सोमवार, 16 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (8).....शर्मिंदगी ओढ़ कर खिलखिलाए, हम दोनों


मैंने सन् 1970 के जून में आर.एन.इंटर कॉलेज, मुरादाबाद से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जुलाई माह में केजीके कॉलेज का स्नातक विद्यार्थी हो जाने के बाद जब वहाँ के बारे में जाना तो ज्ञात हुआ कि जिस महाविद्यालय में मैंने प्रवेश लिया है,वह कोई सामान्य महाविद्यालय नहीं है, बल्कि आगरा विश्वविद्यालय का ख्याति प्राप्त प्रथम श्रेणी का महाविद्यालय है, क्योंकि वहाँ के कला संकाय के सभी विभागों के अध्यक्ष उस समय उच्च कोटि के विद्वानों में गिने जाते थे। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप (हिन्दी), प्रोफेसर एच.एस.शर्मा (अंग्रेजी), डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत(संस्कृत), डॉ.आर.एम.माथुर (भूगोल), डॉ .बी.एस.वर्मा (राजनीति शास्त्र), डॉ.आर.के. टंडन (मनोविज्ञान), डॉ.बी.पी.कपूर (अर्थशास्त्र) और श्री रामौतार (सैन्य विज्ञान) विभागों के अध्यक्ष थे। ये सभी आगरा विश्वविद्यालय में अपने विषय के सर्वाधिक विद्वान प्रोफेसर्स माने जाते थे। इनमें से कई की प्रतिष्ठा तो देश में दूर-दूर तक ही नहीं बल्कि विदेशों तक फैली हुई थी।इन विभागाध्यक्षों के अलावा हिन्दी में डॉ. शिव बालक शुक्ल,अंग्रेजी में श्री एन.एल.मोइत्रा तथा श्री एन.के.मेहरा और सैन्य विभाग में अशोक आंवले के समकक्ष विद्वान उस समय कम ही रहे होंगे।

     तत्समय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.पी.सी.जोशी थे।संभवतः कुछ ही समय पूर्व उनकी नियुक्ति प्रो. महेन्द्र प्रताप जी के विपरीत वरीयता देकर की गई थी।सुना था कि वह बहुत योग्य व्यक्ति हैं। देखने में नाटे कद के आकषर्क व्यक्तित्व के व्यक्ति थे किन्तु उनकी गुटबाजी में विशेष रुचि थी। वह अब इस दुनिया में अब नहीं हैं, इसीलिए अब उनके विपरीत कुछ अधिक कहना ठीक नहीं है।पर,यह कहने में मुझे लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि उन्होंने हर जगह कार्य करने वाले लोगों में दो विचार धाराओं के व्यक्ति होने का लाभ उठाया। यहाँ भी स्टाफ में दोनों विचारों के लोग थे। कुछ प्रबन्धक के विरोधी भी थे,किन्तु अधिकतर प्रबन्धक के समर्थक ही थे। फिर भी प्राचार्य जोशी जी ने महाविद्यालय में विवाद पैदा कर ही दिया और एक आठ-दस लोगों का खेमा प्राचार्य के पक्ष में करके प्रबन्धक के विरूद्ध खड़ा कर दिया। दूर-दूर तक जो महाविद्यालय शान्तिपूर्ण माहौल में पढ़ाई के लिए प्रसिद्ध था, वह उखाड़-पछाड़ के लिए प्रसिद्ध होने लगा और इस सबकी चर्चाएँ सुनने को मिलने लगीं।

