मंगलवार, 28 जुलाई 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 14 जुलाई 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ पुनीत कुमार, रवि प्रकाश, दीपक गोस्वामी चिराग, प्रीति चौधरी, डॉ सुधा सिरोही, कमाल जैदी वफा , स्वदेश सिंह, सृष्टि प्रज्ञा, सीमा वर्मा , डॉ श्वेता पूठिया, डॉ प्रीति हुंकार, नृपेंद्र शर्मा सागर ,उमाकांत गुप्ता, मनोरमा शर्मा, राजीव प्रखर , मरगूब हुसैन अमरोही और आयुषी अग्रवाल की रचनाएं-----


पहन   पैंजनी   बंदरिया  ने
ठुमका      खूब     -लगाया
दौड़-दौड़ कर मस्त हवा में
चूनर        को      लहराया
        -----------------
मोहिनीअट्टम, भरतनाट्यम
कुचिपुड़ी          दिखलाया
घूम-घूम   कर उसने  सुंदर
घूमर      नाच      दिखाया
पीली-पीली बांध के पगड़ी
मस्त       भांगड़ा     पाया
पहन पैंजनी---------------

गोपी का परिधान पहनकर
रास      नृत्य     दिखलाया
कभी डांडिया करके उसने
अद्भुत        रंग     जमाया
करके लुंगी डांस सभी  को
अपना      दास      बनाया।
पहन पैंजनी---------------

पश्चिम के कल्चर में ढलकर
बैले        डांस      दिखाया
भक्ति भाव में खोकर उसने
भक्ति      नृत्य     अपनाया
सच्ची श्रद्धा और लगन का
रूप       हमें     दिखलाया
पहन पैंजनी---------------

देखा    बच्चो  बंदरिया   ने
हमको    यह     सिखलाया
तन,मन,धनसे जिसनेसीखा
कभी      नहीं      पछताया
सोनू ,मोनू ,सबने मिल कर
मंत्र       अनोखा      पाया।
पहन पैंजनी---------------
         
 वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 9719275453
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लेकर आशीर्वाद बड़ों का
दुनिया नई बसाएंगे
बड़ों से जो नहीं हुआ
बच्चे कर दिखलाएंगे

ठोकर जो भी लगती है
कुछ ना कुछ सिखलाती
निराश हो चुके मानव को
चलकर ये बतलाएंगे

निष्ठा पूर्वक काम यदि हो
मिलता है फल अच्छा
हिम्मत हार चुके जन को
मिलकर ये समझाएंगे

सुख दुख दोनों का होता
जीवन में  निश्चित क्रम
कैसे भी हो दुख के पल
रोकर नहीं बिताएंगे

डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600
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जन्मदिवस पर राजू के
जब केक एक था आया ,
केक देखकर राजू का मन
भीतर से ललचाया ।

मम्मी थीं चौके में
पापा बाहर घूम रहे थे ,
सभी अतिथि राजू के मुख को
रह -रह चूम रहे थे ।

नजर बचाकर राजू ने
उंगली से केक उठाया ,
चाटा झटपट ,मजा केक का
राजू ने फिर पाया ।

मम्मी ने जब आकर देखा
बोलीं" किसने खाया ?"
राजू घबराकर तब बोला
"यहाँ न कोई आया।"

समझ गईं मम्मी
राजू को हल्की चपत लगाई ,
बोलीं" तुमको है पसंद
इस कारण ही तो लाई।

सब्र रखो जीवन में
इसका फल मीठा पाते हैं ,
मेजबान से पहले
आए सभी अतिथि खाते हैं।।"

रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
📞 99976 15451
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ऐनक पहनी,पुस्तक खोली।
फिर गुड़िया माँ से यों बोली।
पढ़ना मांँ मुझको सिखलाओ,
अपनी प्यारी हिन्दी बोली।

है यह सबसे प्यारी भाषा।
सारे जग से न्यारी भाषा।
'अ' अनार से आरम्भ होकर
'ज्ञ' ज्ञानी बनने की आशा

क्या हैं 'स्वर-व्यंजन' समझाओ
सारे अक्षर मुझे पढ़ाओ
कैसे लिखना यह समझाना
हिज्जे बोल-बोल करवाओ

-दीपक गोस्वामी 'चिराग'
बहजोई(सम्भल)
9548812618
ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com
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शाम ढले जब घर में
घना अंधेरा फैल जाए
पापा की थी एक चिन्ता
गुड़िया मेरी पढ़ न पाए
सोच विचार कर फिर
पापा मेरे लैम्प ले आए
जिसमें डाल तेलबत्ती
चिमनी चाँदी सी चमकाए
बैठ गुड़िया पढ़ने इसमें
इधर उधर अब ध्यान न जाए
चमका देगी जीवन को तेरे
रोशनी जो पुस्तक पर आए
डटी रह तब तक मेहनत पर
जब तक अपनी मंज़िल पाए
इसके थोड़े प्रकाश से  ही
कल तू पूरा जग चमकाए
मेरी छोटी गुड़िया रानी
एक दिन बड़ी अफ़सर बन जाए
                       
 प्रीति चौधरी
 ज़िला -अमरोहा
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सिंहासन पर बैठा टमाटर,
पास खड़े हैं मूली, गाजर।
मस्ती करते गोभी, आलू,
बैंगन, शलजम, प्याज, रतालू।
लौकी, तोरी, भिन्डी,चचींडे,
मटर, लोबिया, सेम और टिंडे।
मेथी, पालक,मिर्ची न्यारी,
कद्दू कटहल की पहरेदारी।
परवल ने आवाज लगाई।
इठलाती बीन्स भी आई।
करेले को क्यों भूले भाई,
अनेक रोगों की एक दवाई।

डाॅ० सुधा सिरोही
मुरादाबाद
9457038749
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मछली रानी, मछली रानी,
कितना गहरा नदी में पानी।
राज जरा जल के खोलो                                     तुम तो हो जल की ज्ञानी।
                मछली रानी-----

जल में कौन विचरता है,
जो जल को मैला करता है।
सबक सिखा दो उसको रानी,
जो जल से करता मनमानी।
                मछली रानी-----

मछली बोली सुनो कहानी,
हाँ मै थी जल की ही रानी।
कीड़े मकौड़े खाती थी।
जल को स्वच्छ बनाती थी।   
साफ था सब नदियों का पानी
            मछली रानी-------
                                                                  शुरू हुई जल से मनमानी,                                    नदी में छोड़ा  गन्दा पानी।
नही किसी ने की निगरानी,
किसी ने मेरी बात न मानी।                 
फिर कैसे मैं जल की रानी?
जब तक साफ, हो न पानी,                                          मुझे न बोलो जल की रानी।


कमाल ज़ैदी "वफ़ा"
सिरसी (सम्भल)
9456031926
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 मेरी टीचर सबसे प्यारी
 रोजाना  मुझें पढ़ाती है

  बातें करती ज्ञान की
 कहानी-कविता सुनाती है

सदा बडों का आदर करना
 सबक हमें सिखाती है

मानवता का पाठ पढाकर
अच्छा इंसान बनाती है

आपस में सब मिलकर रहना
    सीख यही सिखाती है

  सदा ही आगे बढ़ते रहना
   हौसला हरपल बढ़ाती है

  खेल- खेल में  संग हमारे
  खुद भी बच्चा बन जाती है

   मेरी टीचर सबसे प्यारी
   इसलिए मुझको भाती है

स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
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 मैं फलों का राजा हूँ
 तपती गर्मी में आता हूँ

