रविवार, 2 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम के दस नवगीतों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा----



 वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत  दिनांक 1 व 2 अगस्त को मुरादाबाद के चर्चित  नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम की रचनाधर्मिता पर ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा का आयोजन किया गया । सबसे पहले योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा निम्न दस नवगीत पटल  पर प्रस्तुत किये गए

(1)

जीवन में हम ग़ज़लों जैसा
होना भूल गए

जोड़-जोड़कर रखे क़ाफ़िये
सुख-सुविधाओं के
और साथ में कुछ रदीफ़
उजली आशाओं के
शब्दों में लेकिन मीठापन
बोना भूल गए

सुबह-शाम के दो मिसरों में
सांसें बीत रहीं
सिर्फ़ उलझनें ही लम्हा-दर-
लम्हा जीत रहीं
लगता विश्वासों में छन्द
पिरोना भूल गए

करते रहे हमेशा तुकबंदी
व्यवहारों की
फ़िक्र नहीं की आँगन में
उठती दीवारों की
शायद रिश्तों में ग़ज़लियत
संजोना भूल गए

(2)

मैंने बूँदों को अक्सर
बतियाते देखा है

इठलाते बल खाते हुए
धरा पर आती हैं
रस्ते-भर बातें करती हैं
सुख-दुख गाती हैं
संग हवा के खुश हो
शोर मचाते देखा है

कभी झोंपड़ी की पीड़ा पर
चिंतन करती हैं
और कभी सूखे खेतों में
खुशियाँ भरती हैं
धरती को बच्चे जैसा
दुलराते देखा है

छोटा-सा जीवन है लेकिन
काम बड़ा करतीं
सूनी आँखों में उजली-सी
आशाएँ भरतीं
तक़लीफ़ों को सहकर भी
मुस्काते देखा है

(3)

तन के भीतर बसा हुआ है
मन का भी इक गाँव

बेशक छोटा है लेकिन यह
झांकी जैसा है
जिसमें अपनेपन से बढ़कर
बड़ा न पैसा है
यहाँ सिर्फ़ सपने ही जीते
जब-जब हुए चुनाव

चौपालों पर आकर यादें
जमकर बतियातीं
हँसी-ठिठोली करतीं सुख-दुख
गीतों में गातीं
इनका माटी से फ़सलों-सा
रहता घना जुड़ाव

चंचलता की नदी पास में
इसके बहती है
जो जीवन को नई ताज़गी
देती रहती है
बाढ़ कभी जब आती इसमें
उगते बहुत तनाव

(4)

चलो करें कुछ कोशिश ऐसी
रिश्ते बने रहें

रिश्ते जिनसे सीखी हमने
बोली बचपन की
सम्बन्धों की परिभाषाएँ
भाषा जीवन की
कुछ भी हो, ये अपनेपन के
रस में सने रहें

बंद खिड़कियाँ दरवाज़े सब
कमरों के खोलें
हो न सके जो अपने, आओ
हम उनके हो लें
ध्यान रहे ये पुल कोशिश के
ना अधबने रहें

यही सत्य है ये जीवन की
असली पूँजी हैं
रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन
हर पल गूँजी हैं
अपने अपनों से पल-भर भी
ना अनमने रहें

(5)

अब तो डाक-व्यवस्था जैसा
अस्त-व्यस्त मन है

सुख साधारण डाक सरीखे
नहीं मिले अक्सर
मिले हमेशा बस तनाव ही
पंजीकृत होकर
फिर भी मुख पर रहता
खुशियों का विज्ञापन है

गूगल युग में परम्पराएँ
गुम हो गईं कहीं
संस्कार भी पोस्टकार्ड-से
दिखते कहीं नहीं
बीते कल से रोज़ आज की
रहती अनबन है

नई सदी नित नई पौध को
रह-रह भरमाती
बूढ़े पेड़ों की सलाह भी
रास नहीं आती
ऐसे में कैसे सुलझे जो
भीतर उलझन है

(6)

अब संवाद नहीं करते हैं
मन से मन के शब्द

एक समय था, आदर पाते
खूब चहकते थे
जिनकी खुशबू से हम-तुम सब
रोज़ महकते थे
लगता है अब रूठ गए हैं
घर-आँगन के शब्द

हर दिन हर पल परतें पहने
दुहरापन जीते
बाहर से समृद्ध बहुत पर
भीतर से रीते
अपना अर्थ कहीं खो बैठे
अपनेपन के शब्द

आभासी दुनिया में रहते
तनिक न बतियाते
आसपास ही हैं लेकिन अब
नज़र नहीं आते
ख़ुद को ख़ुद ही ढँूढ रहे हैं
अभिवादन के शब्द

(7)

अपठनीय हस्ताक्षर जैसे
कॉलोनी के लोग

सम्बन्धों में शंकाओं का
पौधारोपण है
केवल अपने में ही अपना
पूर्ण समर्पण है
एकाकीपन के स्वर जैसे
कॉलोनी के लोग

महानगर की दौड़-धूप में
उलझी ख़ुशहाली
जैसे गमलों में ही सिमटी
जग की हरियाली
गुमसुम ढ़ाई आखर जैसे
कॉलोनी के लोग

ओढ़े हुए मुखों पर अपने
नकली मुस्कानें
यहाँ आधुनिकता की बदलें
पल-पल पहचानें
नहीं मिले संवत्सर जैसे
कॉलोनी के लोग

(8)

बीत गया है अरसा, आते
अब दुष्यंत नहीं

पीर वही है पर्वत जैसी
पिघली अभी नहीं
और हिमालय से गंगा भी
निकली अभी नहीं
भांग घुली वादों-नारों की
जिसका अंत नहीं

हंगामा करने की हिम्मत
बाक़ी नहीं रही
कोशिश भी की लेकिन फिर भी
सूरत रही वही
उम्मीदों की पर्णकुटी में
मिलते संत नहीं

कैसे आग जले जब सबके
सीने ठंडे हैं
आग जलाने वालों के
अपने हथकंडे हैं
आम आदमी के मुद्दे अब
रहे ज्वलंत नहीं

(9)

मौन को सुनकर कभी देखो
रूह भीतर गुनगुनाती है
ज़िन्दगी का गीत गाती है

झूठ के सुख-साधनों को तज
छल-भरे आश्वासनों को तज
रोग बनते जा रहे हैं जो
शोर के विज्ञापनों को तज
मौन को चुनकर कभी देखो
रूह भीतर खिलखिलाती है
ज़िन्दगी का गीत गाती है

दृष्टि में थोड़ा खुलापन ले
इन्द्रधुषी कुछ नयापन ले
बालपन-सी ताज़गी के सँग
सोच में थोड़ा हरापन ले
मौन को बुनकर कभी देखो
रूह भीतर चहचहाती है
ज़िन्दगी का गीत गाती है

बंदिशें सब तोड़ बंधन की
साजिशें सब छोड़ उलझन की
गंध डूबे शब्द कुछ लेकर
तुम कभी आयत बनो मन की
मौन को गुनकर कभी देखो
रूह भीतर मुस्कुराती है
ज़िन्दगी का गीत गाती है

