रविवार, 29 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (9).....कटना तो खरबूजे को ही है

   


डॉ. पी.सी.जोशी संभवतः सन् 1972 के मध्य तक के.जी.के.महाविद्यालय, मुरादाबाद के प्राचार्य रहे। उनके बाद मथुरा के प्रोफेसर डॉ. बी.एल. शर्मा प्राचार्य के पद पर आसीन हुए, पर वह भी अधिक दिन नहीं टिके। उनके बाद जब मैं सन् 1974 में एम.ए.प्रीवियस का विद्यार्थी था तब प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप प्राचार्य पद पर आसीन हुए।प्रबंधक ने उनकी नियुक्ति कार्यवाहक प्राचार्य के पद पर डॉ.बी.एल.शर्मा के पद छोड़ने के बाद की थी। सन् 1976 में प्रशासन के अधीन हुआ महाविद्यालय संभवतः सन् 1976-77 शैक्षिक सत्र के अंतिम दिनों में प्रबंधन समिति के हाथों में वापिस आ गया था।यद्यपि मेरी अस्थाई प्रवक्ता के पद पर पहली बार नियुक्ति प्रोफेसर मेजर पी.एन.टंडन के प्राचार्य रहते सन् 1976 के फरवरी माह में हो चुकी थी। मेरी यह अस्थाई नियुक्ति तत्कालीन महाविद्यालय के प्रशासक /जिलाधिकारी फरहत अली साहब के हस्ताक्षरों से एप्रूव हुई थी, जो केवल दो महीने के लिए ही थी। महाविद्यालय प्रबंध समिति के हाथों में आने पर प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप को हटा कर डॉ. आर.एम. माथुर प्राचार्य बना दिए गए। नवंबर सन् 1977 में मेरी पुनर्नियुक्ति डॉ.आर.एम.माथुर के रहते ही हुई और मुझे प्रबंधक के हस्ताक्षरों से नियुक्ति-पत्र मिला। मेरी उस दिन की खुशी अपार थी।

    मैं पिछले सत्र में नियुक्त होकर जब पहली कक्षा पढ़ाने गया, तो पूरी कक्षा भरी हुई थी। कक्षा के आगे का बरामदा भी खचाखच भरा हुआ था।इस स्थिति को देखकर उस दिन प्राचार्य मेजर पी.एन.टंडन की अनुपस्थिति में ऑफीसिएट कर रहे डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत मेरे कक्ष में आए और मुझे निर्देशित किया कि त्यागी पहले अटैंडेंस लो,तब पढ़ाओ। मैंने त्रिगुणायत सर से कहा कि सर आप चिन्ता मत कीजिए मैं सब सँभाल लूँगा।वह चले गए और मैंने अपना परिचय देते हुए कक्ष में एकत्रित छात्रों के समक्ष सामान्य वक्तव्य दिया। विद्यार्थी प्रभावित हुए और जो उस कक्षा के विद्यार्थी नहीं भी थे वह भी संतुष्ट होकर कक्षा से अपने आप ही बाहर निकलते गए तथा कक्षा में केवल अधिकृत  विद्यार्थी ही रह गए। तत्पश्चात मैंने अधिकृत विद्यार्थियों का संक्षिप्त परिचय जाना। पैंतालीस मिनट का घंटा भी पूरा होने को ही था, घंटा बज गया। मैंने विद्यार्थियों को कहा कि कल से पढ़ाई शुरू। अध्यापन के पहले दिन के पहले घंटे की इतिश्री इस प्रकार करके मैं बहुत प्रसन्न था।कई अन्य प्रोफेसर ने भी मुझे क्लास हैंडिल करते हुए देखा और मुझसे संतुष्ट हुए तथा मेरे कक्षा से बाहर आने पर उन सभी ने मुझे जमकर बधाई दी।

          दूसरे दिन मैं पूरी तैयारी के साथ कक्षा में गया और अपनी पूरी ऊर्जा से पढ़ाया। विद्यार्थियों की ओर से आई शंकाओं के समाधान भी संगत और सटीक सुझाए। विद्यार्थी प्रसन्न हुए। मेरे पढ़ाने की विद्यार्थियों में हुई प्रशंसा की कानाफूसी उड़ती हुई मेरे विभागीय वरिष्ठों और अन्य प्रोफेसर्स तक भी पहुँच गई। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे टाइम टेबल में विभागाध्यक्ष जी ने मुझे एक पीरियड एम.ए (प्रीवियस) और एक पीरियड एम.ए. ( फाइनल) का एलाट करके टाइम टेबल फाइनल कर दिया। मैं एम.ए. की दोनों कक्षाओं में गया तो विद्यार्थियों से जानना चाहा कि वह मुझसे क्या पढ़ना चाहते हैं? एम.ए.(प्रीवियस) के विद्यार्थियों ने कहा - "हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और "नई कविता' जिन्हें विद्यार्थियों को पिछले कई सत्रों से नहीं पढ़ाया गया था। एम.ए.(फाइनल) के विद्यार्थियों ने मुझसे "साहित्य शास्त्र और समालोचना" पढ़ाने का आग्रह किया।मेरे लिए यह कठिन तो था लेकिन असंभव नहीं था। मैंने पढ़ाने के लिए घर पर छ:-छ: घंटे पढ़ने में लगाए लेकिन छात्रों को शीशे जैसा करके पढ़ाया। विद्यार्थी मुझसे पढ़ने को लालायित रहने लगे। यहाँ तक की कुछ विद्यार्थी अपनी छठी कक्षा छोड़ कर 12 बजे ट्रम्बे से अमरोहा निकल जाते थे,वह भी कक्षा में आने लगे और मेरी वह कक्षा भी भर गई जिसमें कि सन्नाटा पसरा रहता था।

     अस्तु! प्रशासनिक व्यवस्था में जाने के बाद केजीके महाविद्यालय लगभग एक वर्ष में ही उस व्यवस्था से मुक्त होकर मैंनेजमैंट के हाथों में वापिस आ गया था। प्राचार्य डॉ.आर.एम.माथुर साहब इस उपलक्ष्य में एक भव्य आयोजन कराना चाहते थे।मैंनेजमैंट और प्राचार्य जी की योजना तत्कालीन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम डॉ.श्री एम. चेन्नारेड्डी जी को आमंत्रित करने की बनी। उन दिनों महामहिम महाविद्यालयों के दौरों पर खूब जा रहे थे और अध्यापकों की खाट जमकर खड़ी कर रहे थे, यहाँ तक कि कभी-कभी ऐसा कुछ भी बोल जाते थे जो उनके पद की गरिमा के लिए भी शोभनीय नहीं था। हमारे महाविद्यालय के प्रबंधन को भी महामहिम के कार्यालय से डेट मिल गई थी। संभवतः फरवरी अंत या मार्च प्रारंभ की डेट थी।जब महामहिम के कार्यक्रम को सफल बनाने पर जोरों पर मीटिंग्स हो रहीं थीं तो एक दिन मुझे भी मीटिंग में बुलाया गया। मैं गया, प्राचार्य जी ने मुझे विस्तृत कार्यक्रम से अवगत कराते हुए कहा कि कारेन्द्र तुम्हें इस कार्यक्रम में अपने मक्खन मुरादाबादी की भूमिका का निर्वहन करना है और एक कविता यह लक्ष करके पढ़नी है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों में एडमिनिस्ट्रेटर बैठाना उचित नहीं है क्योंकि संस्थाओं की अपनी साख गिरती है और उनका नियमित शिक्षण कार्य बाधित होकर पिछड़ता है। मैंने प्राचार्य जी को बताया कि सर,उस दिन तो मेरी प्रथमा बैंक की परीक्षा है। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किसने कहा कि तुम्हें अन्य कहीं नौकरी करने की आवश्यकता है। नौकरी में हो न।अब तुम कहीं नहीं जाने वाले। मैंने प्राचार्य जी का आदेश माना जबकि प्रथमा बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष मेरी हसनपुर मित्र मंडली के घनिष्ठ मित्रोँ में थे। अस्तु मैंने उस आयोजन के लिए रचना रच डाली। प्राचार्य कार्यालय में उपस्थित सभी ने सुनकर बहुत वाहवाही की। विद्यालय अपनी तैयारी में और मैं अपनी तैयारी में जुट गए। एक बड़े अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में सहभागिता जो करनी थी।

       वह दिन भी आया जब महामहिम महाविद्यालय में प्रविष्ट हुए और उनके प्रटोकोलीय सम्मान के साथ उनको महाविद्यालय के सभा भवन में ले जाया गया। उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया। प्रारंभ में कुछ औपचारिकताएं संपन्न हो जाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में सरस्वती वंदना और महामहिम के स्वागत गान के साथ भव्य आयोजन का  प्रारम्भ हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला के बीच ही मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। मेरी कविता में प्रबंध समिति का गुणगान और प्रशासनिक व्यवस्था पर कुछ प्रश्न उठाए गए थे।वह पूरी कविता मेरे पास आज कहीं भी नहीं है लेकिन जो उसका निचोड़ था उसके लिए ये पंक्तियाँ थीं -----

"क्या फर्क पड़ता है 

खरबूजा छुरे पर गिरे

या खरबूजे पर छुरा,

किसका भला होता है 

किसका बुरा।

कटना तो खरबूजे को ही है!"