 बच्चें ,बड़े सब मेरे दीवाने
 खाकर मुझें झूमें मस्ताने

कच्चा रहकर आचार बनाऊँ
पकने पर सबके मन को भाऊँ

मुझसे बनते अनेक पकवान
जो खायें बन जायें बलवान

सृष्टि प्रज्ञा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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छुक - छुक रेल चली
       हम बच्चों की रेल चली
भक - भक धुआँ देती
        खट - खट चलती रहती ।।
देखो - देखो टी टी आया  ( 2 )
        अपना टिकट निकाल लो  ( 2 )
छुक - छुक  - -- - - -- -- - -
 देखो - देखो स्टेशन आया  ( 2 )
          अपना बैग संभाल लो  ( 2 )
छुक - छुक  - - - - - - - - - -
वो देखो पकौड़े वाला आया  ( 2 )
       अपने पैसे निकाल लो  ( 2 )
गरम पकौड़े खा लो  ( 2 )
छुक - छुक - - - - - - - - -
 देखो देखो गाँव आया  ( 2 )
      हरा भरा इक खेत भी आया  (2 )
खिड़की से निहार लो  ( 2 )
छुक - छुक रेल चली
           हम बच्चों की रेल चली ।।।

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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प्यारे बच्चों जल्दी आओ
मिलजुल कर  रेल बनाओ
चन्नू बनेगा इसमें इंजन
बाकी सब डिब्बे बन जाओ
रामू तुम ड्राइवर बन जाओ
गुड्डू तुम सीटी बजाओ
इस रेल को तेज दौडाओ।
छुकछुक छुकछुक रेल चली
हम बच्चों की रेल चली।।

डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
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मामा सबसे प्यारे
मां की आँख के तारे

हमको शाम की सैर कराते
नानी के घर जब हम  जाते
चाट पकोड़े जी भर खाते
हमको मस्ती खूब कराते।
लाड़ प्यार से रखते हमको
हम पर जीवन बारें।
मामा .......

रक्षाबंधन भाईदूज पर
मां को लेने आते
हमको भी उपहार मिठाई
संग में अक्सर लाते
जल्दी लेने आना हमको
होंगे ऋणी तुम्हारे
मामा ......
डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद
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कब तक बने रहे हम बच्चे,
काम सदा करते हम अच्छे।
ये सारी दुनिया झूठी है।
हम बच्चे ही हैं बस सच्चे।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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मम्मी-डैडी!यह बतलाओगे
कब जायेंगे हम स्कूल,
घर में अब तो बोर हो गये
पढ़ने में कैसे मन लागे ।

मोबाइल पर अब मे'म पढातीं
आँखे थक कर चूर हो गयीं,
कोई दोस्त नहीं अब मिलता,
सारे तो आन-लाईन हो गये।

तुम भी झुझंला जाती हम पर,
जब हम कुछ कुछ समझ न पाते ,
मोबाइल अब दोस्त हो गया
दोस्त भी जो,लड़ना ना जाने।

दादा-दादी, नानी-नाना सभी
तो अब आन-लाईन हो गये;
न मामा, न चाचा आयें,
सब के सब अनजान हो गये।

अब क्यों डांटोगी तुम  मम्मी
मोबाइल पर आन-लाइन पढूंगा
जन्मदिन उपहार अब पापा,
मोबाइल ही देना होगा।

उमाकान्त गुप्ता
मुरादाबाद
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मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की दस ग़ज़लों पर ''मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा ------



वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' श्रृंखला के अन्तर्गत  मुरादाबाद के मशहूर नौजवान  शायर ज़िया ज़मीर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले ज़िया ज़मीर द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं-

*(1)*

होंठों पे रक्खा था तबस्सुम आंखों में नमनाकी थी
अपना पागल कर देने कि यह उसकी चालाकी थी

मैंने हंसकर डांट दिया था प्यार के पहले शब्दों पर
उसने फिर कोशिश ही नहीं की, वो ख़ुद्दार बला की थी

उसके जैसे, उससे अच्छे और भी आए जीवन में
हमको जिसने दास बनाया वो उसकी बेबाकी थी

पत्थर मार के चौराहे पर इक औरत को मार दिया
सब ने मिलकर फिर यह सोचा उसने ग़लती क्या की थी

उसकी नम आंखों में हमने सैर जो की थी सारी रात
सुब्ह हुई तो ख़ुद से बोले क्या अच्छी तैराकी थी

इक बच्ची ने उस बच्चे पर अपना मफलर डाल दिया
बड़े मगर यह सोच रहे थे किसकी यह नापाकी थी

रोज़े-महशर पूछेंगे तो  उसका  क्या  मा'बूद हुआ
सारी उम्र तड़प कर हमने तुझसे एक दुआ की थी

*(2)*

दिल दुखने से आंखों में जो गहराई बनेगी
यारों  के  लिए  वज्हे - मसीहाई  बनेगी

पहले तिरे चेहरे को किया जाएगा रोशन
हैरत  के  लिए  फिर  मिरी  बीनाई  बनेगी

देखेगा  ता'ज्जुब  से  बहुत  देर  उसे  दिल
जब ज़ेहन के ख़ुश रखने को दानाई बनेगी

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम
बैठेंगे  कभी  साथ  तो  तन्हाई  बनेगी

मैं इश्क़ के हासिल की बनाऊंगा जो तस्वीर
तस्वीर  बनेगी  नहीं, रुसवाई  बनेगी

दुनिया ही लगाएगी तमाशा यहां हर रोज़
दुनिया  ही  तमाशे  की  तमाशाई  बनेगी

चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शेर कहूंगा
तख़लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया-पैमाई बनेगी

*(3)*

वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी
हाथों  में  लिए  बैठी  है  तस्वीर  हमारी

आँखों से पढ़ा करते हैं सब, और वो लड़की
होंठों  से  छुआ  करती  है  तहरीर  हमारी

जो ज़ख़्म थे सूखे हुए रिसने लगे फिर से
यह किसने हिलायी भला ज़ंजीर हमारी

वो शख़्स कि बुनियाद का पत्थर था हमारा
वो  ऐसा  गया  हिल  गयी  तामीर  हमारी

ये  ख़्वाब  हमारे  हैं  यही  दुख  हैं  हमारे
ले  जाए  कोई  हम  से  ये  जागीर  हमारी

ये शेर  जो सुनते  हो, ये जज़्बे  हैं हमारे
तुम तक भी पहुंच जाएगी तासीर हमारी

वो ख़्वाब 'ज़िया' देखा कि कहते नहीं बनता
सुनने को ग़ज़ल  आऐ थे ख़ुद 'मीर' हमारी

*(4)*

पास  मिरे  ले आए उसको
कोई ज़रा समझाए उसको

बाग़ की ख़ुन्क हवा से कहियो
और  ज़रा  महकाए  उसको

जब वो किनारे आकर बैठे
दरिया गीत सुनाए उसको

जाने क्या कहना था उससे
जाने क्या कह आए उसको

जिस शय की भी दुआ करे वो
हर वो शय मिल जाए उसको

सर्दी  में  वो  कांप  रही है
कोई पिला दे चाय उसको

है यह बस उसका ही जादू
जो  खोए  वो  पाए उसको

*(5)*

दुशमने-जाँ  है मगर  जान  से  प्यारा भी है
ऐसा इस एहद में इक शख़्स हमारा भी है

जागती आँखों ने देखे हैं तिरे ख़्वाब ऐ जाँ!
और  नींदों  में  तिरा  नाम  पुकारा  भी  है

वो बुरा वक़्त कि जब साथ न हो साया भी
बारहा  हमने  उसे  हँस  के  गुज़ारा  भी  है

जिसने मँझधार में छोड़ा उसे मालूम नहीं
डूबने वाले को तिनके का सहारा भी है

हमने हर जब्र तिरा हँस के सर-आँखों पे लिया
ज़िन्दगी तुझ  पे  ये  एहसान  हमारा  भी  है

मत लुटा देना ज़माने पे ही सारी खै़रात
मुंतज़िर हाथ में कशकोल हमारा भी है

नाम सुनकर मिरा उस लब पे तबस्सुम है 'ज़िया'
और  पलकों  पे  उतर  आया  सितारा  भी  है