(10)

आज सुबह फिर लिखा भूख ने
ख़त रोटी के नाम

एक महामारी ने आकर
सब कुछ छीन लिया
जीवन की थाली से सुख का
कण-कण बीन लिया
रोज़ स्वयं के लिए स्वयं से
पल-पल है संग्राम

वर्तमान को लील रहा हरदम
भय का दलदल
और अनिश्चय की गिरफ़्त में
आने वाला कल
सन्नाटे का शोर गढ़ रहा
भीतर प्रश्न तमाम

ख़ाली जेब पेट भी ख़ाली
जीना कैसे हो
बेकारी का घुप अँधियारा
झीना कैसे हो
केवल उलझन ही उलझन है
सुबह-दोपहर-शाम

इन नवगीतों पर चर्चा करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि कोलाहल से गुजरते हुए जब हम उनकी रचनाशीलता के आग्रहों की ओर ध्यान देते हैं तो पता चलता है कि निजता से लेकर व्यापक सामाजिक सरोकारों की धरती से जो निरंतर अनुपस्थित होते जा रहे हैं उन जीवन मूल्यों ,परस्पर संबंधों की गाँठ से ढीले होकर छूटते या सरकते रिश्तों की अकुलाहट भारी टीस उनके कथ्य में शामिल हैं इस तरह वे अपनी अभिव्यक्ति के दायरे को बड़ा करते जाते हैं। जीवन में गहरी संवेदनात्मकता का क्षरण उनके गीतों की वस्तु चेतना में शामिल है। यह पहले गीत से लेकर दसवें गीत तक में ही नहीं बल्कि उनके समूचे लेखन के केंद्र में है। उनके लिए रचना भी एक प्रार्थना है, पूजा है इसलिए बासी फूलों की टोकरी अलग खिसका कर ताजा फूलों का प्रयोग करते हैं। व्योम सर्वथा मौलिक चिंतन के रचनाकार हैं और हिंदी नवगीत में मुरादाबाद के उजली पाँत की संभावना हैं।
आलमी शोहरत याफ्ता शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मुझे नवगीत जितना भी पढना सुनना और समझना आता है उस कसौटी पर व्योम की रचनाएं मुझे बेहद आकर्षित करती हैं क्योंकि मेरे नजदीक व्योम पूरी तरह मानवतावादी कवि हैं, इंसानी सोच उसके दुख-सुख उसकी आवश्यकतायें और अपेक्षाएं व्योम की रचनात्मक सोच का केंद्र बिंदु रहती हैं वह कल्पनाओं से ज्यादा हकीकतों के कवि हैं जो उन्हें अपने बडों के बीच स्थापित करता है।
वरिष्ठ कवि शचीन्द्र भटनागर  ने कहा कि व्योम के कवि मन को जो वेदना निरंतर मथती रहती है, वह है आज के संबंधों में सहजता का अभाव. कभी वह उसे ग़ज़ल की मिठास तो कभी बूंदों द्वारा अपने छोटे से जीवन में बड़े काम करने से व्यक्त करते हैं. कभी मन के भीतर बसे गाँव से तो कभी संस्कारों के विलुप्त होने से, अपनत्व रहित संवादों अथवा कोलोनी के कृत्रिम जीवन से तुलना करके व्यक्त करते हैं। अंतिम नवगीत वैश्विक संकट से उत्पन्न स्थिति में श्रमजीवी जैसे सबसे निचले स्तर के व्यक्ति की वेदना को उकेरा है। दुष्यंत कुमार के स्मृति गीत के माध्यम से उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप समाज में जागृति न आ पाने पर कवि का क्षोभ व्यक्त हुआ है। इन गीतों जैसे मानवीकरण के सुंदर सटीक उदाहरण एक साथ कम ही मिल पाते हैं ।
विख्यात व्यंग्य कवि  डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि व्योम नवगीत विधा में चर्चा पाकर अपना स्थान बना चुके हैं। उनके कोंपलों जैसे ताजा नवगीत सकारात्मक सोच और कड़वाहट को मिठास के साथ परोसने के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। यह मुश्किल कार्य उनसे हुआ इसके लिए पहले ही बधाई। ऐसे समर्थ रचनाकार पर कुछ कहने के लिए गीत और नवगीत को समझना आवश्यक है। योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' की मीठी भाषा, शिल्प की तराश, कथ्य में जन भागीदारी, बिंबों का अनूठापन कहन के माधुर्य से गीत के सौंदर्य को उच्चता की ओर ले जा रहा है।
वरिष्ठ कवि  डॉ अजय अनुपम ने कहा कि आज पटल पर श्री योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के दस गीत पढ़े। विस्तृत विचार और खुली सोच के गीत। रचनाकार के मन में पहले एक विचार उमड़ता है और उसमें से गीत का स्वरूप उभरता है। गीत का शाब्दिक अर्थ ही है कि जो गाया जा चुका है। व्योम जी के गीत भाषा और कथ्य में समकालीन परिवेश की पूरी तस्वीर उतारने में समर्थ हैं। विस्तृत विचार और खुली सोच के गीत हैं।
मशहूर शायरा डॉ मीना नकवी ने कहा कि व्योम से एक लम्बे समय से परिचय है और अनेकानेक बार उन्हें सुना भी है और पढ़ा भी है। व्योम नवगीत के सशक्त कवि हैं। सामाजिक संबंधों की असहजता उन्हे व्याकुल रखती है। सामजिक परिवेश की उथल पुथल को जब वह डाक व्यवस्था से सटीक उपमा देते हैं तो मन विस्मित हो जाता है। कुल मिला कर व्योम समय, संबधो के सकारात्मक  और सशक्त कवि हैं।
मशहूर शायर  डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा कि योगेंद्र ‘व्योम जी के गीतों में प्रयोगशीलता तो है, लेकिन मनमानापन नहीं। व्योम जी आज देशभर में नवगीत के क्षेत्र में अपना वह मुक़ाम पा चुके हैं, जो बहुत कम लोगों का मुक़द्दर होता है। उनके यहाँ प्रत्येक भाषा के बहुप्रचलित शब्द आसन जमाये विराजमान होते हैं। बिंब बहुत साफ़-सुथरे और आम आदमी की पहुँच में आने वाले होते हैं।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फराज  ने कहा कि कागज़ पर सजे हुए 'व्योम' के नवगीत हमारे सामाजिक जीवन का अक्स हैं। ये नवगीत शायरी के उस नाज़ुक एहसास को दर्शाने के लिए साधारण अल्फ़ाज़ का लिबास पहनते हैं जहाँ बारिश की बूंदों की बाते भी सुनी जाती हैं और उस पीड़ा को भी एक हस्सास शायर ही महसूस कर सकता हैं जो बारिश से झोपड़ियों और उसके रहने वालों को होती हैं।'व्योम' के नवगीत मन के तारों को छेड़ते भी है और मस्तिष्क के तारो को झंझोड़ते भी हैं।
