मंगलवार, 28 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की दस ग़ज़लों पर ''मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा ------



वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' श्रृंखला के अन्तर्गत  मुरादाबाद के मशहूर नौजवान  शायर ज़िया ज़मीर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले ज़िया ज़मीर द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं-

*(1)*

होंठों पे रक्खा था तबस्सुम आंखों में नमनाकी थी
अपना पागल कर देने कि यह उसकी चालाकी थी

मैंने हंसकर डांट दिया था प्यार के पहले शब्दों पर
उसने फिर कोशिश ही नहीं की, वो ख़ुद्दार बला की थी

उसके जैसे, उससे अच्छे और भी आए जीवन में
हमको जिसने दास बनाया वो उसकी बेबाकी थी

पत्थर मार के चौराहे पर इक औरत को मार दिया
सब ने मिलकर फिर यह सोचा उसने ग़लती क्या की थी

उसकी नम आंखों में हमने सैर जो की थी सारी रात
सुब्ह हुई तो ख़ुद से बोले क्या अच्छी तैराकी थी

इक बच्ची ने उस बच्चे पर अपना मफलर डाल दिया
बड़े मगर यह सोच रहे थे किसकी यह नापाकी थी

रोज़े-महशर पूछेंगे तो  उसका  क्या  मा'बूद हुआ
सारी उम्र तड़प कर हमने तुझसे एक दुआ की थी

*(2)*

दिल दुखने से आंखों में जो गहराई बनेगी
यारों  के  लिए  वज्हे - मसीहाई  बनेगी

पहले तिरे चेहरे को किया जाएगा रोशन
हैरत  के  लिए  फिर  मिरी  बीनाई  बनेगी

देखेगा  ता'ज्जुब  से  बहुत  देर  उसे  दिल
जब ज़ेहन के ख़ुश रखने को दानाई बनेगी

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम
बैठेंगे  कभी  साथ  तो  तन्हाई  बनेगी

मैं इश्क़ के हासिल की बनाऊंगा जो तस्वीर
तस्वीर  बनेगी  नहीं, रुसवाई  बनेगी

दुनिया ही लगाएगी तमाशा यहां हर रोज़
दुनिया  ही  तमाशे  की  तमाशाई  बनेगी

चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शेर कहूंगा
तख़लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया-पैमाई बनेगी

*(3)*

वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी
हाथों  में  लिए  बैठी  है  तस्वीर  हमारी

आँखों से पढ़ा करते हैं सब, और वो लड़की
होंठों  से  छुआ  करती  है  तहरीर  हमारी

जो ज़ख़्म थे सूखे हुए रिसने लगे फिर से
यह किसने हिलायी भला ज़ंजीर हमारी

वो शख़्स कि बुनियाद का पत्थर था हमारा
वो  ऐसा  गया  हिल  गयी  तामीर  हमारी

ये  ख़्वाब  हमारे  हैं  यही  दुख  हैं  हमारे
ले  जाए  कोई  हम  से  ये  जागीर  हमारी

ये शेर  जो सुनते  हो, ये जज़्बे  हैं हमारे
तुम तक भी पहुंच जाएगी तासीर हमारी

वो ख़्वाब 'ज़िया' देखा कि कहते नहीं बनता
सुनने को ग़ज़ल  आऐ थे ख़ुद 'मीर' हमारी

*(4)*

पास  मिरे  ले आए उसको
कोई ज़रा समझाए उसको

बाग़ की ख़ुन्क हवा से कहियो
और  ज़रा  महकाए  उसको

जब वो किनारे आकर बैठे
दरिया गीत सुनाए उसको

जाने क्या कहना था उससे
जाने क्या कह आए उसको

जिस शय की भी दुआ करे वो
हर वो शय मिल जाए उसको

सर्दी  में  वो  कांप  रही है
कोई पिला दे चाय उसको

है यह बस उसका ही जादू
जो  खोए  वो  पाए उसको

*(5)*

दुशमने-जाँ  है मगर  जान  से  प्यारा भी है
ऐसा इस एहद में इक शख़्स हमारा भी है

जागती आँखों ने देखे हैं तिरे ख़्वाब ऐ जाँ!
और  नींदों  में  तिरा  नाम  पुकारा  भी  है