*(6)*

जाने वाला कब बेज़ार रहा होगा
रोकने वाला ही लाचार रहा होगा

आंखों  की हैरानी देख के लगता है
मंज़र कितना पुर-असरार रहा होगा

हम  जो इतनी  नफ़रत पाले बैठे हैं
हम में यक़ीनन बेहद प्यार रहा होगा

एक ज़रा सी बात पे पेड़ पे झूल गया
मरने  वाला  इज़्ज़त-दार  रहा  होगा

यह जो बूढ़ा चौखट पर आ बैठा है
घर के लिए शायद बेकार रहा होगा

पेड़ की लाश पे पंछी आकर बैठ गए
यह  शायद  इनका घर-बार रहा होगा

इसकी मौत पे कोई भी ग़मगीन नहीं
लम्बे  अरसे  से  बीमार  रहा  होगा

*(7)*

इक बीमारी सोच रखी है एक मसीहा सोच रखा है
उम्र गुज़ारी की ख़्वाहिश में देखो क्या क्या सोच रखा है

वस्ल की रात में सबसे पहले क्या उससे मांगा जाएगा
उस चश्मे वाली लड़की का हमने चश्मा सोच रखा है

इश्क़ का जो अंजाम है मुमकिन उसके रद्दे-अमल में हमने
एक  उदासी  सोच  रखी है एक ठहाका  सोच  रखा  है

आंखों  के  नीचे  के   घेरे  और  भी  गहरे  लगने  लगे हैं
सोचने वाली बात को हमने कितना ज़ियादा सोच रखा है

देखें पार उतर जाने की ख़्वाहिश किसकी पूरी होगी
तुमने  सोच  रखी है  कश्ती हमने दरिया  सोच रखा है

वो जो हंसने-हंसाने वाला उठ कर जाने ही वाला है
नम आँखों ने उसके लिए बस एक इशारा सोच रखा है

इस रिश्ते में कितना सुख है और छुपा है दुख भी कितना
उसको  सोच रखा है  दरिया ख़ुद को प्यासा सोच रखा है

*(8)*

रोज़ जैसी नहीं उजलत हो तो हम तुझसे कहें
तुझको दुनिया से फ़राग़त हो तो हम तुझसे कहें

तुझसे इक बात कई रोज़ से कहनी थी हमें
हां अगर तेरी इजाज़त हो तो हम तुझसे कहें

क्या कहें तुझसे कि दिखता नहीं तुझ सा कोई
तेरे जैसी कोई  सूरत हो तो  हम तुझसे  कहें

दूसरे  इश्क़  की  ख़्वाहिश  है अगर तू चाहे
यानी तेरी भी ज़रूरत हो तो हम तुझसे कहें

ये जो दुनिया है इसे हम से शिकायत है बहुत
इसमें पोशीदा सियासत हो तो हम तुझसे कहें

जो नहीं तू ने दिया उसका बदल चाहते हैं
ऐ ख़ुदा रोज़े-क़यामत हो तो हम तुझसे कहें

*(9)*

तक रहा है तू आसमान में क्या
है अभी तक किसी उड़ान में क्या

वो जो एक तुझ को जां से प्यारा था
अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या

हो ही जाते हैं जब जुदा दोनों
फिर ताल्लुक है जिस्मो-जान में क्या

हम क़फस में हैं उड़ने वाले बता
है वही लुत्फ आसमान में क्या

हम तो तेरी कहानी लिख आए
तूने लिक्खा है इम्तहान में क्या

क्या नहीं होगी फिर मेरी तकमील
कोई तुझ सा नहीं जहान में क्या

*(10)*

अभी से इश्क़ कब अगला हमारा चल रहा है
अभी  तो  पहले वाले का ख़सारा चल रहा है

मुहब्बत में कहें क्या सुस्त रफ़्तारी का आलम
कि इक बोसे  में इक हफ्ता हमारा चल रहा है

गली  में  धीरे-धीरे  चल  रहे हैं रात में हम
हमारी चाल में छत पर सितारा चल रहा है

ये ख़्वाहिश है कि घर में हो अलग क़ुरआन अपना
है  तब  यह  बात  जब  पहला  सिपारा चल रहा है

कोई इक बात है जिसके सबब झगड़ा है ख़ुद से
सहारा  है  मगर  दिल  बेसहारा  चल  रहा  है

गयीं लेहरों के पैरों के निशां उभरे हुए हैं
नदी ख़ामोश है लेकिन किनारा चल रहा है

हमें महफ़िल से लौटे हो  चुका है वक़्त काफ़ी
मगर आखों में अब भी इक इशारा चल रहा है