इस रचना को पढ़कर मैं सभा भवन से बाहर निकल आया था। सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था। कुछ देर बाद मैं सभागार में लौट गया और सीट देखकर बैठ गया। भव्य कार्यक्रम का भरपूर आनन्द लिया।अब महामहिम की बारी थी। उन्होंने मेरी कविता की निन्दा करते हुए अपनी बात शुरू की और उस पर बोलते गए, निशाने पर मैं था। मुझे बाहर ड्यूटी पर तैनात एस.पी. साहब ने एक सिपाही को भेजकर बुलवाया। मैं बाहर आया और उनसे मुखातिब हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा कि मक्खन जी आप घर चले जाइए। महामहिम का कोई भरोसा नहीं है कि वह कहें कि इस कवि मास्टर को अरैस्ट कीजिए। मैं विद्यालय से घर चला आया। अगले दिन महाविद्यालय जाने पर मेरी खूब पीठ थपथपाई गई। वह दिन बीत गया, और दिन बीतते गए लेकिन महामहिम की इस झल्लाहट का केजीके इंटर कॉलेज के प्रवक्ता आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद खन्ना जब तक रहे तब तक मुझे देखते ही कहते - " कटना तो खरबूजे को ही है !" उन्होंने आजीवन इसका खूब आनन्द लिया। उनकी स्मृतियों को प्रणाम।

 ✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल : 9319086769 


शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह 'ओंकार' का बाल गीत ....खेल-खेल में कर लो मेल



समय मिले तो खेलो खेल ।

खेल-खेल में कर लो मेल ।।


खेल चुको तो पढ़ो किताब।

ऊंचे-ऊंचे देखो ख़्वाब।।


चित्र बनाओ सुंदर-सुंदर ,

जैसे झरने ,बाग़,  समंदर ,

गाय, भैंस या बैल बनाओ,

उन्हें रंगों से ख़ूब सजाओ,

हरी-भरी फ़सलें लहराओ, 

और पेड़ फलदार बनाओ,

 चित्रित करो फूलती सरसों 

जिससे बने पौष्टिक तेल ।।


लगे काम में रहो ज़रूर ।

चिंताएँ सब होंगी दूर ।।


काम बनें यदि शौक तुम्हारे,

हुनर बनेंगे ये फिर सारे, 

 जीवन के रस्ते पर प्यारे, 

ये देंगे  कल तुम्हें  सहारे, 

मार-पीट से बचो हमेशा, 

बढ़िया तो है यही संदेशा,

सुख के फल भी लगें वहीं पर

जहॉ प्यार की होती बेल  ।।


दुख देना होता है पाप ।

सबसे अच्छा मेल-मिलाप ।।


जिसने प्रेम लुटाना सीखा, 

प्यार सभी का पाना सीखा, 

सदा बुराई से कतराना, 

ख़ुशबू बनकर जग महकाना, 

जो औरों पर प्यार लुटाए, 

वह दुनिया में नाम कमाए,

बात पते की तुम्हें बताऊँ 

छोड़ दुश्मनी कर लो मेल ।।


✍️ओंकार सिंह 'ओंकार'

1-बी-241 बुद्धि विहार , मझोला, 

मुरादाबाद 244103

 उत्तर प्रदेश , भारत 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कृति ....रामपुर के रत्न (भाग 1) । यह पुस्तक वर्ष 1986 में सहकारी युग साप्ताहिक रामपुर द्वारा प्रकाशित हुई थी। इसमें रामपुर के स्वतंत्रता सेनानियों, साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के जीवन-चरित्र विस्तार से लिखे गए हैं। अब पुस्तक उपलब्ध नहीं है। केवल एक प्रति रामपुर रजा लाइब्रेरी में सुरक्षित है।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी जी को याद करते हुये भोपाल के साहित्यकार मनोज जैन का विस्तृत आलेख ...कहाँ तुम चले गए : दादा । उनका यह आलेख हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती के अप्रैल 2024 अंक में प्रकाशित हुआ है ।

     


      कुछ सत्य ऐसे होते हैं जो भले ही अकाट्य क्यों न हों पर उन्हें अपना भावुक मन मानने को जरा भी तैयार नहीं होता। यथार्थ और वस्तु स्थिति से अवगत होते हुए भी मनः स्थिति सत्य को जानते समझते हुए भी बार-बार झुठलाना चाहती है। ऐसा ही एक सत्य हमारे सामने दिनांक 16, अप्रैल 2024 को घटित हुआ जिसकी पहली सूचना मुझे देश के यशश्वी कवि और दादा के मन के अत्यंत निकट रहने वाले यश मालवीय जी के माध्यम मोबाइल फोन पर मिली " मनोज भाई एक बुरी खबर है, शायद आपको मालूम नहीं माहेश्वर जी अब हमारे बीच नहीं रहे!

     यह वही अकाट्य सत्य था जिसे जिसे मन मानने को कतई तैयार नहीं था। मैंने सबसे पहले दादा के मानस पुत्र अग्रज योगेन्द्र वर्मा व्योम जी की वाल स्क्रॉल की उनकी स्क्रीन पर यह दुखद समाचार देख कर मन बैचेन और अशांत हो गया।चित्त में उनके एक नवगीत की पंक्ति रह रह कर अंतरमन  को मथने लगी। 

       "एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है। बेजुवान छत दीवारों को घर कर देता है। ख़ाली शब्दों में/ आता है/ ऐसे अर्थ पिरोना/ गीत बन गया-सा/ लगता है/ घर का कोना-कोना/ एक तुम्हारा होना/ सपनों को स्वर देता है/ आरोहों-अवरोहों से/ समझाने लगती हैं/ तुमसे जुड़ कर चीज़ें भी/बतियाने लगती हैं/ एक तुम्हारा होना/ अपनापन भर देता है ।

              अकेला मुरादाबाद ही क्या पूरा देश ही दादा का घर था। इस नवगीत के मूल में दादा के ना होने की कसक हर उस मन को सालती है जो उनसे किसी न किसी बहाने एक बार मिला भर हो। दादा माहेश्वर तिवारी जी अब हमारे बीच नही हैं। यों तो मैं दादा के छोटे-छोटे मीटर के छोटे अधिकतम दो या तीन बंद के नवगीतों को उनसे मिलने के, एक दशक पहले से परिचित रहा हूँ, आज भी बहुत से उनके नवगीत अक्षरशः कंठस्थ हैं। दादा माहेश्वर तिवारी से मेरी पहली भेंट के बाद, यह दूसरी भेंट थी जो दिनाँक 21, फरवरी 2016 को, आरोही कला संस्थान, मुरादाबाद के एक आयोजन में हुई थी। अग्रज योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के आमंत्रण पर मुझे आरोही कला संस्थान के भव्य कार्यक्रम में दादा के साथ मंच पर बैठने, पाठ करने, और उन्हें जी भरकर सुनने के साथ-साथ यहाँ के वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलने का सुअवसर मिला था। यह यात्रा कई मायनों में यादगार साबित हुई। कहते हैं की यात्रा हमारे जीवन में बहुत से अनुभवों को जोडती है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मुरादाबाद की इस यात्रा से जुड़ा दादा के सन्दर्भ में कत्थई कलर का वह बहुत प्यारा श्वेटर याद आ रहा है, जिसमें दादा के मन की स्नेहासिक्त तरलता और संवेदनशीलता की विराटता के दर्शन होते हैं। सचमुच यह प्रसङ्ग हम सब के लिए भावुक करने के लिए काफी है साथ ही अनुकरणीय उदाहरण भी है।

   अग्रज आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी ने कार्यक्रम के कुछ दिन बाद मेरे पास कुछ फोटोग्राफ्स भेजे जिनमें से एक फोटो ने इस लेख को लिखते समय मुझे रुला दिया। दरअसल  कत्थई कलर के श्वेटर से जुड़ा प्रसङ्ग है जो मैंने स्वयं को फोटोग्राफ में पहने देखा जो, दादा माहेश्वर तिवारी जी ने मुझे जिद करके पहनाया था। उस दिन अचानक मौसम बदल गया। मुझे कँपकपाते देख यह बात मन ही मन ताड़ ली दादा उठे और सीधे ऊपर वाले हॉल में ले गये, जहाँ दादा ने अपनी एक अलमारी में बहुत सारे श्वेटर सम्हालकर रखे थे। दादा ने अलमारी खोली और मेरे सामने श्वेटरों का ढेर सारा अम्बार लगाते हुये कहा, "पहले अपना बचाव फिर कविता! चलो, इनमें से कोई सा भी श्वेटर जल्दी से पहनो लो मौसम ठंडा है और तुम्हें कार्यक्रम के ठीक बाद निकलना भी है।" लौटने की जल्दी इसलिए थी की ठीक अगले दिन मुझे अपने एक रिलेटिव के यहाँ समारोह में पहुचना था और इस दृष्टि से मेरे पास समय बहुत कम था।

