शनिवार, 1 अगस्त 2020

"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 140 वीं जयंती पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक चर्चा


 वाट्स एप पर संचालित  साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा शुक्रवार 31 जुलाई 2020 को हिन्दी-उर्दू के प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 140 वीं जयंती पर  उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक चर्चा की गई । इस चर्चा में मुरादाबाद के साहित्यकारों ने विचार व्यक्त किये ।
एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताया कि मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी शिक्षा फारसी और उर्दू पढ़ने से शुरू हुई। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा के पास करने के बाद वह एक स्थानिय पाठशाला में अध्यापक नियुक्त हो गए। 1910 में वह इंटर और 1919 में बी.ए. के पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। उनकी प्रसिद्ध हिंदी रचनायें हैं ; उपन्यास: ग़बन, गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कहानी संग्रह: नमक का दरोग़ा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, बालसाहित्य: कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ आदि। इस अवसर पर उन्होंने मुंशी जी के कालजयी उपन्यास 'ग़बन' का पहला अध्याय पटल पर प्रस्तुत किया।
वरिष्ठ कवि शचीन्द्र भटनागर  ने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर मानवीय संवेदना के रचनाकार मुंशी जी को शत-शत नमन करते हुए डॉ महेश मधुकर के दोहे प्रस्तुत किये -