        अस्तु!मैंने प्रवेश लेने के बाद वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था और महाविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने के लिए स्थानीय महाविद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं और संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी करने जाने लगा था।  हमारे महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए "स्पीकर्स फोरम" का प्लेटफार्म था, जिसके अध्यक्ष अँग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.एच.एस. शर्मा थे। उन्होंने फोरम का मंत्री मुझे नियुक्त कर दिया था। कई छात्र फोरम के सदस्य नामित किए गए थे। जिनमें से भोला शंकर शर्मा, दिनेश टंडन, अशोक शर्मा,अनुकाम त्रिपाठी आदि प्रमुख थे। फिर भी बाहर की प्रतियोगिताओं में मुझे और भोला शंकर शर्मा को ही भेजा जाता था,क्योंकि हम दोनों एक टीम के रूप में स्थानीय स्तर पर विद्यालय के लिए कई शील्ड ला चुके थे। हम दोनों पर स्पीकर्स फोरम के अध्यक्ष प्रो. एच.एस.शर्मा जी को बड़ा  विश्वास था। उनके लिए हम दोनों वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के सर्वाधिक उपयुक्त प्रतिभागी थे। एक ओर महाविद्यालय प्राचार्य जी के अपने हितों को साधने में पतन के रास्ते की ओर बढ़ चला था,पर मैं और भोला शंकर शर्मा तो वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में शील्ड पर शील्ड लाकर महाविद्यालय का नाम रोशन करने में लगे थे।

       हमारे महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का कहीं से भी कोई निमंत्रण आता तो मैं और भोला शंकर तैयारी में लग जाते। मुझे और भोला को तैयारी के लिए अन्य किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ती थी बल्कि भोला मेरी सहायता करते थे और मैं उनकी।हम लोग एक-दूसरे से सवाल यह करते थे कि बताओ विषय के पक्ष में तुम क्या बोलोगे? इस प्रकार विषय के पक्ष और विपक्ष में हम एक दूसरे के विचार जानकर एक-दूसरे को अपने विचार सुझाते थे और वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए तैयार हो जाते थे।

               उस समय गोकुल दास कन्या महाविद्यालय सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए मुरादाबाद में अग्रणीय महाविद्यालय था। वहाँ की प्राचार्या डॉ. ज्ञानवती अग्रवाल भी इनमें बहुत रुचि लेती थीं और हम दोनों को तो अपनी छात्राओं जैसा ही महत्व देती थीं और दूसरों से भी हमारी भूरि-भूरि प्रशंसा  किया करती थीं।भोला शंकर शर्मा और मैं संभवतः एम.ए.के छात्र थे। मैं हिन्दी प्र.व. का छात्र था और भोला शंकर शर्मा एम .ए . द्वि .व. अर्थशास्त्र के। गोकुल दास कन्या महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का बड़ा आयोजन था। हमारा महाविद्यालय भी आमंत्रित था। महाविद्यालय का आथर्टी लेटर लेकर हम दोनों वहाँ पहुँच गए। गोकुल दास महाविद्यालय में प्रवेश करने पर प्राचार्या जी के सामने पड़ते ही हमने हाथ जोड़कर अभिवादन किया और आगे बढ़ने लगे। उन्होंने पुकारा मक्खन सुनो! मक्खन इसलिए की मैं मक्खन मुरादाबादी नाम से ख्यात होने लगा था,तो सबकी जुबान पर यही नाम चढ़ गया था।उनकी सुनो! सुनकर हम दोनों ठिठके और पीछे मुड़कर उनके समक्ष खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि अब तुम दोनों प्रोफेशनल डीबेटर हो गए हो। तुम्हारे मुकाबले में भला कौन खड़ा हो पाएगा? अब तुम दोनों को इन बच्चों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।हम दोनों ने उन्हें वचन दिया कि आदरणीया आज के बाद से।आज तो हम आ ही गए हैं। हमारे महाविद्यालय ने हमें प्रतिभाग करने भेजा है। उन्होंने गर्दन हिलाकर सहमति दी और हमने उस डीबेट में भाग लिया तथा शील्ड लेकर चले आए लेकिन मुझे लगता है कि उस दिन आदरणीया डॉ. ज्ञानवती अग्रवाल जी ने अपने कब्जे के सारे कोरे प्रमाण-पत्र हमारे नाम लिखकर हस्ताक्षर करके हम दोनों को सौंप दिए थे। क्या ऐसा होता है कहीं?हम नसीब वाले थे, हमारे साथ हुआ। गोकुल दास महाविद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने का वह दिन हमारा अंतिम दिन था।