    दादा की तरल संवेदना से जुड़ा यह संस्मरण, मुझे प्रसंगवश अग्रज योगेंद्र वर्मा व्योम जी ने आज फिर, सात साल बाद याद दिला दिया। आरोही कला संस्थान मुरादाबाद के इस आयोजन का, आमन्त्रण आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के माध्यम से ही मेरे पास आया था। मुरादाबाद के अनेक चर्चित साहित्यकारों सर्वश्री कृष्णकांत नाज़ साहब , आनन्द गौरव जी, जिया ज़मीर साहब सहित अनेक गणमान्य जिन्हें पत्र पत्रिकाओं सहित मुरादाबाद की साहित्यिक गतिविधियों में पढ़ने का सौभाग्य समय समय पर मिलता रहा उन सभी विभूतियों से मिलने का सुयोग यहीं बना।

                 कार्यक्रम के उपरान्त भोपाल वापसी के लिए, देर रात बस तक ड्राप करने हमारे एक और अनन्य आत्मीय साहित्यिक मित्र डॉ.अवनीश सिंह चौहान जी से कार्यक्रम स्थल से बसअड्डे तक की वार्ता आज भी जस की तस स्मृतियों में बनी हुई है। एक तरलता ही तो है, जो हमें परस्पर जोड़े रहती है। यह तरलता हमारे मध्य आज भी जस की तस है। अब दादा सशरीर हमारे मध्य भले ही न हों पर उनकी अनन्त स्मृतियां जस की तस हैं।

          माहेश्वर तिवारी जी का फोन अक्सर आता और वे सबकी खबर लेते हाल-चाल पूछते। मीठे स्वर में उनकी वार्ता के नवगीत का अक्सर पहला मुखड़ा यही होता था।  "बहु बच्चे कैसे हैं?"

 "और सब ठीक तो है न" 

  और फिर अगले अंतरों में 

भोपाल साहित्य जगत के क्या हाल चाल हैं? 

डॉ.रामवल्लभ आचार्य जी कैसे हैं कभी कभार तांतेड़ जी का भी पूछते ? 

       बगैरह बगैरह, वार्ता क्या पूरा गीत का माधुर्य होता था उनकी बातचीत में।

            सिर्फ मेरे ही नहीं, पूरे परिवार के, और पूरा परिवार ही क्या पूरे भोपाल की खैर खबर लेते दादा की वार्ता 'थीक है' वाक्य की चार-पाँच बार की पुनरावृति पर समाप्त होती।

   एक बड़ा रचनाकार वही होता है जो निष्प्रह भाव से परवर्ती, पूर्ववर्ती और अपने समकालीनों यानी तीन पीढ़ियों के त्रिकोण में स्वाभाविक सम्यक संतुलन साधने की कला में निष्णात हो। दादा के व्यक्तित्व में यह बात थी। नवगीत के मामले में वे ट्रेन्ड सैटेर नवगीतकार थे,जो लिखा पुख्ता लिखा, और ऐसा लिखा कि लिखे का विस्तार सैकड़ों रचनाकारों की पंक्तियों मिल जाएगा।

              यह बात प्रसंगवश नहीं कह रहा हूँ बल्कि इसे पुख्ता प्रमाण के तौर पर भी कहना चाह रहा हूँ। फेसबुक पर आज के चर्चित वागर्थ समूह और वागर्थ ब्लॉग के आरम्भिक रूप चित्र में, मैंने (दादा के साथ कॉफी पीते हुए) तस्वीर जोड़ी थी। यह विशेष क्लिप हमें योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के मोबाइल से मिली थी। वागर्थ के इस रूप चित्र को मैं दादा का आशीर्वाद ही मानता हूँ।आज समूह वागर्थ के स्तर की धमक पूरे देश में है यहाँ तक की देश से बाहर अनेक देशों में वागर्थ समूह पढ़ा जाता है। दादा वागर्थ के अनन्य प्रशंसकों में से एक थे। हमनें दादा के नवगीतों के साथ साथ समकालीन दोहों की कुछ पोस्ट समूह में जोड़ी जिनको मुक्तकण्ठ से सराहा गया। सोशल मीडिया पर दादा की उपस्थिति उनके स्वस्थ्य रहने तक बनी रही। वे निरन्तर अपनी वाल से लेकर विभिन्न समूहों में आवाजाही करते और अच्छा लगने पर टिप्पणियाँ भी करते थे उनकी सघन टिप्पणियाँ संग्रहनीय है और अब तो धरोहर भी वागर्थ उनका प्रिय समूह था जिसकी प्रसंशा वे मुक्तकण्ठ से किया करते थे। मुझे याद है जब उन्होंने वागर्थ समूह में उन्हीं के शहर मुरादाबाद की युवा कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर के नवगीत पढ़े और उन गीतों की सराहना की।निःसन्देह इस सराहना ने मीनाक्षी ठाकुर को और बेहरत रचने के लिए प्रेषित किया है।

      ऐसा ही एक प्रसङ्ग मुझे कुछ वर्षों पहले का आता है जब जागरण में माहेश्वर जी का एक साक्षात्कार पढा था जिसमें एक उन्होंने नवगीत के क्षेत्र में उभरने वाली नई सम्भावनाओं में चार छह नाम लिए थे जो आज नवगीत के क्षेत्र में अपना श्रेष्ठ प्रदान कर रहे हैं। इन नामों में हमारे शहर के युवा नवगीतकार चित्रांश बाघमारे भी एक हैं जिन्हें दादा का आशीर्वाद मिला सिर्फ चित्रांश ही अनेक नवोदितों और स्थापितों का नाम माहेश्वर जी लिया करते थे प्रकारान्तर से कहें तो उनके के सृजन को सम्मान दिया करते थे। इसीलिए दादा बड़े थे।

                          दो

       संचारक्रांति के चलते सोशल मीडिया पर साहित्यिक उपस्थिति पिछले दो ढाई दशकों में बहुत ज्यादा बढ़ी है। हम में से हर एक के पास एंड्रॉइड फोन और टच स्क्रीन पर सॉफ्ट साहित्य का अनन्त रंगीन संसार उपलब्ध है। मैंने भी लोगों की साहित्यिक  अभिरुचि और सक्रिय उपस्थित पर मंथन किया और दो समूहों की स्थापना ठीक आज से दस से पहले की ।

   पहले साहित्यकारों को वाट्स एप समूह से जोड़ कर उन्हें सद्साहित्य परोसा फिर उन दोनों समूहों को पाठकों की अभिरुचि और बढ़ती सँख्या को देखकर उन्हें 'वागर्थ' और 'अंतरा' समूह से जोड़ दिया आज दोनों समूहों में पाठक सदस्यों की संख्या पाँच अंकों में है और जोड़ी जाने वाली पोस्ट को देखने पढ़ने वालों की संख्या देश विदेश में लाखों से ऊपर है। अकेले ब्लॉग वागर्थ में ही 50,000 पृष्ठों की सामग्री इन दोनों समूहों से उठाकर हमनें जोड़ी है। इन दोनों समूहों हमें और ब्लॉग वागर्थ को दादा माहेश्वर तिवारी जी का प्रत्यक्ष और परोक्ष आशीर्वाद था।

उनकी सैकड़ों टिप्पणियाँ इस बात का पुख़्ता प्रमाण हैं। द्रष्टव्य है दादा माहेश्वर तिवारी जी द्वारा समूह वागर्थ में जोड़ी गई एक महत्वपूर्ण टिप्पणी

       प्रिय मनोज जैन, वागर्थ में श्रद्धेय अग्रज स्मृतिशेष उमाकांत मालवीय के गीतों को प्रस्तुत करके एक और उल्लेखनीय कार्य किया है। डॉक्टर शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह ,वीरेंद्र मिश्र और उमाकांत मालवीय जैसे लोगों को छोड़कर नवगीत की कोई पीठिका ही नहीं होती। ये लोग नवगीत की जययात्रा के रथ की वे धुरी और पहिए हैं जो एक तरफ उसकी अनवरत गति के आधार और विजययात्रा के नायक भी रहे अपनी अपनी रचनाधर्मिता के साथ ।

     उमाकांत मालवीय जी की जो अपार स्नेहयुक्त कुटुम्बवत आत्मीयता मिली उसने हम जैसे कई लोगों को अपनी रचनाधर्मिता के लिए नई ऊर्जा मिली । उनके व्यक्तित्व की यह विशिष्टता रही की किसी नये रचनाकार को सुनते और कुछ अच्छा लगता तो वह उनके स्मृतिकोष में जमा हो जाता और मिलने पर उसके अंश हमें सुनाते ।

       मेहंदी और महावार के गीतों से अलग थी उनके दूसरे संग्रह सुबह रक्त पलाश की भाषा और गीतों में शामिल सरोकार ।मेहंदी और महावार में एक अलग तरह की सौंदर्य दृष्टि और भाषा है तथा सुबह रक्त पलाश में अलग ।इसी तरह मेहंदी और महावार में लोक संस्कृति के प्रति लगाव है तो मेहंदी और महावार में एक वयस्क सामाजिक,राजनीतिक चिंतक का रूप सामने आता है । एक बात ध्यान में रखने की है की मालवीय जी शासकीय सेवा में थे और देश में प्रजातंत्र एक आंधी में घिरा था वे प्रजातंत्र पर चोट करने वालों को वैचारिक प्रतिरोध से भरे गीत लिख रहे थे एक जोखिम उतार हुए और उसके लिए उनके वार्षिक वेतन में होने वाली वृद्धि रोक दी गई लेकिन वे रुके नहीं और झूले एमबीएचआई नहीं क्योंकि वे तनी रीढ़ के व्यक्ति थे इसीलिए मैंने उनके लिए लिखा था हिंदी नवगीत का पौरूषेय बोध। वागर्थ में प्रस्तुत उनके गीतों में यह पढ़ा जा सकता है। यह उमाकांत मालवीय ही थे जो खबरों जैसी घटनाओं को गीतकविता बना देते थे 