वो बुरा वक़्त कि जब साथ न हो साया भी
बारहा  हमने  उसे  हँस  के  गुज़ारा  भी  है

जिसने मँझधार में छोड़ा उसे मालूम नहीं
डूबने वाले को तिनके का सहारा भी है

हमने हर जब्र तिरा हँस के सर-आँखों पे लिया
ज़िन्दगी तुझ  पे  ये  एहसान  हमारा  भी  है

मत लुटा देना ज़माने पे ही सारी खै़रात
मुंतज़िर हाथ में कशकोल हमारा भी है

नाम सुनकर मिरा उस लब पे तबस्सुम है 'ज़िया'
और  पलकों  पे  उतर  आया  सितारा  भी  है

*(6)*

जाने वाला कब बेज़ार रहा होगा
रोकने वाला ही लाचार रहा होगा

आंखों  की हैरानी देख के लगता है
मंज़र कितना पुर-असरार रहा होगा

हम  जो इतनी  नफ़रत पाले बैठे हैं
हम में यक़ीनन बेहद प्यार रहा होगा

एक ज़रा सी बात पे पेड़ पे झूल गया
मरने  वाला  इज़्ज़त-दार  रहा  होगा

यह जो बूढ़ा चौखट पर आ बैठा है
घर के लिए शायद बेकार रहा होगा

पेड़ की लाश पे पंछी आकर बैठ गए
यह  शायद  इनका घर-बार रहा होगा

इसकी मौत पे कोई भी ग़मगीन नहीं
लम्बे  अरसे  से  बीमार  रहा  होगा

*(7)*

इक बीमारी सोच रखी है एक मसीहा सोच रखा है
उम्र गुज़ारी की ख़्वाहिश में देखो क्या क्या सोच रखा है

वस्ल की रात में सबसे पहले क्या उससे मांगा जाएगा
उस चश्मे वाली लड़की का हमने चश्मा सोच रखा है

इश्क़ का जो अंजाम है मुमकिन उसके रद्दे-अमल में हमने
एक  उदासी  सोच  रखी है एक ठहाका  सोच  रखा  है

आंखों  के  नीचे  के   घेरे  और  भी  गहरे  लगने  लगे हैं
सोचने वाली बात को हमने कितना ज़ियादा सोच रखा है

देखें पार उतर जाने की ख़्वाहिश किसकी पूरी होगी
तुमने  सोच  रखी है  कश्ती हमने दरिया  सोच रखा है

वो जो हंसने-हंसाने वाला उठ कर जाने ही वाला है
नम आँखों ने उसके लिए बस एक इशारा सोच रखा है

इस रिश्ते में कितना सुख है और छुपा है दुख भी कितना
उसको  सोच रखा है  दरिया ख़ुद को प्यासा सोच रखा है

*(8)*

रोज़ जैसी नहीं उजलत हो तो हम तुझसे कहें
तुझको दुनिया से फ़राग़त हो तो हम तुझसे कहें

तुझसे इक बात कई रोज़ से कहनी थी हमें
हां अगर तेरी इजाज़त हो तो हम तुझसे कहें

क्या कहें तुझसे कि दिखता नहीं तुझ सा कोई
तेरे जैसी कोई  सूरत हो तो  हम तुझसे  कहें

दूसरे  इश्क़  की  ख़्वाहिश  है अगर तू चाहे
यानी तेरी भी ज़रूरत हो तो हम तुझसे कहें

ये जो दुनिया है इसे हम से शिकायत है बहुत
इसमें पोशीदा सियासत हो तो हम तुझसे कहें

जो नहीं तू ने दिया उसका बदल चाहते हैं
ऐ ख़ुदा रोज़े-क़यामत हो तो हम तुझसे कहें

*(9)*

तक रहा है तू आसमान में क्या
है अभी तक किसी उड़ान में क्या

वो जो एक तुझ को जां से प्यारा था
अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या