       सन् 1974 में मैं और भोला शंकर आगरा 

विश्वविद्यालय की एक डीबेट में भाग लेने गए थे।हम समय से डीबेट में नहीं पहुँच पाए थे। हम जब पहुँचे थे डीबेट समाप्त हो चुकी थी।अगले दिन शिकोहाबाद के ए.के. डिग्री कॉलेज में डीबेट थी। हमें उसमें भी प्रतिभाग करना था। रात को हम आगरा रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में रहे। उस समय स्टेशनों पर इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी और न ही आज जैसी चैकिंग। हम रात को बड़े आराम से रहे और सुबह को तैयार होकर ट्रेन से शिकोहाबाद निकल लिए। डीबेट में हिस्सा लिया और शील्ड अपने महा विद्यालय के नाम कर ली।

            जो बात मैं बताने जा रहा हूँ, वह बात सन् 1976 की है। मैं सन् 1975 में एम.ए. करके फरवरी 1976 में केजीके महाविद्यालय में ही प्रवक्ता पद पर अस्थाई नियुक्ति पा गया था,जो थी तो मार्च तक ही पर वार्षिक परीक्षाओं के दवाब में जून तक चली थी। अगस्त 1976 में झाँसी से एक डीबेट का निमंत्रण आया था।उस समय डॉ.आर.एम.माथुर महाविद्यालय के कार्यवाहक प्राचार्य थे। मुझे और भोला शंकर शर्मा को झांसी  भेजने के लिए उनके आदेश पर हमारी तलाश हुई लेकिन तब  मैं और भोला शंकर शर्मा महाविद्यालय की किसी भी कक्षा के विधिवत छात्र नहीं थे। प्राचार्य जी के बुलावे पर हम दोनों उनके समक्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने तत्काल बड़े बाबू बिष्ट जी को बुलाया और आदेश दिया कि भोला शंकर शर्मा का एडमिशन हिन्दी प्रथम वर्ष में कर दो।और सुनो ! इनसे प्रवेश शुल्क नहीं लेना है। भोला जी बिना कुछ खर्च किए  ही महाविद्यालय के विधिवत छात्र हो गए। मैं, क्योंकि पीएचडी के लिए विश्वविद्यालय में एनरोल्ड हो चुका था तो महाविद्यालय का विधिवत छात्र हो ही गया था। इस प्रकार हम दोनों ही महाविद्यालय के विधिवत छात्र हो गए थे। हम दोनों के विवरणीय प्रपत्र तैयार कराए गए और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी को टीम मैनेजर बनाकर हमें उनके हवाले कर दिया गया। 

             हम दोनों ने खूब तैयारी की और निर्धारित डेट की प्रात: हम प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी के साथ झांसी पहुँच गए। डीबेट में हिस्सा लिया। बहुत बढ़िया परफॉर्म भी किया,पर हमरी टीम कोई स्थान न पा सकी। शायद भोला शंकर को सांत्वना पुरस्कार मिला था, ठीक से याद नहीं। वहाँ से खाली हाथ लौटने पर हम दोनों ने ही महसूस किया कि कभी-कभी ऐसा भी होता है,जैसा कि हुआ। हम दोनों ने इस पर चर्चाएं 

तो अक्सर बहुत बार की हैं, किन्तु कभी कोई टिप्पणी नहीं की। हमारे साथ गए प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी को अपने किसी व्यक्तिगत कार्य से अगले दिन तक वहीं रूकना था । हमारे रुकने की कोई व्यवस्था नहीं थी,इसीलिए हम देर रात की किसी ट्रेन से चलकर प्रातः ही आगरा पहुँच गए,क्योंकि वहाँ रुकने के लिए हमारे पास रेलवे के वेटिंग रूम का अच्छा अनुभव था। आगरा से मुरादाबाद के लिए ट्रेन रात को ग्यारह बजे के आसपास थी। स्टेशन पर पहले रुक ही चुके थे और अब भी स्टेशन के ही वेटिंग रूम में रुक गए।