        आ गया प्यारा दशहरा

        भेंट लाया हूं तुम्हारे लिए बेटे,

        पुलिस की मजबूत बूटों से

        अभी कुचला गया 

        ताजा ककहरा

       यामेज साफ करने को

       रह गईं ध्वजाएं

                        माहेश्वर तिवारी

(वागर्थ की वाल से साभार, माहेश्वर तिवारी जी की टिप्पणी)

     दादा की टिप्पणियाँ बहुत कुछ कहती हैं और इसमें कहने से ज्यादा अनकहा रह जाने की कसक भी स्पष्ट देखी जा सकती है। 

इसी क्रम में हम दादा के नवगीत पाठकों के लिए जोड़ते गए और ब्लॉग में संग्रहित भी करते गए।

1जून 2020 को हमनें दादा के गीत जोड़े। इन गीतों पर उनके पाठकों ने सैकड़ों टिप्पणियाँ जोड़ी और उनको पोस्ट को 88 लोगों ने अपनी अपनी वाल पर शेयर किया।

  यहाँ पाठकों के लिए हम उनकी चयनित पोस्टों को पाठकों की चयनित टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं

 एक

  माहेश्वर तिवारी जी के नवगीतों के बहाने

_____________________________

       समूह वागर्थ प्रस्तुत करता है अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 

            प्रस्तुत नवगीतों में कवि की पंक्ति-पंक्ति में कविता है जिसे ढूँढना नहीं पड़ता। जबकि हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे धुरन्धर विराजमान हैं, जिनके कहने को तो छह दर्जन संग्रह हैं, लेकिन उनके यहाँ ढूँढने से भी उनकी पूरी नवगीत यात्रा में बमुश्क़िल से 15 पँक्तियाँ भी नहीं है। ऐसे फर्जी गुरुओं के सक्रिय चेलों नें उन्हें तमाम साहित्य के  विभूषणों से घोषित कर रखा है।

   बहरहाल ऐसे गुरु और शिष्य दोनों को माहेश्वर तिवारी जी को पढ़ना चाहिए। प्रस्तुत है अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित और चमकदार नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 


प्रस्तुति

वागर्थ

सुनो सभासद

__________


सुनो सभासद

हम केवल

विलाप सुनते हैं

तुम कैसे सुनते हो अनहद


पहरा वैसे

बहुत कड़ा है

देश किन्तु अवसन्न पड़ा है


खत्म नहीं

हो पाई अब तक

मन्दिर से मुर्दों की आमद


आवाजों से

बचती जाए

कानों में है रुई लगाए


दिन-पर-दिन है

बहरी होती जाती

यह बड़ बोली संसद


बौने शब्दों के

आश्वासन

और दुःखी कर जाते हैं मन


उतना छोटा

काम कर रहा

जिसका है जितना ऊँचा कद

2

घर जैसे


खुद से खुद की

बतियाहट

हम, लगता भूल गए ।


डूब गए हैं

हम सब इतने

दृश्य कथाओं में

स्वर कोई भी

बचा नहीं है

शेष, हवाओं में


भीतर के जल की

आहट

हम, लगता भूल गए ।


रिश्तों वाली

पारदर्शिता लगे

कबंधों-सी

शामें लगती हैं

थकान से टूटे

कंधों-सी


संवादों की

गरमाहट

हम, लगता भूल गए।

दिन पर दिन है

बहरी होती जाती

यह बड़बोली संसद।।।

और

संवादों की 

गरमाहट हम 

लगता भूल गए।।

माहेश्वर तिवारी 

     दोनों ही महत्वपूर्ण बहुत उल्लेखनीय और विचारणीय नवगीतों की यह अभिनव प्रस्तुति पटल के वातावरण को और भी ज्यादा सार्थक बनाती है। बहुचर्चित बहुप्रशंसित गीतकार आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी सहज सरल शब्दों की जादूगरी से लाजवाब बहुत विचारणीय और मर्मस्पर्शी गीत रचना करने में सिद्ध हस्त हैं। उनके महत्वपूर्ण नवगीतों में सहज सरल शब्दों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है फिर भी उनकी प्रभावशीलता प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इन गीतों को प्रस्तुत करने के लिए मैं वागर्थ के  प्रमुख संस्थापक आदरणीय मनोज जैन जी का आभार और धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूँगा।

     मुकेश तिरपुड़े

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           वैसे नहीं, ऐसे गीतों से नवगीत समृद्ध हुआ है । वागर्थ का आभार अग्रज माहेश्वर जी के इन गीतों की प्रस्तुति के लिए।

        विनोद श्रीवास्तव, कानपुर

दो

6 दिसम्बर 2020

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कल तलक सुनते रहे जो आज बहरे हैं..... 

यशस्वी कवि दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो गीत

 यश के महत्व को प्रतिपादित करती हुई एक सूक्ति पर कल मेरा ध्यान गया उस समय गया जब मैं भोपाल के भेल औद्योगिक क्षेत्र से अपनी गाड़ी की सर्विसिंग कराने के उपरान्त घर लौट रहा था। सूक्ति का सार कुछ इस तरह था मनुष्य को यश की प्राप्ति बड़े पुण्यों से होती है, और पुण्य सद्कर्म और साधना का ही परिणिति है। दादा माहेश्वर तिवारी जी नवगीत के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनकी विचार धारा जन तक सम्प्रेषित होती है। विचारधारा के स्तर पर वे असमानता को जड़ से मिटा देने के पक्ष में हैं उनकी कविता जनधर्मी है यहाँ प्रस्तुत दादा के दोनों नवगीतों में प्रतिरोध के मद्धम नही अपितु तीखे स्वर हैं।

        प्राकृतिक प्रतीकों और बिम्बों से जनपक्षधरता उकेरना दादा माहेश्वर जी के बूते की ही बात हो सकती है। बेजोड़ प्रतीकों और बिम्बों के नायाब रचनाकार को प्रणाम नमन अपनी रचनाधर्मिता को जनपक्ष में समर्पित करके दादा अनायास ही अक्षय पुण्य के कोष से सदैव भरे रहते हैं और यही कोष उनके यश का एकमात्र राज है आइये पढ़ते हैं यशभारती सम्मान से विभूषित दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत

प्रस्तुति

मनोज जैन


हँसो भाई पेड़ 

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कहती है दूब

हँसो भाई पेड़ 

बाहर जितना देखते हो 

धरती में 

धसो भाई पेड़ ।


जड़ें बहुत गहरे ले जाओ 

यहाँ वहाँ उनको फैलाओ

चील की तरह बाहों पंजों में 

आंधी को 

कसो भाई पेड़


चील किसे देती है सोचो 

आसमान गुर्राए तो नोचो 

गीत की तरह हरियाली पहनो 

जन-जन में 

बसो भाई पेड़।

2

चीख बनते जा रहे

हम सब खदानों की 

हो गए हैं शोकधुन 

बजते पियानो की


कल तलक सुनते रहे जो 

आज बहरे हैं 

आँसुओं के बोल जिनके-

पास ठहरे हैं

जिंदगी अपनी हुई है 

मैल कानों की 

देखते जब शब्द के 

बारीक  छिलके खोल 

देश लगता रह गया 

बनकर महज भूगोल 


एक साजिश है खुली

ऊंचे मकानों की।

माहेश्वर तिवारी


आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी के नवगीतों में तरलता, सरलता और उत्कृष्टता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। उनके नवगीत सीधे दिल में उतर जाने का हुनर रखते हैं। उन्हें सादर प्रणाम।

मृदुल शर्मा,  लखनऊ

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श्रद्धेय दादा माहेश्वर तिवारी जी वर्तमान में नवगीत के हिमालय हैं.दादा को पढ़ना और सुनना हमेशा मन को सुख देता है.दादा को सादर प्रणाम.लेख और गीत साझा करने हेतु आपका हार्दिक आभार.