इन ग़ज़लों पर चर्चा करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने चर्चा शुरू करते हुए कहा कि 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' के पटल पर मेरे प्रिय युवा शायर ज़िया ज़मीर की ग़ज़लें चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं। इतना कह सकता हूँ कि ग़ज़ल की बहुत बड़ी विरासत की वे बेहद संभावना भरी सुबह की ताज़गी भारी किरन हैं, जिससे आँगन उजालों से भर जायेगा। जिसकी शायरी पर यहाँ के तमाम हिंदी और उर्दू के कवियों तथा शायरों को नाज़ होगा।
आलमी शोहरत याफ्ता शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मुझे खुशी है कि ज़िया की ग़ज़ल में बहुत निखार आया है। उनकी फिक्र खूब रौशन हुई है।  उनका लहजा मजबूत हुआ है। उनके ख़्वाबों की विश्वसनीयता मुखर हुई है और ज़िया के प्रशंसकों में बहुत इज़ाफा हुआ है। उनके इस बौद्धिक उन्नयन के दो कारण मेरे नज़दीक बहुत उजले हैं। एक तो यह कि उनकी प्रतिभा सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं है।  उनके अंदर एक शायर के साथ एक समझदार आलोचक, एक कल्पनाशील कहानीकार और एक ज़बरदस्त मानवतावादी विचारक भी छुपा हुआ है। जो समय-समय पर जब बाहर आता है तो समाज और साहित्य में उनकी इज़्ज़त और मान्यता का गवाह बन जाता है। ज़िया ने ग़ज़ल की सदियों पुरानी परम्परा से अपनी ग़ज़ल, अपनी शब्दावली और अपनी शैली को बचाकर अपना नया रास्ता बनाने की कोशिश की है।  वो अपने ही बनाये हुए रास्ते पर बहुत हौसले के साथ चल रहे हैं।
प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि ज़िया ने कम समय में अदब के क्षेत्र में जो कमाया है, वो बड़ा ही सराहनीय है। ज़िया सौभाग्यशाली हैं कि उनके पास पिता रूप में ज़मीर दरवेश साहब जैसी अदबी व्यक्तित्व की पूंजी मौजूद है। पूंजी खरी और पर्याप्त हो तो निवेश के परिणाम भी अच्छे ही होते हैं। ज़मीर दरवेश साहब के साहित्यिक निवेश का उनके पास ज़िया रूप में सुखद परिणाम मौजूद है। ज़िया की भाषा बतियाने की भाषा है। यही भाषा सर्वाधिक हृदयग्राही रही है। यद्यपि कुछ शब्द कठिन भी प्रयोग में आए हैं। यह व्यक्ति-व्यक्ति के शब्द भंडार को भी दर्शाता है और इसका भी मोह बना ही रहता है। बात का पहुंचना ज़रूरी है, वह पहुंच रही है। मुरादाबाद की शायरी का बेहतरीन भविष्य ज़िया की खुशबू में झलकता है। नामी शायर होने की संभावनाएं उनमें दीख रही हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि ज़िया की ग़ज़लें दिल को छू गई हैं। ज़िया को पढ़ना और सुनना दोनों ही अनुभव अपने में बेमिसाल हैं। ज़िया के कलाम पर क़लम चलाना आसान नहीं है। दस ग़ज़लें दस पेज मांगती है।  हर ग़ज़ल बहुत सादगी से बड़ी बात कह देती है।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों पर कुछ लिखने के लिये मुझे स्वास्थ्य और समय के साथ-साथ ग़ज़ल के बारे में पी.एच.डी. दरकार है। ज़िया ज़मीर माशाअल्लाह अपनी उम्र से बड़े शायर हैं।  ग़जल महबूब से बात करने का नाम है और ज़िया ने ख़ूब ग़ज़ले कहीं हैं यानि महबूब से ख़ूब गुफ़्तुगू की है। उनकी गज़लों में सादगी के साथ बला की पुख़्तगी है। उनकी ग़जलों मे सादा अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल पाठक का मन मोह लेता है। शब्दों को नये साँचें में ढालने का हुनर ज़िया बख़ूबी जानते हैं और उन्होनें अपनी ग़ज़लों में ये प्रयोग ख़ूब किये हैं। आने वाला समय निश्चित रूप से इस मनभावन शायर का है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि ज़िया ज़मीर मोहब्बतों के शायर हैं। उनके यहां आसपास हो रही घटनाओं के शब्द चित्र मिलते हैं। वो जैसा देखते हैं वैसा ही अपने शेरों में बयान कर देते हैं, बग़ैर किसी लाग-लपेट के। समाज के प्रति एक रचनाकार की प्रबल ज़िम्मेदारी होती है और उस ज़िम्मेदारी का निर्वहन ज़िया ज़मीर साहब बख़ूबी कर रहे हैं। एक-दो नहीं, ऐसे बहुत से शेर हैं जो उन्हें शायरी की रिवायत से एक अलग क़तार में खड़ा करते हैं, जहां सामाजिक चिंतन की वास्तविक ऊंचाइयां मिलती हैं, जहां प्रेम मिलता है, जहां आपसी भाईचारा मिलता है। उनकी ग़ज़लें ज़िंदगी की आड़ी-तिरछी गलियों से गुज़रते हुए बहुत-से मौसमों का सामना करती हैं। कामना करता हूं कि उनकी ग़ज़लों में सामाजिक ऊंचाइयों का चिंतन इसी प्रकार बना रहे।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज ने कहा कि ज़िया ज़मीर एक बा-सलाहियत, होनहार और जवाँ-साल शायर हैं। शायरी का ज़ौक़ विरासत में उन्हें मिला। उन के वालिदे गिरामी जनाब ज़मीर दरवेश जदीद लबो लहजे के बा-वक़ार शायर हैं। ज़िया की शायरी वही इश्क़, वही मुहब्बत, वही प्यार वही अटखेलियों और वही नाज़ो-नियाज़ वाली शायरी है जिससे उर्दू ग़ज़ल इबारत है। जहाँ महबूब से गुफ़्तुगू होती है या महबूब की गुफ़्तुगू होती है। उन्होंने अपनी ग़ज़ल के लिए जो रास्ता चुना है वो बहुत खूबसूरत, बहुत पुरकशिश है।
वरिष्ठ कवि  डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि अपने शेरों के जरिए ज़िया ज़मीर सूखे हुए जख्मों को जहां हरा कर देते हैं। वहीं ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों की ओर भी बड़ी मासूमियत के साथ इशारा करते हुए सोए हुए 'ज़मीर' को जगाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। कई शेर तो वाक़ई आंखों के नीचे के घेरे और भी गहरे कर देते हैं ।आपकी शायरी पर विद्वतजनों ने इतना कुछ लिख दिया है कि अब कुछ लिखने को बाकी ही नहीं रह गया।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि ज़िया ज़मीर जी के साहित्यिक ख़ज़ाने में से दस ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। सभी एक से बढ़कर एक हैं। ज़िया जी जैसे अपने आप सहज, सरल हैं वैसे ही उनकी ग़ज़लें भी गहरी से गहरी बात को भी एकदम सहजता से कहने का सलीक़ा रखती हैं और ज़हन में उतरती चली जाती हैं। बहुत सारी गोष्ठियों में उनके साथ मंच पर सहभागिता की। उनकी प्रस्तुति, सुनाने का अंदाज़ भी एकदम अलग है और प्रभावित करता है।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों से गुज़रते हुए कुछ-कुछ ऐसा आभास होता है कि जैसे ये ग़ज़लें रूह के रू-ब-रू होने की स्थिति में ही कही गईं हैं। उनकी ग़ज़लों की यह विशेषता है कि उनकी ग़ज़लें पढ़ने में भी उतनी ही प्रभावशाली होती हैं जितनी सुनने में। उनकी ग़ज़लों में भाषाई सहजता के कारण मन को छू लेने वाले शेर देर तक मन-मस्तिष्क पर छाये रहते हैं। मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत उनकी सभी दस ग़ज़लें पाठकों को मंत्रमुग्ध तो करती ही हैं, मुरादाबाद की ग़ज़ल परंपरा के सुनहरे भविष्य का प्रमाण भी देती हैं।
समीक्षक डॉ आसिफ हुसैन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बड़ी रचनात्मक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। शायरी इन्हें घुट्टी में मिली है। इनके पिता श्री ज़मीर दरवेश साहब की गिनती उस्ताद शायरों में होती है। एक बड़ी खू़बी उनकी ज़ुबान की सादगी और सरलता है। वो आम भाषा का इस्तेमाल करते हैं और लकीर का फकी़र नहीं बना रहना चाहते, बल्कि ज़रूरत के मुताबिक़ रदीफ़ और क़ाफ़िया बना लेने की भी सलाहियत रखते हैं। दूसरी मिसाल उनकी शायरी में रोज़मर्रा का इस्तेमाल भी है जैसे- होठों पर तबस्सुम रखना, पागल कर देना, बला की खुद्दार, दास बनाना, तड़पकर दुआ करना, होठों से छूना, बुनियाद का पत्थर आदि। तीसरी खूबी यह कि वो अक्सर शब्दों की तकरार से अपने शेरों में हुस्न पैदा करते हैं। चौथी खूबी यह है कि वो अक्सर शेर के दोनों मिसरों की शुरुआत एक ही लफ़्ज़ से करते हैं। यह बात बिना झिझक कही जा सकती है की ज़िया ज़मीर साहब का अपना रंग-ओ-आहंग, अपना लहजा और अपनी फिक्र है, जो उन्हें अलग पहचान दिलाती है। इनका मुस्तक़बिल रोशन और ताबनाक है।