वरिष्ठ कवि  डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक पटल पर अपनी एक विशिष्ट पहचान स्थापित कर चुके योगेंद्र वर्मा व्योम के मन के गांव में बसी भावनाएं जब शब्दों का रूप लेकर नवगीत, ग़ज़ल और दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं तो वह अपने पाठकों / श्रोताओं की सोच को  झकझोर देती हैं। उनके नवगीत जिंदगी के विभिन्न रूपों के गीत हैं जो हम से बतियाते हैं और हमारे साथ खिलखिलाते भी हैं। उन्हें पढ़/ सुनकर हमारा अस्त व्यस्त मन कभी गुनगुनाने लगता है तो कभी चहचहाने लगता है तो कभी निराशा और हताशा के बीच आशाओं के दीप जलाने लगता है।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि आदरणीय व्योम जी नव गीत के सशक्त हस्ताक्षर हैं उनके गीतों में जहाँ सामाजिक विद्रूपताओं का सजीव चित्रण है वहीं मानवीय संवेदनाएं उनके गीतों का आधार हैं। सरल सहज शब्दों में वर्तमान परिवेश की हलचल को उजागर करना उनके गीतों की विशेषता है सच्चे अर्थों में उनकी रचनाएं समाज का दर्पन हैं। उनकी अनुपम रचनाधर्मिता के प्रति हृदय से साधुवाद माँ शारदे की कृपा व्योम जी पर यूँ ही बरसती रहे।
वरिष्ठ कवि  शिशुपाल मधुकर ने कहा कि व्योम जी बहुत ही मृदुभाषी मिलनसार तथा व्यवहारिक व्यक्ति हैं। सबका सहयोग करना उनके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण गुण है। मैं उनके लेखन से करीब 30 वर्षों से परिचित हूं। व्योम जी अत्यंत संभावनाशील व उत्कृष्ट रचनाकार है जो बदलते परिवेश में स्वयं को ढालने में सिद्ध हस्त हैं।मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास भी है कि वे नवगीत की और उचाइयों को अवश्य छुएंगे।
प्रसिद्ध समीक्षक  डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि मुरादाबाद वासियों को गर्व होना चाहिए की हमारे शहर के अग्रिम पंक्ति के नवगीतकारों में आदरणीय योगेंद्र वर्मा व्योम जी का नाम भी शामिल है। योगेंद्र वर्मा व्योम जी के नवगीत केवल कहन भर  नहीं  बल्कि  सामाजिक  चेतना  के  सूत्रधार  भी  प्रतीत  होते  हैं।
युवा शायर  राहुल शर्मा ने कहा कि व्योम जी इतनी खूबसूरती से, बड़ी बारीकी से ऐसे ऐसे बिंब, प्रतीक और प्रतिमान ढूंढ लाते हैं जिस पर सामान्य गीतकार दृष्टिपात नहीं कर पाते। व्योम जी चीजों को रूपांतरित करने में सिद्धहस्त हैं। मन को गांव की संज्ञा में रूपांतरित कर देने जैसा प्रयोग पहले कभी कहीं देखने को नहीं मिलता। रूपांतरित कर देने के पश्चात रूपांतरण के मानकों का सटीक उपयोग करना बहुत ही कुशलता का कार्य है।
युवा शायर फरहत अली खान ने कहा कि नवगीत अगर गीत की रिवायत को जदीदियत(आधुनिकता) का नया रंग देने का नाम है तो व्योम जी के नवगीत इस की अच्छी मिसाल हैं। ज़ाहिर है कि 'नया' कुछ नहीं होता बल्कि 'पुराने' का ही वर्तमान के आइने में नज़र आने वाला अक्स होता है। आप ने विषयों के तौर पर समाज के अंदर-बाहर के छोटे-बड़े पहलुओं को जिस तरह से चुन-कर, उन में निहित जज़्बात और उन से पैदा होने वाले असरात को आम-फ़हम शब्दों से बुन-कर सामने रखा है, वो क़ाबिल-ए-दाद है।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि तमाम संवेदनाओं को समेटे उनकी रचनाएं पाठकों व श्रोताओं से सीधी व सरल भाषा-शैली में वार्ता करती प्रतीत होती हैं। उनसे मुझ अकिंचन को भी भरपूर स्नेह व मार्गदर्शन मिलता रहा है। देश के श्रेष्ठ नवगीतकारों में से एक की रचनाओं का आज पटल पर आना हम सभी के लिए हर्ष का विषय है। निश्चित ही साहित्य-जगत में और अनेक ऊँचाईयाँ बाहें फैलाए आदरणीय व्योम जी की प्रतीक्षा कर रही हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि हम सभी उन ऐतिहासिक क्षणों के प्रत्यक्षदर्शी बन सकें।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि आदरणीय व्योम जी के प्रस्तुत गीतों की करें, तो ये सभी कल्पनाओं के व्योम से यथार्थ की जमीन पर उकेरे गए शब्दों के संयोजन हैं। व्योम जी के सभी नवगीत उत्कृष्ट साहित्य की बानगी भर हैं। इस व्योम में ऐसे असंख्य तारे हैं। मुझे विश्वास है कि उनकी चमक भी हम तक ऐसे ही किसी माध्यम से ज़रूर पहुँचेगी।
युवा समीक्षक डॉ अजीम उल हसन ने कहा कि व्योम जी के सभी नवगीत एक से बढ़ कर एक हैं। भाषा अत्यन्त सरल एवं व्यावहारिक है जिससे गीतों को पढ़कर मन बोझिल नहीं होता बल्कि सहजता से ये नवगीत मन में उतरते चले जाते हैं। कहने को तो ये नवगीत है परंतु इनकी जड़े हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता तथा परम्पराओं से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि व्योम जी निस्संदेह नवगीत की डगर पर सधे हुए कदमों से निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं। उनके गीत मन को छूते हैं और समसामयिक विषयों पर गहरे तक झकझोरते भी हैं। व्योम जी को मैं एक मिलनसार, सहयोगी, हितैषी, मार्गदर्शक बड़े भाई के साथ साथ एक संवेदनशील, अध्ययनशील, साहित्य के प्रति जिज्ञासु और समर्पित व्यक्तित्व के रूप में जानती हूँ। मैं आश्वस्त हूँ कि हमारे मुरादाबाद से बड़े भाई श्री योगेन्द्र वर्मा व्योम जी निकट भविष्य में नवगीतकारों की उस पंगत में शामिल होंगे, जो साहित्य के इतिहास में स्वर्णिम आभा बिखेरने वाले हैं।
ग्रुप एडमिन और संचालक शायर  जिया जमीर ने कहा कि योगेंद्र वर्मा व्योम उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने कविता से अपना साहित्यिक सफ़र शुरू किया और फिर नवगीत के आकर्षण में बंध कर नवगीत की तरफ आ गए। नवगीत की तरफ वो रचनाकार ही आता है जिसे बेड़ियां तोड़ने की ख्वाहिश होती है। व्योम जी की परवरिश उनकी रचनाओं, उनके गीतों में साफ़ दिखाई देती है। वो रिश्तों की पासदारी में यकीन रखते हैं। रिश्तों को निभाना चाहते हैं। आख़िरी दम तक रिश्ते तोड़ना नहीं चाहते। तभी तो अपनी नवगीतों की किताब का नाम उन्होंने 'रिश्ते बने रहें' रखा। नवगीत होने के बावजूद इन गीतों में जो गहराई, जो ठहराव और शब्दों के चयन और उनका पंक्ति में फैलाने का जो सलीक़ा है, वह किसी भी तरह इन नवगीतों को परंपरागत गीत के स्तर से कम नहीं होने देता।

