शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

मुरादाबाद की संगीतज्ञा बालसुंदरी तिवारी और उनकी छात्राओं द्वारा मां सरस्वती वंदना की प्रस्तुति


 

मुरादाबाद की संस्था साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से सोमवार 22 जुलाई 2024 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रख्यात साहित्यकार मनोज जैन' मधुर' को श्रेष्ठ नवगीत साधक सम्मान- 2024 से विभूषित किया गया ।

मुरादाबाद मंडल के साहित्य के संरक्षण एवं प्रसार को पूर्ण रूप से समर्पित संस्था साहित्यिक मुरादाबाद  की ओर से सोमवार 22 जुलाई 2024 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रख्यात  साहित्यकार मनोज जैन' मधुर' को श्रेष्ठ नवगीत साधक सम्मान- 2024 से विभूषित किया गया । सम्मान स्वरूप उन्हें अंगवस्त्र, स्मृति चिहन और सम्मानपत्र संस्थापक डॉ मनोज रस्तोगी, मीनाक्षी ठाकुर और प्रो. ममता सिंह द्वारा प्रदान किया गया।

     संस्थापक डॉ मनोज रस्तोगी ने बताया कि 25 दिसम्बर 1975 को ग्राम वामौर कलां, जिला शिवपुरी मध्य प्रदेश में जन्में मनोज जैन मधुर के जहां दो नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं वहीं वह फेसबुक पर वागर्थ और अन्तरा शीर्षक से दो चर्चित नवगीत समूहों का संचालन भी कर रहे हैं। वागर्थ के माध्यम से उन्होंने साहित्यिक मुरादाबाद की दो सदस्यों मीनाक्षी ठाकुर और प्रो ममता सिंह के नवगीतों को प्रस्तुत कर मुरादाबाद को गौरवान्वित किया ।

मीनाक्षी ठाकुर ने उनकें सम्मान में गीत प्रस्तुत किया- 

मधुर गीत-नवगीत आपके 

शब्द अनूठे विम्ब हजार 

कभी धूपभर कर मुठ्ठी में, 

कभी बुद्ध के आदर्शों की 

कभी भाव की एक बूंद से

कसे शिल्प में बंधे छंद हैं

इस अवसर पर प्रख्यात साहित्यकार डॉ सुभाष वशिष्ठ, यश मालवीय, राहुल शिवाय, भावना तिवारी, शिखा रस्तोगी, राजीव प्रखर, दुष्यंत बाबा, मयंक शर्मा, जिया जमीर समेत अनेक स्थानीय साहित्यकार उपस्थित थे। उल्लेखनीय है यह आयोजन साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय में निर्धारित था जो कतिपय कारणवश स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी के आवास पर आयोजित समारोह में हुआ।
























मुरादाबाद से प्रकाशित दैनिक जागरण के शुक्रवार 26 जुलाई 2024 के अंक में सबरंग पेज में प्रकाशित

 


सोमवार, 22 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल को कला भारती की ओर से 21 जुलाई 2024 को आयोजित कार्यक्रम में कलाश्री सम्मान

 मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल को उनकी साहित्यिक सेवाओं एवं उत्कृष्ट  सृजन के लिए साहित्यिक संस्था कला भारती की ओर से  कलाश्री सम्मान से अलंकृत किया गया। सम्मान समारोह का आयोजन रविवार 21 जुलाई 2024 को मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में हुआ। 

 रघुराज सिंह निश्चल द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता बाबा संजीव आकांक्षी ने की। मुख्य अतिथि रामदत्त द्विवेदी एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में ओंकार सिंह ओंकार मंचासीन हुए। कार्यक्रम का संयुक्त संचालन राजीव प्रखर एवं आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने किया। सम्मान स्वरूप श्री शुक्ल को अंग-वस्त्र, मान-पत्र एवं स्मृति चिह्न अर्पित किए गये। सम्मानित  साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल पर आधारित आलेख का वाचन करते हुए राजीव प्रखर ने कहा ... अपने उत्कृष्ट एवं प्रेरक साहित्यिक समर्पण व सक्रियता से मुरादाबाद को गौरवान्वित करने वाले वरिष्ठ रचनाकार श्रीकृष्ण शुक्ल 'कृष्ण' का जन्म भाद्रपद कृष्ण, अष्टमी संवत् 2010 तदनुसार 30 अगस्त 1953 को मुरादाबाद में कीर्तिशेष श्री पुरुषोत्तम शरण शुक्ल एवं श्रीमती सरला देवी शुक्ल के कुलदीपक के रूप में हुआ। आपने अर्थशास्त्र में परास्नातक एवं CAIIB के दोनों भागों में विशेष योग्यता प्राप्त की। बचपन से ही परिवार और परिवेश से मिले संस्कारों ने संस्कृति और साहित्य की ओर आपको आकर्षित किया। उत्कृष्ट व्यक्तित्व एवं कृतित्व के स्वामी शुक्ल जी से मेरा परिचय अब से लगभग 8 वर्ष पूर्व साहित्यिक मुरादाबाद वाट्स एप ग्रुप के माध्यम से हुआ। उनका सरल, सहज एवं सौम्य व्यवहार मुझे आरंभ से ही भाता रहा है। मैं नि:संकोच कह सकता हूॅं कि अपनी साहित्यिक  यात्रा में मुझे जिन साथियों ने सर्वाधिक आत्मबल एवं प्रेरणा दी, श्रीकृष्ण शुक्ल जी उनमें से एक हैं। वास्तविकता तो यही है कि कोई अगर प्रेम, आत्मीयता, सरलता एवं सौम्यता से दो-चार होते हुए उसे ग्रहण करना चाहे, तो वह आदरणीय श्रीकृष्ण शुक्ल जी से मिले, बतियाए एवं अपने जीवन को निरंतर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ाता रहे।  गद्य लेखन का कार्य छात्र जीवन से ही प्रारंभ हो गया था। विभिन्न स्तरों पर निबंध लेखन व वाद विवाद प्रतियोगिताओं में पुरुस्कृत हुए। आपने आगरा विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित गाँधी शताब्दी वाक् प्रतियोगिता में, (जो तीन चरणों में संपन्न हुई थी), द्वितीय पुरुस्कार तथा आपके विद्यालय की टीम ने प्रथम पुरुस्कार प्राप्त किया। जीवन के विभिन्न उत्तरदायित्व को पूर्ण करते हुए सन् 1973 में आपकी भारतीय स्टेट बैंक में नियुक्ति हुई। सेवा के साथ-साथ शिक्षा भी जारी रही तथा वर्ष 1984 में अर्थशास्त्र से आपने परास्नातक उपाधि प्राप्त की। सन् 1984 में रामपुर में नियुक्ति के दौरान आकाशवाणी रामपुर से आपकी वार्ताएं प्रसारित होने लगीं। वहीं स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी जी से संपर्क हुआ तथा आपने अपनी काव्य क्षमता को और अधिक गहराई से लेना आरंभ किया। उसी दौरान डॉ कारेन्द्र देव त्यागी उर्फ मक्खन मुरादाबादी जी से संपर्क हुआ तथा उनकी रचनाओं से प्रेरित होकर आपने व्यंग्य क्षेत्र में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई। उन दिनों छंदमुक्त लेखन का चलन आम था। आपकी अनेक व्यंग्य रचनाएं गोष्ठियों में सराही गयीं। इसी अनुक्रम में आपने कुछ कवि सम्मेलनों में भी प्रस्तुति दी। आकशवाणी रामपुर से भी यदा कदा कविताएं प्रसारित होती रहीं। वर्ष 1986  में रामपुर से पदोन्नत होकर आपका स्थानांतरण हो गया। नौकरी व परिवार की जिम्मेदारियां बढ़ती गयीं जिस कारण सृजन यात्रा कुछ थम सी गयी। वर्ष 1993 में आपका पुनः मुरादाबाद स्थानांतरण हुआ। उन दिनों आध्यात्मिक संस्था सहजयोग का प्रभार मिला । नौकरी, परिवार और सहजयोग के साथ साहित्य पीछे छूटता रहा। वर्ष 2013 के अंत में आप स-सम्मान सेवानिवृत्त होकर मुरादाबाद आ गये तथा सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए। इस अवधि में आपके सृजन कार्य ने पुनः गति प्राप्त की। आपकी सृजन यात्रा की इस द्वितीय पारी में एक बड़ी भूमिका निभाई मुरादाबाद के वरिष्ठ रचनाकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी जी के वाट्स एप ग्रुप, साहित्यिक मुरादाबाद ने। आपके निवेदन पर उन्होंने आपको इस समूह से जोड़ा। इसी के साथ आपका रचनाकर्म एवं साहित्यिक छवि निरंतर पुष्ट होते गये। आपकी रचनाएं कई साझा संकलनों में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें प्रमुख हैं: उजास, छाँव की बयार, काव्यधारा, स्वर्णाक्षरा, प्रणाम काव्यधारा, धरा से गगन तक, गुरु कृपा ही केवलम् आदि। हाल ही में भारत के संविधान को छंदबद्ध करने के विराट कार्य को पूरे देश से 142 साहित्यकारों ने संविधान को दोहों व रोलों की रचना से छंदबद्ध रूप दिया। यह अत्यंत गर्व की बात है कि उन 142 साहित्यकारों में आप भी सम्मिलित हैं । इसके अतिरिक्त सृष्टि सुमन, प्रेरणा अंशु, शैल सूत्र, स्पर्शी, काव्यामृत, काव्यधारा, नागरिक समाचार, उत्तराखंड करंट, ग्लोबल न्यूज, गोविषाण पाक्षिक आदि पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं।‌ साथ ही आपको विविध साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया है जिनमें ज्ञान भारती पुस्तकालय, रामपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, मुरादाबाद, काव्य धारा, रामपुर, हिंदू जागृति मंच संभल, साहित्यिक संस्था संकेत, मुरादाबाद आदि प्रमुख हैं। आपकी उत्कृष्ट रचनाएं जहां एक सुधी पाठक/श्रोता को सरल एवं सहज रूप से आध्यात्म से जोड़ती हैं, वहीं दैनिक जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर आपके धारदार व्यंग्य भी सभी को गहन चिंतन-मनन हेतु प्रेरित कर देते हैं। 

