रविवार, 29 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (9).....कटना तो खरबूजे को ही है

   


डॉ. पी.सी.जोशी संभवतः सन् 1972 के मध्य तक के.जी.के.महाविद्यालय, मुरादाबाद के प्राचार्य रहे। उनके बाद मथुरा के प्रोफेसर डॉ. बी.एल. शर्मा प्राचार्य के पद पर आसीन हुए, पर वह भी अधिक दिन नहीं टिके। उनके बाद जब मैं सन् 1974 में एम.ए.प्रीवियस का विद्यार्थी था तब प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप प्राचार्य पद पर आसीन हुए।प्रबंधक ने उनकी नियुक्ति कार्यवाहक प्राचार्य के पद पर डॉ.बी.एल.शर्मा के पद छोड़ने के बाद की थी। सन् 1976 में प्रशासन के अधीन हुआ महाविद्यालय संभवतः सन् 1976-77 शैक्षिक सत्र के अंतिम दिनों में प्रबंधन समिति के हाथों में वापिस आ गया था।यद्यपि मेरी अस्थाई प्रवक्ता के पद पर पहली बार नियुक्ति प्रोफेसर मेजर पी.एन.टंडन के प्राचार्य रहते सन् 1976 के फरवरी माह में हो चुकी थी। मेरी यह अस्थाई नियुक्ति तत्कालीन महाविद्यालय के प्रशासक /जिलाधिकारी फरहत अली साहब के हस्ताक्षरों से एप्रूव हुई थी, जो केवल दो महीने के लिए ही थी। महाविद्यालय प्रबंध समिति के हाथों में आने पर प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप को हटा कर डॉ. आर.एम. माथुर प्राचार्य बना दिए गए। नवंबर सन् 1977 में मेरी पुनर्नियुक्ति डॉ.आर.एम.माथुर के रहते ही हुई और मुझे प्रबंधक के हस्ताक्षरों से नियुक्ति-पत्र मिला। मेरी उस दिन की खुशी अपार थी।

    मैं पिछले सत्र में नियुक्त होकर जब पहली कक्षा पढ़ाने गया, तो पूरी कक्षा भरी हुई थी। कक्षा के आगे का बरामदा भी खचाखच भरा हुआ था।इस स्थिति को देखकर उस दिन प्राचार्य मेजर पी.एन.टंडन की अनुपस्थिति में ऑफीसिएट कर रहे डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत मेरे कक्ष में आए और मुझे निर्देशित किया कि त्यागी पहले अटैंडेंस लो,तब पढ़ाओ। मैंने त्रिगुणायत सर से कहा कि सर आप चिन्ता मत कीजिए मैं सब सँभाल लूँगा।वह चले गए और मैंने अपना परिचय देते हुए कक्ष में एकत्रित छात्रों के समक्ष सामान्य वक्तव्य दिया। विद्यार्थी प्रभावित हुए और जो उस कक्षा के विद्यार्थी नहीं भी थे वह भी संतुष्ट होकर कक्षा से अपने आप ही बाहर निकलते गए तथा कक्षा में केवल अधिकृत  विद्यार्थी ही रह गए। तत्पश्चात मैंने अधिकृत विद्यार्थियों का संक्षिप्त परिचय जाना। पैंतालीस मिनट का घंटा भी पूरा होने को ही था, घंटा बज गया। मैंने विद्यार्थियों को कहा कि कल से पढ़ाई शुरू। अध्यापन के पहले दिन के पहले घंटे की इतिश्री इस प्रकार करके मैं बहुत प्रसन्न था।कई अन्य प्रोफेसर ने भी मुझे क्लास हैंडिल करते हुए देखा और मुझसे संतुष्ट हुए तथा मेरे कक्षा से बाहर आने पर उन सभी ने मुझे जमकर बधाई दी।

          दूसरे दिन मैं पूरी तैयारी के साथ कक्षा में गया और अपनी पूरी ऊर्जा से पढ़ाया। विद्यार्थियों की ओर से आई शंकाओं के समाधान भी संगत और सटीक सुझाए। विद्यार्थी प्रसन्न हुए। मेरे पढ़ाने की विद्यार्थियों में हुई प्रशंसा की कानाफूसी उड़ती हुई मेरे विभागीय वरिष्ठों और अन्य प्रोफेसर्स तक भी पहुँच गई। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे टाइम टेबल में विभागाध्यक्ष जी ने मुझे एक पीरियड एम.ए (प्रीवियस) और एक पीरियड एम.ए. ( फाइनल) का एलाट करके टाइम टेबल फाइनल कर दिया। मैं एम.ए. की दोनों कक्षाओं में गया तो विद्यार्थियों से जानना चाहा कि वह मुझसे क्या पढ़ना चाहते हैं? एम.ए.(प्रीवियस) के विद्यार्थियों ने कहा - "हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और "नई कविता' जिन्हें विद्यार्थियों को पिछले कई सत्रों से नहीं पढ़ाया गया था। एम.ए.(फाइनल) के विद्यार्थियों ने मुझसे "साहित्य शास्त्र और समालोचना" पढ़ाने का आग्रह किया।मेरे लिए यह कठिन तो था लेकिन असंभव नहीं था। मैंने पढ़ाने के लिए घर पर छ:-छ: घंटे पढ़ने में लगाए लेकिन छात्रों को शीशे जैसा करके पढ़ाया। विद्यार्थी मुझसे पढ़ने को लालायित रहने लगे। यहाँ तक की कुछ विद्यार्थी अपनी छठी कक्षा छोड़ कर 12 बजे ट्रम्बे से अमरोहा निकल जाते थे,वह भी कक्षा में आने लगे और मेरी वह कक्षा भी भर गई जिसमें कि सन्नाटा पसरा रहता था।