समीक्षक डॉ रबाब अंजुम  ने कहा कि उर्दू की चाशनी में डूबी उर्दू की ख़ुशबू और तहज़ीब से संवरी हिन्दी की सुन्दरता के साथ पेश की गईं ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की अलम-बरदार ग़ज़लें हैं, जो दिल को छू गयीं। बहुत सादगी के साथ आम मज़ामीन को ग़ज़ल के पैराए में बड़ी महारत के साथ पेश किया है ज़िया साहब ने। बहुत बहुत मुबारकबाद।
युवा शायर राहुल शर्मा   ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि जैसे कोई बंजारा सूने जंगल में रबाब के तारों पर एक बेहद मीठी धुन छेड़ता हुआ चला जा रहा है। ऐसा लगता है कि पर्वत के इस पार बैठा हुआ कोई फरहाद उस तरफ बैठी हुई शीरीं को पुरज़ोर मोहब्बत से भरे लहजे में पुकार रहा हो। असली ग़ज़ल-गोई मेरी नज़र में यहीं से शुरू होती है। नाज़ुकी और बात कहने का सलीक़ा उर्दू शायरी की एक ख़ास विशेषता है जो कि ज़िया ज़मीर के यहां पूरी खूबसूरती से पाई जाती है। ज़िया ज़मीर एक अनंत संभावनाओं वाले साहित्यकार हैं। इनकी शायरी में जितना पैनापन है, गद्य के क्षेत्र में भी उनकी कलम का तेवर अलग ही नज़र आता है।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लों की रिवायत की आत्मा से छेड़छाड़ किए बिना उन्हें अपने हुनर का जामा पहनाया है। इश्क़ उनकी ग़ज़लों का सबसे महबूब मज़्मून रहा है। लेकिन उनके यहाँ का इश्क़ अलैहदा है, संजीदा है, यह 'क्लासिकल मॉडर्न' है। ज़िया ज़मीर ने लगभग प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रचलित बह्रों में ज़ोर-आज़माइश की है और वे इसमें सफल भी हुए हैं। छोटी बह्र में भी वे उतनी ही प्रभावशीलता से अपनी बात रखते हैं जितनी कि बड़ी बह्रों में। फ़लसफ़ा, तसव्वुफ़, और तरक़्क़ीपसंद सोच के वे हामी हैं, यह बात उनकी ग़ज़लों से बख़ूबी ज़ाहिर होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर की शाइरी के अलग-अलग रंग हैं, जिनसे शराबोर होकर क़ारी यक़ीनन ही सोच के नए उफ़ुक़ पर ख़ुद को खड़ा पाएगा।
युवा शायर मनोज वर्मा मनु ने कहा कि ज़िया भाई के मुख़्तलिफ़ कलाम से उनका लहजा, उनकी फ़िक़्र, उनके जज़्बात, उनका अख़लाक़, उनकी साफ़गोई, उनके संजीदगी भरे चुटीले तड़के, और उनका हक़ीक़त पसन्द "ज़मीर", सब अपनी चमक के साथ परिलक्षित होते हैं। गोया कि शेर खुद बताते हैं कि वो ज़िया ज़मीर  के शेर हैं। मोहतरम जनाब ज़मीर दरवेश साहब की ज़ेरे-नज़र, उस आंगन में पले-बढ़े इस तरबीयत के ज़िया की शायरी में अदबी नुख़्स भूसे के ढेर से सूईं तलाशने जैसा है। अपने-अपने तरीके से उनके एक-एक शेर के कई मफ़हूम बताए जा सकते हैं।
युवा शायर फ़रहत अली फरहत अली खान  ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब को जदीद दौर के नयी पीढ़ी के बेहतरीन शायरों में शुमार किया जाता है। इनके हम-अस्र, हम-उम्र और कई बड़े शायर इन की सीनियोरिटी को तस्लीम करते हैं और इन का एहतेराम करते हैं। शेर कहने का इन्होंने अपना एक अलग अंदाज़ डेवेलप किया है जो दूसरों से जुदा है। तग़ज़्ज़ुल का दामन पकड़े-पकड़े ख़्यालों के समुंदर में ग़ोते लगाते हैं। कहीं-कहीं गहरा फ़लसफ़ा भी पिरोते हैं, मगर अक्सर अशआर दुनिया को जैसा इन्होंने देखा उसकी गहरे जज़्बात के साथ तर्जुमानी करते हैं। इस के अलावा एक अच्छे नाक़िद भी हैं, जो अपने शायर की तरह इस दौर के दूसरे नक़्क़ाद से अलग नुक़्ता-ए-नज़र रखते हैं। साथ ही अब तक मैं इन के दो अफ़साने भी पढ़ चुका हूँ। इनको दो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देख चुका हूँ। इस सिन्फ़ में भी ये बहुत उम्मीदें जगाते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि आज स्वयं इस ऐतिहासिक साहित्यिक चर्चा के सूत्रधार एवं लोकप्रिय शायर भाई ज़िया ज़मीर जी की रचनाएं पटल पर प्रस्तुत की गयी हैं। भाई ज़िया ज़मीर जी ऐसे लोकप्रिय शायरों में से एक हैं जिनकी लेखनी से निकली रचनाओं ने मुझ जैसे अल्प ज्ञानी के अन्तस को भी सदैव स्पर्श किया है। अपनी दिल जीत लेने वाली शायरी से मुरादाबाद की कीर्ति में चार चाँद लगाने वाले, शायरी के इस सशक्त हस्ताक्षर को मेरा बारम्बार प्रणाम।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में अपनी भी बात की और समाज की भी। ग़ज़लों की ख़ास बात है बह्र का बदलाव। अलग-अलग बह्र की ग़ज़लों में शब्दों का बहाव। किसी एक ग़ज़ल से कोई एक या दो शेर चुनना मुश्किल काम है। कुल मिला कर ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में ज़िंदगी की सच्चाईयों का सफर करा दिया है। दुआ है कि क़लम की रोशनाई की रंगत बढ़ती रहे और फिर इसी तरह के कलाम पढ़ने को मिलें।
युवा समीक्षक डॉ अज़ीम उल हसन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें पढ़ीं और पढ़कर यक़ीन भी हो गया कि मुरादाबाद में ग़ज़ल का मुस्तक़बिल काफ़ी रोशन है। आप ग़ज़लों में सादा ज़बान का इस्तेमाल करते हैं, जिस से शेर आसानी से ज़बान पर रवां हो जाते हैं। कहीं कहीं शेरो में तसव्वुफ़ की झलक भी नुमायां है। ग़रज़ यह कि ज़िया साहब की ग़ज़लों में इश्क़ की चाशनी के साथ-साथ ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयां भी हैं जो कहीं न कहीं आज के इंसान के ज़मीर पर तंज़ की करारी चोट करती हुई नज़र आती हैं।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट नेे कहा कि एक व्यक्ति के रूप में शालीन, खुशमिजाज़, मिलनसार और उदार सोच वाले ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें जब भी पढ़ीं, ऐसा लगा है कि ग़ज़ल हमसे बतिया रही है। सहज, सरल, दैनिक बोलचाल की भाषा में, दैनिक सन्दर्भों का प्रयोग करते हुए भी ग़ज़ल की गरिमा और क्वालिटी दोनों को बनाये रखते हुए वे न केवल पाठक के दिल में जगह बनाते हैं, बल्कि अपनी विशिष्ट कहन से चौंका भी देते हैं। अपने विशिष्ट अंदाज़े-बयां के कारण उन्हें सुनना भी सुखद होता है।
युवा कवियत्री  मीनाक्षी ठाकुर नेे कहा कि वाक़ई कई कई बार आपकी ग़ज़लें पढ़ी हैं कल से अब तक। वक़्त बीता पर आँखों में आपके लिखे शेर तैर रहे हैं। उर्दू के बेहतरीन अल्फा़ज से सजी ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें बेसाख़्ता दिल में उतरती चली जाती हैं। आपने जिस बेबाकी से ग़ज़लें कही हैं, लगता है कि आमने-सामने बैठकर गुफ्तगू हो रही है। कहीं रुमानियत तो कहीं महबूब को हँसकर धमकाने का अंदाज़ नायाब लगा। आपकी ग़ज़लों के अंदाज़ से लगता है कि आप शायरी को ओढ़ते हैं ,बिछाते हैं, शायरी ही जीते हैं। शायरी  आपके खून में है जो क़लम की स्याही बनकर कागज़ के पन्नो पर ग़ज़ल बनकर जब उतरी तो ग़ज़ब हो गयी। अलग ही भाषाई मिठास लिये हुए सादगी भरा आपका अंदाज़ श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। साफगोई की इंतिहा भीतर तक पाठकों को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। आपकी ग़ज़लों के हर शेर पर एक पन्ना लिखा जा सकता है।