      अर्पित मान-पत्र का वाचन आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ द्वारा किया गया। कार्यक्रम के द्वितीय चरण में एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन  किया गया जिसमें रचना पाठ करते हुए श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा - 

"धन यश वैभव के चक्कर में जीवन व्यर्थ गॅंवाया। 

अंतिम पल वह धन भी तेरे किंचित काम न आया। 

काया तो छूटी, माया भी साथ न ले जा पाया,

 सोच जरा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया।" 

इसके अतिरिक्त महानगर के विभिन्न रचनाकारों कमल शर्मा, राजीव प्रखर, मनोज मनु, योगेन्द्र वर्मा व्योम, विवेक निर्मल, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, चंद्रहास हर्ष, बृजेन्द्र वत्स, डॉ. मनोज रस्तोगी, ओंकार सिंह ओंकार, रघुराज सिंह निश्चल, रामदत्त द्विवेदी, बाबा संजीव आकांक्षी आदि ने भी श्रीकृष्ण शुक्ल को अपनी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए विभिन्न सामाजिक विषयों पर अपनी-अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की। बाबा संजीव आकांक्षी द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।























::::::::प्रस्तुति::::::

 राजीव 'प्रखर'

महानगर अध्यक्ष 

कलाभारती 

मुरादाबाद

बुधवार, 17 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार के डी शर्मा (कृष्ण दयाल शर्मा ) की ग्यारह रचनाएं....


1. आदर्श चरित्र शुभ सदाचार

धर्म अर्थ काम मोक्ष पुरुषार्थ

प्रत्येक सद्कर्म करना निस्वार्थ

उदारता अपनाना मानवता 

साधनवान कृपण प्रवंचना 


परस्पर प्रेम करुणा साधना

 आपस में सहयोग उपासना 

सत्य असत्य समझना विवेक 

वर्जनीय पथ सदैव निषेध 


यम नियम निर्वहन उत्कृष्ट 

इन्द्रिय संयम  विहीन निकृष्ट 

कम कामना वाला शीघ्र सन्तुष्ट

अतृप्त इच्छाएँ करती रुष्ट 


जीवन निर्वहन विधि अनुसार 

काम क्रोध लोभ मोह अन्तर्विकार

 निन्दनीय बना देते व्यवहार 

आदर्श चरित्र शुभ सदाचार


विकार विहीन पुरुष उत्तम 

कुसंगी व्यसनी दंभी अधम 

चिन्तन मनन एंकात अभ्यास 

स्वयं के परिमार्जन का प्रयास


आत्मावलोकन से क्षीण स्व -दोष  

निर्मल साधक प्रिय आशुतोष

निज को सुधारना जीवन ध्येय 

गोविन्द स्मरण दिव्यानंद पेय


2. सनातन धर्म के मूल सिद्धांत

सनातन धर्म के मूल सिद्धान्त

दृढ़तम आस्था विश्वास अभ्रान्त

परमपिता परमेश्वर महान

उत्तमोत्तम विज्ञान आत्म -ज्ञान 


वेद शास्त्र परमेश्वर की वाणी 

द्वैत में अद्वैत देखता आत्म -ज्ञानी

सत्य प्रेम दया मय व्यवहार

सदा सात्विक संयमित आहार 


शम - दम से इन्द्रियाँ नियंत्रित

मन आत्म कल्याण पर केंद्रित 

मन-बुद्धि चित्त पूर्णतः पवित्र 

सर्वोत्तम धन केवल चरित्र 


मानव जीवन कर्तव्य प्रधान 

पूर्व जन्म कृत कर्म परिणाम

सुख -दुख सब विधि अनुसार 

संसार दुखालय, न बिसार


परिमार्जित रखना वर्तमान

निरन्तर कर्म -साक्षी भगवान

परहित कर्म कारक कल्याण

पर पीडा़ पाप मानते धीमान


सेवा सहायता करना धर्म 

सदैव देखना चेतन ,न चर्म

काम -क्रोध-लोभ मोह दानवीय

गोविन्द ,चलाना  पथ मानवीय

 

