शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ----बेहयाई


समाज किस दिशा में जा रहा है ,यह सोंच कर विवेक बाबू चिंतित रहते थे । ।शांति प्रिय और समाज को दिशा दिखाने वालों को कभी- कभी लोभी और कुचालों के चक्कर में मानहानि और जीवन की हानि भी हो जाती है ।
विवेक बाबू एक सुलझे हुए कर्मठ शिक्षकों में से एक ।धूमधाम से बेटे का दहेजरहित विवाह किया ।बहु को बेटी का सम्मान दिया । और अपनी अधूरी पुस्तक ,बहु ही बेटी,को पूरा करने लगे।विवाह के दस दिन बाद बहु ने पति के साथ नोक झोंक में अपना हाथ चाकू से काट लिया और बूढ़े स्वसुर पर मारपीट का आरोप लगाकर उन्हें कारागार भिजवा दिया । पति को डरा धमका कर बड़ी बेहयाई से ससुराल में रह रही है पर घर का जो मुखिया है ,अपनी पुस्तक आज कारागार में ही पूरा करने को मजबूर है । क्योंकि बहु ही बेटी है ,को सिद्ध जो करना है।

डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद

वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 7 जुलाई 2020 को आयोजित बाल साहित्य गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों प्रीति चौधरी, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, कमाल जैदी वफ़ा, डॉ अनिल शर्मा अनिल, ओंकार सिंह ,डॉ पुनीत कुमार, सीमा वर्मा, मरगूब हुसैन अमरोही, डॉ श्वेता पूठिया, अशोक विद्रोही ,राजीव प्रखर , अशोक विश्नोई, नृपेंद्र शर्मा सागर, स्वदेश सिंह, कंचन खन्ना, मंगलेश लता यादव और डॉ प्रीति हुंकार की रचनायें ------



मेरे घर आगंन  में गूँजी
जब बेटी तेरी किलकारी
माँ बन मैंने ले गोद तुझे
जब थी, पहली रात गुज़ारी

तब याद  रही न प्रसव -पीड़ा
जब तू गोदी में मुसकायी
हुआ सुखद अहसास देखकर
तू है मेरी ही परछायी

मेरा अस्तित्व पूर्ण करके
तू जीवन में ख़ुशियाँ लायी
उस मधुर अहसास से अपने
मैं सारे दुःख भूल पायी

बेटी रूप सखी को पाकर
अपनी क़िस्मत पर इतरायी
बेटी होती घर की रौनक़
पाकर तुझे जान यह पायी

लोग समझते तुझे बोझ हैं
बात  बड़ी यह है दुखदायी
अस्तित्व किंतु इस दुनिया में
लेकर तू  ही उनका आयी

  प्रीति चौधरी
  गजरौला , ज़िला अमरोहा
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रोज़  गुटरगूँ   करे  कबूतर
घर      छप्पर      अंगनाई
बैठ हाथ  पर दाना चुगकर
लेता         है       अंगड़ाई।

एक-एक  दाने  की खातिर
सबसे       करी       लड़ाई
सारा  समय गया  लड़ने में
भूख    नहीं     मिट    पाई
बैठ गया  दड़वे  में  जाकर
भूखे        रात       बिताई।
रोज़ गुटरगूँ--------------

बेमतलब  गुस्सा  करने  में
क्या    रक्खा    है     भाई
लाख टके की बात सभीने
आकर       उसे      बताई
छीना-झपटी पागलपन  है
नहीं       कोई      चतुराई।
रोज़ गुटरगूँ--------------

लिखा हुआ  दाने -दाने पर
नाम      सभी का      भाई
बड़े नसीबों से  मिलती  है
ज्वार,       बाजरा,     राई
खुदखाओ खानेदो सबको
इसमें        नहीं      बुराई।
रोज़ गुटरगूँ--------------

स्वयं  कबूतर  की पत्नी ने
उसको     कसम    दिलाई
नहीं करोगे  गुस्सा सुन लो
कहती       हूँ       सच्चाई
सिर्फ एकता  में बसती  है
घर   भर    की    अच्छाई
रोज़ गुटरगूँ-------------

तुरत कबूतर को पत्नी की
बात    समझ    में    आई
सबके  साथ गुटरगूँ  करके
जी   भर    खुशी    मनाई
आसमान  में ऊंचे उड़कर
कलाबाजियां          खाईं।
रोज़ गुटरगूँ-------------

  वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद
9719275453
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मेरे प्यारे दादा जी,
रहत सदा ही सादा जी।
रत्ती भर भी नही बनावट,
कहत बुरी है शान दिखावट।
सादा खाना खाते है,
सबसे खुश हो जाते है।
रखते है सबका ही ध्यान,
देते सबको  अच्छा ज्ञान।
कहते है कि हिंदुस्तान,
विश्व मे होगा बहुत महान।
जब तुम लोगे कहना मान,
पिज्जा बर्गर खाना छोड़ो,
दूध दही से मुंह न मोड़ो।
नित्य उठकर दौड़ लगाओ,
बादाम मुनक्का काजू खाओ।
बच्चे जब होंगें बलवान,
तभी बनेगा देश महान।
मेरे प्यारे दादा जी,
मेरा है यह वादा जी।
मैं लूंगा सब कहना मान,
देश हमारा बने महान।

कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी (सम्भल)
9456031926
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हरी हरी है घास मुलायम
इस पर खेले कूदें हम
बूंद ओस की इसके ऊपर
मोती सी चमके चम चम
हरा रंग है खुशहाली का
पेड़ों की पत्ती डाली का
देख इसे सब खुश हो जाते
ध्यान रखें हम हरियाली का।

डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर
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कितनी प्यारी लगतीं चिड़ियाँ ।
जैसे हों वे सुंदर गुड़ियाँ ।
बड़े सवेरे ही उठ जातीं ,
चूं-चूं करके हमें जगातीं,
तरह-तरह के गाने गाकर
जमकर शोर मचातीं चिड़ियाँ ।।
कभी किसी से बैर न करतीं ,
लेकिन वे सबसे ही डरतीं ,
कोई उन्हें पकड़ने जाता
तो फुर से उड़ जातीं चिड़ियाँ ।।
सड़ी-गली चीज़ों को खातीं,
जलवायु को शुद्ध बनातीं,
मनमोहक क्रीड़ाएँ करके
सबको सुख पहुँचातीं चिड़ियाँ ।।
कभी न इनको मारो बच्चो,
इनके खेल निहारो बच्चो ,
इनको भी जीने का हक़ है
 होती हैं सुखकारी चिड़ियाँ।।

ओंकार सिंह ओंकार
1-बी-241 बुद्धिविहार, मझोला,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001
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अभी फैली थी आंगन में
अब दीवार पर धूप चढ़ी
पता चला ना जाने कब
अपनी गुड़िया हुई बड़ी

जो भी घर से बाहर जाता
उसके पीछे लग जाती है
बाबाजी के साथ में जाकर
दाल का इक पत्ता लाती है
फिर उसको खाया करती है
दरवाजे में खड़ी खड़ी

जब भी कोई घर में आता
कुर्सी आगे कर देती है
दोनों हाथो के साथ साथ
मुंह में भी चिज्जी लेती है
च्यवनप्राश चाटती खूब
सौंफ चबाती पड़ी पड़ी

चाहे कुछ भी वक्त हुआ हो
हर पल तीन बजाती है
हाथ लगाए बिना ही इसमें
खुद चावी भर जाती है
अलबेली है गुड़िया अपनी
अलबेली है उसकी घड़ी

अपनी गुड़िया रानी तो
 हर्षोल्लास की निधि है
हम सब जिसके अंदर हैं
ऐसी वृहत परिधि है
इसके नेह से जुड़ी हुई
हम सबके रिश्तों की कड़ी

डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600
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 छोटा सा जुगनू  ,
           टिमटिमाता जाए ।
  छोटा सा जुगनू  ,
               गुनगुनाता जाए ।
 हो अंधेरा कितना भी पर ,
             एक पल की रोशनी लाए ।
 संग मिले जब साथियों के ,
             चाँदनी सी छिटकाए ।
नन्हा हूँ पर हुनरमंद हूँ ,
           सबको ये बतलाए ।
गहरी काली रातों को ,
           चमक - चमक चमकाए ।
नन्हे चेहरों पर ये नन्हा ,
           मुस्कुराहट ले आए ।।

 सीमा वर्मा
मुरादाबाद
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मछली देखो मछली देखो, है कितनी मतवाली ये।
पानी में अठखेली करती,  सबसे कैसी निराली ये।

रंग बिरंगी सीधी साधी, मन को कितनी भाती ये।
कितनी भोली कैसी नादां, बच्चों को बहलाती ये।

बाहर नहीं रह  पाती ये तो, पानी की बस रानी ये।
पानी में फुर्र से ये देखो, कैसे दूर चली जाती है ये।

पानी में साम्राज्य इसका, है सबको दूर भगाती ये।
हाथों में आ कर बेचारी, बेबस कैसे  बन जाती ये।

बच्चे,बूढ़े और जवान, है दिल को सबके भाती ये।
मछली देखो मछली देखो, है कितनी मतवाली ये।

मरग़ूब अमरोही
दानिशमन्दान-नई बस्ती,
 अमरोहा
  मोबाइल-9412587622
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बडी सयानी
सब बच्चों के
मन की रानी।
लाल घाघरा
लाल चुनरिया
हाथ में चूडी़
माथे पर बिन्दिया।
मनभावन है रूप
जो इसका ले
जायेगा गुड्डा राजा।
रानी बन इठलाये गुडि़या।
सब बच्चों को प्यारी गुडिय़ा।।

डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
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गिल्लू और गिलहरी चिंकी
मेरी छत पर आते हैं
चिड़ियों को जो दाना डालूं
उसको चट कर जाते हैं
        गोपू और बंदरिया कम्मो
        खो-खो बोला करते हैं
        खाने पीने की तलाश में
        घर-घर डोला करते हैं
गोपू बन्दर ने गिल्लू से
पूछा एक दिन बातों में
"तुम चिंकी संग कहां चले
जाते हो ! हर दिन रातों में"?
       हमने श्रम और बड़े जतन से
       घर एक यहां बनाया है !
       कपड़ों की कतरन, धागों से
       मिलकर उसे सजाया है !!
गोपूऔर कम्मो दोनों को
तनिक बात ये न भायी
खिल्ली लगे उड़ा ने दोनों
उनको बहुत हंसी आई !!
       किंतु ये क्या ! काली काली
       नभ घनघोर घटा छाई
       गरज गरज कर बरस उठे घन
       चली बेग से पुरवाई
भीग रहे थे गोपू कम्मो
रिमझिम सी बरसातों में
बड़े चैन से गिल्लू चिंकी
बैठे थे अपने घर में
       बच्चों ! कर्म करो तो जग में
       बड़े काम हो जाते हैं
      गोपू जैसे बने निठल्ले
      समय चूक पछताते हैं !!

  अशोक विद्रोही
  82 188 25 541
 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
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खन-खन करती गुल्लक देखो,
लगती कितनी प्यारी।

बूँद-बूँद से भरती गागर,
नुस्खा बहुत पुराना।
आने वाले सुन्दर कल का,
इसमें ताना-बाना।
कठिन समय में देती है यह,
सबको हिम्मत भारी।
खन-खन करती गुल्लक देखो,
लगती कितनी प्यारी।

जन्म-दिवस या त्योहारों पर,
जो भी पैसा पाओ।
उसमें से आधा ही खर्चो,
बाकी सदा बचाओ।
बच्चो, समय-समय पर इसको,
भरना रक्खो जारी।
खन-खन करती गुल्लक देखो,
लगती कितनी प्यारी।

अपने सारे दल को जाकर,
इसके लाभ बताओ।
फिर सब मिलकर मोल बचत का,
जन-जन को समझाओ।
हमें पता है बच्चा पलटन,
कभी न हिम्मत हारी।
खन-खन करती गुल्लक देखो,
लगती कितनी प्यारी।

- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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बचपन जो
जो आज भी है
परन्तु
डरा -डरा सा
भय से त्रस्त
टूटे बिखरे चूर -चूर होते,
खिलौनों को देखता हुआ
स्वतंत्रता दिवस की
अगले पायदान की ओर
चढ़ता हुआ,
अपने ही घर के कौने में
कहीँ उपेक्षित सा
भविष्य को उग्रवाद
अलगावाद,असमानता
जैसी समस्याओं से
घिरा हुआ
कुम्हलाया सा उसका तन,
आज भी है भोला बचपन ।
     
अशोक विश्नोई
 मुरादाबाद
 मो० 9411809222
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रोज सुबह तुम जल्दी जागो।
तितली के पीछे मत भागो।
साफ सफाई का हो ध्यान।
मल-मल नित्य करो स्नान।।

प्रभु के चरणों में सिर नवाओ।
हँसते-हँसते पढ़ने जाओ।
पढ़ लिख कर तुम बनो महान।
ऊँची रखना देश की शान।।

आपस के सब द्वेष भुलाकर।
चलना सबको साथ मिलाकर।
बढ़े पिता माता का मान।
मिले तुम्हे अच्छी पहचान।।

कभी किसी को नहीं सताना।
सच्ची सदा ही बात बताना।
लेकिन ना करना अभिमान।
सबका करना तुम सम्मान।।

मानवता के हित के काम।
इनमें मत करना विश्राम।
सदा बढ़ाना अपना ज्ञान।
इसको निज कर्तव्य मान।।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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 काश कभी  ऐसा होता
 गुब्बारों का मेला लगता

 रंग- बिरंगी गुब्बारों से
 आसमान पूरा  भरता

गुब्बारों की दुनिया होती
सबसे प्यारी सबसे न्यारी

रोती मुन्नी हंसने लगती
लेकर गुब्बारे  हाथ में

गैस भरे गुब्बारे संग
दूर देश की सैर करते

रंग भरे आसमान  से
उछल कूद शोर मचाते

काश कभी ऐसा होता
गुब्बारों का मेला लगता

स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
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रिद्धि तो  गुड़िया के संग ,खेल रही थी घर घर
आया तभी एक चीटा  उसने पैर मे काटा चढकर।

रिद्धि भागी मारी जोर से, चप्पल उसके सर पर
नही बचेगा मुझसे चीटा ,वार किया है मुझपर ।

दूर खडी़ नानी ने देखा ,युद्ध हुआ दोनो मेंजमकर
बोली अच्छा किया ये तुमने, पलटवार दुश्मन पर ।

अब रिद्धि को मिला साथ ,तो टूट पडी चीटों पर
बचा न कौई बिल मे , रिद्धि भारी पडी सभी पर ।

तभी अचानक देखा, चली आ रही चीटी देहरी पर
लगी उठाने चप्पल, उसे मारने को थी तत्पर ।

नानी बोली ना , इसे न मारो जाने दो इसको घर।
काटेगी मुझको ये फिर , कैसे जाने दूं इसको घर ।

नानी बोली बेटा ये दाना लेकर जाती है अपने घर
जैसे मम्मी लाती टाफ़ी  तुम खाती मुंह भरकर ।

 रिद्धि पडीं सोच में,बच्चे होंगे भूखे इसके घर पर
दौड लगाकर डिब्बे से शक्कर लाई मुठ्ठी भरकर ।

शक्कर पाकर चींटी दौडी़   मुंह मे भर भरकर
रिद्धि देख रही थी जब वो दाना भर जाती थी घर ।

तभी बजी घंटी  वो दौडी मम्मी आई  टाफी लेकर
मम्मी  मैने सीख लिया है कैसे टाफी आती घर पर।

अब से मै चींटी को दूंगी शक्कर  बच्चे खायेंगे जीभर कर
ना मारुंगी उनको  लेकिन चीटा को मारूंगी जीभर ।

मंगलेश लता यादव
जिला पंचायत कंपाउंड
कोर्ट रोड मुरादाबाद
9412840699
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नाना जी याद सताती
सोते सोते मैं जग जाती
जब नाना थे पास हमारे
पूरे होते सपने सारे
जो कहते थे वही मंगाते
रबड़ी हमको खूब खिलाते
रात को कहते एक कहानी
एक था राजा एक थी रानी
एक बार हम फिर से भाई
नाना के घर जायँगे
जो सपने रह गए अधूरे
पूरा करके लायेंगे।

डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद
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गुरुवार, 16 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था "राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति" द्वारा प्रत्येक माह की 14 तारीख को काव्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। लॉकडाउन के कारण 14 जुलाई 2020 को आयोजित ऑनलाइन काव्य गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ मीना नकवी, श्री कृष्ण शुक्ल, डॉ मीना कौल, के पी सिंह सरल, डॉ अर्चना गुप्ता, योगेंद्र वर्मा व्योम, मोनिका शर्मा मासूम, प्रीति चौधरी, शिशुपाल सिंह मधुकर, मीनाक्षी ठाकुर ,अशोक विद्रोही, राजीव प्रखर, अशोक विश्नोई, डॉ रीता सिंह, रश्मि प्रभाकर, रचना शास्त्री, सीमा वर्मा, इला सागर रस्तोगी, नृपेंद्र शर्मा सागर, प्रशांत मिश्रा, कंचन लता पांडे, राजकुमार सेवक विश्नोई, जय प्रकाश विश्नोई, विकास मुरादाबादी, राशिद मुरादाबादी, डॉ महेश दिवाकर और योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई की रचनाएं-----


मुंह पर गिरकर बूंदोंने बतलाया है
देखो कैसे सावन घिरकर आया है
बौछारों से तन मन ठंडाकरने  को
डालडाल झूलोंका मौसम आया है
मुँह पर गिरकर------------------

बारिश बरसी धरती ने स्नान किया
भोंरों ने फूलोंसे मधुरस पान किया
महकलुटाती चम्पाकी डाली बोली
झूमो,नाचो,गाओ सावन आया है।
मुँह पर गिरकर------------------