हो ही जाते हैं जब जुदा दोनों
फिर ताल्लुक है जिस्मो-जान में क्या

हम क़फस में हैं उड़ने वाले बता
है वही लुत्फ आसमान में क्या

हम तो तेरी कहानी लिख आए
तूने लिक्खा है इम्तहान में क्या

क्या नहीं होगी फिर मेरी तकमील
कोई तुझ सा नहीं जहान में क्या

*(10)*

अभी से इश्क़ कब अगला हमारा चल रहा है
अभी  तो  पहले वाले का ख़सारा चल रहा है

मुहब्बत में कहें क्या सुस्त रफ़्तारी का आलम
कि इक बोसे  में इक हफ्ता हमारा चल रहा है

गली  में  धीरे-धीरे  चल  रहे हैं रात में हम
हमारी चाल में छत पर सितारा चल रहा है

ये ख़्वाहिश है कि घर में हो अलग क़ुरआन अपना
है  तब  यह  बात  जब  पहला  सिपारा चल रहा है

कोई इक बात है जिसके सबब झगड़ा है ख़ुद से
सहारा  है  मगर  दिल  बेसहारा  चल  रहा  है

गयीं लेहरों के पैरों के निशां उभरे हुए हैं
नदी ख़ामोश है लेकिन किनारा चल रहा है

हमें महफ़िल से लौटे हो  चुका है वक़्त काफ़ी
मगर आखों में अब भी इक इशारा चल रहा है