3. मन मन्दिर के सुदृढ स्तम्भ

परिवार की शोभा आज्ञाकारिता

आदर स्नेह मिश्रित मधुरता

सनातन वैदिक सामाजिकता

शोभित नैतिकता आध्यात्मिकता


आदर्श अनुसरणीय परम्परा

आनंदमय व्यवस्था इस धरा

वंदनीय अवध के चारों भाई

त्रेता में आज्ञाकारिता अपनाई


 मुदित हर्ष विषाद में तरस्थ

 वैदिक सिद्धांत पालन अभ्यस्त 

राम लखन भरत शत्रुघ्न 

उनके चरित्र का अभिवादन


निज भवन स्थापित रघुराई 

सर्वत्र दिव्यानंद लहर छाई

आनंदित सब सनातनी भाई 

नवीन युग की आशा गहराई


भारत भर में बाल युवा वृद्ध 

अब अपने सौभाग्य पर मुग्ध

गोविंद अनुकंपा से घड़ी आई 

वक्षु विग्रह दर्शन को ललचाई 


राम भक्तों का सपन हुआ सच्चा

प्रमुदित भारत का बच्चा- बच्चा 

हो गया नवीन युग का प्रारम्भ

राम मन मंदिर के सुदृढ स्तम्भ


4.श्रद्धा से श्रम, उपलब्ध प्राप्तव्य

केवल उदर भरना न ध्येय

भोग संलिप्तता निदंनीय हेय

पशुन्सा जीवन उपेक्षणीय

मानवीय सद्गुण आदरणीय


बिन दिव्यानन्द जीवन निस्सार

आनन्द स्रोत  जीव- जीव से प्यार

मुदिता  पथ प्रसन्नता प्रसार

अपना चितंन अवश्य सुधार


परमात्मा अनवरत उदार

सतत मानना उसका आभार

प्रार्थना आध्यात्मिकता का आधार

विनम्रता उपजाती नमस्कार


अवगत हो कर्मठता का महत्व

प्रमाद विहीन करना कर्तव्य

निगम शास्त्र समझाते ज्ञातव्य

श्रद्धा से श्रम, उपलब्ध प्राप्तव्य


सहज उपाय कल्याण करण 

अविस्मृत रहे गोविन्द स्मरण

रहना आदर्श पुरुष शरण

स्वाभाविक होगा सदाचरण


आत्मोन्नति हेतु नियम - संयम

अवश्यमेव हेतु एकांत मे मनन

मनुज जीवन हेतु ईश - नमन

आनंद सागर मे अवगाहन


5. आनन्द हेतु जीवन उपलब्ध

मृग रेणु को समझना सरिता 

दूर पर्यंत निरर्थक दौड़ता

आशा की आशा में मिलती निराशा 

व्यर्थ परिश्रम रहता प्यासा


दुखद करना कामना असीम

 स्मरण रहे प्राप्त आयु ससीम 

कैलास पर बिराजे आशुतोष

बतावें सर्वोत्तम धन संतोष 


प्रारब्ध से समझौता हितकर

अत्यंत अभिलाषाएँ मतकर 

आनंद हेतु जीवन उपलब्ध

विमूढ़ न उचित रहना क्षुब्ध 


ईश वश सफलता -असफलता

परिश्रम करना ही प्रसन्नता 

परिस्थितियाँ उपजाता विधाता

यथावत को स्वीकारना सिखाता


सकल जीवन एक पाठशाला

अनुभव पाने हेतु कर्मशाला

 अवश्य खोजना सद्गुरु वरिष्ठ 

अवधेश को उपलब्ध  वशिष्ठ 


सदैव सत्संग प्रदाता सद्ज्ञान

सर्वेश्वर परमेश्वर महान 

विनम्रता पूर्वक करना कर्म 

गोविंद स्मरण उपकारी धर्म


6. देखना जगत लीला नत माथ

 बैठना प्रशांत चर्म -चक्षु -बंद 

होगा आभास आनंद अविलंब 

अन्तर्मन उपस्थित उपवन

जहाँ  प्रफुल्लित विविध सुमन


प्रवाहित सुहानी मंद पवन

 व्याप्त चहुँ ओर अद्भुत सुगंध 

मन पशु बंधा संयम की डोर 

अनुपम कृपा अवध किशोर


चंचल इन्द्रियाँ अब न स्वतंत्र 

अब परतन्त्र एकाग्रता मंत्र

 संसारी हल -चल अब समाप्त

 अन्तर्भवन  परमानंद व्याप्त


जगत नहीं जगदीश दर्शन

भाव विभोर नित्यानंद नर्तन 

अच्युत चलाते अर्जुन का रथ 

रथी अविचलित स्वस्थ तटस्थ


जन्म -मृत्यु लाभ हानि ईश हाथ

 देखना जगत लीला नत माथ 

गोविंद प्रदत्त सब उपहार 

निस्वार्थ प्रयोग सहित आभार


सकल  संसार स्वामी अंतर्यामी 

एकमात्र विमूढ ही अभिमानी 

शाश्वत सिद्धांत पालक सद्ज्ञानी

विषय भोगी निरंतर अज्ञानी 


7. विवेकी साधक स्वयं को सुधारता

नियम पूर्वक बैठना एकांत

मन बुद्धि चित रखना प्रशांत 

हितकर सदा अपनाना मौन 

कभी न पूछना कहाँ, कैसे,कौन


चिंतन मनन का करना अभ्यास 

अवश्य होगा दिव्यता का आभास 

एक इष्ट पर हो ध्यान केंद्रित 

पाओगे स्वयं को अति आनंदित


कर्म सत्य प्रेम न्याय आधारित

रखता सबको सदैव मुदित

 सदाचार व्यवहार का आधार

 स्वार्थ वशीभूत न बने व्यापार


शरीर उपलब्ध उद्यम हेतु

परस्पर सद्कर्म कल्याण सेतु 

सर्व साक्षी  निरंतर निहारता 

विवेकी साधक निज को सुधारता


गंभीरता से आत्म -अवलोकन 

आनंद सागर में अवगाहन 

सद्गुण सद्विचार का आवाहन 

निंगम शास्त्र सिद्धांत निर्वहन 


सोचना स्वामी ने क्यों भेजा इस देश 

सेवक दृष्टि मे रखना उद्देश्य

अकल्याणकारी भोग संलिप्तता

कल्याणी गोविंद स्मरण  सात्विकता


8. कर्म संपादन पूजन चेतन 

सांसारिक कर्म बने आध्यात्मिक

 तामसिक राजसिक बने सात्विक

 देवालय समान हो कर्म - क्षेत्र

चिंतन मनन से चुनना श्रेष्ठ


कर्म का प्रेरक मन -विचार

सत्संग से मन - विचार सुधार 

कर्म को समझना देवों उपासना 

श्रद्धापूर्वक कर्म ही आराधना 


कर्म साधना, साध्य परोपकार

प्राप्त साधन गोविंद उपहार

निज श्रम पर व्यर्थ अंहकार

परिणाम  छिपा गर्त अंधकार 


कृषक बोता बीज पाता उत्पाद 

आशा में करता सर्वेश्वर याद 

अनवरत रहना सावधान

कर्म में स्मरण रहे भगवान


अर्जित संपत्ति नहीं जाती साथ 

पदार्थ विसर्जन हो नत -माथ

कर्म ही पूजा अर्चना जगन्नाथ 

कर्म फल न मिलता हाथों हाथ 


प्रत्येक कर्म को समझना पूजा

सनातन धर्म सिद्धांत अनूठा

आत्मा का वास शरीर निकेतन 

कर्म संपादन पूजन चेतन


9. आसन - प्राणायाम दैनिक कर्तव्य 

मुदित - मन मनाना योग -दिवस 

सदा  विलुप्त प्रमाद अमावस 

अंग - प्रत्यंग  चेतन प्रफुल्लित

 नित्यानंद प्रदायक उल्लसित

 