:::::::::प्रस्तुति:::::::::
-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
 मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो० 7017612289

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को हस्तलिखित वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । बीती 26 जुलाई 2020 रविवार को आयोजित 212 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों रवि प्रकाश, श्री कृष्ण शुक्ल, मनोरमा शर्मा, मुजाहिद चौधरी , रामकिशोर वर्मा, कंचन लता पांडे, प्रवीण राही, सीमा रानी, सीमा वर्मा, राजीव प्रखर, अशोक विद्रोही, कमाल जैदी वफ़ा, त्यागी अशोक कृष्णम, संतोष कुमार शुक्ला , अशोक विश्नोई, दीपक गोस्वामी चिराग, डॉ पुनीत कुमार, अनुराग रोहिला, डॉ श्वेता पूठिया, प्रीति चौधरी, डॉ अशोक रस्तोगी, नृपेंद्र शर्मा सागर, डॉ ममता सिंह, डॉ मीरा कश्यप ,डॉ प्रीति हुंकार और डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा हस्तलिपि में प्रस्तुत रचनाएं------




























मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता-----गिरावट


राजनीति में
पता नहीं कैसा भूचाल आया
शेयर बाज़ार बुरी तरह लड़खड़ाया
फिर मुंह के बल गिर गया
अख़बार वालो को
जश्न मनाने का मौका मिल गया
उन्होंने इस समाचार को
मुखपृष्ठ पर स्थान दिया
क्या करें,क्या ना करें
इस पर लंबा ज्ञान दिया
न्यूज़ चैनलों की तो जैसे
लॉटरी खुल गई
पूरे दिन चलाने को
सनसनीखेज न्यूज़ मिल गई
सोशल मीडिया ने भी
इस मुद्दे को हाथो हाथ लिया
विरोध और समर्थन के आधार पर
देशभक्त और देशद्रोही खेमों में
पूरे देश को बांट दिया
रुपए में गिरावट पर भी
निरर्थक बहस जारी है
शायद हम में इतनी ही समझदारी है

दूसरी तरफ
सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों में
जबरदस्त गिरावट है
हम सब मूक दर्शक बने बैठे है
ना कोई शोर शराबा है
ना कोई सनसनाहट है
राजनेताओं का चरित्र भी
बराबर गिर रहा है
हमको खुली आंख से भी
नहीं दिख रहा है
संसद में बोली जाने वाली भाषा
निम्नतम स्तर पर है
फिल्मों में कहानी
और कवि सम्मेलनों में कविता
वेंटिलेटर पर है
शिक्षा की गुणवत्ता का ग्राफ
बराबर नीचे जा रहा है
सब पैसा कमाने में व्यस्त है
किसी को समझ नहीं आ रहा है

ये सब मात्र एक झलक है
गिरावट जीवन में
जन्म से मृत्यु तलक है
हमने रामायण महाभारत गीता
और वेद पुराण जैसे शास्त्रों से
अपना नया तोड़ लिया है
केवल और केवल
अर्थ शास्त्र से खुद को जोड़ लिया है
हमारी सोच में भी
गिरावट आने लगी है
हम सब स्वार्थी हो गए है
और भौतिक प्रगति ही
हमको भाने लगी है।

डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600

शनिवार, 1 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार मंसूर उस्मानी की ग़ज़ल --- इतने चेहरे थे उसके चेहरे पर, आईना तंग आ के टूट गया ....


"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 140 वीं जयंती पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक चर्चा


 वाट्स एप पर संचालित  साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा शुक्रवार 31 जुलाई 2020 को हिन्दी-उर्दू के प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 140 वीं जयंती पर  उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक चर्चा की गई । इस चर्चा में मुरादाबाद के साहित्यकारों ने विचार व्यक्त किये ।
एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताया कि मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी शिक्षा फारसी और उर्दू पढ़ने से शुरू हुई। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा के पास करने के बाद वह एक स्थानिय पाठशाला में अध्यापक नियुक्त हो गए। 1910 में वह इंटर और 1919 में बी.ए. के पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। उनकी प्रसिद्ध हिंदी रचनायें हैं ; उपन्यास: ग़बन, गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कहानी संग्रह: नमक का दरोग़ा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, बालसाहित्य: कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ आदि। इस अवसर पर उन्होंने मुंशी जी के कालजयी उपन्यास 'ग़बन' का पहला अध्याय पटल पर प्रस्तुत किया।
वरिष्ठ कवि शचीन्द्र भटनागर  ने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर मानवीय संवेदना के रचनाकार मुंशी जी को शत-शत नमन करते हुए डॉ महेश मधुकर के दोहे प्रस्तुत किये -