झुलसाती  गर्मी भी हार  मान बैठी
बादरिया चादरिया  घनी तान बैठी
घोर गर्जना करती  घोर घटाओं  ने
देखो कैसे दिन को रात बनाया है।
मुँह पर गिरकर-------------------

सारी सखियाँ देखो झूला झूल रहीं
मस्त बहारोंमें खुशियों से फूल रहीं
कच्चे,नीम,निबोली,बंदर बागों  के
गीतों ने गोरी  का  मन  हर्षाया है।
मुँह पर गिरकर------------------

दादुर, मोर, पपीहा  शोर मचाते हैं
हरियाली केसाथ हिरन इठलाते हैं
लगता है गर्मी से व्याकुल हरप्राणी
बूंदों की अगवानी  करने आया है।
मुँह पर गिरकर------------------भव

 वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
  मुरादाबाद/उ, प्र,
  09719275453
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दिल में ख्वाहिश है कि धरती पे नवाज़िश(कृपा) हो जाये।
काश , आ जाये घटा, झूम के बारिश हो जाये।।

धूप के साथ तपिश ले के चला आया है।
आज सूरज की न पूरी कहीं साज़िश हो जाये।।

 नाव काग़ज़ की हो , बरसात के पानी मे रवाँ।
फ़िर से बचपन में चले जाने की काविश(कोशिश) हो जाये।।

उसके दिल में भी उतर आये ये भीगा मौसम।
उसके जज़्बात से मौसम की सिफारिश हो जाये।।

मैं भी बरसात के पानी से भिगो लूँ ख़ुद को।
दिल पे तहरीर ये मौसम की निगारिश (लेख)हो जाये।।

सुरमई अब्र(बादल) के टुकड़ो से उलझती है हवा।
ये भी मुमकिन है कि मौसम की नवाज़िश हो जाये।।

 जावेदाँ (अमर) , काश , मेरी कोई ग़ज़ल हो "मीना"।
शेर मेरा भी कोई बाइसे  नाजि़श हो जाये।

  डॉ.मीना नक़वी
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रिमझिम लेकर आ गया, पावन सावन मास।
शुष्क दिलों में भी जगा, पुनः नया उल्लास।।

उमड़ घुमड़ छाने लगे, बादल चारों ओर।
त्रस्त ह्रदय हर्षित हुए, बरसो घन घनघोर।।

बारिश की बौछार से, हुई सुहानी शाम।
प्यासी थरती को मिला, थोड़ा सा आराम।।

रिमझिम वर्षा कह रही, छोड़ो सारी लाज।
छत पर आकर भीग लो, मेरे सँग में आज।।

नदियाँ भी इठला रहीं, ताल भरे भरपूर।
धानी चूनर ओढ़कर, खिला प्रकृति का नूर।।

धन्य धन्य हे बादलों, शत शत तुम्हें प्रणाम।
गरज गरज कर बरस कर, पहुंचाया आराम।।

ताप भले ही कम हुआ, उमस बढ़ गई आज।
बदन चिपचिपा हो रहा, मची हुई है खाज।।

श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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सावन  की क्या बात करें, इस कोरोना काल में
सावन भी सूखा जाएगा, इस कोरोना काल में।

सूने हैं  सुख के आँगन ,दुख की चादर है मैली
जीवन ह॔स तड़प रहा है ,फँसा हुआ है जाल में।1

घेवर फैनी मेंहदी चूड़ी , कैसे झूले गीत मल्हार
देवालय भी बंद पड़े हैं, इस अभागे साल में।2

धरती का आँचल रीता ,अम्बर का दामन खाली
नहीं दिखती वो सौगातें ,जो सज जाएं  थाल में।3

सखी सहेली रिश्ते नाते ,सिमट गए दरवाज़ों तक
आस लगी बस कदमों की ,जाने हैं किस हाल में। 4

गरजते बादल बरसती बूंदे ,सावन का संगीत हैं
मन के मीना गीत हैं बिखरे, न सुर में न ताल में।5

  डाॅ  मीना कौल
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बदरा ले जाओ अश्रु हमारे,
जाय बरसो प्रीतम के द्वारे  !       
साजन बिन सावन सब सूना,
देता विरह पपीहा दूना !                       
पीहु पीहु की टेर लगाकर
घर पर आय पुकारे  !
 सावन की ये काली राते,
तनहाई की ये बरसातें  !
गरज घुमड़ कर काले बादल
बरसें सांझ सकारे  !
चकाचौंध बिजली की डराए,
इन्द्रधनुष खाने को आए !       
   कटती नहीं रातें एकाकी
 नहिं कटते दिवस हमारे!                                     पिया बाट में नैन भी हारे,
 वरबस टपकत अश्रु हमारे!
रो रो कर अंधी हुईं अंखिया
 कैसे दर्शन करें तुम्हारे !
नहीं संदेश न कोई पाती,
तड़फ तड़फ कर मैं रह जाती !
यादें भी अब धुंधली पड़ गई
 इतना नहीं सतारे!
तीजों का त्यौहार न भाए,
झूले हमको नहीं सुहाए!
कैसे काटूं ये पावस रितु
 रस्ता 'सरल' बतारे!   