अष्ट  प्रहर प्रकाशित पूर्णिमा

विलुप्त सकल विकार कालिमा 

अपनाया संतुलित अल्पाहार

हो गया अन्त : करण निर्विकार 


स्वागत करती भास्कर रश्मियाँ

खिलती मन उपवन की कलियाँ

 हितकर गुरुदेव उपदेश 

सहज सात्विक वेष -परिवेष


अरुचिकर संसारी आडंबर 

 नीचे वसुंधरा ऊपर अंबर

 पल-पल अनुभव प्रसन्नता 

अनुपम अनुकंपा जग - पिता


अब अवगत जीवन महत्व

आसान प्राणायाम दैनिक कर्तव्य 

समक्ष प्रकट अपना गन्तव्य 

दिव्य प्रकाश ने दर्शाया मनुष्यत्व


तन - मन स्वस्थ कल्याण कारक

दंभ अज्ञान अंधकार मारक

गोविन्द, आभार प्रति गुरुदेव

हृदय देवालय में महादेव


10. जग -हित हेतु सत्य न बिसार

जग - हित हेतु शुभ्र हिमालय 

जग - हित हेतु दिव्य देवालय

जग - हित हेतु कविता सरिता 

जग - हित हेतु मयंक सविता


जग - हित हेतु सिंधु सरोवर

जग -हित हेतु हरित तरुवर

जग - हित हेतु पावन पवन

जग - हित हेतु वसुधा गगन


जग -हित हेतु वेद उपनिषद

जग -हित हेतु साहित्य विशद

जग -हित हेतु ब्रह्मा, विष्णु ,महेश

जग -हित हेतु सरस्वति गणेश


जग - हित हेतु साधक संतन 

जग - हित हेतु जीवात्मा वंदन

जग हित हेतु चिंतन - मनन

जग - हित हेतु आनंद स्पन्दन


जग हित हेतु कल्याण कामना 

जग -हित हेतु मंगल प्रार्थना

जग -हित हेतु दिवस - रजनी 

जग -हित हेतु जनक - जननी


जग - हित हेतु स्वयं को सुधार

जग - हित हेतु सत्य न बिसार 

जग -हित हेतु संसार निस्सार 

जग - हित हेतु गोविंद ही सार 


11. स्वयं ही जनक स्वयं ही जननी

ईश्वर ने देखा अद्भुत सपना

साकार हो गई उसकी कल्पना

स्वयं खेलने वाला स्वयं खिलौना 

चेतन निर्मित आत्मज सलोना


निराकार के लिऐ विविध आकार

सकल संसार का वही आधार

स्वयं ही जनक स्वयं ही जननी 

स्वयं ही मित्र बंधु भाई भगिनी


स्वयं ही आराध्या आराधना

स्वयं ही साध्य साधक साधना 

स्वयं ही करते सतत उद्यम

 स्वयं ही धरातल पर उत्तम


स्वयं रंगमंच स्वयं अभिनेता

स्वयं सामग्री के क्रेता विक्रेता 

स्वयं ही भोज्य पदार्थ स्वयं भोक्ता 

स्वयं ही भाषा भाषण श्रोता वक्ता 


स्वयं ही संसार के दृश्य पदार्थ 

स्वयं ही प्रत्येक कर्म परमार्थ 

स्वयं का कोष संसार की संपदा 

स्वयं ही हरत जगत विपदा


स्वयं का न कोई आकर स्वरूप 

स्वयं स्त्री -पुरुष सुंदर कुरूप 

ईश्वर स्मरण आत्म जागरण 

गोविंद विस्मरण  सदा मरण


✍️ कृष्ण दयाल शर्मा 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9756589980

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी.....“निर्वासन”


  उद्विग्नता दीक्षा के मनोमस्तिष्क के साथ-साथ देह के अंग-अंग पर भी प्रभावी हो गई थी।रह-रहकर भाभी के विषाक्त तीक्ष्ण शर जैसे शब्द कानों में पिघले सीसे की तरह घुस सनसनी मचाने लगते–’जीजी! इस घर पर तुम्हारा क्या अधिकार है? क्यों अकारण हर वक्त अपना बड़प्पन प्रदर्शित कर हमारी सुखशांति भंग करती रहती हो? क्या हमारी खुशी तुम्हें पसंद नहीं?’

     यहां तक भी कुछ सह्य था। किंतु भैया के आचरण ने तो मर्म ही बेध डाला था।भाभी का कटाक्ष सुन दीक्षा ने मिट्टी के माधो बने खड़े भैया को पुकारा था –’सुन रहा है छोटे! जरा इसे बता तो सही कि इस घर पर मेरा क्या अधिकार है?’

     वह पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदता हुआ निगाह झुकाए बोला था –’याची ठीक कह रही है जीजी! तुम बेवजह छोटी-छोटी बातों पर हमें डांट-फटकारकर अपमानित करती रहती हो, जैसे हम कोई कूड़े-कचरे के ढेर पर से उठाकर लाए गए अनाथ बालक हों। इस हर समय की चिक-चिक से हम तंग आ चुके हैं। बस अब बहुत हो चुका, और नहीं सहा जा सकता। जीजी! अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहां से कहीं और चली जाओ!’

     ‘छोट्टे!’ दीक्षा आवेश में थरथराने लगी थी –’यह तू कह रहा है तू? जिसकी खुशी के लिए मैंने अपने जीवन का सर्वाधिक संवेदनशील यौवन तक न्यौछावर कर दिया। तू आज मुझे बोरिया-बिस्तर समेटने को कह रहा है? कुछ लाज-शरम आंखों में बची है कि नहीं?’