                पूरा दिन काटना था। पैसा ट्रेन किराए से थोड़ा-बहुत ही अधिक हमारे पास था। जैसे-तैसे हमने दिन काटा और देर शाम को झुकमुका होने पर सामान लॉकअप में रखकर हम शहर के भ्रमण पर निकल लिए। घूमते-घूमते बैंड बजता हुआ सुनाई दिया। हम उसी दिशा में बढ़ लिए। बारात चढ़ रही थी।हम दोनों परस्पर ही हाय हैलो करते हुए बारात में सम्मिलित हो लिए और बारात के साथ ही भोजन करने के स्थान पर पहुँच गए। पेट में चूहे कूद रहे थे। बड़ी भूख लगी थी। नज़र प्लेट कांउटर पर थी कि जैसे ही कोई प्लेट उठाए तो हम भी प्लेटों पर झपटें। जैसे ही प्लेट किसी एक ने उठाई वैसे ही हम दोनों ने प्लेट उठाकर सलाद,अचार और चम्मच लेकर खाने के स्टाल्स पर जाकर खाना परोस लिया और दोनों ने आपस में बातें करते-करते छक कर खाया।उस समय बारात की खातिरदारी के लिए जनमासे में पान और सिगरेट भी हुआ करते थे। हमने दोनों ने मीठा पान भी खाया और दो -दो सिगरेट उठा कर जेब के हवाले कर लिए। सिगरेट मैं पीता था। भोला इस शौक में नहीं थे। उन्होंने यह जो किया अपने मुझ मित्र की सुखद यात्रा के लिए किया। बातें करते-करते हम दोनों पंडाल से ऐसे निकल आए जैसे कि हम ही सबसे महत्वपूर्ण बाराती हैं।वहाँ से रेलवे स्टेशन बहुत दूर नहीं था, चहल-कदमी करते हुए ही स्टेशन पहुँच लिए। लॉकअप से सामान लिया और टिकिट विंडो से मुरादाबाद का टिकट लेकर गाड़ी  आने के निर्धारित प्लेटफार्म पर पहुँचकर उसकी  प्रतीक्षा करने लगे।

        प्लेटफार्म की ओर आती हुई गाड़ी के इंजन की लाइट दिखाई दी। प्लेटफार्म पर बैठे,खड़े और चहल-पहल करते बतियाते प्रतीक्षा करते यात्रियों में हलचल शुरू हुई। गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर लगी और यात्रीगण बिब्बो में घुसने लगे। सबकुछ सहज था। कोई आपाधापी नहीं थी।उन दिनों पैसेंजर ट्रेनों में भीड़ भी नहीं होती थी। मैं और भोला भी एक डिब्बे में चढ़ गए। हमने खाली देखकर तीन वाली सीट पर अपना सामान रख दिया। उसके सामने वाली सीट के ऊपर की सामान रखने वाली सीट पर एक सज्जन चादर ओढ़े खर्राटों का आनन्द ले रहे थे।भोला शंकर शर्मा ने उनके पाँव की ओर खड़े होकर हल्की सी उनकी चादर 

खींच दी।वह तिलमिलाए और एक पैर भोला की तरफ झटक कर मारा। भोला को पैर नहीं लगा पर,वह कुछ करने ही वाले थे की चादर ओढ़े उन्होंने उठ बैठकर अपना मुँह उघाड़ दिया। भोला सँभले और उन्होंने अनजान बने रहकर कहा-" अरे! डीपू सर,आप।" हम दोनों शर्मिंदगी ओढ़ कर खिलखिलाए। महाविद्यालय में प्रोफेसर साहब को डीपू सर ही कहा जाता था।वह कुछ ऐसा-वैसा कहते किन्तु उन्होंने भी कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं दी और बोले - "अच्छा हुआ कि तुम लोग मिल गए। अब साथ-साथ मुरादाबाद पहुँचेंगे और हम प्रातः को साथ-साथ मुरादाबाद स्टेशन पर गाड़ी से उतर गए।

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल : 9319086769 

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