रघुवीर शर्मा, खंडवा

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दोनों गीत मर्मस्पर्शी भीतर तक आन्दोलित करते हैं दादा को चरणवन्दन। मनोज जी आपकी इस 

काव्य प्रस्तुति परम्परा को प्रणाम।

    रमेश गौतम,  बरेली उत्तरप्रदेश

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       नवगीत विधा में देश के  सबसे सशक्त और वरिष्ठ हस्ताक्षर आ.माहेश्वर तिवारी जी के दोनों ही गीत आज के समय की त्रासद  सामाजिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब भी हैं और उनके खिलाफ सशक्त स्वर भी। 

    तिवारी जी के गीत अपने शिल्प, कथ्य भाषा और छंद से अपनी अलग पहचान रखते हैं। उन्हें पढ़ने और विशेषकर दादा तिवारी जी से साक्षात सुनने का आनन्द और अनुभूति ही कुछ और है। आदरणीय तिवारी जी की लेखनी को प्रणाम। 

          और मनोज जी को साधुवाद इतनी अच्छी पोस्ट के लिए


        माहेश्वर जी के नवगीत पढ़ने के बाद मुझको घरबाहर का परिसर  सामान्य ही नहीं, कोमल और मोहक भी दिखने लगा। माहेश्वर नवगीत  लिखकर मनःस्थिति और परिस्थिति भी बनाते हैं इनके गीत मनुष्यता के पर्याय हैं। ऐसा गीत लिखना सामान्य बात नहीं है। इन.गीतों से नवगीत का मान बढ़ा है

शांति सुमन


:::::: ्तीन :::::


7 जून 2021

 समकालीन दोहा चौदहवीं कड़ी

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दादा माहेश्वर तिवारी 

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समकालीन दोहा में आज दूसरे पड़ाव की चौथी कड़ी में प्रस्तुत हैं प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के चुनिन्दा दोहे

             बहुत कम लोग ऐसे होते हैं  जिनकी लेखनी का परस पाकर सृजन सोने में बदल जाता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी उनमें से एक हैं, जिनका सारा सृजन चमकदार है। चाहे नवगीत हों या दोहे उनके यहाँ क़्वान्टिटी की अपेक्षा क़्वालिटी वर्क ज्यादा है। प्रस्तुत समकालीन दोहे भी आज के लिखे नहीं हैं परन्तु आज जो लिखा जा रहा है उन दोहाकारों को, अपने सृजन को मापने का पैमाना जरूर हैं। अस्सी के दशक में दोहा कितनी ऊँचाईयों पर था इसका अंदाजा कम से कम इन दोहों को पढ़कर लगाया जा सकता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी अपने आपको मूलतः गीत कवि ही मानते हैं और इस बात को लेकर स्वधर्मे निधनं श्रेयः की हद तक प्रतिबद्धता उनके यहाँ देखी जा सकती है।

हाँ, यदि उन्हें आस्वाद परिवर्तन के लिए गीत के अलावा कुछ लिखना भी हो तो वे स्तर से कम्प्रोमाइज नहीं करते। हम सब उनकी इस प्रस्तुति से यही प्रेरणा ले सकते हैं।

        दोहा छन्द को लेकर यश मालवीय जी के कथन को दोहराना समीचीन होगा वे कहते हैं कि " दो पंक्तियों में बड़ी बात कहना छोटे फ्रेम में आसमान मढ़ने जैसा है "। आइए पढ़ते हैं दो पंक्तियों के कैनवास में सुरमई आसमान जड़े दोहे।


   प्रस्तुति

 मनोज जैन

   वागर्थ


  उधर साजिशों के नये, बुने जा रहे जाल

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वस्त्र पहनकर गेरुआ, साधू सन्त फकीर ।

नये मुकदमों की पढ़ें, रोज नयी तहरीर।।


परिवर्तन के नाम पर, बदली क्या सरकार ।

रफ्ता रफ्ता हो रहा ,पूरा देश बिहार ।।


चिन्तित हैं शहनाइयाँ, गायब हुई मिठास ।

बिस्मिल्ला के होंठ की,पहले जैसी प्यास ।।


रिश्तों  के बदले हुए, दिखते सभी उसूल ।

भैया कड़वे नीम- से,दादी हुई बबूल ।।


आँखों में दाना लिये, पंखों में आकाश ।

जाल उठाए उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास ।।


दाने -दाने के लिए,चिड़िया है बेहाल ।

उधर साजिशों के नये ,बुने जा रहे जाल।।


मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान ।

सूरज बाँटे रेवड़ी,चाँद चबाये पान।।


क्या सपने क्या लोरियाँ,खाली-खाली पेज ।

जिनकी नींदों को मिली,फुटपाथों की सेज ।।


लाकर पटका समय ने, कैसे औघट घाट।

अनुभव तो गहरे हुए, कविता हुई सपाट।।


शामें लौटीं शहर की,अंग लपेटे धूल।

सिरहाने रख सो गयीं, कुछ मुरझाये फूल।।


कैसे कैसे लोग हैं,कैसे कैसे काम ।

जाकर कुंज-करील में, ढूँढ रहे हैं आम।।


खुश है रचकर सीकरी,नया -नया इतिहास।

हैं उसके दरबार में,हाज़िर नाभादास।।


भोग रहे इतिहास का,हैं अब तक दुर्योग।

तक्षशिला को जा रहे,नालन्दा के लोग।।


पुल की बाँहों में नदी,मछली-सी बेचैन।

अनहोनी के साथ सब ,दे बैठी सुख-चैन।।


बरगद से लिपटी पड़ी, है बादल की छाँह।

घेरे बूढ़े बाप को, ज्यों बेटे की बाँह।।


तन की प्रत्यंचा खिंची, चले नज़र के तीर।

बच पाया केवल वही,मन से रहा फकीर।।


लाक्षागृह सबके अलग,क्या अर्जुन क्या कर्ण।

आग नहीं पहचानती, पिछड़ा दलित सवर्ण।।


सारंगी हर साँस में, मन में झाँझ मृदंग।

फागुन आते ही हुए, साज हमारे अंग।।


एक आँख तकती रही, दूजी रही उदास।

इन दोनों में ही बँटा, जीवन का इतिहास।।


खुली पीठ से बेंत का ,ऐसा हुआ लगाव।

लिये सुमरनी हाथ हम, गिनते कल के घाव।।

     सचमुच यह दोहे ख़ुशबू के शिलालेख हैं, मेरे समेत दोहों के उत्पादन में लगे तमाम दोहाकारों  को इन दोहों से सीखना चाहिए और दोहा नियोजन करना चाहिए ताकि इस विधा में लोगों की आस्था बनी रहे।कम लिखें और अच्छा लिखें का संकल्प लेना चाहिए,इन काल का अतिक्रमण करते दोहों से। आम आदमी के माथे की सलवटों-शिकनों से सीधा सरोकार रखते यह दोहे हमारी उजली परम्परा के संवाहक हैं।

यश मालवीय   

आदरणीय माहेश्वरी तिवारी जी वर्तमान में नवगीत के बड़े स्तंभ हैं। उनके नवगीतों में जो एक अलग सी महक है वही इन दोहों में भी रची-बसी है। यही तिवारी जी को आदर्श रूप में खड़ा करती है।जिन रचनाकारों की अपने भीतर की महक रचनाओं में महकने लगती है, वही बड़े रचनाकार कहाते हैं। क्या दोहे हैं? इनमें चमत्करण बैठा है। इन पर तो बस सोचते रहो, जब-तक सोच सको।

"मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान।

सूरज बांटे रेवड़ी, चांद चबाये पान।।"

          मैं तो इसी में जमा पड़ा हूं।

आदरणीय भाई साहब आपको और आपकी मारक लेखनी को प्रणाम।

 मक्खन मुरादाबादी

 जीवन में साधन चतुष्टय- धर्म अर्थ काम मोक्ष की सीढ़ियां चढ़ने पर जब धर्म के सार्थक निर्वहन से अर्थोपार्जन उपरान्त काम (कर्म) के प्रति समर्पित होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है तो जो आनंद आता है आज उसी आनंद की अनुभूति हो रही है मधुर दोहावली की चौदहवीं प्रस्तुति में। दोहा सृजन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो उपर्युक्त विवेचन अपने मंतव्य को स्वत: ही प्रमाणित कर देता है। "एक तुम्हारा होना ही क्या से क्या  कर देता है, " यह पंक्ति आज की प्रस्तुति के मूलाधार में समाहित है।  आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी से प्रत्यक्ष भेंट शिवपुरी में आयोजित नवगीत पुरस्कार वितरण समारोह में हुई थी, उनके मुख से झरते गीत-नवगीत की वर्षा ने ऐसा रसविभोर किया था कि उसकी मिठास आजतक महसूस हो रही है। अग्रज यशमालवीय जी के कथन से मैं पूर्णतः सहमत हूं और दोनों हाथ उठाकर यह कहने मैं कोई संकोच भी नहीं कर रहा हूं कि सुरमयी आसमान में जड़े दोहे अपनी आभा से क्षितिज को दैदीप्यमान कररहे हैं। श्रध्देय तिवारी जी के दोहे धर्म के मर्म को बेधते हुए राजनैतिक परिदृश्य पर तीक्ष्ण दृष्टिपात करते हुए मानवीय रिश्तों में आई बदलाव की बयार से परिवार को न बचा पाने की पीड़ा को अभिव्यंजित करने में सफल रहे हैं। दोहा दृष्टव्य है-- रिश्तों के बदले हुए,दिखते सभी उसूल। भैया कड़वे नीम से,दादी हुईं बबूल। अपनी आस्था-विश्वास की सामर्थ्य को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए उसे "श्रध्दा विश्वास रूपिणौ " परमसत्ता का मान दे दिया जो असंभव को भी संभव कर देता है-- आंखों में दाना लिए, पंखों में आकाश। जाल उठाये उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास।  मात्र दो पंक्तियों में अनूठा बिम्ब संयोजन जो व्यंजना शब्दशक्ति और वक्रोक्ति का अनुपम उदाहरण बन गया जिसे सिर्फ और सिर्फ माहेश्वर तिवारी जी ही सृजित कर सकते हैं-- मूल प्रश्न से हट गया जब से सबका ध्यान।  सूरज बांटे रेवड़ी, चांद चबाएं पान। , जबकि मुहावरा है अंधा बांटे रेवड़ी। श्रमिक वर्ग के असहनीय दर्द को अपनी लेखनी की शक्ति से अमर करने वाला दोहा- क्या सपने क्या लोरियां,खाली खाली पेज। जिनकी नींदों को मिली फुटपाथों की सेज। अविस्मरणीय है। ऐतिहासिक संदर्भ हों या प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार का रसमय आकर्षण हो या मन फकीरी का साधन,अगड़े पिछड़े वर्ग की आरक्षण की तात्कालिक समस्या, रचनाकार ने अपनी लेखनी से अनछुआ नहीं रहने दिया। और फिर जीवन की सांध्यवेला का मार्मिक चित्रण कर मन के घावों को सहलाने तथा बेंत और सुमिरनी से साथ निभाने का मूल मंत्र भी दे दिया-- खुली पीठ से बेंत का , ऐसा हुआ लगाव, लिए सुमिरनी हाथ हम, गिनते कल के घाव। यह कहकर दोहाकार अपने लेखिकीय दायित्व से उऋण होने का प्रयास भी कर गया।  गीत ऋषि माहेश्वर तिवारी जी के सृजन सामर्थ्य को सादर प्रणाम करते हुए भाई मनोज जैन मधुर जी की मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा पूर्ति की शुभेच्छा है। वागर्थ पटल की टीम को साधुवाद। 

 डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

 परम आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी जितने समर्थ साहित्यकार हैं उससे बड़े वो नेक व संवेदनशील रचनाकार हैं जो हर समय साहित्य के नए रचनाकारों को दिशा दिखाने व उनकी हर अच्छी बात पर खुली तारीफ़ करके उनका उत्साहवर्धन करते हैं। आपके दोहे आपके गीत सभी कालजयी रचना हैं यहाँ पर (१)लाक्षागृह का दोहा(२)बरगद से लिपटी पडी(३)पुल की बाँहों में नदी(४)मूल प्रश्न से हट गया(५)वस्त्र पहनकर गेरुआ ये सभी दोहे  आप भुलाना चाहें तब भी आपकी मन की देहरी अपनी उपस्थिति दर्ज एक लम्बे समय तक कराते रहेंगे। ऐसे ही लेखन के कारण मुझ जैसे न कितने रचनाकारों के आप प्रेरणादायी हैं व सदैव रहेंगे 

 डॉ  अजय जनमेजय

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  बहुत अलग तरह के दोहे सच्ची कविता के आस्वाद में नहाए हुए। दोहों की ऐसी खुशबू केवल यश के दोहों में मिलती है। सच कहा  यश कह दें तो फिर कुछ और कहना बिना पेट्रोल की गाड़ी हांकना है। 

सचमुच यश जी ये दोहे खुशबू के शिलालेख हैं।

 डॉ ओम निश्चल

     आदरणीय तिवारी जी प्रयोगधर्मी कवि हैं और उनकी यह प्रयोगधर्मिता हर विधा मे परिलक्षित है बिम्बो प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने मे वे सिद्धहस्त हैं सूरज बाटे रेवडी, चांद चबाये पान जैसे अनूठे प्रयोग करना आपका शगल है नई पीढी के प्रेरणास्रोत दादा को प्रणाम निवेदित कर मनोज जी को अप्रतिम दोहे प्रस्तुत करने के लिए कोटिशःसाधुवाद प्रेषित है।

  डॉ.विनय भदौरिया

 सूरज बांटे रेवड़ी चांद चबाए पान। क्या बात है...दादा माहेश्वर जी के शब्दों में छंद स्वयं अपनी पूरी संवेदना को समेटकर बिंध जाता है। 

भारतेंदु मिश्र 

   सभी दोहे श्रेष्ठ हैं। यह दोहा तो कमाल का है -- "ख़ुश है रच कर सीकरी..... हाज़िर नाभादास।।" 

आदरणीय माहेश्वर भाई साहब को प्रणाम!

  डॉ सुभाष वसिष्ठ 


            इन दोहों की प्रस्तुति पर माहेश्वर तिवारी जी अपनी ओर से वागर्थ के पाठकों के लिए अपनी तरफ से एक महत्वपूर्ण टिप्पणी वागर्थ के पटल पर जोड़ी थी जो यहाँ जस की तस चस्पा है।  "अपने सभी आत्मीय तथा स्नेह देकर मेरे लेखन को सराहने और प्रोत्साहित करने वालों के प्रति हार्दिक आभार। मनोज जैन को धन्यवाद देना उसे अपने से कुछ दूर खिसका देने जैसा है। यश और ओम निश्चल, भारतेन्दु मिश्र, सुभाष वशिष्ठ की टिप्पणियाँ आगे के लेखन के लिये चुनौतियों जैसी है कि अब आगे सीढ़ी से उतरने की सोची तो खैर0 नहीं। अन्य पारखी और प्रबुद्धजनों के प्रति भी आभार।"

              माहेश्वर तिवारी

 1, दिसम्बर 2022 को वागर्थ समूह में जोड़ी गई एक पोस्ट वागर्थ समूह  से साभार। 

माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत समय के प्रख्यात नवगीतकार दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 1964 में, बस्ती प्रवास के दौरान रचे इन नवगीतों में आज भी सौंधी मिट्टी की सुगन्ध जस की तस मौजूद है। अपनी बोली-बानी में बतियाते इन नवगीतों में आकुल मन की व्यथा के साथ-साथ समूचा परिवेश समाहित है। इन नवगीतों में एकाकीपन और ऊब की सहज और चित्ताकर्षक अभिव्यक्ति देखने मिलती है। दोनों नवगीत "हरसिंगार कोई तो हो" से साभार  हैं।

अकेलापन

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तना जाले-सा

अकेला पन

कहाँ, तक झेले 

अकेला मन


किसी ठहरी 

झील-सा

हिलता नहीं तिनका

साथ हम 

कब तक निभाएँ

अधमरे दिन का


कट नहीं पाता 

नसों में 

उगा नंगा पन


थक गया है

बाँस वन की

सीटियों का मौन

आहटों में 

चुप्पियों को

सिल गया है कौन


दिशाओं में 

झूलता है

क्षितिज का बन्धन


दो

सारे दिन

__________


सारे दिन 

पढ़ते अखबार

बीत गया 

यह भी इतवार


गमलों में 

पड़ा नहीं पानी

पढ़ी नहीं गई 

संत वाणी


दिन गुजरा 

बिलकुल बेकार

सारे दिन 

पढ़ते अखबार


पुँछी नहीं

पत्रों की गर्द

खिड़की-

दरवाजे बेपर्द


कोशिश की है 

कितनी बार

सारे दिन 

पढ़ते अखबार


मुन्ने का 

तुतलाता गीत

अनसुना गया

बिलकुल बीत


कई बार 

करके स्वीकार

सारे दिन 

पढ़ते अखबार

माहेश्वर तिवारी        

___________

बहुत खूब ! आदररणीय चाचा जी ( माहेश्वर तीवारी जी ) बस्ती ( मिश्रौलिया, बस्ती ) मेरे घर पर  लगभग 1662--19667 रहे है । प्रसिद्ध गीत " याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलस भरे  ---- । जैसे कई चर्चित गीत लिखे गये थे   कई संस्मरण  हैं ।  बस्ती की चरचा करने हेतु साधुवाद ।

बैंकटेश्वर मिश्र

        नवगीत के पुरोधा कवि है आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी अभिधा में होते हुए भी इन गीतों में सामुद्रिक गहराई है। लेकिन  कवि का मन तो सागर से भी अधिक गहरा होता है।स्वयं कवि के ही गीत की पंक्ति है----

        कितना गहरा है मेरा मन

        सागर क्या जाने!

इस स्तरीय प्रस्तुति के लिए कवि के साथ-साथ  मनोज जैन साहब को भी बधाई!

 उदय शंकर अनुज

      दादा तिवारी जी के नवगीत स्थूल से सूक्ष्म की ओर भावनात्मक संचरण होते हैं। शब्दलय और अर्थलय को साधते गीत रचनाकारों को प्रेरित करते हैं। दादा तिवारी जी को सादर नमन तथा वागर्थ समूह को श्रेष्ठ गीतों की प्रस्तुति के लिए आभार!