     ‘चिल्लाओ मत जीजी!’ छोटे ने प्रतिवाद किया था –’तुमने विवाह नहीं किया तो किसी पर कोई अहसान नहीं कर दिया। दूसरी बहन की तरह तुम भी कहीं अपना घर-बार बसा लेतीं तो आज पापा की इतनी कीमती दुकान पर किसी नागिन की भांति कुंडली मारे तो न बैठी होतीं। और न हमें इस तरह घुट-घुटकर जीने को बाध्य होना पड़ता कि हम स्वच्छंदता की दो सांसें लेने को भी छटपटाकर रह जाते हैं।’

     सन्न रह गई थी दीक्षा…तन-मन में समाहित आवेश पिघलकर नीर के रूप में आंखों की राह प्रवाहित हो चला था।तब से अब तक वह निरंतर रोती रही थी…बस रोती रही थी…

     जीवन में शायद दूसरी बार वह इतना रोयी थी…

     पहली बार तब… जब कैंसरग्रस्त मम्मी को अकाल मृत्यु के दानव ने अपने पाशविक पंजों में दबोच लिया था। पूरे घर में कोहराम मच गया था। मां की याद आते ही बीस वर्षों पूर्व का अतीत उसकी मोटे-मोटे आंसुओं से डबडबाई आंखों में किसी चलचित्र की तरह झिलमिलाने लगा……… 

      मां की जब मृत्यु हुई तब कला में एम.ए. कर रही थी वह। दोनों बड़ी बहनों का विवाह हो चुका था। मां उसका विवाह भी अपनी आंखों के सामने कर देना चाहती थी किंतु स्वयं उसी ने स्पष्ट इन्कार कर दिया था–’मम्मी! जब तक मैं स्वयं अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती तब तक विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे अपने जीवन में केवल स्वावलंबन पसंद है परनिर्भरता नहीं।’

      भैया तीनों बहनों के बाद ही इस घर में आया था इसलिए घरभर का लाड़ला था। मां के तो प्राण बसते थे उसमें। मृत्यु का पूर्वाभास होते ही मां बहुत चिंतित हो उठी थी। दीक्षा का हाथ अपने पीताभ व कमजोर हाथों में लेकर लरजते स्वर में बोली थी–’बेटी! चिंता मुझे मौत की नहीं है क्योंकि कैंसर तो नाम ही काल का है। चिंता मुझे छोटे की है। उसकी परवरिश कौन करेगा? वह अभागा तो मेरे बिना ढंग से पेट भी नहीं भर सकता। भूखा मर जाएगा बेचारा। मेरे बाद कैसे जी पाएगा वह?’

     किंतु दीक्षा के सुदृढ़ आश्वासन ने मां की पीड़ा को बहुत कम कर दिया था–’मम्मी! आप छोटे की चिंता तो दिल से निकाल दो! जब तक यह दीक्षा इस धरती पर है तब तक छोटे को आंच भी नहीं आ सकती। उसकी परवरिश मैं करूंगी… मैं स्वयं…मैं खुद उसकी मां बन जाऊंगी।’

     मां की असमय मौत ने घरभर को हिलाकर रख दिया था। निश्चेतन शरीर से लिपटकर दीक्षा इतना रोई, इतना रोई कि दीवारें तक दहल गईं और पापा पर तो ऐसा वज्रपात हुआ था कि सारे संसार से ही मोह टूट गया था। न किसी को सांत्वना देते, न धैर्य बंधाते,न किसी से अपने हृदय की पीड़ा कहते, न कहीं आते-जाते, न दुकान पर बैठते, न कुछ खाते-पीते। बस अपने बिस्तर पर चुपचाप लेटे सूनी छत को निहारते रहते।रीती दीवारों को तकते रहते जैसे उन दीवारों और सूनी छत पर सहचरी का प्रतिबिंब उभर रहा हो और वह उनसे मन ही मन वार्त्तालाप कर रही हो। दीक्षा उन्हें बहुत कुरेदती, बहुत प्रकार से धैर्य बंधाती, गुदगुदाने का प्रयास करती। पर उस पाषाणी चेहरे पर कोई भी तो प्रतिक्रिया नहीं होती, न ही कोई भाव आता जाता। जैसे अनुभूतियों के विहंगम कहीं दूर उड़ गए हों।

      शनै:-शनै: टूटन की स्थिति में पहुंचते गए थे पापा। एक ऐसी शुष्क शाख में परिणत हो गए थे वे जो किसी भी पल वृक्ष से अलग हो सकती थी। उसे यही भय खोखला किए दे रहा था कि पापा के बाद इस घर का क्या होगा? उसके नन्हें कमजोर कंधे कैसे इस विशाल गृह का संरक्षण कर सकेंगे? वह कैसे मां को दिया वचन निभा सकेगी? कैसे एकाकी छोटे की परवरिश कर सकेगी? समाज के भूखे भेड़िए उसे जिंदा कैसे रहने देंगे? अवसर मिलते ही नोच-नोचकर खा जाएंगे। 

     महीना भर भी नहीं लगा था पापा को सारी चिंताओं से मुक्त होने में। एक सुबह को वह जब उन्हें जगाने गई तो तब भी उनकी आंखें अपलक सूनी छत को निहार रही थीं।उसने उन्हें पूरी शक्ति से झिंझोड़ दिया। लेकिन, नि:स्पंद देह में स्फुरण तो तब होता जब उसमें चेतन तत्व होता। चेतन तत्व तो पता नहीं कब पिंजरा खाली कर नीलांबर कि उन्मुक्त उड़ान के लिए निकल पड़ा था।भैया पापा की नश्वर देह से लिपटकर बिलख-बिलखकर रो पड़ा था। ससुराल से अपने पतियों के साथ दौड़ी-भागी आईं बहनें भी छाती पीट-पीटकर ऐसे रोईं जैसे सर्वाधिक दुःख उन्हें ही हो। किंतु दीक्षा की आंखों से एक भी अश्रु नहीं टपका। पता नहीं अश्रुओं के समुद्र को उसने कहां सोख लिया था? अद्भुत धैर्य उपजा लिया था उसने। छोटे को भी अपने कलेजे से चिपटाकर हर प्रकार से आश्वस्त किया था उसने –’पगले तू क्यों चिंता करता है? मैं हूं ना तेरी मां भी और बाप भी। मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े किंतु तुझे कभी मम्मी-पापा का अभाव नहीं सहने दूंगी। मैं स्वयं भूखी रह जाऊंगी लेकिन तुझे कभी भूखे पेट नहीं सोने दूंगी। मैं अपनी पढ़ाई छोड़ दूंगी लेकिन कभी तेरी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने दूंगी। मैं स्वयं फटे चीथड़ों से अपनी आबरू ढक लूंगी लेकिन तेरे कपड़ों को नहीं फटने दूंगी।’ 

     अरिष्टि तक दोनों बहनें पतियों सहित घर पर ऐसे आधिपत्य जमाए रहीं जैसे इस घर के संरक्षण की सर्वाधिक परवाह उन्हें ही हो।और अरिष्टि निपटते ही दोनों अपने वास्तविक प्रयोजन पर आ गईं।दीक्षा को समझाने का अभिनय करते हुए बोलीं –’बहन देख! सिर पर अब मां-बाप का साया तो रहा नहीं जो हमारा अच्छा बुरा सोच सकते।अब तो तेरा भी जो कुछ करना है हमें ही करना है। तेरा भी कहीं घरबार बस जाता तो अच्छा रहता।तब निपटारा भी अच्छी तरह करने में सुविधा रहती।’

     ‘कैसा निपटारा?’ दीक्षा चौंक पड़ी थी।

     ‘तू तो ऐसे बन रही है जैसे दूध पीती बच्ची हो।’ बड़ी बहन ने कटाक्ष किया था–’मम्मी के ढेर सारे गहनों, महंगी  साड़ियों व पापा की धन दौलत पर स्वयं ही कुंडली मारे बैठी रहेगी या कुछ हिस्सा हमें भी मिलेगा? आखिर हमारा भी तो कुछ न कुछ अधिकार होगा ही इस सब पर?’