इन ग़ज़लों पर चर्चा करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने चर्चा शुरू करते हुए कहा कि 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' के पटल पर मेरे प्रिय युवा शायर ज़िया ज़मीर की ग़ज़लें चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं। इतना कह सकता हूँ कि ग़ज़ल की बहुत बड़ी विरासत की वे बेहद संभावना भरी सुबह की ताज़गी भारी किरन हैं, जिससे आँगन उजालों से भर जायेगा। जिसकी शायरी पर यहाँ के तमाम हिंदी और उर्दू के कवियों तथा शायरों को नाज़ होगा।
आलमी शोहरत याफ्ता शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मुझे खुशी है कि ज़िया की ग़ज़ल में बहुत निखार आया है। उनकी फिक्र खूब रौशन हुई है।  उनका लहजा मजबूत हुआ है। उनके ख़्वाबों की विश्वसनीयता मुखर हुई है और ज़िया के प्रशंसकों में बहुत इज़ाफा हुआ है। उनके इस बौद्धिक उन्नयन के दो कारण मेरे नज़दीक बहुत उजले हैं। एक तो यह कि उनकी प्रतिभा सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं है।  उनके अंदर एक शायर के साथ एक समझदार आलोचक, एक कल्पनाशील कहानीकार और एक ज़बरदस्त मानवतावादी विचारक भी छुपा हुआ है। जो समय-समय पर जब बाहर आता है तो समाज और साहित्य में उनकी इज़्ज़त और मान्यता का गवाह बन जाता है। ज़िया ने ग़ज़ल की सदियों पुरानी परम्परा से अपनी ग़ज़ल, अपनी शब्दावली और अपनी शैली को बचाकर अपना नया रास्ता बनाने की कोशिश की है।  वो अपने ही बनाये हुए रास्ते पर बहुत हौसले के साथ चल रहे हैं।
प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि ज़िया ने कम समय में अदब के क्षेत्र में जो कमाया है, वो बड़ा ही सराहनीय है। ज़िया सौभाग्यशाली हैं कि उनके पास पिता रूप में ज़मीर दरवेश साहब जैसी अदबी व्यक्तित्व की पूंजी मौजूद है। पूंजी खरी और पर्याप्त हो तो निवेश के परिणाम भी अच्छे ही होते हैं। ज़मीर दरवेश साहब के साहित्यिक निवेश का उनके पास ज़िया रूप में सुखद परिणाम मौजूद है। ज़िया की भाषा बतियाने की भाषा है। यही भाषा सर्वाधिक हृदयग्राही रही है। यद्यपि कुछ शब्द कठिन भी प्रयोग में आए हैं। यह व्यक्ति-व्यक्ति के शब्द भंडार को भी दर्शाता है और इसका भी मोह बना ही रहता है। बात का पहुंचना ज़रूरी है, वह पहुंच रही है। मुरादाबाद की शायरी का बेहतरीन भविष्य ज़िया की खुशबू में झलकता है। नामी शायर होने की संभावनाएं उनमें दीख रही हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि ज़िया की ग़ज़लें दिल को छू गई हैं। ज़िया को पढ़ना और सुनना दोनों ही अनुभव अपने में बेमिसाल हैं। ज़िया के कलाम पर क़लम चलाना आसान नहीं है। दस ग़ज़लें दस पेज मांगती है।  हर ग़ज़ल बहुत सादगी से बड़ी बात कह देती है।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों पर कुछ लिखने के लिये मुझे स्वास्थ्य और समय के साथ-साथ ग़ज़ल के बारे में पी.एच.डी. दरकार है। ज़िया ज़मीर माशाअल्लाह अपनी उम्र से बड़े शायर हैं।  ग़जल महबूब से बात करने का नाम है और ज़िया ने ख़ूब ग़ज़ले कहीं हैं यानि महबूब से ख़ूब गुफ़्तुगू की है। उनकी गज़लों में सादगी के साथ बला की पुख़्तगी है। उनकी ग़जलों मे सादा अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल पाठक का मन मोह लेता है। शब्दों को नये साँचें में ढालने का हुनर ज़िया बख़ूबी जानते हैं और उन्होनें अपनी ग़ज़लों में ये प्रयोग ख़ूब किये हैं। आने वाला समय निश्चित रूप से इस मनभावन शायर का है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि ज़िया ज़मीर मोहब्बतों के शायर हैं। उनके यहां आसपास हो रही घटनाओं के शब्द चित्र मिलते हैं। वो जैसा देखते हैं वैसा ही अपने शेरों में बयान कर