धन्य बनारस का हुआ,छोटा लमही ग्राम।
प्रेमचन्द्र जन्मे जहाँ, उसको कोटि प्रणाम।।

पिता अजायबराय का,बेटा धनपत राय।
माता आनन्दी उसे,लिए गोद-दुलराय।।

शिवरानी देवी बनीं,पत्नी सौम्य स्वभाव।
रहे अभावों में सदा,झेला अर्थाभाव।।

सत्य, अहिंसा,न्याय से,था अन्तस भरपूर।
छल,फरेब दुर्भाव से,रहे हमेशा दूर।।

साधारण जन कृषक के,मन की समझी पीर।
संवेदन-आलेप से,सदा बंधाई धीर।।

उपन्यास सम्राट ने लिखीं कहानी श्रेष्ठ।
मानवीय संवेदना,पूरित करी यथेष्ठ।।

साहित्यिक आकाश में,दिनकर से द्युतिमान।
प्रेमचन्द्र श्रीमान थे,सचमुच चन्द्र समान।।
वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने मुंशी प्रेमचंद के फिल्मी दुनिया से जुड़ाव पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रेमचंद जी अपने जीवन के आखिरी दिनों में कुछ समय के लिए फिल्मी दुनिया से जुड़े रहे। उनके कई उपन्यास और कहानियों पर फिल्मों का निर्माण हुआ। प्रेमचंद जी ने फिल्मी कंपनियों के लिए कहानियां और संवाद आदि लिखे और एक फिल्म में काम भी किया। ''हंस ''और ''जागरण ''के प्रकाशन के कारण 1934 में उन पर बहुत कर्ज हो गया था परंतु पत्रिकाएं बंद नहीं करना चाहते थे। आमदनी का और कोई रास्ता नहीं था, उस समय बोलती फिल्मों का दौर प्रारंभ हो चुका था। अतः फिल्म कंपनियों  को ऐसे साहित्यकार की आवश्यकता थी जो उनके लिए कहानी संवाद लिख सके अतः 1934 में अजंता सैनी टोन मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद जी से ₹8000 सालाना मुआवजे की बात की और उन्होंने यह स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें कर्ज चुकाना था और पत्रिकाएं भी चलानी थीं। उन्होंने यह भी विचार किया कि वह अपनी बात फिल्मों के माध्यम से लोगों तक पहुंचा सकेंगे जो उपन्यास , कहानी के माध्यम से नहीं कर पा रहे थे। फिल्म से उनके विचारों का प्रसार प्रचार हो सकेगा। अतः वह जून 1934 में मुंबई चले गए लेकिन प्रारंभ में ही उन्हें कटु अनुभवों का सामना करना पड़ा  तथा उन्हें वह माहौल भी पसंद नहीं आया वह बनारस वापस आ गए। उनकी पहली फिल्म कहानी ''मजदूर'' या ''मिल मजदूर '' लिखकर पेश की परंतु फिल्म काट छांट कर पेश करनी चाही लेकिन रिलीज होने से पहले ही उस पर रोक लगा दी फिर बाद में ''मिल मजदूर ''नाम से प्रदर्शित की गई इस फिल्म में मुंशी प्रेमचंद जी ने मजदूर यूनियन के नेता की भूमिका भी निभाई थी दूसरी फिल्म ''शेर दिल ''या ''नवजीवन '' के नाम से बनी लेकिन यह फिल्म भी नहीं चली। धीरे-धीरे उन्हें आभास हो गया कि यहां पर उनका गुजारा नहीं है। वो कंपनियों के विचारों से सहमत नहीं हुए और वापस आ गए।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद  एक ऐसे साहित्यकार जिन्होंने साहित्य की उपयोगिता मानव जीवन और समाज के लिए मानते हुए अपना संपूर्ण रचना कर्म किया। उन्होंने आदमी-आदमी के बीच खाई पैदा करने वाली कुप्रथाओं, कुरीतियों, कुरुचियों और समस्याओं चाहे वे आर्थिक हो या सामाजिक या राजनीतिक पर खुलकर लिखा। उनकी कहानियों पर दृष्टि डाली जाए तो उन्होंने अपनी कहानी "अलग्योझा" में जहां घर के बंटवारे के दुष्परिणामों की ओर संकेत किया वहीं "ठाकुर का कुआं " में छुआछूत जैसी विकृत समस्या को उजागर किया। उन्होंने जहां दहेज की कुरीति पर "उधार" कहानी लिखी वहीं "धिक्कार" कहानी में विधवा जीवन का मार्मिक चित्रण किया "मंत्र" के जरिए जहां मानवीय चेतना को दर्शाया वहीं "कफन" में विकृत मनोवृति की तरफ भी इशारा किया।
वरिष्ठ जनवादी कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि 31 जुलाई का दिन उन सभी साहित्य रचनाकारों के लिए प्रेरणा दिवस के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है जो अपनी लेखनी का उपयोग सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने, मानव मूल्यों की स्थापना करने तथा अपने समय के युग आदर्श के अनुसार रचना कर्म करने में करना चाहते हैं। प्रेमचंद का युग सामंती शोषण में जर्जर ब्रिटिश हुकूमत के जुए के नीचे भारतीय बर्जुआ नवजागरण के चिंतन उन्मेष का युग था।भारतीय समाज में पाश्चात्य मानवतावादी चिंतन हिलोरे मार रहा था।अतः  पराधीन स्वतंत्रता की चाह रखने वाले  भारतीयों के मन में पुराने सामंती समाज के अनुशासन के खिलाफ विरोध तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों से आजादी प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा जोरों पर थी इस तरह एक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन है। प्रेमचंद ने अपने युग की आवश्यकता, आदर्श तथा साहित्यिक उत्तर दायित्व का निर्वहन करते हुए शोषित आम जनता का पक्ष लेकर सामंती कु संस्कार ,अंचल पन, धर्मीय कूपमण्डूकता,पुरातन धर्मी गलत परम्परा,आचार आचरण आदि सभी कुछ के ख़िलाफ़ लेखनी को तेज तलवार की तरह प्रयोग किया।साथ ही ब्रिटिश विरोधी मनोभावों को निर्मित करने के क्षेत्र में उन्होंने साहित्य के माध्यम से ऐसा प्रभाव छोड़ा कि वंग- भंग आंदोलन काल में रचित उनके "सोज़े वतन" नामक कहानी संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर लिया। प्रेमचंद ने देश के वृहत्तर राजनीतिक - सामाजिक आंदोलन में अपने आप को शामिल करके प्रतिरोध के संग्राम में सिपाही का फर्ज भी अदा किया और इस सक्रिय भूमिका ने उनको शोषित- पीड़ित समाज का और भी करीबी आदमी बना डाला। उनकी सभी कहानी -उपन्यासों में गरीबी के अत्याचार, अन्याय तथा जर्जर भारत के किसी न किसी पहलू का चित्र उकेरा हुआ है। प्रेमचंद का साहित्यिक व्यक्तित्व इतना विराट एवं विस्तृत है की सामाजिक जीवन का कोई भी पहलू उनकी लेखनी की परिधि से बाहर नहीं है।
डॉ मनोज रस्तोगी ने वरिष्ठ पत्रकार कुमार अतुल  का आलेख, "प्रेमचंद क्यों जरूरी हैं" प्रस्तुत किया - सोशल मीडिया पर प्रेमचंद के विषय में लेखों की बाढ़ देखकर सुखद अहसास होता है। यह लेखक के कालजयी होने का प्रमाण है। यह उनके लिए भी जवाब है जो हिंदी की मौत की घोषणा कर रहे हैं। आप लिखिए तो कुछ प्रेमचंद जैसा। लेकिन नाच न आवे आंगन टेढ़ा। पाठक किसी लेखक की रचना से जितना अपनापन महसूस करता है वह लेखक उतना ही कामयाब होता है । प्रेमचंद इस मामले में आधुनिक काल के हिंदी के इकलौते लेखक हैं जिनकी रचनाओं से सौ साल बाद भी जुड़ाव की अनुभूति करते हैं। प्रेमचंद की रचनाओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनके पात्र आपको आपके भीतर के इंसान को बचाए रखने की प्रेरणा देते हैं। आप उन रचनाओं की आदर्शवादिता पर सवाल खड़ा कर सकते हैं जैसा प्रेमचंद के आलोचकों ने किया भी लेकिन वक्त ने साबित किया है कि उनकी रचनाएं सर्वग्राही और सर्वकालिक हैं । प्रेमचंद की कहानियों की खासियत यह है कि लगता है कि अपने ही आसपास के लोगों की गाथाएं हैं। इसीलिए उनका ताना-बाना बहुत नैसर्गिक लगता है। प्रेम चंद की कहानियों में नारी पात्रों को बड़ा सम्मान दिया गया है। बड़े घर की बेटी अद्भुत कहानी है। आनंदी एक संपन्न जमींदार की बेटी थी। पढ़ाकू और सामान्य घर में शादी होने के बाद स्थितियां ऐसी बनती हैं कि उसका देवर उसे खड़ाऊं चलाकर मार बैठता है। भाई से अतिशय प्यार करने वाले आनंदी के पति के सामने बड़ी दुविधा रहती है। लेकिन अपने कथित उजड्ड भाई की जगह पत्नी का साथ देते हैं। वह घर छोड़कर जाना चाहते हैं। लेकिन आनंदी घर को टूटने से बचा लेती है। कहानी की बुनावट ऐसी है कि लगता है कि यह हर संयुक्त परिवार से जुड़ी घटना है। लेकिन हर घर में आनंदी नहीं है। घर टूट रहे हैं। आनंदी जैसी बहू की चाहत हर घर करने लगता है। जब साहित्य में किसी किरदार की समाज में लोग जरूरत महसूस करने लगे इससे बड़ी लेखकीय कामयाबी और क्या हो सकती है। आप इसे प्रेमचंद का कोरा यथार्थवाद कहकर  खारिज नहीं कर सकते। प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील रचनाकार ने बदलते वक्त के साथ कदमताल मिला कर कफन, पूस की रात जैसी कहानियां अथवा गोदान जैसा घोर यथार्थवादी उपन्यास लिखा तो यह स्वाभाविक ही था। लेकिन यह आदर्शवाद ही है जिसने प्रेमचंद को घर-घर का दुलारा लेखक बना दिया। प्रेमचंद की कहानियां अपने आप में एक संस्कार की पाठशाला हैं। इसलिए गुजरते वक्त के साथ वे और अनमोल तथा प्रासंगिक होती जाएंगी।