      बड़ी की बात पूर्ण होने से पूर्व ही मझली बोल पड़ी थी–’इसीलिए तो मैं तुझे समझा रही थी कि मेरे देवर के साथ तेरी जोड़ी खूब फबेगी। वह पापा की दुकान भी अच्छी तरह संभाल लेगा। और निपट भी सस्ते में ही जाएगा। ऐसे कीमती लड़के आजकल लाखों खर्च करने पर भी नहीं मिलते। पर मैं उसे किसी न किसी तरह मना ही लूंगी। फिर सब कुछ हम तीनों आपस में बांट लेंगे।’

     ‘और भैया? वह कहां जाएगा?’ दीक्षा आवेश में आ गई थी।

     ‘भैया को हम हॉस्टल में रख देंगे। और खर्चा तीनों आपस में बांट लेंगे।’ दोनों जैसे सोची समझी रणनीति के अंतर्गत किसी योजना पर कार्य कर रही थीं। उन्होंने भैया का भी समाधान प्रस्तुत कर दिया था।

      दीक्षा बिफर पड़ी थी–’नहीं! यह नहीं हो सकता। मैं भैया को अनाथों की तरह कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने दूंगी। वह जैसे पढ़ रहा है वैसे ही पढ़ता रहेगा। मैं उसपर लेशमात्र भी आंच नहीं आने दूंगी। उसके मां-बाप मर गए तो क्या हुआ? मैं तो हूं उसकी मां भी और बाप भी। रही  मेरे घर बसाने की बात तो उस बारे में तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। अपना अच्छा बुरा सोचने में मैं स्वयं सक्षम हूं।’

    ‘इसका मतलब सीधी तरह तू हमें कुछ भी नहीं देगी?’ जीजा भी आक्रामक मुद्रा में आ गए थे –’या तो पंचायत जोड़नी पड़ेगी या फिर कोर्ट कचहरी में मामला ले जाना पड़ेगा।पर तुझे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अपना अधिकार हम तरह से लेकर रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं।’ 

     ‘नहीं!’ दीक्षा सिंहनी की तरह गरज पड़ी थी–’इस घर की मान-मर्यादा को मैं कोर्ट कचहरी अथवा पंचायत की आश्रिता कभी नहीं बनने दूंगी। लोग हम पर कितना थूकेंगे कि लाला लक्ष्मीनारायण की बेटियां कितनी निकृष्ट निकलीं, बाप के प्राण निकलते देर नहीं हुई की लगीं आपस में लड़ने-झगड़ने,जैसे कुत्ते बिल्लियां हों।इस घर में से तुम्हें जो कुछ भी चाहिए ले जाओ किंतु घर की कलह सड़कों पर नहीं आनी चाहिए। लाला लक्ष्मी नारायण के नाम पर लांछन नहीं लगना चाहिए।’

      ‘और यह लाखों रुपए की मकान दुकान?… इन पर क्या स्वयं ही कब्जा जमाए रहेगी? ना बहन ना इतनी आसानी से हम अपना हिस्सा नहीं छोड़ने वालीं।’ बड़ी और मंझली दोनों सामूहिक स्वर में बोली थीं।

     ‘मकान की एक-एक ईंट तुम दोनों ले जाओ! लेकिन दुकान की ओर आंख उठाकर देखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। उस पर भैया का अधिकार है। मैं अपना अधिकार तो छोड़ सकती हूं किंतु भैया का अधिकार नहीं। जब तक वह दुकान संभालने लायक नहीं हो जाता तब तक मैं उसे संभालूंगी।’ वसुधा ने अपना वज्र निर्णय सुनाकर दोनों बहनों के मुंह पर ढक्कन लगा दिया था।

      उसी समय उसने अपना और भैया का सामान अटैचियों व दो बड़े बैगों में समेटा और भैया की उंगली थाम दुकान पर पहुंच गई। दुकान के पिछले हिस्से को जहां पापा खाली समय में विश्राम कर लेते थे सुव्यवस्थित कर दोनों के रहने योग्य स्थान बना सामान रख दिया। और भविष्य की योजनाओं का ताना-बाना बुनने में जुट गई कि परिस्थितियों का सामना करते हुए कैसे जीवन चक्र को आगे बढ़ाना है?

      उसने दुकान में विद्यमान वस्तुओं और लेखाबहियों का अवलोकन किया तो भोंचक रह गई। दुकान में व्यापार करने योग्य पर्याप्त सामग्री भी नहीं थी और व्यापारियों का ऋण भी बहुत था। शायद मम्मी के कैंसर ने ही पापा और दुकान दोनों को टूटन की स्थिति में पहुंचा दिया था। किंकर्तव्यविमूढ़ सी, नन्हें-नन्हें कंधों वाली दीक्षा समझ नहीं पा रही थी कि कैसे अपने अस्तित्व की रक्षा करे? कैसे भैया के भविष्य को संवारे? भैया का भविष्य नहीं बन पाया तो वह स्वर्गासीन मां को क्या उत्तर देगी? जटिल दुविधा नागिन सा फन फैलाए सामने आ खड़ी हुई थी। 

     कई दिन बड़ी अन्यमनस्कता में गुजरे। दुकान पर बैठी-बैठी वह खाली कनस्तरों व खाली अलमारियों को घूरती रहती। दुकान पर सामान नहीं तो ग्राहक कैसे आते? जो छुटपुट ग्राहक आते भी वे सामग्री को पुरानी व गंदी बताकर वापस कर जाते अथवा लड़ने पर उतारू हो जाते। कई बार मन होता कि जीवन से ही मुक्ति पा ले। किंतु भैया का ध्यान आते ही वह आत्मघाती कदम आगे बढ़ने से पूर्व ही पीछे हट जाता।

      कोई उपाय समझ में नहीं आया तो उसने पुराने अखबारों की विभिन्न आकारों वाली थैलियां बनाकर दुकानों- दुकानों पर बेचनी प्रारंभ कर दीं। लोग कटाक्ष करने से नहीं चूकते –’लाला लक्ष्मी नारायण की बेटी को इस तरह दुकानों-दुकानों घूमते लाज नहीं आती क्या?या बाप के साथ सारी शरम हया भी चली गई?’

     ‘काम ही तो कर रही हूं किसी से भीख तो नहीं मांग रही।’ आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूर वह आगे बढ़ जाती।

      किंतु थैलियों के इस कार्य में दो वक्त की रोटी तो जुटाई जा सकती थी भैया के स्कूल की महंगी फीस नहीं भरी जा सकती थी। उसके खर्च पूर्ण नहीं किए जा सकते थे। समस्याएं किसी भयावह अजगर की भांति मुंह फैलाए उसे समूचा निगल जाने को उतावली थीं।ऐसे निराशाजनक और अंधकारपूर्ण क्षणों में यकायक ही उसे प्रकाश की एक नन्ही सी किरण दिखाई दे गई… क्यों न पापा के व्यवसाय का मोह त्यागकर अपनी प्रतिभा का उपयोग किया जाए। बस यही युक्ति उसकी जटिल राह को आसान बना गई।