जगदीश पंकज

जब जब माहेश्वर तिवारी जी का नाम आता है, मुझे उनका "सुर्ख सुबह चंपई दुपहरी मोरपंखिया शाम, तरह तरह के लिख जाता मन पत्र तुम्हारे नाम" याद आता है।। कभी 72-73 में मुरैना के कवि सम्मेलन में उन्होंने यह गीत सुनाया था।। आठवें दशक के उत्तरार्ध में वे विदिशा भी रहे थे।

 उपेंद्र पुरुषोत्तम कुमार

      सीधी-सादी बोली-बानी का अप्रतिम बिम्ब,एकाकीपन का अनूठा रेखाचित्र प्रयोग धर्मिता का प्रतीकात्मक सौंदर्य एवं प्रतीकों का अनुशासित प्रयोग। दोनों गीतों में प्राण तत्व हैं ।

रचनाकार को प्रणाम मनोज जी को हार्दिक बधाई। 

 ईश्वर दयाल गोस्वामी

        उपर्युक्त सभी फेसबुक, ब्लॉग और वागर्थ से साभार प्रस्तुतियों से उनके विराट व्यक्तित्व और कृतित्व को पहचाना जा सकता है। निःसन्देह, वे बड़े और जमीन से जुड़े रचनाकार लोकप्रिय कवि थे। वाचिक परम्परा हो या पत्र- पत्रिकाएँ, उनकी दोनों जगह समान रूप से उपस्थिति अंत तक बनी रही। उन्होंने सदैव नई पीढ़ी के रचनाकारों का उत्साह वर्धन किया उन्हें सराहा और आगे बढ़ाया।

          4,अक्टूबर 2014 के गीतोत्सव के आयोजन गीत चाँदनी जयपुर राजस्थान में हुई पहली मुलाक़ात से लेकर भोपाल के दुष्यंत अलंकरण, अभिनव कला परिषद का श्रेष्ठ कला आचार्य, सहित अनेक समारोहों एवं गोष्ठियों सम्मेलनों में मुझे उनका आशीर्वाद मिलता रहा। 

            अब, जब दादा नहीं हैं तब उनसे जुड़ी यादें और और सघन हो चलीं। मेरी कृति "धूप भरकर मुट्ठियों में" उनका लिखा फ्लैप अब धरोहर है। दादा का इस तरह असमय जाना हम सब के लिए पीड़ादायक है। उनका जाना हम सबकी अपूर्णीय क्षति है। इस लेख को लिखने के कुछ माह पहले ही उनका एक कॉल आया था मुझे नहीं पता था अब इसके बाद नेह उड़ेलने वाला कॉल कभी नहीं आएगा।

     ठीक से तो याद नहीं पर हाँ, अन्तिम कॉल पर जो बात हुई तब उन्होंने शायद किसी शोध सन्दर्भ ग्रन्थ का जिक्र किया था जिसे वह पढ़ना और देखना चाहते थे पर वह उन तक पहुँच नहीं सका। 

       शायद इस ग्रन्थ में माहेश्वर तिवारी जी के नवगीत सम्मिलित किए गए पर उन तक ग्रंथ की प्रति नही पहुँची। काश ! मैं, उस ग्रंथ का नाम ठीक से  सुन पाता तो उन तक, उस ग्रन्थ की प्रति उन तक भेजने की कोशिश जरूर करता। अफ़सोस ! ऐसा कर नहीं सका।

        खैर,1998 में रिरीज हुई एक मूवी 'दुश्मन' का एक गीत जो आंनद बक्शी ने लिखा और जिसे जगजीत सिंह नें दिलकश अंदाज़ में में मखमली आवाज़ में अपना रेशमी स्वर दिया,

खासतौर से इस प्रसंग पर हमें बहुत रुलाता है।

       "चिट्ठी ना कोई संदेश,

        जाने वो कौन सा देस, 

        जहाँ तुम चले गए!

    मैं, यह भली भाँति जानता हूँ कि, कॉल पर ना मुखड़ा, ना अंतरा, और ना वह समापन की पुनरावृत्ति वाली, ठीक है ! ठीक है ! ठीक है ! की आवाज़ मेरे और मेरे जैसे अनेक उनके प्रसंशको के कानों में कभी नहीं आएगी।

       नम आँखों और भारी मन से उन्हें याद करते हुए पूछता तो हूँ पर कोई उत्तर ही नहीं देता ...

              कहाँ तुम चले गए..........।

अंत में पहले लंबे आलेख का श्रेय जाता है अत्यन्त प्रिय मेरे बड़े भाई मित्र योगेन्द्र वर्मा व्योम जी को उन्होंने ठीक उसी वेसे ही जैसे हनुमान जी उनकी प्रेरणा से जलधि लाँघ लंका जा पहुँचे।

       उसी तर्ज पर  मुझ जैसे अलाल से यह काम करवा लिया साथ ही समूह वागर्थ, समूह अंतरा और ब्लॉग वागर्थ में प्रस्तुत स्तरीय सामग्री की शक्ति अहसास भी करा दिया जिसका का मुझे  अभी तक भान ही नहीं था।

✍️मनोज जैन 

संस्थापक संपादक 

समूह / ब्लॉग वागर्थ 

106 विट्ठलनगर

गुफ़ामन्दिर रोड लालघाटी 

भोपाल 462030 

मध्य प्रदेश,भारत

बुधवार, 18 सितंबर 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का बाल एकांकी....गुनगुन - गिन्नी



(शहर के बीचों- बीच बने एक छोटे से से घर के अंदर कुछ गौरैये घोंसले  बनाकर रह रही हैं। उन्हीं में से एक  हरे रंग के काग़ज़ वाले डिब्बे नुमा घोंसले पर गिन्नी नाम की गिलहरी ने  कब्जा कर लिया है। जो न जाने किस तरह से गेट के  ऊपरी किनारे से होते उस घोसलें में आ घुसी थी। उस घर की मालकिन ने यह देखकर दो -तीन घोंसले और टांँग दिये , जिससे गौरैयों को रहने की जगह कम न  पड़े।  आज गौरैयों की सरदार गुनगुन की बाहरी सहेलियाँ भी उस घर में गुनगुन व उसके परिवार से मिलने आ पहुँची हैं। बाहर भारी बारिश हो रही है और मौसम विभाग के अनुसार अभी अड़तालीस घंटे ऐसे ही बरसात होने की भारी संभावना है। ) 

 (प्रथम अंक)          

( गिन्नी गिलहरी और गौरैये एक ही प्लेट में खा रही हैं और साथ ही दिन भर की बातें भी कर रही हैं।) 

 गिन्नी : हम्मम..! (गौरैयों के घोंसलों की ओर देखते हुए) तुम्हारे घोंसलों की इस घर की मालकिन ने अच्छी तरह से व्यवस्था कर रखी है। काफी समय से रह रही हो न तुम लोग यहाँ पर....!!

गौरैये : (समवेत स्वर में) हाँ बहन!! हमारी मालकिन बहुत दयालु हैं। अब देखो न...!!. उन्होंने तुम्हें भी नहीं भगाया। और तो और हमारे लिए प्रतिदिन चावल और पानी भी रख देती हैं।

गिन्नी : हम्ममम... ये तो सच है। आज प्रातः भी कुछ बिस्किट और पूड़ी रख गयी  थीं वह...! बड़े ही स्वादिष्ट लगे मुझे तो...! (चावल खाते हुए) 

गौरैये : (आश्चर्य से) बिस्किट.....! पूड़ी....! और तुम अकेले चट कर गयीं!!  हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ा...! 

गुनगुन :  मत भूलो गिन्नी यह घर हमारा पहले है, तुम्हारा बाद में। हम यहाँ बीस वर्षों से रह रहे हैं और तुम्हें छ:महीने भी नहीं हुए यहाँ आये...! चोर कहीं की....! 

गिन्नी( हँसते हुए)अररररर...! तुम सब तो क्रोधित हो गयीं।  साॅरी बाबा..( अपने कान पकड़ते हुए) आगे से ऐसा नहीं होगा।  हम सब मिल बाँटकर खायेंगे।(तनिक चहकते हुए) सुनो.....!तुम लोगो ने  अखरोट खाया है कभी...?? 

गौरैये :(समवेत स्वर में) अखरोट!!!!! नहीं तो..! हमारी चोंच से तो उसका मोटा छिलका टूटेगा भी नहीं,तो खायेंगे कैसे? 

गिन्नी :   कोई बात नहीं सखियों आज से हम सब मित्र हुए। अखरोट..मैं तुम्हें खिलाऊंगी । मिलाओ हाथ...!(अपना अगला सीधा पंजा आगे बढ़ाते हुए) 

गुनगुन : बिलकुल...!!!.(फिर गौरैयों की सरदार गुनगुन गौरैया  अपने एक पंजे को गिलहरी के आगे बढ़े हुए पंजे से मिलाकर मित्रता पक्की कर  देती है।) मगर मित्रता का एक सिद्धांत है गिन्नी जी ...!( हँसते हुए) 

गिन्नी: वो क्या.....? 

गुनगुन: न धन्यवाद देना .....! न क्षमा माँगना..! 

गिन्नी:   जी मैडम,  स्वीकार है। ( हंँसती है)चलो अब जल्दी- जल्दी चावल खा लेते हैं। मालकिन का छोटा बेटा स्कूल से आता ही होगा।  वह बड़ा ही शरारती है .! हमें देखते ही पकड़ने को दौड़ेगा। 

गुनगुन : हांँ- हांँ जल्दी खा लो सखियों। बाहर  बारिश तेज होने वाली है। हमारी जो सखियाँ बाहर से आयी हैं उन्हें भी बहुत दूर जाना  है। 

गिन्नी: आज तुम्हारी सखियाँ यहाँ चावल खाने क्यों आयी हैं? 