     अस्तु! प्रशासनिक व्यवस्था में जाने के बाद केजीके महाविद्यालय लगभग एक वर्ष में ही उस व्यवस्था से मुक्त होकर मैंनेजमैंट के हाथों में वापिस आ गया था। प्राचार्य डॉ.आर.एम.माथुर साहब इस उपलक्ष्य में एक भव्य आयोजन कराना चाहते थे।मैंनेजमैंट और प्राचार्य जी की योजना तत्कालीन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम डॉ.श्री एम. चेन्नारेड्डी जी को आमंत्रित करने की बनी। उन दिनों महामहिम महाविद्यालयों के दौरों पर खूब जा रहे थे और अध्यापकों की खाट जमकर खड़ी कर रहे थे, यहाँ तक कि कभी-कभी ऐसा कुछ भी बोल जाते थे जो उनके पद की गरिमा के लिए भी शोभनीय नहीं था। हमारे महाविद्यालय के प्रबंधन को भी महामहिम के कार्यालय से डेट मिल गई थी। संभवतः फरवरी अंत या मार्च प्रारंभ की डेट थी।जब महामहिम के कार्यक्रम को सफल बनाने पर जोरों पर मीटिंग्स हो रहीं थीं तो एक दिन मुझे भी मीटिंग में बुलाया गया। मैं गया, प्राचार्य जी ने मुझे विस्तृत कार्यक्रम से अवगत कराते हुए कहा कि कारेन्द्र तुम्हें इस कार्यक्रम में अपने मक्खन मुरादाबादी की भूमिका का निर्वहन करना है और एक कविता यह लक्ष करके पढ़नी है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों में एडमिनिस्ट्रेटर बैठाना उचित नहीं है क्योंकि संस्थाओं की अपनी साख गिरती है और उनका नियमित शिक्षण कार्य बाधित होकर पिछड़ता है। मैंने प्राचार्य जी को बताया कि सर,उस दिन तो मेरी प्रथमा बैंक की परीक्षा है। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किसने कहा कि तुम्हें अन्य कहीं नौकरी करने की आवश्यकता है। नौकरी में हो न।अब तुम कहीं नहीं जाने वाले। मैंने प्राचार्य जी का आदेश माना जबकि प्रथमा बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष मेरी हसनपुर मित्र मंडली के घनिष्ठ मित्रोँ में थे। अस्तु मैंने उस आयोजन के लिए रचना रच डाली। प्राचार्य कार्यालय में उपस्थित सभी ने सुनकर बहुत वाहवाही की। विद्यालय अपनी तैयारी में और मैं अपनी तैयारी में जुट गए। एक बड़े अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में सहभागिता जो करनी थी।

       वह दिन भी आया जब महामहिम महाविद्यालय में प्रविष्ट हुए और उनके प्रटोकोलीय सम्मान के साथ उनको महाविद्यालय के सभा भवन में ले जाया गया। उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया। प्रारंभ में कुछ औपचारिकताएं संपन्न हो जाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में सरस्वती वंदना और महामहिम के स्वागत गान के साथ भव्य आयोजन का  प्रारम्भ हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला के बीच ही मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। मेरी कविता में प्रबंध समिति का गुणगान और प्रशासनिक व्यवस्था पर कुछ प्रश्न उठाए गए थे।वह पूरी कविता मेरे पास आज कहीं भी नहीं है लेकिन जो उसका निचोड़ था उसके लिए ये पंक्तियाँ थीं -----

"क्या फर्क पड़ता है 

खरबूजा छुरे पर गिरे

या खरबूजे पर छुरा,

किसका भला होता है 

किसका बुरा।

कटना तो खरबूजे को ही है!"

इस रचना को पढ़कर मैं सभा भवन से बाहर निकल आया था। सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था। कुछ देर बाद मैं सभागार में लौट गया और सीट देखकर बैठ गया। भव्य कार्यक्रम का भरपूर आनन्द लिया।अब महामहिम की बारी थी। उन्होंने मेरी कविता की निन्दा करते हुए अपनी बात शुरू की और उस पर बोलते गए, निशाने पर मैं था। मुझे बाहर ड्यूटी पर तैनात एस.पी. साहब ने एक सिपाही को भेजकर बुलवाया। मैं बाहर आया और उनसे मुखातिब हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा कि मक्खन जी आप घर चले जाइए। महामहिम का कोई भरोसा नहीं है कि वह कहें कि इस कवि मास्टर को अरैस्ट कीजिए। मैं विद्यालय से घर चला आया। अगले दिन महाविद्यालय जाने पर मेरी खूब पीठ थपथपाई गई। वह दिन बीत गया, और दिन बीतते गए लेकिन महामहिम की इस झल्लाहट का केजीके इंटर कॉलेज के प्रवक्ता आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद खन्ना जब तक रहे तब तक मुझे देखते ही कहते - " कटना तो खरबूजे को ही है !" उन्होंने आजीवन इसका खूब आनन्द लिया। उनकी स्मृतियों को प्रणाम।

 ✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल : 9319086769 


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