धन्य बनारस का हुआ,छोटा लमही ग्राम।
प्रेमचन्द्र जन्मे जहाँ, उसको कोटि प्रणाम।।

पिता अजायबराय का,बेटा धनपत राय।
माता आनन्दी उसे,लिए गोद-दुलराय।।

शिवरानी देवी बनीं,पत्नी सौम्य स्वभाव।
रहे अभावों में सदा,झेला अर्थाभाव।।

सत्य, अहिंसा,न्याय से,था अन्तस भरपूर।
छल,फरेब दुर्भाव से,रहे हमेशा दूर।।

साधारण जन कृषक के,मन की समझी पीर।
संवेदन-आलेप से,सदा बंधाई धीर।।

उपन्यास सम्राट ने लिखीं कहानी श्रेष्ठ।
मानवीय संवेदना,पूरित करी यथेष्ठ।।

साहित्यिक आकाश में,दिनकर से द्युतिमान।
प्रेमचन्द्र श्रीमान थे,सचमुच चन्द्र समान।।
वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने मुंशी प्रेमचंद के फिल्मी दुनिया से जुड़ाव पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रेमचंद जी अपने जीवन के आखिरी दिनों में कुछ समय के लिए फिल्मी दुनिया से जुड़े रहे। उनके कई उपन्यास और कहानियों पर फिल्मों का निर्माण हुआ। प्रेमचंद जी ने फिल्मी कंपनियों के लिए कहानियां और संवाद आदि लिखे और एक फिल्म में काम भी किया। ''हंस ''और ''जागरण ''के प्रकाशन के कारण 1934 में उन पर बहुत कर्ज हो गया था परंतु पत्रिकाएं बंद नहीं करना चाहते थे। आमदनी का और कोई रास्ता नहीं था, उस समय बोलती फिल्मों का दौर प्रारंभ हो चुका था। अतः फिल्म कंपनियों  को ऐसे साहित्यकार की आवश्यकता थी जो उनके लिए कहानी संवाद लिख सके अतः 1934 में अजंता सैनी टोन मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद जी से ₹8000 सालाना मुआवजे की बात की और उन्होंने यह स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें कर्ज चुकाना था और पत्रिकाएं भी चलानी थीं। उन्होंने यह भी विचार किया कि वह अपनी बात फिल्मों के माध्यम से लोगों तक पहुंचा सकेंगे जो उपन्यास , कहानी के माध्यम से नहीं कर पा रहे थे। फिल्म से उनके विचारों का प्रसार प्रचार हो सकेगा। अतः वह जून 1934 में मुंबई चले गए लेकिन प्रारंभ में ही उन्हें कटु अनुभवों का सामना करना पड़ा  तथा उन्हें वह माहौल भी पसंद नहीं आया वह बनारस वापस आ गए। उनकी पहली फिल्म कहानी ''मजदूर'' या ''मिल मजदूर '' लिखकर पेश की परंतु फिल्म काट छांट कर पेश करनी चाही लेकिन रिलीज होने से पहले ही उस पर रोक लगा दी फिर बाद में ''मिल मजदूर ''नाम से प्रदर्शित की गई इस फिल्म में मुंशी प्रेमचंद जी ने मजदूर यूनियन के नेता की भूमिका भी निभाई थी दूसरी फिल्म ''शेर दिल ''या ''नवजीवन '' के नाम से बनी लेकिन यह फिल्म भी नहीं चली। धीरे-धीरे उन्हें आभास हो गया कि यहां पर उनका गुजारा नहीं है। वो कंपनियों के विचारों से सहमत नहीं हुए और वापस आ गए।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद  एक ऐसे साहित्यकार जिन्होंने साहित्य की उपयोगिता मानव जीवन और समाज के लिए मानते हुए अपना संपूर्ण रचना कर्म किया। उन्होंने आदमी-आदमी के बीच खाई पैदा करने वाली कुप्रथाओं, कुरीतियों, कुरुचियों और समस्याओं चाहे वे आर्थिक हो या सामाजिक या राजनीतिक पर खुलकर लिखा। उनकी कहानियों पर दृष्टि डाली जाए तो उन्होंने अपनी कहानी "अलग्योझा" में जहां घर के बंटवारे के दुष्परिणामों की ओर संकेत किया वहीं "ठाकुर का कुआं " में छुआछूत जैसी विकृत समस्या को उजागर किया। उन्होंने जहां दहेज की कुरीति पर "उधार" कहानी लिखी वहीं "धिक्कार" कहानी में विधवा जीवन का मार्मिक चित्रण किया "मंत्र" के जरिए जहां मानवीय चेतना को दर्शाया वहीं "कफन" में विकृत मनोवृति की तरफ भी इशारा किया।
वरिष्ठ जनवादी कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि 31 जुलाई का दिन उन सभी साहित्य रचनाकारों के लिए प्रेरणा दिवस के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है जो अपनी लेखनी का उपयोग सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने, मानव मूल्यों की स्थापना करने तथा अपने समय के युग आदर्श के अनुसार रचना कर्म करने में करना चाहते हैं। प्रेमचंद का युग सामंती शोषण में जर्जर ब्रिटिश हुकूमत के जुए के नीचे भारतीय बर्जुआ नवजागरण के चिंतन उन्मेष का युग था।भारतीय समाज में पाश्चात्य मानवतावादी चिंतन हिलोरे मार रहा था।