देते हैं, बग़ैर किसी लाग-लपेट के। समाज के प्रति एक रचनाकार की प्रबल ज़िम्मेदारी होती है और उस ज़िम्मेदारी का निर्वहन ज़िया ज़मीर साहब बख़ूबी कर रहे हैं। एक-दो नहीं, ऐसे बहुत से शेर हैं जो उन्हें शायरी की रिवायत से एक अलग क़तार में खड़ा करते हैं, जहां सामाजिक चिंतन की वास्तविक ऊंचाइयां मिलती हैं, जहां प्रेम मिलता है, जहां आपसी भाईचारा मिलता है। उनकी ग़ज़लें ज़िंदगी की आड़ी-तिरछी गलियों से गुज़रते हुए बहुत-से मौसमों का सामना करती हैं। कामना करता हूं कि उनकी ग़ज़लों में सामाजिक ऊंचाइयों का चिंतन इसी प्रकार बना रहे।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज ने कहा कि ज़िया ज़मीर एक बा-सलाहियत, होनहार और जवाँ-साल शायर हैं। शायरी का ज़ौक़ विरासत में उन्हें मिला। उन के वालिदे गिरामी जनाब ज़मीर दरवेश जदीद लबो लहजे के बा-वक़ार शायर हैं। ज़िया की शायरी वही इश्क़, वही मुहब्बत, वही प्यार वही अटखेलियों और वही नाज़ो-नियाज़ वाली शायरी है जिससे उर्दू ग़ज़ल इबारत है। जहाँ महबूब से गुफ़्तुगू होती है या महबूब की गुफ़्तुगू होती है। उन्होंने अपनी ग़ज़ल के लिए जो रास्ता चुना है वो बहुत खूबसूरत, बहुत पुरकशिश है।
वरिष्ठ कवि  डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि अपने शेरों के जरिए ज़िया ज़मीर सूखे हुए जख्मों को जहां हरा कर देते हैं। वहीं ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों की ओर भी बड़ी मासूमियत के साथ इशारा करते हुए सोए हुए 'ज़मीर' को जगाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। कई शेर तो वाक़ई आंखों के नीचे के घेरे और भी गहरे कर देते हैं ।आपकी शायरी पर विद्वतजनों ने इतना कुछ लिख दिया है कि अब कुछ लिखने को बाकी ही नहीं रह गया।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि ज़िया ज़मीर जी के साहित्यिक ख़ज़ाने में से दस ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। सभी एक से बढ़कर एक हैं। ज़िया जी जैसे अपने आप सहज, सरल हैं वैसे ही उनकी ग़ज़लें भी गहरी से गहरी बात को भी एकदम सहजता से कहने का सलीक़ा रखती हैं और ज़हन में उतरती चली जाती हैं। बहुत सारी गोष्ठियों में उनके साथ मंच पर सहभागिता की। उनकी प्रस्तुति, सुनाने का अंदाज़ भी एकदम अलग है और प्रभावित करता है।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों से गुज़रते हुए कुछ-कुछ ऐसा आभास होता है कि जैसे ये ग़ज़लें रूह के रू-ब-रू होने की स्थिति में ही कही गईं हैं। उनकी ग़ज़लों की यह विशेषता है कि उनकी ग़ज़लें पढ़ने में भी उतनी ही प्रभावशाली होती हैं जितनी सुनने में। उनकी ग़ज़लों में भाषाई सहजता के कारण मन को छू लेने वाले शेर देर तक मन-मस्तिष्क पर छाये रहते हैं। मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत उनकी सभी दस ग़ज़लें पाठकों को मंत्रमुग्ध तो करती ही हैं, मुरादाबाद की ग़ज़ल परंपरा के सुनहरे भविष्य का प्रमाण भी देती हैं।
समीक्षक डॉ आसिफ हुसैन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बड़ी रचनात्मक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। शायरी इन्हें घुट्टी में मिली है। इनके पिता श्री ज़मीर दरवेश साहब की गिनती उस्ताद शायरों में होती है। एक बड़ी खू़बी उनकी ज़ुबान की सादगी और सरलता है। वो आम भाषा का इस्तेमाल करते हैं और लकीर का फकी़र नहीं बना रहना चाहते, बल्कि ज़रूरत के मुताबिक़ रदीफ़ और क़ाफ़िया बना लेने की भी सलाहियत रखते हैं। दूसरी मिसाल उनकी शायरी में रोज़मर्रा का इस्तेमाल भी है जैसे- होठों पर तबस्सुम रखना, पागल कर देना, बला की खुद्दार, दास बनाना, तड़पकर दुआ करना, होठों से छूना, बुनियाद का पत्थर आदि। तीसरी खूबी यह कि वो अक्सर शब्दों की तकरार से अपने शेरों में हुस्न पैदा करते हैं। चौथी खूबी यह है कि वो अक्सर शेर के दोनों मिसरों की शुरुआत एक ही लफ़्ज़ से करते हैं। यह बात बिना झिझक कही जा सकती है की ज़िया ज़मीर साहब का अपना रंग-ओ-आहंग, अपना लहजा और अपनी फिक्र है, जो उन्हें अलग पहचान दिलाती है। इनका मुस्तक़बिल रोशन और ताबनाक है।