 के पी सिंह 'सरल'
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सावन की रुत आ गई, छाने लगी बहार
भावों में बहने लगी, प्रीत भरी रसधार

कली फूल को चूमकर, भँवरे गाते गान
रंगबिरंगी तितलियाँ, फेंक रही मुस्कान
कूक कोकिला की रही, मन में मिश्री घोल
मस्त नाचता मोर है, रहा पपीहा बोल
पवन सुगंधित दे रही, सपनों को आकार
सावन की रुत आ गई,छाने लगी बहार

लगता सूनापन बहुत,पिया गये परदेश
उनके आने में अभी, बचे बहुत दिन शेष
बातें होती फोन पर, मन फिर भी बेचैन
कटते उनको याद कर, दिन हो चाहें रैन
और लगाती आग है,ये रिमझिम बौछार
सावन की रुत आ गई, छाने लगी बहार

डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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मेघों को धमका रहा, सूरज तानाशाह ।
काग़ज़ वाली नाव की, किसे कहाँ परवाह ।।

पावस पर हावी हुआ, सूरज का बर्ताव ।
प्यासी धरती ला रही, अविश्वास प्रस्ताव ।।

रोज़ाना ही हर सुबह, तलब उठे सौ बार ।
पढ़ा कई दिन से नहीं, मेघों का अख़बार ।।

कहीं धरा सूखी रहे, कहीं पड़े बौछार ।
राजनीति करने लगा, बूंदों का व्यवहार ।।

पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।

तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप ।
धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप ।।

रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।

भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।

बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।

पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।

- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
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छोड़कर बाबुल की गलियों को  चली मेरी ग़ज़ल
उनसे मिलने को गई उनकी गली मेरी ग़ज़ल

भोर की बेला में ये सूरजमुखी सी खिल उठी
गूंज भंवरों की सुने बनके कली मेरी ग़ज़ल

 धूप में  प्यासी नदी की मिस्ल बहती जा रही
गोद में दिनकर लिये दिनभर जली मेरी ग़ज़ल

धुँध में धुँधली फ़िज़ा के जैसे धूमिल हो गयी
सांझ होते ही थकी ,हारी, ढली मेरी ग़ज़ल

चांद की बांहों में जब "मासूम" उतरी चांदनी
प्रीत से महकी, हुई है सन्दली मेरी ग़ज़ल

मोनिका "मासूम"
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कुछ यादें भर आँचल में
फिर बदरा सावन के आए

 जिनमे भीग मन बावरा
गलियाँ पुरानी घूम आए

संग मिल सब सखी सहेली
झूल झूल कर गाने गाए

पेंग पहुँचे जब बदरा तक
मस्ती से सब झूम जाए

बूँदे बारिश की तन पर
यौवन का अहसास दिलाए

इंतज़ार अगले सावन तक
कैसे करूँ ,कोई समझाए

 छूकर हवा बदन को मेरे
रह रह पिया की याद दिलाए

बदरा काले कुछ ऐसा कर
बात जिया की उन तक जाए

ले जा ये संदेश पिया तक
बिन उनके न सावन भाए

   प्रीति चौधरी
   गजरौला,ज़िला अमरोहा
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कारे -कारे आए बदरा
        पानी भरकर लाए बदरा
        चम चम  चम चम बिजुरी चमके
        जन-जन को हर्षाए बदरा
     
        गर्मी -उमस बहुत है भारी
        व्याकुल हैं सारे नर -नारी
        पंछी भूखे प्यासे फिरते
        हरियाली भी सूखी सारी
        ऐसे में मन भाए बदरा

         तड़ तड़ पानी लगा बरसने
         नभ में बिजली लगी चमकने
         पानी पीकर माटी हरषे
         सोंधी खुशबू लगी महकने
         मादकता फैलाए बदरा

          सूखी फसलें हुई हरी हैं
          आशाओं से हुई भरी हैं
          वृक्ष लगाएं गीत सुनाती
          फूलों ने मुस्कान धरी हैं
          नव उल्लास जगाए बदरा

            शिशुपाल "मधुकर"
                मुरादाबाद
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घनश्याम घटा घनघोर घनी,घन झूम गयौ गरजे- बरसे।
चमकी ,चपला ,चित -चोर बनी  ,पपिहा चहके, मनवा तरसे ।।

तरु झूम -झमाझम शोर करें,सरिता बहती,झरती झर से ।
पनघट ,नदिया सब भीजि गये,चुनरी सरकी सर- सर ,सर से।।

धरि धीर ,धरा- सम ,कित उर में, दिन रैन डरावहिं फणिधर से।।
झट से पट  के पट बोल गये,जब ही छुप के निकली घर से।

ऋतु पावस ,आस भरोस पिया,नित बैन सुनावहिं मधुकर से।
सखि! सावन अंग लगे सजना,अँगना महके,जियरा हरसे।।

मीनाक्षी ठाकुर,
मुरादाबाद
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सावन में मेघा उमड़ घुमड़
       बस यूं  ही जल बरसाते हैं
हर बरस युवा प्रेमी जोड़ों
         के हृदय यूं ही हर्षाते हैं
 यह बरस धरा पर भारी है
       फैली घर घर महामारी है
संकट यह अब भी जारी है
        अब फैल रही बेकारी है
हे प्रभू दयानिधि दया करो
         आखिर क्यों देर लगाते हैं
कोरोना ने विध्वंस किया
         हम हर दिन मरते जाते हैं
 ग्रीष्म गया वर्षा ऋतु आई
         कोरोना से मुक्ति ना पाई

अशोक विद्रोही
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दुबका बैठा इन दिनों, घर में ही उल्लास।
कैसे झूला डाल दूँ, अबके सावन मास।।
******
झूले पर अठखेलियाँ, होठों पर मृदु गान।
इन दोनों के मेल से, है सावन में जान।।
******
वृक्षों पर विध्वंस ने, पायी ऐसी जीत।
क़िस्सों में ही रह गये, अब झूलों के गीत।।
******
ढल कर मृदु सुर-ताल में, करती हैं हर बार।
प्यारी कजरी-भोजली, सावन का श्रंगार।।

- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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लड़की---रिमझिम ये बरसात है,
              प्यार हमारा साथ है
              तू भीगे मैं भीगूँ--
              भीगे मेरा मन सजन  ।
              सजन भीगे मेरा मन ।।
लड़का- झटकों मत जुल्फों को ऐसे रानी
            गिने दो यूं ही बालों से पानी
             हाथों में हाथ है,
             वाह वाह क्या बात है
             मन के अन्दर है तपन ।
             तू भीगे मैं भीगूँ भीगे मेरा मन।।
लड़की---   तूफानों में घिरें हैं
                 हम दोनों सिरफिरे हैं
                 होने वाली रात है
                 क्या सोचा है जानेमन ।
              तू भीगे मैं भीगूँ भीगे मेरा मन ।।
              भीगे मेरा मन सजन ।।

