सोमवार, 9 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (7 )...... तो क्या मैं मक्खन मुरादाबादी हुआ होता



सन् 1971-72 का शैक्षिक सत्र था। मेरी बी.ए.(प्र.व) की पढ़ाई चल रही थी। हुल्लड़ जी द्वारा प्रकाशित और संपादित मासिक पत्रिका " हास परिहास " में भाई अतुल टंडन (ए.टी.जाकिर) और कौशल कुमार शर्मा के साथ मैंने भी हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। दादा प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर आना-जाना और उनके परिवार में घुलना-मिलना आगे बढ़ने लगा था और इसके अतिरिक्त उस उम्र में कुछ युवाओं में जो गतिविधियाँ विकसित हो जाती हैं,वह भी संयमित भाव से विकसित होकर गतिशील थीं। मेरे कन्धों पर जो भी दायित्व थे, उन सभी का निर्वहन  भली-भाँति हो रहा था। 

     हास-परिहास में मुझ पर सर्कुलेशन मैनेजर का दायित्व था और अतुल टंडन (ए.टी.जाकिर) प्रबंध संपादक तथा कौशल कुमार शर्मा सह संपादक के दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। हुल्लड़ जी और हम तीनों के प्रयासों से "हास परिहास " कुछ ही महीनों में चल निकली थी। यहाँ तक की ए.एच.व्हीलर पर भी बिक्री के लिए एप्रूवल प्राप्त कर चुकी थी और ए.एच व्हीलर के बुक स्टॉल्स पर उपलब्ध थी। उस समय ए.एच.व्हीलर एक वह कंपनी थी जो पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के लिए रेलवे स्टेशनों पर बुक स्टाल्स की ठेकेदारी करती थी। उसका मुख्यालय इलाहाबाद में था। रोडवेज के बस अड्डों के  बुक स्टालों पर भी हास परिहास बिक्री के लिए अपना स्थान बनाने लग गई थी क्योंकि मुझ पर सर्कुलेशन मैनेजर का दायित्व था,तो मुझे पत्रिकाओं के गट्ठर लेकर बुक स्टाल्स पर पत्रिका पहुँचाने और हुई बिक्री की धनराशि कलेक्ट करने बस से आना-जाना पड़ता था। मैं हँसी-खुशी आता-जाता था और इसे खूब एन्जॉय भी करता था। इस सबके साथ पढ़ाई भी ठीक चल रही थी और कविताएँ भी ठीक-ठाक होने लग गई थीं।

         तीन दिसंबर 1971 को पाकिस्तान-भारत युद्ध शुरू हो गया था। देश में 'ब्लैक आउट' की घोषणा हो चुकी थी।प्रेम परिन्दों के लिए अच्छा समय था। सायं से लेकर प्रातः काल तक कोई लाइट नहीं जलती थी। अंधकार ही छाया रहता था।इसी का नाम 'ब्लैक आउट' था। इस ब्लैक आउट में मुझे भी कुछ नए अनुभव हो रहे थे,जो मेरी प्रेम कथा से सम्बंधित थे। अपनी प्रेम पींगें बढ़ रही थीं और भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना को खदेड़ कर उस पर चढ़ रही थी।16 दिसम्बर को पाकिस्तान की ओर से एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। युद्ध विराम की घोषणा के तत्काल बाद मुझसे एक रचना हुई - " ब्लैक आउट "।

     वह रचना मैंने अपने मित्रवत बड़े भाई अतुल टंडन ( ए.टी.ज़ाकिर ) को सुनाई। उन्होंने उसकी जमकर तारीफ की और कहा यह तो तुमसे हास्य-व्यंग्य की बहुत ही शालीन और श्रेष्ठ रचना हो गई है। माँ सरस्वती की विशेष कृपा हुई है, तुम पर।इस रचना से तुममें हास्य-व्यंग्य का कवि होने की संभावना बोल रही है, तुम हास्य-व्यंग्य के कवि हो जाओ। मैं शुरू में " अकेला " उपनाम लगाता था। उसके बाद " नवनीत " उपनाम लगाने लगा था।उस समय नवनीत उपनाम से ही तुकबंदियाँ करता था। मित्र भाई अतुल टंडन ( ए.टी.ज़ाकिर ) ने अपने आप ही हुल्लड़ मुरादाबादी की तर्ज़ पर मेरा नाम नवनीत के पर्याय मक्खन से " मक्खन मुरादाबादी " रख दिया और उन्होंने ही  जब इस रचना को यह कहकर हुल्लड़ जी को सुनावाया कि नवनीत जी अब " मक्खन मुरादाबादी " हो गए हैं। हुल्लड़ जी बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि यह अच्छा हुआ क्योंकि कि उन्होंने भी अपने नन्हें बेटे का नाम नवनीत रखा हुआ था। हुल्लड़ जी ने रचना सुनी और सुनकर मन से प्रशंसा कर मुझे खूब प्रोत्साहित किया।