युवा कवियत्री डॉ रीता सिंह ने कहा कि हिन्दी साहित्य में उपन्यास सम्राट, कथा-कहानियों के गहरे मानसरोवर मुंशी प्रेमचंद का लेखन समाज के आदर्श व यथार्थ दोनों ही रूपों को प्रस्तुत करता है। विद्यार्थी जीवन में हम सभी ने प्रेमचंद की कहानियों का तन्मयता से रसास्वादन किया है । मंत्र, ईदगाह, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी आदि इन कहानियों के पात्र भगवान बड़ा कारसाज है को जीते डॉ चड्ढा व भगत, मेले की रौनकों में से दादी के लिये चिमटा खरीदने वाला नन्हा हामिद, किसान झूरी के हीरा-मोती, हिन्दू मुस्लिम मित्र अलगू चौधरी - जुम्मन शेख, पूस की रात की ठंड में कांपता हल्कू, शतरंज के खिलाड़ी मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली सभी इतने सजीव प्रतीत होते हैं कि मानो वे अपने आसपास ही हों। समाज के निम्न मध्यम वर्गीय किसानो और मजदूरों पर हो रहे शोषण की वेदना प्रेमचंद जी की कहानियों में जीवंत प्रतीत होती है। ‘पूस की रात’ में तो प्रेमचंद जी ने बङी कुशलता से निरुपित किया है कि इस दुनिया में हमें आत्मियता जानवरों से तो मिल सकती है किन्तु इंसानो से इसकी अपेक्षा नही करनी चाहिये ।
व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी ने सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन शैली को अपनाया । प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे जन सामान्य के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज में अछूत कहे जाने वाले पात्र नायक के रूप में हैं । उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी का सजीव चित्रण अपनी कहानियों व उपन्यासों में किया है। उनके उपन्यासों निर्मला , गबन , गोदान , सेवासदन , रंगभूमि आदि में दलित व नारी की दशा का यथार्थ सामाजिक चित्र प्रस्तुत हुआ है । ये दोनों ही विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने हैं ।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने मुंशी प्रेमचंद के हिंदी-उर्दू साहित्य के महान कथाकार और नाविल निगार मुंशी प्रेमचंद को ख़िराजे अकी़दत पेश करते हुए उनके पुत्र अमृतराय द्वारा लिखित एक पैराग्राफ़ प्रस्तुत किया - "यह लाहौर है और 1935 चल रहा है,उर्दू के मुनफ़रिद ड्रामा निगार इम्तियाज़ अली ताज ने प्रेमचंद को चाय पर बुलाया है। प्रेमचंद लाहौर की गलियों-बाजा़रों में चक्कर लगाने के बाद दिन ढले इम्तियाज़ अली ताज के घर पहुंचते हैं। प्रेमचंद के कपड़ों पर सिलवटें पड़ी हुई हैं,उन्होंने मामूली कपड़े की धोती और मोटे कपड़े का कुर्ता पहन रखा है इम्तियाज़ अली ताज के घर के बाहर 100 से ज़्यादा कारें खड़ी हुई हैं, एक से एक बढ़िया। मेहमानों में जज,बैरिस्टर, डॉक्टर और प्रोफेसर सभी हैं। शहर के बड़े-बड़े लोग बुलाए गए हैं और जब उन लोगों को बताया गया कि यह मामूली कपड़े पहनने वाला आदमी ही प्रेमचंद्र है तो उन्हें बड़ी मुश्किल से इस पर यक़ीन आया। हैरत की बात है कि इस मामूली और सादे से देहाती के लिए शहर के सरकरदा लोग इंतज़ार में थे।"
युवा कवियत्री हेमा तिवारी  हेमा तिवारी भट्ट  ने कहा कि प्रेमचंद के नारी पात्र भारतीय आदर्श के पोषक हैं। सात वर्ष की उम्र से ही मातृ सुख से वंचित पुनः विमाता के दुर्व्यवहार से संतप्त, बाल विवाह और विधवा विवाह दोनों ही स्थितियों के भुक्तभोगी रहे महान कथाकार और उपन्यासकार प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में नारी पात्रों का चित्र जिस जीवंतता से किया है, वैसा अन्यत्र नजर नहीं आता। केवल कथानक की मांँग पर नारी पात्र का सृजन करना ही उनका लक्ष्य नहीं लगता, बल्कि उनकी हर स्त्री पात्र के पीछे भारतीय विचारधारा झलकती है। इसीलिए उनके उपन्यासों और कहानियों में हम प्राय:नारी के उन रूपों का समृद्ध परिचय पाते हैं,जो भारतीय आदर्शों का पोषण करती हैं।प्रेमचंद के लेखन में नारी को जीवन की चरम शांति भारतीय आदर्शों के अनुपालन में ही मिली है। प्रेमचंद नारी को प्रेम की शक्ति का रूप मानते हैं।वह नारी के अंदर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, तपस्या, बलिदान, प्रगतिशीलता, कर्तव्य ज्ञान, सेवा पवित्रता आदि सभी उदार भावों को देखते हैं और इन भावों को उन्होंने विभिन्न नारी पात्रों में जगह जगह पर चित्रित करके दिखाया भी है।भारतीय आदर्श के अनुरूप हर स्त्री में वह माँ तत्व को प्रमुख मानते हैं। गोदान, प्रतिज्ञा, निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, सेवासदन आदि उपन्यास हों या ठाकुर का कुआंँ, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, पूस की रात आदि कहानियांँ हों, प्रेमचंद ने अपनी स्त्री पात्रों को भारतीय आदर्शों के अनुरूप प्रस्तुत किया है। वह स्वीकारते हैं कि नारी के गुण श्रेष्ठ होते हैं,तभी वे लिखते हैं - 'जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएं तो वह कुल्टा बन जाती है'(गोदान)। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में नारी के हृदय की भी गहराई से पड़ताल की हैं, जहाँ उन्हें मिठास भी मिली और कड़वाहट भी। उन्होंने अपने पाठकों को इन दोनों ही रुपों से मिलवाया है। उनके स्त्री पात्र एक और जहां भारतीय आदर्श प्रस्तुत करते हैं वहीं वह उन स्त्री पात्रों को भी सामने रखते हैं जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हैं, मुखर हैं, मॉडर्न हैं। परंतु अंततः वह भारतीय आदर्श की सर्वोच्चता को ही उस पात्र के हृदय परिवर्तन या व्यवहार परिवर्तन से सिद्ध कर देते हैं।
युवा शायर और कहानीकार फरहत अली खान ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद अकेले ऐसे साहित्यकार हैं जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में पहली पंक्ति के साहित्यकारों में गिना जाता है। हिंदी में इन्हें जहाँ हिंदी साहित्य का टर्निंग पॉइंट माना जाता है और युग-प्रवर्तक के तौर पर देखा जाता है, वहीं उर्दू में जब मंटो, बेदी, इंतेज़ार हुसैन, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, क़ुरअतुल ऐन हैदर, बलवंत सिंह सरीखे साहित्यकारों का नाम लिया जाता है तो साथ में प्रेमचंद का नाम भी रखा जाता है। प्रेमचंद के तमाम साहित्य का केंद्रीय विषय है- 'मानवीय मूल्य'। उन्होंने कमज़ोरों और दर्द-मंदों के लिए आवाज़ उठाई, उन की वकालत की, उन की पीड़ा और दुर्दशा बयान की। साथ ही ताक़तवर और धनवान लोगों द्वारा ग़रीबों पर किए जा रहे अत्याचारों की सच्ची तस्वीर समाज के सामने रखी। कहानी कहने में तो उन्हें महारत हासिल थी। अल्फ़ाज़ और मुहावरों का इस्तेमाल बहुत ख़ूबी के साथ करते थे। उन का बयान अच्छे-अच्छों की नब्ज़ पकड़ लेता है। बयान में वो सादगी और मिठास कि एक-एक जुमला शौक़ की इंतेहा के सबब ख़ुद को दस-दस बार पढ़वा ले जाए। ज़बान की ऐसी मिसालें कम-कम ही मिलती हैं। मुमकिन है कि ज़बान की ये चाशनी उन्हें हिंदी के साथ-साथ उर्दू भाषा पर भी बराबरी से पकड़ होने के सबब हासिल हुई हो। हिंदी जगत में प्रेमचंद से पहले और बाद में भी बहुत अच्छे-अच्छे साहित्यकार आए। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी तमाम ख़ूबियों के सबब अपने बाद के साहित्यकारों और साथ ही पाठकों पर भी जिस तरह गहरा असर छोड़ा उस की कोई दूसरी नज़ीर नहीं मिलती।
मुरादाबाद के युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने अपने दोहों के ज़रिए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की -