                   अशोक विश्नोई
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सारंगों ने साथ पवन के
छेड़ी मीठी सारंगी ,
गा उठा है साथ उसी के
मन मेरा भी सतरंगी ।

रूप लिया जब बूँदों ने है
सप्तसुरों के तारों सा ,
राग सुनाया वसुधा ने भी
मानों मधुरिम मधुवंती ।

नदियाँ नहरें जी भर झूमीं
नाचें तरुवर पल्लव भी
और सृष्टि का कण कण गाये
गान मधुर जयजयवंती ।

डॉ. रीता सिंह
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 बागों में पड़े हैं झूले, पेड़ों पे बहार है,
मेहंदी लगी हाथों में, तीज का त्यौहार है।।

हरी हरी साड़ी पहने, हरी हरी चूड़ियां,
घर घर खीर बनी, और बनी पूड़ियां,
कानों में हैं झुमके,मुख पे श्रृंगार है।
मेहंदी लगी,,,,,

बाबुल बुलाएं घर, भैया लेके आये हैं,
सारी सखी मिलजुल, तीज मनाये हैं,
झूम,झूम झूला झूलें, गायें मल्हार हैं।
मेहंदी लगी,,,

मैया दौड़े अंगना में, करे तैयारी है,
बिटिया को तीज देने, लायी नयी साड़ी है,
यही माई बाबुल, भाई बहना का प्यार है।
मेहंदी लगी,,,,

रश्मि प्रभाकर
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बाद  आषाढ़ के मुझसे हँसकर मिला सावन।
लगा ख्वाहिशों का खूबसूरत सिलसिला सावन।
 लिपटा रहा बावरा रात भर रात रानी से,
सुबहो फिर मालती के गुंचों में खिला सावन।

शीश जटाजूट विराजे,
बहे गंग की धार।
सावन मास में भोले,
तेरी जय जयकार।।

 रचना शास्त्री
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 मनभावन  है सखी सावन
          बूँद - बूँद है पावन
  हृदय को हरषावन
          पी की पाती आवन
  नयन नीर भर जावन
          भीतर बाहर सावन
  उमड़ - घुमड़ गरजावन
           मेघ मल्हार को गावन
  पग थिरकत ताल बजावन
           पिहू मोर पपीहा गावन
  सब जग जल थल हो जावन
          तन - मन भी तो भरमावन
  सखी आवे जब ये सावन
          पीहर की याद दिलावन
  अब इकली बैठी सोचूँ
          यादों की सौगात ये सावन ।।

  सीमा वर्मा
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हरियाली परिपूर्ण पावन माह
सावन मास का होता प्रारम्भ,
बरस रहा मतवाला सावन
संग भीनी भीनी फुहार लिए।

साधना अराधना का उत्सव प्रारंभ
पावस ऋतु का होता आरम्भ,
लिप्त हो पूर्णतया भक्तिरस में
महादेव की उपासना का सावन प्रारम्भ।

प्रकृति भी होती निरी प्रसन्न
इतरा रही कैसे ठुमक ठुमक,
ओढ़के दुशाला हरियाली रूपी
मुस्करा रही खिलते पुष्पों संग।

वृक्षों की शाखाओं पर
डल चुके कितने झूले है,
मोर नाच रहे बौछारों संग
मन चितवन सुहागनों संग।

हरियाली समेटे हरियाली तीज प्रारंभ
उमामहेश्वर के पूजन का महोत्सव प्रारम्भ,
अपने सुहाग के लिए पुन: नववधु सी
सजधज करती,
उपासना का उत्सव प्रारंभ।

इला सागर रस्तोगी
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मनभावन सावन आया,
बर्षा की मधुर फुहार लिए।
पुष्पित पल्लवित हुए उपवन।
नव सर्जन नई बहार लिए।।

साजन सजनी में प्रेम बढ़ा,
सावन आया मधुपान पिए।
तन मन की उमंगे जाग गयी,
बर्षा ने जब जब बदन छुए।।

आयी हरियाली तीज सरस
सजनी ने सब श्रृंगार किये।
आया त्यौहार बन्धन का भी
भाई बहना का प्यार लिए।।

शिव विवाह सती माता के संग,
भक्ति की जय जयकार लिए।
आयी श्रावणी शिवरात्रि,
शिव भोले आशीर्वाद दिए।।

श्रावण मास की महिमा बड़ी,
इसका गुणगान कौन करे।
सावन में अम्बर से बरसे,
जल जीवन का संचार करे।।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
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"सूरज" ने "बदली" से कहा
इतना क्यों बरसती हो
बदली ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया
तू क्या जाने ?
दिन-छिपी रात से...
भोर.... तक यूँ ...तरसना
जा...
तू...देखना छोड़ दे,
मैं बरसना

-प्रशान्त मिश्र
मुरादाबाद
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धानी धरती मना रही है, देखो ख़ुश हो हास परिहास
उनसे मिलनें बूँदे आयी, गूँजा बादलों का अट्टहास
जहाँ तहाँ दिखते जन मानस, रोपते जलमग्न खेत में धान
जो अब तक ख़ाली थे खेत, धानी बना सुन्दर परिधान
कहीं नीम कहीं पीपल पर, झूलों की दिखती है बहार
कहीं मची बिरहा की धूम, कज़री सावन का उल्लास

~कंचन लता पाण्डेय “कंचन”
९४१२८०६८१६
पी डब्लू डी आफ़िसर्स कालोनी
आगरा
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"सूखा पेड़ ,हरी ही घास ,
  देते एक संदेशा खास ।
 बचपन , यौवन,जरा वयस ,
   इनसे गुजरे जीव अवस‌ ।
 जरा वयस नहीं करें टराये ,
 सूखा तरु , फल पात गिराये ।
  नभ में मेघ , उमड़ कर आया ,
   देख वृद्ध तरुवर मुस्कराया ।
     वृथा बरसना मेरे ऊपर ,
    डालो पावस धार धरा पर ।
   रहे सुरक्षित लघु हरियाली ,
    इसमें ही मेरी खुशहाली  ।
     मेरी विनय वृद्ध मानव से ,
   लेओ सीख उस सूखे तरु से ।
   तरु सम सब संतोषी बनकर ,
  सकल लालसा अपनी तजकर।
   बांटों निज अनुभव और ज्ञान ,
      नयी पीढ़ी को दो सम्मान ।।
       नयी पीढ़ी को दो सम्मान ।।