       पाकिस्तान से युद्ध समाप्ति की घोषणा के बाद दिसम्बर अंत में "हास-परिहास" की ओर से टाउन हॉल, मुरादाबाद के विशाल प्रांगण में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। उस समय हास-परिहास की टीम में हुल्लड मुरादाबादी, कौशल शर्मा,ए.टी.ज़ाकिर और मेरे अतिरिक्त इंडस्ट्रीयल डिजाइन गैलरी के प्रबंधक रमेश चंद्र आज़ाद, प्रतिष्ठित एडवोकेट शैलेन्द्र जौहरी, स्टील के व्यापार में लगे कमल किशोर जैन और व्यापार में ही लगे सी.डी.वार्ष्णेय तथा महेन्द्र नाथ टंडन मुख्य रूप से जुड़े थे।इस टीम द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में हुल्लड़ मुरादाबादी जी ने मुझे भी नवोदित कवि के रूप में काव्य पाठ का अवसर प्रदान कर दिया। माँ सरस्वती की कृपा से ही " ब्लैक आउट "रचना हुई और माँ की कृपा से ही इतने विशाल श्रोता गण के समक्ष मुझे काव्य पाठ का अवसर मिल गया और मैं इतना जम गया जिसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी, मैंने तो बिल्कुल भी नहीं।

        मैं अगले दिन जब शहर में निकला तो मेरी ओर सड़क के दोनों ओर से उँगलियाँ उठ रही थीं कि देखो वह जा रहे हैं - " मक्खन मुरादाबादी "। बाजार में कई दुकानदारों ने मुझे बुलाया, बिठाया और खूब प्रशंसा की तथा चाय नाश्ते से बेहतरीन खातिरदारी भी। सब इतना खुश और गौरवान्वित थे कि मैं भी उनकी मनोभावनाओं की खुशियों में तैर गया। मुझे पहली बार लगा कि उँगलियाँ अच्छे कार्यों की ओर भी उठती हैं। परिणामत: कवि सम्मेलन में आए कवियों की संस्तुतियों पर मैंने बीसियों कवि सम्मेलन कर डाले। पहचान मिली और लिफाफे में धनराशि भी। मैं बी.ए.(प्रथम वर्ष) का छात्र कारेन्द्र देव त्यागी एक ही झटके में " मक्खन मुरादाबादी " हो गया और मुझे पुकारा जाने वाला संबोधन 'नवनीत' गायब हो चला।यहाँ तक कि मेरा मूल नाम कारेन्द्र देव त्यागी भी " मक्खन मुरादाबादी " के सामने पिछड़ने लगा और मैं हास्य-व्यंग्य कवि " मक्खन मुरादाबादी " होकर ख्याति पाने लगा।

     हर किसी के बनने और बिगड़ने के कुछ क्षण होते हैं। बनाने में अपने साथ होते हैं और बिगाड़ने में अपनों के ही कुछ हाथ होते हैं। बिगाड़ने वाले हाथों के चंगुल से जितनी जल्दी मुक्त हो जाओ, उतना अच्छा है । पर,यह भी गाँठ बाँध लेने वाली बात है कि बनाने वाले हाथों के स्मृति भरे पलों को पूजा की थाली में गणेश रूपा मिट्टी की डली को कलावा लपेट कर न रखो तो इससे बड़ी कृतघ्नता समाज में कोई दूसरी नहीं हो सकती। मुझे लेकर ही सोचिए,माँ शारदे ने यदि मुझसे " ब्लैक आउट " न लिखवाई होती और भाई ए.टी.ज़ाकिर ने मुझमें हास्य-व्यंग्य की संभावनाओं की परख करके मुझ " नवनीत " को "मक्खन मुरादाबादी " नाम न दिया होता तथा हुल्लड़ जी ने मुझे हास-परिहास के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में प्रस्तुति का अवसर न प्रदान किया होता, तो क्या मैं मक्खन मुरादाबादी हुआ होता?

 

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल: 9319086769 

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