हिन्दी-उर्दू में चले, अगर अदब की बात
प्रेमचन्द के नाम से, ही होगी शुरुआत

परियों-जिन्नों से किया, कहानियों को मुक्त
प्रेमचन्द ने सब लिखा, निज अनुभव से युक्त

जो रचकर "सोज़-ए-वतन", छेड़ दिया संग्राम
अंग्रेज़ों के भाल पर, बल पड़ गए तमाम

इस समाज का हूबहू, गए चित्र वे खींच
अब भी होरी मर रहे, पेशोपस के बीच

होरी, घीसू, निर्मला, ये जो रचे चरित्र
इस समाज का वास्तविक, प्रस्तुत करते चित्र

बापू जब आगे बढ़े, लेकर क्रांति-मशाल
खड़े हुए संग्राम में, प्रेमचन्द तत्काल

प्रेमचन्द की ज़िन्दगी, बीती बीच अभाव
उनका मगर समाज पर, गहरा पड़ा प्रभाव


::::::::प्रस्तुति::::::

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन और संचालक,
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद।
मो0 - 7017612289

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो.महेन्द्र प्रताप का गीत - जब से मन में नई प्रीति जागी है ....यह गीत लगभग 62 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है केजीके महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 1957-58 में ।



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दयानंद गुप्त की कविता ----- यह कविता दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका "भारती" के श्री दयानंद गुप्ता स्मृति विशेषांक 1983-84 से ली गई है।