   राजकुमार ' सेवक '
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 कारे कारे बदरा है सावन मधु मास।
मन आनंदित हो रहा ले वर्षा की आस।।
 पल पल बदरा घिर रहे कररहे बौछार।
जन जन उसमें भीगते गाते गीत मल्हार।।
सावन के इस माह में पुरवा करती शोर।
 कारे बदरा देख कर नाचें वन में मोर।।
 बिजली चमके जोर से करती बेहद शोर।
 लगता बदरा फट रहे होती वर्षा  पुर जोर।
 सावन के इस बीच में आवे तीज त्यौहार।
महिला झूला झूलती कर सोलह श्रृंगार।।
सावन के इस माह में चहकें मरू उद्यान।
 चहकें पंछी, जानवर,बालक , वृद्ध ,जवान।।
 कारोना की मार से  विगड़ा खेल त्योहार ।
सिमट घरों में रह गये, से लाकडाउन की मार।।
नियम बंधन में बंध गए, रचना साहित्यकार।
 वाटस एप पर कर रहे काव्य रचना बौछार ।।

जय प्रकाश विश्नोई
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श्रावण आया,श्रावण आया !
पावस  की  हरियाली  लाया !
वर्षा  जल  से  वार वार  नहा ;
माँ  वसुधा  ने  रूप   सजाया !
*
धूप -छांव   करते   हैं   बादल !
सबका  मन   हरते   हैं  बादल !
गर्ज  -घोर   के  साथ   वरसते :
नदी - नाले   भरते   हैं   बादल !
*
गरजे  बादल   बिजली   चमका !
लगा    वरसने    पानी    जमके !
खुश  होते  किसान  मन  ही मन ;
दिन  अब  दूर  हो  गए  गम  के !
*
चतुर्मास   कल्याण  भरा  है !
प्राणी  जीवन  प्राण  भरा  है!
चतुर्मास    है   जीवन   दाता ;
सृष्टि    का   प्रमाण   भरा है !

विकास मुरादाबादी
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बहकता हुआ सावन फिर आया है,
संग भूली बिसरी कितनी यादें लाया है,

फिर दिल में मची है अजब सी हलचल,
फिर ज़हन पे ग़म का बादल छाया है,

तुम्हारे बिन ना गुज़रीं हमारी सुबह शामें,
इन फुहारों ने हमको याद दिलाया है,

तुम्हें चाहा था हमने टूटकर बहुत कभी,
तुमसे बिछड़ के सुकूँ कहाँ हमने पाया है,

हमारे दिल को बहुत तुमने तड़पाया है,
इश्क़ में जुदाई का जाम पिलाया है,

खाते तो थे तुम कसमें मुहब्बत की मगर,
तुमने कहाँ अपना वादा ए वफ़ा निभाया है,

राशिद मुरादाबादी
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राजनीति के रहो समर्थक,
अथवा कोई धर्म - सुधारी!
मत  भूलो  हिंदी  माता  है;
बन्धु! नहीं है वस्तु उधारी!

माता  का  अपमान  करोगे,
कोई क्षमा नहीं  मिलने  की;
बिना दण्ड  के राष्ट्र धर्म की,
कहां खिलेगी कली बिचारी!

सावधान! परतंत्र  नहीं  हम,
राष्ट्र  और  माता  के  रक्षक;
अगर किया अपमान भूल से
जनता  होगी  तक्षक  सारी!

बदलो अपनी सोच, समझ लो
राष्ट्र चेतना बोल रही है;
पट्टी बांध रखी आंखों पर
सुनो चुनौती तात! हमारी!

हिंदी  औ'  भारत माता की,
मिलकर हम सौगंध उठाते;
जब तक प्राण चेतना तन में
स्वाभिमान  के  रहें  पुजारी!

बहुत सह लिया अपमानों को
विष का घूंट रहे हम पीते;
भारत माता  की  संतानों!
छोड़ो, बनना राष्ट्र भिखारी!

जाग चुकी है भारत माता,
हिंदी का केतन लहराता;
बोलो! मिलकर वन्देमातरम
भारत वसुधा जग में न्यारी!

देश  पड़ोसी  भारत मां  के
तन को नित घायल करते हैं;
और  विधर्मी  भारत मां  के,
मन को करते दूषित भारी!

अब भारत का बच्चा बच्चा,
षड्यंत्रों  को  नहीं  सहेगा;
देश द्रोह में लिप्त विषधरों!
फन काटेगी खड़ग दुधारी!
 
डा.महेश दिवाकर
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कुछ नहीं बन सके जिंदगी में तो क्या
आदमी बन गए तो बड़ी बात है
आदमी चाहता मैं बनू देवता पर अहंकार को छोड़ पाता नहीं
मन स्वार्थ में ले रहा डुबकियां किंतु निष्काम से जोड़ पाता नहीं
मानव से दानव पराभूत है
सिद्धियां साधना के वशीभूत है
 यह सिद्धत: अटल है अटूट है
वह इसको कभी तोड़ पाता नहीं
निस्वार्थ सेवा में है दिव्यता
यही जिंदगी की सही बात है

योगेंद्र पाल विश्नोई

::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

बुधवार, 15 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा --- काँटा

    एक चूहा बड़ा सा काँटा लिए दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में मेंढक ने पूछा कि, "अरे मूषक भाई ये काँटा लिए कहाँ दौड़ लगा रहे हो?"
"अरे भाई साँप को काँटा चुभा है तो मेरे पास आया था मदद माँगने, बस वही निकालने के लिए ले जा रहा हूँ", चूहे ने चलते-चलते जवाब दिया।
"लेकिन काँटा तो तुम अपने तेज़ दाँतो या नुकीले नाखून से भी निकाल सकते हो?" मेंढक ने सवाल किया।
"बिल्कुल निकाल सकता हूँ मित्र, लेकिन फिर उसे याद कैसे रहेगा", चूहे ने मुस्कुराकर कहा और दौड़ लगा दी।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार सीमा रानी की लघुकथा ----जमाईं