समीक्षक डॉ रबाब अंजुम  ने कहा कि उर्दू की चाशनी में डूबी उर्दू की ख़ुशबू और तहज़ीब से संवरी हिन्दी की सुन्दरता के साथ पेश की गईं ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की अलम-बरदार ग़ज़लें हैं, जो दिल को छू गयीं। बहुत सादगी के साथ आम मज़ामीन को ग़ज़ल के पैराए में बड़ी महारत के साथ पेश किया है ज़िया साहब ने। बहुत बहुत मुबारकबाद।
युवा शायर राहुल शर्मा   ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि जैसे कोई बंजारा सूने जंगल में रबाब के तारों पर एक बेहद मीठी धुन छेड़ता हुआ चला जा रहा है। ऐसा लगता है कि पर्वत के इस पार बैठा हुआ कोई फरहाद उस तरफ बैठी हुई शीरीं को पुरज़ोर मोहब्बत से भरे लहजे में पुकार रहा हो। असली ग़ज़ल-गोई मेरी नज़र में यहीं से शुरू होती है। नाज़ुकी और बात कहने का सलीक़ा उर्दू शायरी की एक ख़ास विशेषता है जो कि ज़िया ज़मीर के यहां पूरी खूबसूरती से पाई जाती है। ज़िया ज़मीर एक अनंत संभावनाओं वाले साहित्यकार हैं। इनकी शायरी में जितना पैनापन है, गद्य के क्षेत्र में भी उनकी कलम का तेवर अलग ही नज़र आता है।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लों की रिवायत की आत्मा से छेड़छाड़ किए बिना उन्हें अपने हुनर का जामा पहनाया है। इश्क़ उनकी ग़ज़लों का सबसे महबूब मज़्मून रहा है। लेकिन उनके यहाँ का इश्क़ अलैहदा है, संजीदा है, यह 'क्लासिकल मॉडर्न' है। ज़िया ज़मीर ने लगभग प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रचलित बह्रों में ज़ोर-आज़माइश की है और वे इसमें सफल भी हुए हैं। छोटी बह्र में भी वे उतनी ही प्रभावशीलता से अपनी बात रखते हैं जितनी कि बड़ी बह्रों में। फ़लसफ़ा, तसव्वुफ़, और तरक़्क़ीपसंद सोच के वे हामी हैं, यह बात उनकी ग़ज़लों से बख़ूबी ज़ाहिर होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर की शाइरी के अलग-अलग रंग हैं, जिनसे शराबोर होकर क़ारी यक़ीनन ही सोच के नए उफ़ुक़ पर ख़ुद को खड़ा पाएगा।
युवा शायर मनोज वर्मा मनु ने कहा कि ज़िया भाई के मुख़्तलिफ़ कलाम से उनका लहजा, उनकी फ़िक़्र, उनके जज़्बात, उनका अख़लाक़, उनकी साफ़गोई, उनके संजीदगी भरे चुटीले तड़के, और उनका हक़ीक़त पसन्द "ज़मीर", सब अपनी चमक के साथ परिलक्षित होते हैं। गोया कि शेर खुद बताते हैं कि वो ज़िया ज़मीर  के शेर हैं। मोहतरम जनाब ज़मीर दरवेश साहब की ज़ेरे-नज़र, उस आंगन में पले-बढ़े इस तरबीयत के ज़िया की शायरी में अदबी नुख़्स भूसे के ढेर से सूईं तलाशने जैसा है। अपने-अपने तरीके से उनके एक-एक शेर के कई मफ़हूम बताए जा सकते हैं।
युवा शायर फ़रहत अली फरहत अली खान  ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब को जदीद दौर के नयी पीढ़ी के बेहतरीन शायरों में शुमार किया जाता है। इनके हम-अस्र, हम-उम्र और कई बड़े शायर इन की सीनियोरिटी को तस्लीम करते हैं और इन का एहतेराम करते हैं। शेर कहने का इन्होंने अपना एक अलग अंदाज़ डेवेलप किया है जो दूसरों से जुदा है। तग़ज़्ज़ुल का दामन पकड़े-पकड़े ख़्यालों के समुंदर में ग़ोते लगाते हैं। कहीं-कहीं गहरा फ़लसफ़ा भी पिरोते हैं, मगर अक्सर अशआर दुनिया को जैसा इन्होंने देखा उसकी गहरे जज़्बात के साथ तर्जुमानी करते हैं। इस के अलावा एक अच्छे नाक़िद भी हैं, जो अपने शायर की तरह