:::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 29 जुलाई 2020

मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफा की कहानी --- महँगा बकरा


          ईदुलजुहा का त्योहार आने में अब चंद दिन बचे थे. कई दिन से  अखबारों में ऐसी  खबरें आ रही थी कि बरेली में बिका दो लाख का बकरा, शकील कुरेशी ने खरीदा एक लाख 60 हजार का कटरा , कुर्बानी के जानवरों के दाम बढ़े, बरबरा और  सफेद बकरों की डिमांड अधिक आदि- आदि खबरे रोज़ अखबारों की सुर्खियां बन रही थी। टी वी चैनलों पर भी इस टाइप की खबरे प्रमुखता से दिखाई जा रही थी।
   मोहल्ले के बच्चों में भी बकरों को लेकर प्रतिस्पर्धाये हो रही थींं। कोई कहता - ' मेरा बकरा सबसे तगड़ा है।'तो कोई कहता-'मेरा बकरा सबसे ऊंचा है।' तो कोई अपना बकरा महँगा होने की बात कहकर गर्व से अपना सीना फुलाता लेकिन यह सब बातें सुन सुनकर जाहिदा बेगम घुली जा रही थी गरीब जाहिदा ने अब से दो साल पहले अपने अब्बू  से बकरी का एक बच्चा लिया था  कि इसे पाल पोसकर बड़ा करेगी और साल दो साल बाद बकरीद पर अच्छे पैसों में बेचेगी  मगर अब बकरे को देख- देखकर  उसकी उम्मीद नाउम्मीदी में बदलने लगी थी। अपनी गरीबी के कारण वह बकरे की अच्छी तरह खिलाई- पिलाई नही कर सकी थी। जिससे उसका बकरा भी उसकी तरह हड्डियों का ढांचा नज़र आता था उसे यही चिन्ता खाये जा रही थी कि आखिर हड्डियों के इस ढांचे जैसे बकरे के कौन अच्छे पैसे देगा और अगर बकरा अच्छे पैसों का नही बिका तो वह बीमारी से जूझ रहे आदिल के अब्बू का इलाज कैसे कराएगी? एक साल  से अदा न कर सकी मकान का किराया कैसे अदा करेगी और आदिल  के स्कूल की फीस कैसे देगी  सब सोच सोचकर उसका कलेजा मुँह को आ रहा था।
      बुझे मन से उसने बकरे की रस्सी खोलकर आदिल को थमाते हुए कहा कि बेटा पड़ोस के गुलशन मियां साप्ताहिक पैठ बाज़ार जा रहे है तुम भी उनके साथ चले जाओ यह बकरीद से पहले का आखरी बाज़ार है जो भी पैसे मिले आज  इसे बेच ही आना क्योंकि आगे इसे पालने की हमारी हैसियत नही है बाज़ार में चारा बहुत महंगा है हम इसके लिये चारा कहाँ से ला पाएंगे? कहते हुए उसकी आंखें आंसुओ से गीली हो गई  गुलशन मियां के साथ आदिल बकरा लेकर पैठ बाजार पहुच गया।
          बाजार में एक से एक सजे धजे और मोटे ताजे बकरे नजर आ रहे थे ग्राहकों की भी भारी भीड़  थी जो कुर्बानी के लिये महंगे से महंगे दामों पर मोटे और लंबे चौड़े और ऊंचे बकरे खरीद रहे थे लेकिन उसके दुबले पतले बकरे की ओर तो लोग सिर्फ निगाह डालकर आगे निकल जाते कोई दाम तक नही पूछ रहा था। जैसे- जैसे समय बीत रहा था बाजार भी खाली होता जा रहा था आदिल का दिल बैठा जा रहा था कि बिना बकरा बेचे वह घर जाएगा तो माँ कितना दुखी होगी गुलशन मियां भी उससे घर चलने को कहने लगे थे लेकिन वह 'अंकल कुछ देर और, कुछ देर और' कहकर रोके हुए था तभी उसके पास सफेद शेरवानी पहने उसी के मोहल्ले के शिराज़ साहब आकर रुके और उसके हाथों पर नोटो की गड्डी थमाते हुए उससे बकरा उनके सुपुर्द करने को कहने लगे। हैरत से आदिल की आंखे फ़टी की फटी रह गयी उसे यकीन नही हो रहा था कि उसके दुबले पतले बकरे के कोई इतने अच्छे पैसे दे सकता है वह खुश होता हुआ घर आ गया बकरे के इतने अच्छे दाम देखकर  जाहिदा के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी उसने दोनों हाथ आसमान की ओर  उठाकर खुदा का शुक्र अदा किया।
      उधर शिराज साहब बकरा लेकर घर पहुँचे तो बकरा देखकर सब घर वालो के मुंह बन गए सायमा बोली-' पापा आप यह कितना दुबला बकरा लाये है?' अमन का कहना था -'यह तो हड्डियों का ढांचा है।' अब बारी अमन की अम्मी की थी कहने लगी-' शायद तुम्हारे पापा को किसी ने फ्री में दे दिया होगा या हजार पांच सौ में ले आये होंगे यह तो त्यौहार पर भी कंजूसी करते है.  तभी तो बकरे के दाम भी नही बता रहे' चारो तरफ से ताने तिशने सुनने के बाद शिराज साहब से रहा नही गया चीखकर बोले-' हाँ मैं कंजूस हूं! तभी  तो यह बकरा दस हजार में खरीदकर लाया हूं।' ' दस हजार का ?।'सब के मुंह से एक साथ निकला  'दो हजार का बकरा दस हजार में?' सबने हैरतजदा होते हुए पूछा शिराज साहब ने फिर बोलना शुरू किया -'हाँ दस हजार में, जानते हो क्यों?इसलिये की यह बकरा अपने ही मोहल्ले की उन जाहिदा बेगम का है जिनके शौहर काफी दिनों से बीमार है। जाहिदा बेगम खुद्दार है वह किसी गैर से मदद मांगना अपनी शान के खिलाफ समझती है बकरीद पर अल्लाह की राह में कुर्बानी दी जाती है लेकिन कुर्बानी का मतलब दिखावा नही है, अल्लाह सबकी नियत से वाकिफ है। वह सब जानता है.  सिर्फ बकरा ज़िब्ह करके उसका गोश्त खा लेना या अपने यार दोस्तो रिश्तेदारों में बांट देना ही सच्ची कुर्बानी नही है, बल्कि भूखे- प्यासों, गरीब- मोहताजों की मदद करना उनके चेहरे पर खुशी लाना ही अल्लाह की राह में सच्ची कुर्बानी है. हम इस बकरे से भी कुर्बानी अदा कर सकते है और ज्यादा पैसे में खरीदकर मैने कोई दिखावा नही किया है. बल्कि एक जरूरतमंद की इस तरह से मदद की है।' शिराज साहब की बातें सब घर वाले दम बख़ुद होकर सुन रहे थे उनकी बातें सुनकर सभी के सीने शिराज साहब को प्यार भरी नजरों से देखकर चौड़े हो रहे थे।

कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी , सम्भल
 9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा--------घर का अर्थशास्त्र


दावत से लौटते ही पुष्पा ने अपने सात साल के
बेटे नितिन को पीटना शुरू कर दिया।उसके पति
रमेश ने बीच बचाव करते हुए पूछा 'अरे,क्यों
मार रही हो बेचारे को "
''आइसक्रीम की वजह से '
"चार आइसक्रीम ही तो खाई हैं।बच्चे तो
आइसक्रीम ज्यादा खाते ही है।'
"चार ही खाई है,इसीलिए मार रही हूं।और
ज्यादा खानी चाहिए थीं।रोज आइसक्रीम की  जिद करता रहता है। वहां फ़्री की मिल रही थी तो
इससे खाई नहीं गई"
   
डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद -244001
M - 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघु कथा---सिसकियाँ


        तुमसे टाइम से तैयार भी नही हुआ जाता ,बताया था न कि शाम को पार्टी में जाना है।बिलकुल गँवार औरत ही पल्ले पड़ गयी है............चटाक चटाक ..........ज़ोरदार आवाज़ .......
उसने अपनी आँखो को गहरे काजल से सज़ा लिया पर चेहरे पर उँगलियो के निशान अब भी दिख रहे थे ।जिन्हें छुपाने के लिए मेकअप का एक कोट और लगाना पड़ा।
आ गए आप लोग ,हम सब आप दोनो का ही इंतज़ार कर रहे थे ।आप दोनो को इस पार्टी में बेस्ट कपल के लिए चुना गया है ।बहुत बहुत बधाई .........
चारों तरफ़ बधाई देने के लिए भीड़ जमा हो गयी और सिसकियाँ कही गले में ही रूँध गयी।
                   
प्रीति चौधरी
गजरौला
ज़िला-अमरोहा