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राजीव प्रखर
मुरादाबाद
मो० 9368011960

सोमवार, 27 जुलाई 2020

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की साहित्यिक संस्था "प्रगति मंगला" ने ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया .....


प्रगति मंगला साहित्यिक संस्था एटा के तत्वावधान में कुरकावली जनपद संभल के यशस्वी गीतकार रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर ऑन लाइन परिचर्चा हुई। इस ऑनलाइन साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता आचार्य  डा. प्रेमीराम मिश्र पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष  जे. एल.एन. कालेज एटा ने की। मुख्य अतिथि  मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डा. मनोज रस्तोगी  रहे।  संयोजक उमाशंकर राही ने संचालन किया। संस्थापक बलराम सरस ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश डाला ।

आचार्य डा. प्रेमी राम मिश्र ने कहा कि रामावतार त्यागी  उस पीढ़ी के श्रेष्ठ कवि हैं जिसे हम रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, गोपाल सिंह नेपाली, नरेंद्र शर्मा, डॉ शिवमंगल सिंह सुमन ,देवराज दिनेश, वीरेंद्र मिश्र आदि के रूप में स्मरण करते हैं ।वह अपने समय के सर्वाधिक मुखर कवि के रूप में विख्यात रहे। उनका योगदान गीत के ही क्षेत्र में नहीं गद्य लेखन और पत्रकारिता में भी रहा है ।
मुख्य प्रस्तोता के रूप में मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डा. मनोज रस्तोगी ने  रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व और कृतित्व से अवगत कराया तथा  उनके बहुचर्चित गीत प्रस्तुत किये। उन्होंने बताया कि रामावतार त्यागी का जन्म 8जुलाई 1925 को कुकरावली जनपद संभल में एक जमींदार घराने में हुआ था। वह बचपन से ही कविता के तुके मिलाया करते थे।1950 से उनकी रचनाएं नवभारत,नवयुवक जैसे पत्रों में छपने लगीं थीं। आपने शिक्षण कार्य भी किया बाद में कई सम्मानित पत्रों के सम्पादक भी रहे। 1950 में नया खून काव्यसंग्रह, 1958में आठवां स्वर,1959 मैं दिल्ली हूं,1965 गुलाब और बबूल'( 1973), ' गाता हुआ दर्द'( 1982), ' लहू के चंद कतरे'( 1984), 'गीत बोलते हैं'(1986) काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। वर्ष 1954 में उनका उपन्यास 'समाधान' प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त 1957 में  उनकी कृति 'चरित्रहीन के पत्र'  पाठकों के समक्ष आई ।
हास्य व्यंग्य कवि त्यागी अशोका कृष्णम् कुरकावली संभल ने उनके संस्मरण सुनाते हुए बताया कि रामावतार त्यागी का जीवन एक खुली किताब था। वह सरलता से परिपूर्ण और कुटिलताओं से कोसों दूर थे। उन्होंने जो भोगा वही लिखा। आधुनिक गीत साहित्य का इतिहास उनके गीतों की विस्तार पूर्वक चर्चा किए बिना लिखा ही नहीं जा सकता
प्रख्यात नवगीतकार यश भारती माहेश्वर तिवारी मुरादाबाद ने कहा कि रामावतार त्यागी  हिंदी खड़ीबोली के ऐसे रचनाकार हैं जो काव्यत्व के धरातल पर अपने समकालीन बहुत से लोक विश्रुत कवियों से बहूत आगे थे । जमींदराना ठसक और विद्रोह का स्वर उनके निजी व्यक्तित्व के साथ साथ उनकी कविता में भी देखी जा सकती है । इसे हिंदी गीत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता हैकि उनकी अपेक्षा मौलिकता और कम काव्यात्मक पूँजी वाले कई लोग महफ़िल लूटते रहे और त्यागी जी जिस मूल्यांकन के हकदार थे वह उन्हें अभीतक नहीं मिला है ।
प्रख्यात हास्य व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि रामावतार त्यागी  पीड़ा के अमर गायक थे । वह उस उदधि के जैसे हैं जिसकी लहर-लहर में पीड़ा ही पीड़ा व्याप्त है।इन पीड़ाओं के ताप से समुद्र वाष्पीकृत होकर बादल बनके जब बरसता है तो पीड़ाओं की बाढ़ ले आता है। पीड़ाओं की इस बाढ़ से दो-दो हाथ करने नाम है, रामावतार त्यागी।उनका गीत संसारपीड़ाओं की मूसलाधार बरसात से कमाई गई खेती है।
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट  ने विचार रखते हुए कहा- श्री त्यागी जी ने अपने गीतों में जिस तरह से दर्द को जिया है और वह जिस तरह से दर्द को पालते और पुचकारते हैं,साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं क्योंकि जो व्यक्ति अपनी तप की सफलता के परिणाम में चुभन की कामना करे वह साधारण हो भी नहीं सकता।
   मुरादाबाद के ही साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा- रामावतार त्यागी कवि नहीं भारतीय सांस्कृतिक विरासत की चेतना के सोये हुए भावों में पुनर्जागरण का शंख फूंकने वाले मनीषी हैं।
संयोजक उमाशंकर राही वृन्दावन ने बताया कि रामावतार त्यागी ने फिल्मों के लिए भी कई गीत लिखे जिनमें फिल्म 'जिन्दगी और तूफान' 1975 के गीत- एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले' काफी लोकप्रिय हुआ।
  कवि बलराम सरस एटा ने कहा कि रामावतार त्यागी की सभी रचनाएं कालजयी हैं। वह अपनी रचनाधर्मिता से सदैव प्रासांगिक रहेंगे।उनका गीत --
"मन समर्पित तन समर्पित, और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ मातृ-भू तुझको अभी कुछ और भी दूँ " पाठ्य पुस्तकों में भी शामिल हुआ है ।
 संस्था की प्रशासक और साहित्यकार श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ ने विचार व्यक्त करने के बाद रामावतार त्यागी जी तन समर्पित को अपना स्वर प्रदान किया।
वरिष्ठ कवि जयराम जय कानपुर ने भी रामावतार त्यागी के गीत संसार पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उनके गीत हिंदी गीत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं ।
गुड़गांव की डॉ गुंजन शुक्ला ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि स्मृतिशेष रामावतार त्यागी जी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है । उन्होंने उनके एक गीत का अंश भी प्रस्तुत किया ।
गाजियाबाद की कवियत्री सोनम यादव ने भी स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के गीतों पर चर्चा करते हुए कहा कि उनके गीत मन में वेदना भर देते हैं । इसतरह के आयोजनों से नई पीढ़ी को महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
इस संगोष्ठी में मध्य प्रदेश की साहित्यकार डा. परवीन महमूद ने कहा कि देश के प्रख्यात दिवंगत साहित्यकारों पर साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन करके प्रगति मंगला संस्था एक सराहनीय कार्य कर रही है।

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बलराम सरस
संस्थापक
प्रगति मंगला
एटा ,उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष जिगर मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख......दिल को सुकून रूह को आराम आ गया


         ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो खामोशियों की जुबान में बोलती है और फ़िक्र को जज्बे की तराजू में तोलती है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें कहन का सलीक़ा भी ज़रूरी है और छंद का अनुशासन भी। इसीलिए उर्दू साहित्य में ग़ज़ल की अपनी एक अलग और विशिष्ट भूमिका है क्योंकि यह बेहद मीठी विधा है जिसमें मुहब्बत की कशिश का खुशबू भरा अहसास ज़िन्दादिली के साथ अभिव्यक्त होता रहा है। अनेक शायर हुए हैं जिन्होंने अपनी शायरी से हिन्दुस्तान की रूह को तर किया है, जिगर मुरादाबादी भी ऐसे ही अहम शायरों में शुमार होते हैं। अपनी खूबसूरत शायरी के दम पर मुहब्बतों का शायर कहलाने वाले अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी की पैदाइश 6 अप्रैल 1890 को मुरादाबाद में ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य और एक अच्छे शायर जनाब मौलवी अली ‘नज़र’ के यहाँ हुई।
उनका परिवार बेहद ऊँचे घराने से ताल्लुक रखता था, उनके पूर्वज बादशाह शाहजहाँ के यहाँ तालीम दिया करते थे बाद में किन्हीं वज़हों से उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी और वे मुरादाबाद आकर बस गए। मुरादाबाद के मुहल्ला- लालबाग में अमीन साहब वाली मस्जिद के नज़दीक रहने वाले इस महबूब शायर की बीमारी की बज़ह से शिक्षा बहुत साधारण रही, वह अंग्रेज़ी तो नाममात्र को ही जानते थे। बाद में खुद ही पढ़-पढ़कर फ़ारसी के विद्वान बने लेकिन किसी ने कहा भी है कि ‘शायरी इल्म से नहीं आती’। हालांकि पेट पालने के लिए उन्होंने कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे बेचे, कभी कोई और मुलाज़िमत भी की।
जिगर साहब शक्ल-ओ-सूरत के लिहाज़ से ख़ूबसूरत नहीं थे लेकिन उनके इश्कमिज़ाज होने और अलग ढंग से शेर कहने के हुनर के आगे उनकी शक्ल-सूरत के कुछ मानी ही नहीं रह जाते थे। उन्हें प्रेम में कई बार मात भी खानी पड़ी। एक बार आगरे की एक तवायफ वहीदन से दिल लगा बैठे, शादी की लेकिन ज़ल्द ही उनके मिज़ाज से अपना मिज़ाज न मिलने के कारण उनसे शादी तोड़कर संबंध समाप्त भी कर लिया। इसके बाद मैनपुरी की एक गायिका शीरज़न से भी इश्क किया, लेकिन यहाँ भी यह मुहब्बत ज़्यादा दूर तक नहीं जा सकी। बहरहाल इश्क में इतनी नाकामियों के बावजूद जिगर साहब ने इश्क़ को खुद से दूर नहीं होने दिया, हां शराब ने इस नाकाम आशिक को पनाह ज़रूर दी। बकौल जिगर- ‘मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादां/जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब उठा/किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़/मैं अपना जाम उठाता हूँ, तू किताब उठा।’ एक बार मशहूर गायिका अख़्तरी बाई फैजाबादी (बेगम अख़्तर) के शादी के पैग़ाम को भी जिगर ठुकरा चुके थे। बाद में शायर ‘असगर’ गौंडवी साहब की साली से जिगर साहब की शादी भी हुई जो आखिर तक चली भी।
अली सिकंदर से जिगर मुरादाबादी हो जाने तक की यात्रा इतनी आसान भी नहीं रही। जिगर साहब को शायरी अपने दादा और वालिद से विरासत में मिली लिहाज़ा उन्होंने लड़कपन में यानि कि तेरह-चौदह साल की उम्र में ही शे’र कहने शुरू कर दिए थे। शुरूआती दौर में अपने अश्’आर अपने वालिद ‘नज़र’ साहब को ही दिखाते थे और इस्लाह भी करवाते रहे, बाद में वह अपनी ग़ज़लें उस्ताद शायर ‘दाग़’ देहलवी, मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को भी दिखाया करते थे। उम्र में जिगर साहब से महज 6 साल बड़े मशहूर शायर ‘असगर’ गौंडवी की संगत से उनकी शायरी में सूफ़ियाना रंग और ज़यादा चमककर उभरा, हालांकि डॉ. मोहम्मद आसिफ़ हुसैन अपनी किताब ‘मुरादाबाद में ग़ज़ल का सफ़र’ में बताते हैं कि ‘जिगर की शायरी में कोई दर्शन नहीं है बल्कि व्यवहारिकता है। वह सुनी-सुनाई बातों पर शायरी नहीं करते बल्कि उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ देखा, सोचा, समझा और जो कुछ उनके साथ घटित हुआ, उसे उन्होंने अपने शे’रों में पेश करने की कोशिश की।’ बहरहाल, जिगर की ग़ज़लों के ये शे’र आज भी लोगों के दिलो-दिमाग़ में बसते हैं जो उन्हें बड़ा और अहम शायर बनाते हैं-
अगर न ज़ोहरा ज़बीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गु़ज़रे

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दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैगाम आ गया
दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया

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आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा गुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का कुसूर था

सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि ‘उर्दू शायरी में जिगर मुरादाबादी का अपना एक अलग और ऊँचा मुकाम है। कुतुब अली शाह से लेकर आज तक मुहब्बत की शायरी हुई है लेकिन जिगर की शायरी में मुहब्बत के मानी रूहानी भी हैं और दो दिलों के बीच पसरी धड़कनों की ज़मीन भी, उनकी ग़ज़लों में मुहब्बत के जितने रंग हो सकते हैं सब मौजूद हैं।’
      वहीं जिगर फाउंडेशन मुरादाबाद के सद्र और मशहूर शायर मंसूर उस्मानी कहते हैं कि ‘जिगर मुहब्बत के शायर थे, मुहब्बत जो इंसानियत की आत्मा है। हुस्न-ओ-इश्क और शराब की मस्ती में लिखने वाले शायर के तौर भी जिगर को जाना जाता है लेकिन यह सच है कि उनकी शायरी का एक पक्ष आध्यात्मिक भी है।’
जिगर साहब का शे’र पढ़ने का अन्दाज़ बेहद जादूभरा था और तरन्नुम लाजबाव। जिगर साहब के शेर पढ़ने के ढंग से उस दौर के नौजवान शायर इतने ज़यादा प्रभावित थे कि उनके जैसे शेर कहने और उन्हीं के अंदाज़ में शे’र पढ़ने की कोशिश किया करते थे। इतना ही नहीं ‘जिगर’ के जैसा होने और दिखने के लिए नए शायर ‘जिगर’ की ही तरह बड़ी-बड़ी बेतरतीब ज़ुल्फ़ें रखते, दाढ़ी बढ़ाते। और तो और उनके पहनावे की भी नकल करते, इसके अलावा ये नौजवान पीढ़ी बेतहाशा शराब भी पीती, सो अलग।
उनके शुरूआती दिनों में एक बार लखनऊ में वहजाद लखनवी ने एक मुशायरा रखा था जिसमें जिगर साहब को भी बुलाया गया था लेकिन पता नहीं किन बजहों से उन्हें पढ़ने नहीं दिया गया। जिगर साहब वहां से बाहर निकल आए और बाहर खड़े होकर अपने अश्’आर तरन्नुम में गाने लगे। देखते ही देखते सारे लोग मुशायरा छोड़कर बाहर आ गए और जिगर साहब को सुनने लगे और देखते ही देखते वहीं मुशायरा हो गया। उनके बारे में एक और किस्सा मशहूर है कि एक बार एक महफ़िल में जिगर साहब शे’र सुना रहे थे। पूरी महफ़िल उनके शेर पर ज़बरदस्त दाद दे रही थी, लेकिन एक साहब शुरू से आखिर तक चुपचाप बैठे रहे मगर आखि़री शेर पर उन्होंने उछल-उछलकर दाद देनी शुरू कर दी। इस पर जिगर साहब ने चौंककर उनकी ओर देखा और पूछा-क्यों जनाब, क्या आपके पास कलम है क्या? उस आदमी ने जवाब दिया, जी हां! है, क्या कीजिएगा? इस पर जिगर ने कहा कि मेरे इस शे’र में ज़रूर कोई ख़ामी रही होगी, वरना आप इतनी उछल-उछलकर दाद न देते। मैं इसे अपनी कॉपी में से काट देना चाहता हूँ।
जिगर साहब के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि उन्होंने अपने एक दोस्त के कहने पर एक फ़िल्म कंपनी में गाने लिखने के लिए एग्रीमेंट किया जिसके तहत उन्हें 10 ग़ज़लें देनी थीं और इसके पारिश्रमिक के रूप में उन्हें कुल 10 हज़ार रुपए दिए जाने थे जो उस ज़माने में एक बड़ी रक़म थी। फ़िल्म कंपनी ने उन्हें 5 हज़ार रुपए एडवांस भी दे दिए। जिगर साहब ने रक़म ली और घर आ गए। उसी रात उन्होंने एक सपना देखा कि गंदगी का एक छोटा-सा पहाड़ है, जिस पर एक शेर बैठा है। पहाड़ की तलहटी में बहुत से लोग इकट्ठा हैं और थोड़ी-थोड़ी देर में वह शेर अपने पंजों से वो गंदगी उछाल रहा है और लोग इस गंदगी से अपना दामन भर रहे हैं। ख़ुद शेर का जिस्म और लोगों के कपड़े, सब उस गंदगी से सन जाते हैं। इसी बीच उनकी आंख खुल गई। सांसें अस्त-व्यस्त थीं और माथे पर पसीना छलक आया था। सुबह हुई, तो जिगर साहब ने एडवांस में मिला रुपया फ़िल्म कंपनी को वापिस कर दिया और फिर कभी भी फ़िल्मी गीत ना लिखने कसम खाई। उन्होंने ख़ुद तो फ़िल्मों में गीत लिखने से परहेज़ किया, किन्तु दूसरी ओर उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी को फ़िल्मों में गीत लिखने के लिए ज़ोर देकर राज़ी कर लिया। लेकिन इसके बावजूद लेखक दिनेश दर्द के एक आलेख में किए गए ज़िक्र के अनुसार 1947 में आई फ़िल्म ‘रोमियो एंड जूलियट’ में जिगर का एक गीत मिलता है, जिसके बोल हैं-‘क्या बताएं इश्क़ ज़ालिम क्या क़यामत ढाए है...’, हालांकि, हो सकता है जिगर ने ये गीत फ़िल्म के लिए नहीं लिक्खा हो, फ़िल्मवालों ने ही जिगर साहब का पहले से लिक्खा हुआ गीत अपनी ज़रूरत के हिसाब से उनसे मांग लिया हो। यहाँ एक अहम बात का ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है कि ‘मदर इंडिया’ फिल्म के मशहूर निर्माता-निर्देशक महबूब खान की हर फिल्म की शुरूआत जिगर मुरादाबादी के शे’र- ‘क्या इश्क ने समझा है क्या हुस्न ने जाना है/हम ख़ाक- नशीनों की ठोकर में ज़माना है’ से ही होती है।
जिगर साहब का पहला दीवान ‘दाग़े-जिगर’ 1921 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद दूसरा दीवान ‘शोला-ए-तूर’ 1923 में अलीगढ़ की मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छपा। 1958 में कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ सामने आया। उनकी किताब ‘आतिश-ए-ग़ुल’ को 1959 में साहित्य अकादमी ने उर्दू की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उन्हें 5000 रुपये का पुरस्कार देकर सम्मानित किया। समूचे मुरादाबाद के लिए यह गर्व का विषय है कि जिगर साहब साहित्य अकादमी से पुरस्कृत होने वाले मुरादाबाद के पहले और अब तक के एकमात्र साहित्यकार हैं। बाद में फिर वह अपनी ससुराल गोंडा चले गए और वहीं बस गए। 9 सितम्बर 1960 को गोंडा में ही हुए उनके निधन से उर्दू शायरी का एक रंग ख़त्म हो गया। उनकी याद में मुरादाबाद में जिगर कॉलोनी, जिगर मंच, जिगर द्वार और जिगर पार्क शासन-प्रशासन द्वारा बनवाए गए हैं, वहीं गोंडा में जिगर गंज नाम से एक कॉलोनी एवं जिगर मैमोरियल इंटर कॉलेज के अलावा मज़ार-ए-जिगर भी है।