      पिछले जन्म दिवस पर पापा द्वारा उपहार स्वरूप पहनाई गई स्वर्णमाला को किसी अपरिचित सर्राफ को बेचकर वह कैनवास, पेंसिल, रबर, ब्रुश, रंग आदि पेंटिंग का सामान व फ्रेमिंग की सामग्री खरीद लाई और दुकान में ही बैठ विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां तैयार करने लगी।

     लोग किराने की दुकान में किसी लड़की को कलाकृतियां तैयार कर सजाते देखते तो उपहास उड़ाए बिना नहीं रह पाते–’भाई वाह क्या जमाना आ गया, अब दाल आटे की दुकानों पर तस्वीरें भी मिला करेंगी। पांच किलो दाल पर एक तस्वीर फ्री, दस पर दो…’

     किंतु वह सब कुछ सुनकर भी चुपचाप अपने कार्य में बड़ी तन्मयता से जुटी रहती। उसी में से समय निकालकर वह भैया के कार्य भी निपटाती। तैयार करके उसे स्कूल भेजती। उसे उसकी पसंद का खाना खिलाती चाहे स्वयं भूखी रह जातीऔर उसके स्कूल का कार्य भी करती करवाती।

     कला रसिक उसकी उंगलियों में रंगों के तालमेल से सृजित कलाकृतियों को बड़ी तन्मयता से निहारते परंतु खरीदने का साहस नहीं कर पाते। विभिन्न प्रकार की विभिन्न आकारों वाली कलाकृतियों का ढेर लगता जा रहा था जबकि खरीदार कहीं दिखाई नहीं पड़ते थे। एक बार पुनः हताशा के भंवर में डूबने उतराने लगी वह। सारा प्रयत्न निष्प्रयोज्य प्रतीत होने लगा था। पास भी कुछ नहीं बचा था जो आगे का कार्य चल पाता।

      संयोग ही था कि सफेद कैनवास पर मात्र गहरी काली पेंसिल से उकेरे गए जीवंत से प्रतीत होने वाले राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों के स्मृतिचित्रों पर नगर भ्रमण पर निकले प्रादेशिक  कला एवं सांस्कृतिक मंत्री की पारखी निगाह पड़ गई। अपने ऐश्वर्यमयी भवन के विशाल सभागार की शोभावर्धन हेतु उन्होंने वीर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल, रामप्रसाद बिस्मिल आदि अनेकों चित्रों को खरीद लिया। उनके साथ चल रहे पत्रकारों ने अपने-अपने समाचार पत्रों में इस समाचार का खूब महिमामंडन किया। फिर क्या था फिर तो लोगों का उसके चित्रों के प्रति प्रषुप्त कौतुक जाग पड़ा। और उसके चित्रों की महत्ता तत्काल बढ़ गई। उसके बनाए चित्रों को खरीदने की लोगों में होड़ सी मच गई। हर कला रसिक के अतिथि कक्ष में उसकी कलाकृतियां सजने लगीं। कला के क्षेत्र में उसका नाम नगर की सीमाओं को पार कर दूर तक छा गया। 

     चित्रों की प्रसिद्धि हुई तो कला प्रेमी शिक्षार्थियों की भी उसके पास भीड़ जुट गई। अनेक विद्यार्थी अलग-अलग समूहों में उससे कला का ज्ञान प्राप्त करने लगे। दुकान का सीमित स्थान अपर्याप्त लगा तो समीपस्थ  एक पूरा भवन ही उसने अपने कला केंद्र के लिए किराए पर ले लिया।

     जीवन में खुशियों का मलय पवन एक बार पुनः मधुर सुगंध के साथ प्रवाहित हो उठा। कलाकृतियों के निर्माण तथा शिक्षार्थियों के शिक्षार्जन में वह इतनी व्यस्त रहने लगी कि अपने लिए लेशमात्र भी समय नहीं निकाल पाती। किंतु भैया के प्रति वह पूर्ण सजग थी। उसके भविष्य निर्माण में कोई कमी न रह जाए इसका हर पल ध्यान रखती। उस पर ममत्व उड़ेलती।हर कदम पर उसका ऐसे मार्गदर्शन करती जैसे कोई मां हो, उसे आकाश की ऊंचाइयों के स्पर्शन के लिए ऐसे उत्प्रेरित करती जैसे कोई पिता हो। उसे शैक्षिक क्षेत्र के अस्पर्श्य, अदृश पहलुओं का ऐसे ज्ञान कराती जैसे कोई गुरु हो।

     जिंदगी में सर्वाधिक खुश,सर्वाधिक उत्साहित, सर्वाधिक रोमांचित वह उस दिन हुई थी जब भैया ने अपनी डी. लिट की उपाधि उसके हाथों में थमा चरणों में शीश झुकाया था और साथ ही डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पा लेने का समाचार भी सुनाया था। हर्षाश्रु उमड़ पड़े थे उसके बंद नेत्रों से। मम्मी-पापा के तैलीय चित्र के सामने पता नहीं कितनी देर तक सुबकती रही थी वह। उस सुबकने में आत्मिक संतोष की अनुभूति थी, तपस्या सार्थक हो जाने का हर्ष था, लक्ष्य पा लेने की भावुकता थी और सपना पूरा हो जाने की खुशी थी।

      किसी अपनी पसंद की लड़की से भैया का विवाह करने को अधीर हो उठी थी वह। उमंगों को पंख लग गए थे। कभी भी वह कल्पनाओं के आकाश में उड़ने लगती… उड़ते-उड़ते घोड़ी पर दूल्हा बने बैठे भैया के सामने झूम- झूमकर नाचने लगती, इठलाने लगती, गाने लगती, नवागत भाभी पर किसी सास की तरह अधिकार जताने लगती।  परिश्रम, त्याग और अभावों के पाषाणी मार्ग पर चलते-चलते कर्कश और रुक्ष हुए अपने पैरों को भाभी के कोमल  हाथों से दबाए जाने का सुख अनुभूत करने लगती। 

     किंतु कल्पनाओं के आकाश से जब यकायक ही वह यथार्थ के कठोर अकल्पित धरातल पर गिर पड़ी तो उसका समूचा अस्तित्व ही बिखरकर रह गया। लगा… उसका अस्तित्व तो कुछ भी नहीं है,जो कुछ था भी वह शून्य में विलीन हो चुका है… किरचा-किरचा होकर बिखर चुका है।

     भैया लाल जोड़े में लिपटी, छुईमुई सी, लाज से सकुचाई हुई नववधू के साथ उसके सामने दृष्टि नत किए दबे स्वर में आशीर्वाद मांग रहा था–’जीजी हमें आशीर्वाद दीजिए! हमने सप्ताह भर पूर्व आर्य समाज मंदिर में शादी कर ली है। कुल्लू मनाली की यात्रा से हम अभी अभी ही लौटे हैं। और सबसे पहले आपका ही आशीर्वाद मांगने आए हैं।’

      स्तब्ध रह गई थी दीक्षा और केवल स्तब्ध ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे विचारों अथवा संवेदनाओं के विहंगम कहीं दूर नीलगगन में उड़ गए हों। बड़ी मुश्किल से अथरोष्ठ खुल सके थे उसके और उनसे लरजते-कंपकंपाते मात्र कुछ शब्द निकल सके थे–’हमेशा खुश रहो!’

