण, निबंध, और अनुवाद आपके लेखन की प्रमुख विधाएं रहीं ।

       आपकी प्रकाशित कृतियों में काव्य संग्रह झलक, बाल कहानी संग्रह, लाल फूलों का देश, बारह राजकुमारियाँ, पीला देव, जादू की अंगूठी, रोम का शिशु नदेश, जादू का किला उल्लेखनीय हैं। आपकी अप्रकाशित कृतियाँ शेष पथ कैसे कटेगा, स्वप्न जो तुमने दिया, मधु ऋतु चली गयी, कामना के उपवनों में वर्तिका, अमृता, महावर कौन, स्वप्न और स्मृति (सभी काव्य), उपेक्षा के अक्षत, व्यथा उर्मियों की, संवेदना के दर्द,सौन्दर्य का आचमन , रेत पर जमती नहीं भीत( सभी गय काव्य), थाने के बादामी रजिस्टर, बहारों का पतझड़, स्मृतियों के पराग, सुहागिन विधवा, साधना का दीप, पिंजड़ा, हमराही तथा न्याय की प्रतीक्षा ( सभी कहानी संग्रह), विष के घूंट, पूरन की चौपाल, रेत पर लिखे कथानक, फूल की विस्तृत गंध तथा मैं तुम्हारे साथ (सभी उपन्यास) यादों के मजार व चंद धुंधली तस्वीरें (संस्मरण) उल्लेखनीय हैं।

       आपकी अनेक रचनायें देशदूत (इलाहाबाद),  वीर अर्जुन (दिल्ली), नवयुग (दिल्ली), सज्जन (कलकत्ता), आदर्श कौमुदी (नजीबाबाद), कलामंच (मुरादाबाद), रंगीला मुसाफिर (सहारनपुर), अरुण (मुरादाबाद), भारत (इलाहाबाद), बालक (पटना), बालभारती (नई दिल्ली), देश बालक (मुरादाबाद), धर्मवीर (मुरादाबाद), नेशनल हेरालड (लखनऊ), इलेस्ट्रेड बीकली ऑफ इंडिया (बम्बई), बाई मैगनीज ऑफ इंडिया (मद्रास), ओरियंट इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया (कलकत्ता) आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त साझा काव्य संकलनों प्रेरणा के दीप, काव्य धारा, 31 अक्टूबर के नाम, अनारकली एवं प्रणय- गाथा में भी आपकी रचनायें संगृहीत हैं। आकाशवाणी के रामपुर केंद्र से भी आपकी रचनाओं का प्रसारण होता रहा।

        मुरादाबाद की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से भी आप जुड़े रहे । राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति मुरादाबाद द्वारा आपका राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जन्मशती समारोह के अवसर पर आपका नागरिक अभिनन्दन भी किया गया। 

     दीपावली  12 नवम्बर 2004 को साहित्य का यह जगमगाता दीप बुझ गया। 

       


✍️  डॉ मनोज रस्तोगी

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