जिगर मुरादाबादी की कुछ ग़ज़लें-

(1)
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये

चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये

रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये

आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये

लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ ज़िगर
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये

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(2)
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई

ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई

वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई

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(3)
दिल गया रौनक-ए-हयात गई
ग़म गया सारी कायनात गई

दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई

उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई

मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई

हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई

नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई

क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात जिगर
मौत आई अगर हयात गई

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(4)
मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं

ये कह-कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं

वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं
ख़ुदा जाने क्या ख़याल आ रहे हैं

हमारे ही दिल से मज़े उनके पूछो
वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा करके हम भी तो शरमा रहे हैं

वो आलम है अब यारो-अग़ियार कैसे
हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं

मिज़ाजे-गिरामी की हो ख़ैर यारब
कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं

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(5)
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम

आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम

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(ग़ज़लें कविता कोश से साभार)

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

ए.एल.-49, दीनदयाल नगर-।,
काँठ रोड, मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर - 9412805981

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की काव्य कृति ‘भाव पंछी’ की रजनी सिंह द्वारा की गई समीक्षा

‘‘भाव पंछी जब पंख पसारे, उड़ा कल्पना लोक।
कुछ यथार्थ कुछ अभिनव, ढूंढा रहस्य भूलोक।
शब्दों की गूँथी माला, बेसुध पी रसववन्ती प्याला।
खोज-खोज अक्षर मोती, छन्द्धबद्ध नवनीत आला।
वश में कब रहता मनवा, भावुक कवि अनियंत्रित।
नभ के पार विचर पहुंची ,भाव-पंछी मुग्ध मोहित।’’
          मेरी उपरोक्त  काव्य पंक्तियाँ कवि दीपक गोस्वामी ‘चिराग’ की कृति को आद्योपांत पढ़ने के पश्चात् उमड़ पड़ी। वास्तव में कवि हृदय संवेदनाओं का उमड़ता हुआ सागर है जिसमें अपार बहुमूल्य वेशकीमती रत्नों का ढेर भरा पड़ा है। जितना उसमें डूबा उतना ही खजाना पा लिया। कवि संवेदनाओं के संसार में डूबकर अक्षरों की सुगढ़ माला का गुंठन करता है, उसमें कल्पना लोक की आकर्षक स्वप्निल दृश्यावली के साथ सार्थकता का सम्बन्ध भी अपना स्थान रखता है। साथ ही अपने भोगे, देखे और महसूस किये वातावरण से उत्पन्न आनन्द, उदासी, कलह और विवशता का चित्रण अपनी काव्य-प्रतिमा के सहारे व्यक्त करता है। यह संसार जितना सुकोमल संवेदनाओं से पूरित प्रतिभावान कवि का होगा उतनी ही विकलता उसकी काव्य मंजरी में रची-बसी होगी और पाठक उसे पढ़ने को उत्प्रेरित होगा। दीपक गोस्वामी इस उद्देश्य की पूर्ति करने में काफी हद तक सफल माने जायेंगे। यद्यपि काव्य-प्रतिभा का निखार जीवनभर ऊँचाईयाँ छूता रहता है। गोस्वामी ने अपने प्रथम काव्य-संग्रह में विभिन्न विषयों पर अपनी कलम चलाई है। वर्तमान में समाज को उद्वेलित करने वाली घटनाएँ कवि के मन को छूती हैं।

‘आह कब तक यों जलेंगे, लोग मेरे देश के,
   जुल्म ये कितना सहेंगे, लोग मेरे देश के।            (पृष्ठ 83)

तथा
     यह कैसा धर्मवाद है? यह कैसा कर्मवाद है?
            यह कैसा रे! जिहाद है?                       (पृष्ठ 133)

और -
खाता-पीता है भारत का, फिर भी पाक -पाक चिल्लाय।

दूसरी तरफ प्यार का अहसास कवि निम्न पंक्तियों में उमड़ता है।
            मेरे खत का, जबाब आया है।
            यार खत में, गुलाब आया है।         
 ,(पृष्ठ 67)

एवं -

    रूप की धूप से, पल भर में, पिघल जाओगे।
  उम्र की सीढ़ियाँ, चिकनी हैं, फिसल जाओगे।       (पृष्ठ 70)

            ‘प्रार्थना’ का भोलापन ईश्वर को सदैव प्रिय रहा है।
कवि‘चिराग’ पीछे नहीं हैं, प्रभु से दया मांगने में -

दया करना प्रभो! हम पर, कि तेरा ही सहारा है।
हैं बालक भोले-भाले हम, पिता तू सबसे न्यारा है।        (पृष्ठ 109)
         
उपरोक्त काव्य-धारा दर्शाती है कि कवि ‘गोस्वामी’ के संवेदनात्मक हृदय संसार में भावों का पंछी भटकता हुआ समाज-परिवार-राष्ट्र सबके प्रति कुछ कहने के लिए विकल है। भ्रूण-हत्या से द्रवित कवि पुकार उठता है -

            मत मार मुझे ओ माँ, मैं हूँ तेरी छाया।
            मैं भी दुनिया देखूँ, मन मेरा हर्षाया।

            सहज और सरल भाषा में रचित कविताएं क्लिष्टता से दूर पाठक के मन पर प्रभाव डालती हैं। अन्त में गोस्वामी की एक कविता प्रकृति रानी के सबसे उन्मुक्त उत्सव बसन्त की छटा इस प्रकार मन मोहती है कि कवि गा उठता है -

ओ! बसंत ऋतुराज पधारो, स्वागत आज तुम्हारा है।
मादक मोहक रूप तुम्हारा, सब ऋतुओं से न्यारा है।




* कृति : भाव पंछी (काव्य)
*रचनाकार : दीपक गोस्वामी 'चिराग'
*प्रकाशन :अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद,उ. प्र.
*प्रथम संस्करण : 2017 मूल्य : ₹ 140

*समीक्षक :  रजनी सिंह
रजनी विला, डिबाई
बुलंदशहर, उ. प्र.