     उसी दिन से उसके होठों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई थी। दिल में चाहे कितना ही भयंकर झंझावात उमड़ा, किंतु अधरों की सीमा लांघकर कोई भी शब्द ऐसा बाहर नहीं आ पाया जिससे भैया की सुखशांति में व्यवधान पड़ पाता।पर भाभी का उन्मुक्त, अशिष्ट, निर्लज्ज आचरण उसके धैर्य को चुनौती दे गया। उसने भाभी से दबे स्वर में मात्र इतना भर कहा था–’बहू! घर की मान-मर्यादा का कुछ तो ध्यान रखा करो! इस तरह आधे अधूरे से वस्त्रों में तुम वक्त बेवक्त कभी भी बाहर निकल पड़ती हो! भले घर की बहू-बेटियों को यह शोभा नहीं देता।’

     भाभी घायल नागिन की भांति फुफकार उठी थी जैसे न जाने कबसे अपनी आंखों की किरकिरी बनी दीक्षा पर प्रहार करने को छटपटा रही हो–’जीजी! आखिर इस घर पर क्या अधिकार है तुम्हारा?…’ 

     भाभी के विषबुझे शब्द कलेजे में तीर की तरह चुभे थे।और भाभी के शब्दों से ज्यादा पीड़ा तो भैया के आचरण ने पहुंचाई थी। 

      सोचते-सोचते उसके मुख से स्वत: ही एक चीख उस सघन तिमिराच्छादित रात्रि में निकलकर दम तोड़ गई–’नहीं! कोई अधिकार नहीं!…’

      चीख  के साथ ही सद्योदृष्ट अतीत रेत के खोखले भवन की भांति हवा के एक हल्के झोंके से ही कण-कण बिखर गया। वह चैतन्य हुई तो उसने महसूस किया कि उसका सर्वांग स्वेद बिंदुओं से लथपथ है और गला भी शुष्क है। उसने उठकर बाहर झांका। रात आधी से भी ज्यादा व्यतीत हो चुकी थी और उसकी आंखों में दूर-दूर तक भी नींद का नामोनिशान नहीं था।वातावरण में गहन सन्नाटा पसरा पड़ा था। सब निद्रा के आगोश में दुबके पड़े थे। बस आकाश में नन्हें-नन्हें दीप जैसे तारे टिमटिमा रहे थे। उसने एक घूंट जल कंठ में उतारा और सहज होकर मन ही मन एक वज्र निर्णय ले डाला… बिल्कुल वैसा ही वज्र निर्णय जैसा उसने पापा-मम्मी के असामयिक अवसान के बाद बड़ी बहनों के आचरण से क्षुब्ध होकर लिया था।

      उसने एक पेपर पर लिखा– ‘भैया! मैं तो अब तक जिंदा ही तेरी खुशी के लिए थी और तेरी एक नन्ही सी खुशी के लिए मैं एक नहीं अनेक जिंदगियां न्यौछावर कर सकती हूं। वरना मर तो मैं उसी दिन गई थी जब मेरी स्वयं की सहोदरा बहनों ने गृह निर्वासित करके मुझे दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया था। किंतु अब जब जिंदगी की सारी खुशियां तेरे दामन में आ गिरी हैं और तुझे लग रहा है कि मैं तेरी खुशी में बाधक हूं, तो तेरा गृह निर्वासित कर मैं स्वयं ही जा रही हूं। मेरा क्या है कहीं भी किसी भी फुटपाथ पर बैठ दो चित्र बना दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर ही लूंगी। पर तू हमेशा खुश रहे यही मनोकामना है।

 — तेरी शुभाकांक्षी “जीजी”!

     ...... और एक अटैची में अपना घर संसार समेटकर भोर का उजाला धरती पर पसरने से पूर्व ही दीक्षा उस घर से निकल पड़ी… एक अनजान राह, अनजान आश्रय और अनजान भविष्य की ओर…

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़,बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

मो.9411012039

रविवार, 14 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख ....जीवन के सत्य और ज्ञान के साधक ....। यह प्रकाशित हुआ है डॉ महेश दिवाकर द्वारा संपादित कृति ...साहित्यकार योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई अमृत महोत्सव ग्रंथ में । इस कृति का लोकार्पण रविवार 14 जुलाई 2024 को पंचायत भवन में आयोजित भव्य समारोह में हुआ ।


शांति और सद्भाव के पक्षधर, सत्य के दर्शन के अभिलाषी, कर्मयोगी, साहित्य साधना में रत श्री योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई का सम्पूर्ण काव्य सृजन सत्य और ज्ञान की साधना है जिसमें जीवन के विविध रंगों के दर्शन होते हैं। उनके गीतों में जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद आशा निराशा की सहज अभिव्यक्ति है । उनकी रचनाओं में जहां जीवन का कटु यथार्थ है वहीं सामाजिक विषमताओं विसंगतियों को भी उन्होंने काव्य के माध्यम से उजागर किया है। राष्ट्रवाद भी उनकी अनेक रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है तो कहीं-कहीं वह जनवादी मूल्यों को भी उजागर करते हैं।

     जीवन की समस्याओं, दुख और पीड़ाओं को वह अभिव्यक्त तो करते हैं लेकिन निराश नहीं होते वह आशाओं के दीप जलाते हुए ईश्वर की परम सत्ता को स्वीकारते हैं और अध्यात्म की ओर उन्मुख हो जाते हैं। वह मन का संबल जुटाते हुए, जीवन में चुभने वाले प्रश्नों का हल खोजते हैं। वह कहते हैं दुख हमें इस नश्वर जग का सत्य स्वरूप दिखाता है। वह हमें बताता हैं कौन अपना है और कौन पराया है। वह आह्वान करते हैं पुण्य को संवारने का, अपने कर्म को सुधारने का, सेवा– भाव– समर्पण से मन के निर्मल भावों को जगाने का । उनका मानना है कि इस क्षणभंगुर जीवन का एक पल भी हमें बेकार न करते हुए खुश होकर जीना चाहिए। वह कहते हैं मनुष्य का जन्म तभी सार्थक है जब वह अपने मन का मैल धोकर सत्कर्मों की ओर प्रेरित हो और सद् व्यवहार से समरसता की पावन रसधार बहाता रहे क्योंकि सेवा, समर्पण और सद्भावना से परिपूर्ण जीवन जीना ही उसकी पहचान है। अपने काव्य सृजन के संबंध में वह स्वयं कहते हैं..... अपने काव्य सृजन के संबंध में श्री विश्नोई जी स्वयं कहते हैं

 

गीत नहीं ये समाधान है, 

 जन-जीवन की उलझन के। 

 ध्यान पूर्वक पढ़ो तो समझो,

 मानस मूल्य समर्थन के ।।


शब्द-शब्द में उस विराट की, 

भावभीनी है गंध भरी। 

जिसकी दया दृष्टि पाने को, 

भजते योगी, जपी- तपी ।।


उसी ज्योति की शुभ्र किरण

 पंक्ति-पंक्ति में बिखरी है। 

 अन्तर मन का तम हरने को 

 भावलोक से उतरी है ।।


भाव प्रसूनों की माला है, 

ज्ञान ध्यान से, जपी गई।

सहज पार करने भव सागर, को 

मोक्ष द्वार से लगी हुई ।।




✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822