   पति की मौत के बाद मधु ने अपनी दोनों बेटियों को दिन-रात कपड़े सिल सिल कर पढ़ाया | बेटियों के सपनों को पूरा करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी |  जीवन की गाड़ी मदन की मौत के बाद तो रुकती सी  मालूम हो रही थी परंतु मधु ने अपनी हिम्मत वह हुनर से रुकने नहीं दिया |बड़ी बेटी अब स्नातक कर एक स्कूल में शिक्षण कार्य करने लगी थी और छोटी बहन की पढ़ाई के खर्च का बोझ उठाने लगी थी तो मधु को लगा जैसे हर रात के बाद सवेरा अवश्य होता है अब जीवन उसको थोड़ा सहज  लगने लगा था |
                बेटियों के विवाह योग्य हो जाने पर हर मां-बाप की तरह उसे भी बेटियों के विवाह की चिंता सताने लगी थी । अंततः बड़ी बेटी का विवाह पड़ोस के शहर में व छोटी बेटी का उसी शहर में हो गया | अब मधु ने चैन की सांस ली उसे लगा जैसे वर्षों बाद उसके जीवन में सवेरा हुआ हो धीरे-धीरे जीवन की गाड़ी फिर चल पड़ी कुछ दिन तक तो सब ठीक ठाक रहा पर साल 2 साल में दामाद (जमाई) अपने नए नए रूप दिखाने लगे बेटियों से कहते कि तुम्हारी मां अकेली है इतने बड़े मकान में अकेली रहकर बोर हो जाती होंगी मकान बेच कर उन्हें अपने साथ ले आओ कुछ दिन बड़ी बेटी के यहां व कुछ दिन छाेटी  बेटी के यहां आराम से रह लेंगीं । दोनों बेटियां मां का मकान बेचकर मां को अपने साथ ले आयीं |कुछ दिन बड़ी बहन के साथ तो कुछ दिन छोटी बहन के साथ माँ को रखने का दोनों नें समझौता कर लिया|कुछ समय बाद सासू मां का अपने साथ रहना दामादाें (जमाई) को बहुत अखरने लगा ।दोनों अक्सर कहते कि तुम्हारी मां के साथ रहना ठीक नहीं लगता है क्यों न हम  ऐसा करें कि इन्हें वृद्ध आश्रम मैं पहुंचा दें क्योंकि वहां इन्हें संगी साथी  भी मिलेंगें और अपनी आयु वर्ग में यह स्वस्थ भी रहेंगीं क्योंकि मन खुश होने पर तन भी  स्वस्थ रहता है |
             अब मधु को हर पल यह एहसास होने लगा था कि आखिर ऐसी मुझसे क्या कमी हो गई जो आज मेरी बेटियां मुझे बाेझ समझ रही है जबकि इनके लिए तो मैंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया |उसे बार-बार मां के कहे शब्द याद आ रहे थे कि "बेटी जमाई जम होता है |" मधु को वृद्धाश्रम भेजकर दोनों बेटियों ने अपना पत्नी धर्म पूरा किया और चैन की सांस ली |


✍🏻सीमा रानी
   अमराेहा
 7536800712

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की लघुकथा----- मृतक आश्रित

   धीरे-धीरे यह खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई और देखते ही देखते सैकड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई हो गई.... हरिओम के पिता को रात को बैठक पर बाहर सोते हुए किसी ने गोली मार  दी !   
     ....शोर मच गया मास्टर को गोली मारी ! पुलिस  भी आ गई हरिओम ने कहा" हमारी तो किसी से दुश्मनी भी  नहीं  है !!"
  पोस्टमार्टम के बाद अंतिम संस्कार भी हो गया गांव में तरह-तरह की बातें हो रही थी....
  ....... ,,अरे हरिओम ने खुद अपने पिता को गोली मारी,,...,,बस अब सरकारी नौकरी मिल जाएगी ‌,,  पुलिस जांच उसके चाचा ने दरोगा होने के कारण.. सब जुगाड़ करवा दिया....
       कुछ दिन बाद ही तो रिटायरमेंट था एक महीना मात्र... 6 महीने भी नहीं बीते... धूमधाम से शादी हो गई... आजकल पिता के स्थान पर नौकरी पर जा रहा है .

अशोक विद्रोही
 82 188 25 541
 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा -----ढंग का काम


रामप्रसाद जी,कमलकिशोर जी के यहां पहुंचे तो उन्हें थोड़ा इंतजार करना पड़ा।कमल किशोर जी अपनी माताजी के पैरो में दवा का लेप लगा कर मालिश कर रहे थे।उनकी माता जी की कूल्हे की हड्डी टूट गई थी
80साल की उम्र में उसका कोई समुचित उपचार संभव नहीं था।उनका सारा काम बिस्तर पर ही करवाना पड़ता था।उनकी सारी जिम्मेदारी कमलकिशोर जी पर ही थी।
रामप्रसाद जी अंदर ही आ गए।*** मातृ दिवस के कार्यक्रम से लौट रहा था।सोचा आपसे मिलता चलूं।बहुत अच्छा कार्यक्रम था।प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर शहर के सभी गणमान्य नागरिकों से मुलाकात हो गई।मां के बारे में दिल को छू लेने वाली रचनाएं सुनने को मिली।**
**तुम भी तो आमंत्रित थे।तुम क्यों नहीं पहुंचे।*
          कमल किशोर जी के कुछ बोलने से पहले ही उनकी पत्नी बड़बड़ाई **इनको अपनी मां से फुर्सत मिले,तब कहीं जाए।पूरे टाइम अपनी मां में ही लगे रहते है।किसी ढंग के काम के लिए इनके पास टाइम ही कहां है।**
    कमल किशोर जी समझ नहीं पा रहे थे कि ढंग का काम क्या होता है।


डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600