क्या होगा लिखने से भैया, क्या होगा छपने से
मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से
रखते थे किताब में हम, मोरपंख भी यादों में
रहे चूमते विद्या रानी, खाते कस्में बातों में
दही बताशा खा-खा कर, देते रहे परीक्षा जी
जाने कैसा स्वाद था वो, अम्मा की उस दीक्षा में
भूल गए हैं सब परम्परा, क्या होगा रटने से
मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से
बंद-बंद हैं सभी किताबें, खुली नहीं बरसों से
यूं रखने का चाव सभी को, पैशन है अरसों से
नहीं पता है हमको साथी, क्या लिखना क्या गाना
हम तो ठहरे उस पीढ़ी के, जिसका मधुर तराना
कह रहा है सूरज अब तो, क्या होगा रोने से
मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
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