अतः  पराधीन स्वतंत्रता की चाह रखने वाले  भारतीयों के मन में पुराने सामंती समाज के अनुशासन के खिलाफ विरोध तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों से आजादी प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा जोरों पर थी इस तरह एक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन है। प्रेमचंद ने अपने युग की आवश्यकता, आदर्श तथा साहित्यिक उत्तर दायित्व का निर्वहन करते हुए शोषित आम जनता का पक्ष लेकर सामंती कु संस्कार ,अंचल पन, धर्मीय कूपमण्डूकता,पुरातन धर्मी गलत परम्परा,आचार आचरण आदि सभी कुछ के ख़िलाफ़ लेखनी को तेज तलवार की तरह प्रयोग किया।साथ ही ब्रिटिश विरोधी मनोभावों को निर्मित करने के क्षेत्र में उन्होंने साहित्य के माध्यम से ऐसा प्रभाव छोड़ा कि वंग- भंग आंदोलन काल में रचित उनके "सोज़े वतन" नामक कहानी संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर लिया। प्रेमचंद ने देश के वृहत्तर राजनीतिक - सामाजिक आंदोलन में अपने आप को शामिल करके प्रतिरोध के संग्राम में सिपाही का फर्ज भी अदा किया और इस सक्रिय भूमिका ने उनको शोषित- पीड़ित समाज का और भी करीबी आदमी बना डाला। उनकी सभी कहानी -उपन्यासों में गरीबी के अत्याचार, अन्याय तथा जर्जर भारत के किसी न किसी पहलू का चित्र उकेरा हुआ है। प्रेमचंद का साहित्यिक व्यक्तित्व इतना विराट एवं विस्तृत है की सामाजिक जीवन का कोई भी पहलू उनकी लेखनी की परिधि से बाहर नहीं है।
डॉ मनोज रस्तोगी ने वरिष्ठ पत्रकार कुमार अतुल  का आलेख, "प्रेमचंद क्यों जरूरी हैं" प्रस्तुत किया - सोशल मीडिया पर प्रेमचंद के विषय में लेखों की बाढ़ देखकर सुखद अहसास होता है। यह लेखक के कालजयी होने का प्रमाण है। यह उनके लिए भी जवाब है जो हिंदी की मौत की घोषणा कर रहे हैं। आप लिखिए तो कुछ प्रेमचंद जैसा। लेकिन नाच न आवे आंगन टेढ़ा। पाठक किसी लेखक की रचना से जितना अपनापन महसूस करता है वह लेखक उतना ही कामयाब होता है । प्रेमचंद इस मामले में आधुनिक काल के हिंदी के इकलौते लेखक हैं जिनकी रचनाओं से सौ साल बाद भी जुड़ाव की अनुभूति करते हैं। प्रेमचंद की रचनाओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनके पात्र आपको आपके भीतर के इंसान को बचाए रखने की प्रेरणा देते हैं। आप उन रचनाओं की आदर्शवादिता पर सवाल खड़ा कर सकते हैं जैसा प्रेमचंद के आलोचकों ने किया भी लेकिन वक्त ने साबित किया है कि उनकी रचनाएं सर्वग्राही और सर्वकालिक हैं । प्रेमचंद की कहानियों की खासियत यह है कि लगता है कि अपने ही आसपास के लोगों की गाथाएं हैं। इसीलिए उनका ताना-बाना बहुत नैसर्गिक लगता है। प्रेम चंद की कहानियों में नारी पात्रों को बड़ा सम्मान दिया गया है। बड़े घर की बेटी अद्भुत कहानी है। आनंदी एक संपन्न जमींदार की बेटी थी। पढ़ाकू और सामान्य घर में शादी होने के बाद स्थितियां ऐसी बनती हैं कि उसका देवर उसे खड़ाऊं चलाकर मार बैठता है। भाई से अतिशय प्यार करने वाले आनंदी के पति के सामने बड़ी दुविधा रहती है। लेकिन अपने कथित उजड्ड भाई की जगह पत्नी का साथ देते हैं। वह घर छोड़कर जाना चाहते हैं। लेकिन आनंदी घर को टूटने से बचा लेती है। कहानी की बुनावट ऐसी है कि लगता है कि यह हर संयुक्त परिवार से जुड़ी घटना है। लेकिन हर घर में आनंदी नहीं है। घर टूट रहे हैं। आनंदी जैसी बहू की चाहत हर घर करने लगता है। जब साहित्य में किसी किरदार की समाज में लोग जरूरत महसूस करने लगे इससे बड़ी लेखकीय कामयाबी और क्या हो सकती है। आप इसे प्रेमचंद का कोरा यथार्थवाद कहकर  खारिज नहीं कर सकते। प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील रचनाकार ने बदलते वक्त के साथ कदमताल मिला कर कफन, पूस की रात जैसी कहानियां अथवा गोदान जैसा घोर यथार्थवादी उपन्यास लिखा तो यह स्वाभाविक ही था। लेकिन यह आदर्शवाद ही है जिसने प्रेमचंद को घर-घर का दुलारा लेखक बना दिया। प्रेमचंद की कहानियां अपने आप में एक संस्कार की पाठशाला हैं। इसलिए गुजरते वक्त के साथ वे और अनमोल तथा प्रासंगिक होती जाएंगी।
युवा कवियत्री डॉ रीता सिंह ने कहा कि हिन्दी साहित्य में उपन्यास सम्राट, कथा-कहानियों के गहरे मानसरोवर मुंशी प्रेमचंद का लेखन समाज के आदर्श व यथार्थ दोनों ही रूपों को प्रस्तुत करता है। विद्यार्थी जीवन में हम सभी ने प्रेमचंद की कहानियों का तन्मयता से रसास्वादन किया है । मंत्र, ईदगाह, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी आदि इन कहानियों के पात्र भगवान बड़ा कारसाज है को जीते डॉ चड्ढा व भगत, मेले की रौनकों में से दादी के लिये चिमटा खरीदने वाला नन्हा हामिद, किसान झूरी के हीरा-मोती, हिन्दू मुस्लिम मित्र अलगू चौधरी - जुम्मन शेख, पूस की रात की ठंड में कांपता हल्कू, शतरंज के खिलाड़ी मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली सभी इतने सजीव प्रतीत होते हैं कि मानो वे अपने आसपास ही हों। समाज के निम्न मध्यम वर्गीय किसानो और मजदूरों पर हो रहे शोषण की वेदना प्रेमचंद जी की कहानियों में जीवंत प्रतीत होती है। ‘पूस की रात’ में तो प्रेमचंद जी ने बङी कुशलता से निरुपित किया है कि इस दुनिया में हमें आत्मियता जानवरों से तो मिल सकती है किन्तु इंसानो से इसकी अपेक्षा नही करनी चाहिये ।
व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी ने सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन शैली को अपनाया । प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे जन सामान्य के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज में अछूत कहे जाने वाले पात्र नायक के रूप में हैं । उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी का सजीव चित्रण अपनी कहानियों व उपन्यासों में किया है। उनके उपन्यासों निर्मला , गबन , गोदान , सेवासदन , रंगभूमि आदि में दलित व नारी की दशा का यथार्थ सामाजिक चित्र प्रस्तुत हुआ है । ये दोनों ही विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने हैं ।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने मुंशी प्रेमचंद के हिंदी-उर्दू साहित्य के महान कथाकार और नाविल निगार मुंशी प्रेमचंद को ख़िराजे अकी़दत पेश करते हुए उनके पुत्र अमृतराय द्वारा लिखित एक पैराग्राफ़ प्रस्तुत किया - "यह लाहौर है और 1935 चल रहा है,उर्दू के मुनफ़रिद ड्रामा निगार इम्तियाज़ अली ताज ने प्रेमचंद को चाय पर बुलाया है। प्रेमचंद लाहौर की गलियों-बाजा़रों में चक्कर लगाने के बाद दिन ढले इम्तियाज़ अली ताज के घर पहुंचते हैं। प्रेमचंद के कपड़ों पर सिलवटें पड़ी हुई हैं,उन्होंने मामूली कपड़े की धोती और मोटे कपड़े का कुर्ता पहन रखा है इम्तियाज़ अली ताज के घर के बाहर 100 से ज़्यादा कारें खड़ी हुई हैं, एक से एक बढ़िया। मेहमानों में जज,बैरिस्टर, डॉक्टर और प्रोफेसर सभी हैं। शहर के बड़े-बड़े लोग बुलाए गए हैं और जब उन लोगों को बताया गया कि यह मामूली कपड़े पहनने वाला आदमी ही प्रेमचंद्र है तो उन्हें बड़ी मुश्किल से इस पर यक़ीन आया। हैरत की बात है कि इस मामूली और सादे से देहाती के लिए शहर के सरकरदा लोग इंतज़ार में थे।"
युवा कवियत्री हेमा तिवारी  हेमा तिवारी भट्ट  ने कहा कि प्रेमचंद के नारी पात्र भारतीय आदर्श के पोषक हैं। सात वर्ष की उम्र से ही मातृ सुख से वंचित पुनः विमाता के दुर्व्यवहार से संतप्त, बाल विवाह और विधवा विवाह दोनों ही स्थितियों के भुक्तभोगी रहे महान कथाकार और उपन्यासकार प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में नारी पात्रों का चित्र जिस जीवंतता से किया है, वैसा अन्यत्र नजर नहीं आता। केवल कथानक की मांँग पर नारी पात्र का सृजन करना ही उनका लक्ष्य नहीं लगता, बल्कि उनकी हर स्त्री पात्र के पीछे भारतीय विचारधारा झलकती है। इसीलिए उनके उपन्यासों और कहानियों में हम प्राय:नारी के उन रूपों का समृद्ध परिचय पाते हैं,जो भारतीय आदर्शों का पोषण करती हैं।प्रेमचंद के लेखन में नारी को जीवन की चरम शांति भारतीय आदर्शों के अनुपालन में ही मिली है। प्रेमचंद नारी को प्रेम की शक्ति का रूप मानते हैं।वह नारी के अंदर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, तपस्या, बलिदान, प्रगतिशीलता, कर्तव्य ज्ञान, सेवा पवित्रता आदि सभी उदार भावों को देखते हैं और इन भावों को उन्होंने विभिन्न नारी पात्रों में जगह जगह पर चित्रित करके दिखाया भी है।भारतीय आदर्श के अनुरूप हर स्त्री में वह माँ तत्व को प्रमुख मानते हैं। गोदान, प्रतिज्ञा, निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, सेवासदन आदि उपन्यास हों या ठाकुर का कुआंँ, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, पूस की रात आदि कहानियांँ हों, प्रेमचंद ने अपनी स्त्री पात्रों को भारतीय आदर्शों के अनुरूप प्रस्तुत किया है। वह स्वीकारते हैं कि नारी के गुण श्रेष्ठ होते हैं,तभी वे लिखते हैं - 'जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएं तो वह कुल्टा बन जाती है'(गोदान)। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में नारी के हृदय की भी गहराई से पड़ताल की हैं, जहाँ उन्हें मिठास भी मिली और कड़वाहट भी। उन्होंने अपने पाठकों को इन दोनों ही रुपों से मिलवाया है। उनके स्त्री पात्र एक और जहां भारतीय आदर्श प्रस्तुत करते हैं वहीं वह उन स्त्री पात्रों को भी सामने रखते हैं जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हैं, मुखर हैं, मॉडर्न हैं। परंतु अंततः वह भारतीय आदर्श की सर्वोच्चता को ही उस पात्र के हृदय परिवर्तन या व्यवहार परिवर्तन से सिद्ध कर देते हैं।
युवा शायर और कहानीकार फरहत अली खान ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद अकेले ऐसे साहित्यकार हैं जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में पहली पंक्ति के साहित्यकारों में गिना जाता है। हिंदी में इन्हें जहाँ हिंदी साहित्य का टर्निंग पॉइंट माना जाता है और युग-प्रवर्तक के तौर पर देखा जाता है, वहीं उर्दू में जब मंटो, बेदी, इंतेज़ार हुसैन, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, क़ुरअतुल ऐन हैदर, बलवंत सिंह सरीखे साहित्यकारों का नाम लिया जाता है तो साथ में प्रेमचंद का नाम भी रखा जाता है। प्रेमचंद के तमाम साहित्य का केंद्रीय विषय है- 'मानवीय मूल्य'। उन्होंने कमज़ोरों और दर्द-मंदों के लिए आवाज़ उठाई, उन की वकालत की, उन की पीड़ा और दुर्दशा बयान की। साथ ही ताक़तवर और धनवान लोगों द्वारा ग़रीबों पर किए जा रहे अत्याचारों की सच्ची तस्वीर समाज के सामने रखी। कहानी कहने में तो उन्हें महारत हासिल थी। अल्फ़ाज़ और मुहावरों का इस्तेमाल बहुत ख़ूबी के साथ करते थे। उन का बयान अच्छे-अच्छों की नब्ज़ पकड़ लेता है। बयान में वो सादगी और मिठास कि एक-एक जुमला शौक़ की इंतेहा के सबब ख़ुद को दस-दस बार पढ़वा ले जाए। ज़बान की ऐसी मिसालें कम-कम ही मिलती हैं। मुमकिन है कि ज़बान की ये चाशनी उन्हें हिंदी के साथ-साथ उर्दू भाषा पर भी बराबरी से पकड़ होने के सबब हासिल हुई हो। हिंदी जगत में प्रेमचंद से पहले और बाद में भी बहुत अच्छे-अच्छे साहित्यकार आए। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी तमाम ख़ूबियों के सबब अपने बाद के साहित्यकारों और साथ ही पाठकों पर भी जिस तरह गहरा असर छोड़ा उस की कोई दूसरी नज़ीर नहीं मिलती।
मुरादाबाद के युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने अपने दोहों के ज़रिए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की -

हिन्दी-उर्दू में चले, अगर अदब की बात
प्रेमचन्द के नाम से, ही होगी शुरुआत

परियों-जिन्नों से किया, कहानियों को मुक्त
प्रेमचन्द ने सब लिखा, निज अनुभव से युक्त

जो रचकर "सोज़-ए-वतन", छेड़ दिया संग्राम
अंग्रेज़ों के भाल पर, बल पड़ गए तमाम

इस समाज का हूबहू, गए चित्र वे खींच
अब भी होरी मर रहे, पेशोपस के बीच

होरी, घीसू, निर्मला, ये जो रचे चरित्र
इस समाज का वास्तविक, प्रस्तुत करते चित्र

बापू जब आगे बढ़े, लेकर क्रांति-मशाल
खड़े हुए संग्राम में, प्रेमचन्द तत्काल

प्रेमचन्द की ज़िन्दगी, बीती बीच अभाव
उनका मगर समाज पर, गहरा पड़ा प्रभाव


::::::::प्रस्तुति::::::

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन और संचालक,
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद।
मो0 - 7017612289

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