गुनगुन : क्योंकि भारी बारिश में हम लोगो को हमारा प्रमुख भोजन कीड़े नहीं मिलते हैं। इसलिए हमारी सखियाँ भी हमारे साथ यहाँ रोटी- चावल खाने आ जाती हैं। मालकिन कुछ नहीं कहतीं, बल्कि हमारी प्लेट में खुब सारे खाद्य-  पदार्थ रख देती है। 

गिन्नी:  ओह......! यह बात है....!खाओ... खाओ...! ( कुछ सोचते हुए)तुम लोगो को एक बहुत ज़रूरी बात भी बतानी है। 

गुनगुन :   अच्छा.....!क्या बात है गिन्नी? बताओ... बताओ... ! 

 गिन्नी : ( गंभीर होकर) आज सुबह मैने गेट के ऊपर एक गिरगिट देखा । वह तुम लोगो के अंडे चुराने वाला था, तभी मैने उसे भगा दिया। तुम लोग सावधान रहना....! 

गुनगुन : ओहहह.....! बहुत अच्छा किया गिन्नी..!वह गिरगिट बहुत शातिर बदमाश है ...!जब हम बाहर भोजन की तलाश में जाते हैं तब वह अक्सर हमारे अंडे चुरा कर खा लेता है। सच कहूँ तो तुमने यहाँ आकर हम सब पर बहुत उपकार  किया है गिन्नी...! ( गुनगुन का गला भर आया था) 

गिन्नी: (अपनी गोल- गोल आँखों में आँसू भरकर) उपकार तो तुम सबने किया है  मुझपर ...!.अपने बीच....मुझे भी इस घर में शरण देकर...!  और उस दिन........उस खुले मैदान में तो वो भूरी बिल्ली मुझे कब की खा गयी होती यदि तुम सबने चींचींचीं का शोर  मचाकर मुझे सतर्क न किया होता ....!! 

गुनगुन: नही.... नहीं....हमने तुम्हें शरण कब दी ....? तुम तो खुद ज़बरदस्ती आयी हो हमारे बीच ( ज़ोर से हँसते हुए) हा हा हा...! 

गिन्नी: (तनिक झेंपते हुए ) जो भी है, अब तो हम सब मित्र हुए न....! ( मुस्कुराती है) 

तुमने मुझे बिल्ली से बचाया और मैं गिरगिट और छिपकली से तुम्हारे अंडों की रक्षा करुँगी। वैसे भी इस घर में हम सब  अधिक सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। काफी आरामदायक है यह। 

गुनगुन : हाँ ,ठीक कहा तुमने गिन्नी,अबसे हम एक दूसरे के सुख: दुख में बराबर के हिस्सेदार होंगे। ( तनिक चौंक कर)  अरे... ! देखो ......मकान मालकिन अपना फोन लेकर इधर ही आ रही हैं। इन्हें भी हमारी फोटो और वीडियो बनाने का बड़ा ही शौक है। हा! हा! हा..!.  हा! अच्छा हुआ हम सब फोन नहीं चलाते। सुना है इंसानों  में फोन चलाने की बड़ी बुरी बीमारी है। ( सब हँसते हैं) .....हा हा हा ही ही ही....!  चलो निकलो ....अब सब लोग!!!!  

 बाहरी गौरैये : (समवेत स्वर में  )  चलते हैं  गुनगुन -गिन्नी हम कल फिर आयेंगे !! तुम अखरोट ज़रूर  ले आना.... !बाय- बाय...! 

गिन्नी: ( अपने घोंसले में जाते हुए) अवश्य...!अवश्य.!.... कल शीघ्र आना... ! मैं तुम सबकी प्रतीक्षा करुँगी। बाय-बाय..मित्रों..! 

गुनगुन:(अपने घोंसले में जाते हुए) बाय- बाय सखियों....! ठीक से जाना...! 

✍️मीनाक्षी ठाकुर 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर की साहित्यिक संस्था अखिल भारतीय काव्यधारा के तत्वावधान में 15 सितंबर 2024 को जितेन्द्र कमल आनंद की कृति 'आनंद छंद माला भाग-१' का विमोचन समारोह

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर की साहित्यिक संस्था अखिल भारतीय काव्यधारा के तत्वावधान में हिंदी दिवस पर संस्था के संस्थापक जितेन्द्र कमल आनंद की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन, सम्मान समारोह और 'आनंद छंद माला भाग-१' का विमोचन आनंद कॉन्वेंट स्कूल, ज्वाला नगर, रामपुर में किया गया ।  मुरादाबाद के डॉ स्वदेश कुमार भटनागर मुख्य अतिथि और हल्द्वानी  की डॉ गीता मिश्रा 'गीत' व बरेली के डॉ महेश मधुकर विशिष्ट अतिथि रहे । मंच संचालन राम किशोर वर्मा ने किया ।

     राज वीर सिंह 'राज' द्वारा प्रस्तुत माँ सरस्वती वंदना से आरंभ इस समारोह में 'आनंद छंद माला भाग-१' का विमोचन  करते हुए  डा स्वदेश कुमार भटनागर ने कहा--" किसी ऋषि की आत्मा की तरह पवित्र जितेंद्र कमल आनंद की कविताओं से गुजरते हुए कई बार ऐसा लगता है कि हमारा अंतर्जगत् भी है, और उसका होना महत्वपूर्ण है। "         रामपुर के रवि प्रकाश ने कहा कि छंद मर्मज्ञ जितेंद्र कमल आनंद की काव्यकृति एक अद्भुत काव्यकृति है जो कि छंद की पहचान छंदबद्ध रचना करना, काव्य लेखन के क्षेत्र में छंद की संगीतात्मकता को जीवन में उतार लेने का आग्रह करती है, यह " आनन्द छंद माला" काव्य लेखन के क्षेत्र में एक महान उपहार है। 

   इस अवसर पर कृष्ण कुमार पाठक, बिजनौर  को काव्य धारा: काव्य महारथी सम्मान, महेन्द्र पाल सिंह यादव, शाहजहांपुर  को काव्य धारा: काव्यरथी सम्मान, किरन प्रजापति दिलवारी, बरेली  को काव्य धारा: काव्य प्रज्ञा सम्मान एवं सपना दत्ता 'सुहासिनी' नोएडा  को काव्य धारा: काव्यप्रज्ञा सम्मान से सम्मानित किया गया । सपना दत्ता 'सुहासिनी' प्रधानमंत्री जी के कार्यक्रम के संचालन के दायित्व के कारण कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हो पाईं ।

  छंदकार जितेन्द्र कमल आनंद ने अपना अविष्कृत व प्रकाशित 'गुरु आनंद छंद' प्रस्तुत किया -

जो आप ही करे कमाल, साधना कहो ।

जो आपको रखे सँवार, भावना कहो ।।

  डॉ महेश मधुकर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने का अधिकारी बताया-

सरल-सहज अति प्यारी हिंदी ।

मनभावना हमारी हिंदी ।।

बने राष्ट्र भाषा भारत की ।

हैं इसकी अधिकारी हिंदी ।।

  डॉ गीता मिश्रा 'गीत' ने इस प्रकार अभिव्यक्ति की-

हिंदू हूँ हिंद की मेरी, उर्दू भी मीत है ।

अवधी है मैथिली, मेरी ब्रज से भी प्रीत है ।।

   राम किशोर वर्मा ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने की बात कही -

हर युग में हिन्दी ध्वज फहरा ।

विश्व पटल पर जा अब ठहरा ।।

बने राष्ट्र की हिन्दी भाषा ।

जन-जन की है यह अभिलाषा ।।

   राजवीर सिंह 'राज' ने खूब तालियां बटोरीं-

किस विधि चित्र बनाऊँ मैं, चलती घड़ियों का ।

  डॉ अशफाक जैदी को बहुत वाह-वाही मिली-

अजनबीयत है, कभी बात भी हो जायेगी ।

ज़िन्दगी तुझसे, मुलाकात भी हो जायेगी ।।

मनोज 'मनु' ने कहा -

ज्ञान असीमित छोर है, जिसका ओर न छोर ।

 राजीव प्रखर की अभिव्यक्ति इस प्रकार रही-

साहित्य-सृजन में मनभावन रचती सोपान रही हिंदी ।

   उक्त के अतिरिक्त जसवंत कौर जस्सी (बिलासपुर -रामपुर),शिव कुमार शर्मा 'चंदन', रवि प्रकाश, ओंकार सिंह 'विवेक', सुरेन्द्र अश्क रामपुरी, धीरेन्द्र सक्सैना, प्रदीप राजपूत 'माहिर', श्री पतराम सिंह , जावेद रहीम, सुधाकर सिंह, महाराज किशोर सक्सेना (रामपुर ) , अभिषेक अग्निहोत्री व उमेश त्रिगुणायत 'अद्भुत'  (बरेली), उदय प्रकाश सक्सेना (मुरादाबाद) आदि ने भी अपनी रचनाओं से सभी को आनंदित किया । अध्यक्ष जितेन्द्र कमल आनंद ने आगंतुकों का आभार ज्ञापित किया । 












































:::::::प्रस्तुति:::;;;

राम किशोर वर्मा 

महासचिव 

अखिल भारतीय काव्यधारा, रामपुर (उ०प्र०)

मोबाइल नं०- 8433108801