इस दौर के दूसरे नक़्क़ाद से अलग नुक़्ता-ए-नज़र रखते हैं। साथ ही अब तक मैं इन के दो अफ़साने भी पढ़ चुका हूँ। इनको दो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देख चुका हूँ। इस सिन्फ़ में भी ये बहुत उम्मीदें जगाते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि आज स्वयं इस ऐतिहासिक साहित्यिक चर्चा के सूत्रधार एवं लोकप्रिय शायर भाई ज़िया ज़मीर जी की रचनाएं पटल पर प्रस्तुत की गयी हैं। भाई ज़िया ज़मीर जी ऐसे लोकप्रिय शायरों में से एक हैं जिनकी लेखनी से निकली रचनाओं ने मुझ जैसे अल्प ज्ञानी के अन्तस को भी सदैव स्पर्श किया है। अपनी दिल जीत लेने वाली शायरी से मुरादाबाद की कीर्ति में चार चाँद लगाने वाले, शायरी के इस सशक्त हस्ताक्षर को मेरा बारम्बार प्रणाम।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में अपनी भी बात की और समाज की भी। ग़ज़लों की ख़ास बात है बह्र का बदलाव। अलग-अलग बह्र की ग़ज़लों में शब्दों का बहाव। किसी एक ग़ज़ल से कोई एक या दो शेर चुनना मुश्किल काम है। कुल मिला कर ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में ज़िंदगी की सच्चाईयों का सफर करा दिया है। दुआ है कि क़लम की रोशनाई की रंगत बढ़ती रहे और फिर इसी तरह के कलाम पढ़ने को मिलें।
युवा समीक्षक डॉ अज़ीम उल हसन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें पढ़ीं और पढ़कर यक़ीन भी हो गया कि मुरादाबाद में ग़ज़ल का मुस्तक़बिल काफ़ी रोशन है। आप ग़ज़लों में सादा ज़बान का इस्तेमाल करते हैं, जिस से शेर आसानी से ज़बान पर रवां हो जाते हैं। कहीं कहीं शेरो में तसव्वुफ़ की झलक भी नुमायां है। ग़रज़ यह कि ज़िया साहब की ग़ज़लों में इश्क़ की चाशनी के साथ-साथ ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयां भी हैं जो कहीं न कहीं आज के इंसान के ज़मीर पर तंज़ की करारी चोट करती हुई नज़र आती हैं।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट नेे कहा कि एक व्यक्ति के रूप में शालीन, खुशमिजाज़, मिलनसार और उदार सोच वाले ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें जब भी पढ़ीं, ऐसा लगा है कि ग़ज़ल हमसे बतिया रही है। सहज, सरल, दैनिक बोलचाल की भाषा में, दैनिक सन्दर्भों का प्रयोग करते हुए भी ग़ज़ल की गरिमा और क्वालिटी दोनों को बनाये रखते हुए वे न केवल पाठक के दिल में जगह बनाते हैं, बल्कि अपनी विशिष्ट कहन से चौंका भी देते हैं। अपने विशिष्ट अंदाज़े-बयां के कारण उन्हें सुनना भी सुखद होता है।
युवा कवियत्री  मीनाक्षी ठाकुर नेे कहा कि वाक़ई कई कई बार आपकी ग़ज़लें पढ़ी हैं कल से अब तक। वक़्त बीता पर आँखों में आपके लिखे शेर तैर रहे हैं। उर्दू के बेहतरीन अल्फा़ज से सजी ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें बेसाख़्ता दिल में उतरती चली जाती हैं। आपने जिस बेबाकी से ग़ज़लें कही हैं, लगता है कि आमने-सामने बैठकर गुफ्तगू हो रही है। कहीं रुमानियत तो कहीं महबूब को हँसकर धमकाने का अंदाज़ नायाब लगा। आपकी ग़ज़लों के अंदाज़ से लगता है कि आप शायरी को ओढ़ते हैं ,बिछाते हैं, शायरी ही जीते हैं। शायरी  आपके खून में है जो क़लम की स्याही बनकर कागज़ के पन्नो पर ग़ज़ल बनकर जब उतरी तो ग़ज़ब हो गयी। अलग ही भाषाई मिठास लिये हुए सादगी भरा आपका अंदाज़ श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। साफगोई की इंतिहा भीतर तक पाठकों को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। आपकी ग़ज़लों के हर शेर पर एक पन्ना लिखा जा सकता है।

::::::::::प्रस्तुति::::::::::

राजीव प्रखर
मुरादाबाद
मो० 9368011960

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें