मुंह पर गिरकर बूंदोंने बतलाया है
देखो कैसे सावन घिरकर आया है
बौछारों से तन मन ठंडाकरने को
डालडाल झूलोंका मौसम आया है
मुँह पर गिरकर------------------
बारिश बरसी धरती ने स्नान किया
भोंरों ने फूलोंसे मधुरस पान किया
महकलुटाती चम्पाकी डाली बोली
झूमो,नाचो,गाओ सावन आया है।
मुँह पर गिरकर------------------
झुलसाती गर्मी भी हार मान बैठी
बादरिया चादरिया घनी तान बैठी
घोर गर्जना करती घोर घटाओं ने
देखो कैसे दिन को रात बनाया है।
मुँह पर गिरकर-------------------
सारी सखियाँ देखो झूला झूल रहीं
मस्त बहारोंमें खुशियों से फूल रहीं
कच्चे,नीम,निबोली,बंदर बागों के
गीतों ने गोरी का मन हर्षाया है।
मुँह पर गिरकर------------------
दादुर, मोर, पपीहा शोर मचाते हैं
हरियाली केसाथ हिरन इठलाते हैं
लगता है गर्मी से व्याकुल हरप्राणी
बूंदों की अगवानी करने आया है।
मुँह पर गिरकर------------------भव
वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ, प्र,
09719275453
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काश , आ जाये घटा, झूम के बारिश हो जाये।।
धूप के साथ तपिश ले के चला आया है।
आज सूरज की न पूरी कहीं साज़िश हो जाये।।
नाव काग़ज़ की हो , बरसात के पानी मे रवाँ।
फ़िर से बचपन में चले जाने की काविश(कोशिश) हो जाये।।
उसके दिल में भी उतर आये ये भीगा मौसम।
उसके जज़्बात से मौसम की सिफारिश हो जाये।।
मैं भी बरसात के पानी से भिगो लूँ ख़ुद को।
दिल पे तहरीर ये मौसम की निगारिश (लेख)हो जाये।।
सुरमई अब्र(बादल) के टुकड़ो से उलझती है हवा।
ये भी मुमकिन है कि मौसम की नवाज़िश हो जाये।।
जावेदाँ (अमर) , काश , मेरी कोई ग़ज़ल हो "मीना"।
शेर मेरा भी कोई बाइसे नाजि़श हो जाये।
डॉ.मीना नक़वी
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रिमझिम लेकर आ गया, पावन सावन मास।
शुष्क दिलों में भी जगा, पुनः नया उल्लास।।
उमड़ घुमड़ छाने लगे, बादल चारों ओर।
त्रस्त ह्रदय हर्षित हुए, बरसो घन घनघोर।।
बारिश की बौछार से, हुई सुहानी शाम।
प्यासी थरती को मिला, थोड़ा सा आराम।।
रिमझिम वर्षा कह रही, छोड़ो सारी लाज।
छत पर आकर भीग लो, मेरे सँग में आज।।
नदियाँ भी इठला रहीं, ताल भरे भरपूर।
धानी चूनर ओढ़कर, खिला प्रकृति का नूर।।
धन्य धन्य हे बादलों, शत शत तुम्हें प्रणाम।
गरज गरज कर बरस कर, पहुंचाया आराम।।
ताप भले ही कम हुआ, उमस बढ़ गई आज।
बदन चिपचिपा हो रहा, मची हुई है खाज।।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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सावन की क्या बात करें, इस कोरोना काल में
सावन भी सूखा जाएगा, इस कोरोना काल में।
सूने हैं सुख के आँगन ,दुख की चादर है मैली
जीवन ह॔स तड़प रहा है ,फँसा हुआ है जाल में।1
घेवर फैनी मेंहदी चूड़ी , कैसे झूले गीत मल्हार
देवालय भी बंद पड़े हैं, इस अभागे साल में।2
धरती का आँचल रीता ,अम्बर का दामन खाली
नहीं दिखती वो सौगातें ,जो सज जाएं थाल में।3
सखी सहेली रिश्ते नाते ,सिमट गए दरवाज़ों तक
आस लगी बस कदमों की ,जाने हैं किस हाल में। 4
गरजते बादल बरसती बूंदे ,सावन का संगीत हैं
मन के मीना गीत हैं बिखरे, न सुर में न ताल में।5
डाॅ मीना कौल
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बदरा ले जाओ अश्रु हमारे,
जाय बरसो प्रीतम के द्वारे !
साजन बिन सावन सब सूना,
देता विरह पपीहा दूना !
पीहु पीहु की टेर लगाकर
घर पर आय पुकारे !
सावन की ये काली राते,
तनहाई की ये बरसातें !
गरज घुमड़ कर काले बादल
बरसें सांझ सकारे !
चकाचौंध बिजली की डराए,
इन्द्रधनुष खाने को आए !
कटती नहीं रातें एकाकी
नहिं कटते दिवस हमारे! पिया बाट में नैन भी हारे,
वरबस टपकत अश्रु हमारे!
रो रो कर अंधी हुईं अंखिया
कैसे दर्शन करें तुम्हारे !
नहीं संदेश न कोई पाती,
तड़फ तड़फ कर मैं रह जाती !
यादें भी अब धुंधली पड़ गई
इतना नहीं सतारे!
तीजों का त्यौहार न भाए,
झूले हमको नहीं सुहाए!
कैसे काटूं ये पावस रितु
रस्ता 'सरल' बतारे!
के पी सिंह 'सरल'
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सावन की रुत आ गई, छाने लगी बहार
भावों में बहने लगी, प्रीत भरी रसधार
कली फूल को चूमकर, भँवरे गाते गान
रंगबिरंगी तितलियाँ, फेंक रही मुस्कान
कूक कोकिला की रही, मन में मिश्री घोल
मस्त नाचता मोर है, रहा पपीहा बोल
पवन सुगंधित दे रही, सपनों को आकार
सावन की रुत आ गई,छाने लगी बहार
लगता सूनापन बहुत,पिया गये परदेश
उनके आने में अभी, बचे बहुत दिन शेष
बातें होती फोन पर, मन फिर भी बेचैन
कटते उनको याद कर, दिन हो चाहें रैन
और लगाती आग है,ये रिमझिम बौछार
सावन की रुत आ गई, छाने लगी बहार
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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मेघों को धमका रहा, सूरज तानाशाह ।
काग़ज़ वाली नाव की, किसे कहाँ परवाह ।।
पावस पर हावी हुआ, सूरज का बर्ताव ।
प्यासी धरती ला रही, अविश्वास प्रस्ताव ।।
रोज़ाना ही हर सुबह, तलब उठे सौ बार ।
पढ़ा कई दिन से नहीं, मेघों का अख़बार ।।
कहीं धरा सूखी रहे, कहीं पड़े बौछार ।
राजनीति करने लगा, बूंदों का व्यवहार ।।
पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।
तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप ।
धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप ।।
रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।
पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।
भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।
बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।
पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।
- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
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छोड़कर बाबुल की गलियों को चली मेरी ग़ज़ल
उनसे मिलने को गई उनकी गली मेरी ग़ज़ल
भोर की बेला में ये सूरजमुखी सी खिल उठी
गूंज भंवरों की सुने बनके कली मेरी ग़ज़ल
धूप में प्यासी नदी की मिस्ल बहती जा रही
गोद में दिनकर लिये दिनभर जली मेरी ग़ज़ल
धुँध में धुँधली फ़िज़ा के जैसे धूमिल हो गयी
सांझ होते ही थकी ,हारी, ढली मेरी ग़ज़ल
चांद की बांहों में जब "मासूम" उतरी चांदनी
प्रीत से महकी, हुई है सन्दली मेरी ग़ज़ल
मोनिका "मासूम"
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कुछ यादें भर आँचल में
फिर बदरा सावन के आए
जिनमे भीग मन बावरा
गलियाँ पुरानी घूम आए
संग मिल सब सखी सहेली
झूल झूल कर गाने गाए
पेंग पहुँचे जब बदरा तक
मस्ती से सब झूम जाए
बूँदे बारिश की तन पर
यौवन का अहसास दिलाए
इंतज़ार अगले सावन तक
कैसे करूँ ,कोई समझाए
छूकर हवा बदन को मेरे
रह रह पिया की याद दिलाए
बदरा काले कुछ ऐसा कर
बात जिया की उन तक जाए
ले जा ये संदेश पिया तक
बिन उनके न सावन भाए
प्रीति चौधरी
गजरौला,ज़िला अमरोहा
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कारे -कारे आए बदरा
पानी भरकर लाए बदरा
चम चम चम चम बिजुरी चमके
जन-जन को हर्षाए बदरा
गर्मी -उमस बहुत है भारी
व्याकुल हैं सारे नर -नारी
पंछी भूखे प्यासे फिरते
हरियाली भी सूखी सारी
ऐसे में मन भाए बदरा
तड़ तड़ पानी लगा बरसने
नभ में बिजली लगी चमकने
पानी पीकर माटी हरषे
सोंधी खुशबू लगी महकने
मादकता फैलाए बदरा
सूखी फसलें हुई हरी हैं
आशाओं से हुई भरी हैं
वृक्ष लगाएं गीत सुनाती
फूलों ने मुस्कान धरी हैं
नव उल्लास जगाए बदरा
शिशुपाल "मधुकर"
मुरादाबाद
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घनश्याम घटा घनघोर घनी,घन झूम गयौ गरजे- बरसे।
चमकी ,चपला ,चित -चोर बनी ,पपिहा चहके, मनवा तरसे ।।
तरु झूम -झमाझम शोर करें,सरिता बहती,झरती झर से ।
पनघट ,नदिया सब भीजि गये,चुनरी सरकी सर- सर ,सर से।।
धरि धीर ,धरा- सम ,कित उर में, दिन रैन डरावहिं फणिधर से।।
झट से पट के पट बोल गये,जब ही छुप के निकली घर से।
ऋतु पावस ,आस भरोस पिया,नित बैन सुनावहिं मधुकर से।
सखि! सावन अंग लगे सजना,अँगना महके,जियरा हरसे।।
मीनाक्षी ठाकुर,
मुरादाबाद
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सावन में मेघा उमड़ घुमड़
बस यूं ही जल बरसाते हैं
हर बरस युवा प्रेमी जोड़ों
के हृदय यूं ही हर्षाते हैं
यह बरस धरा पर भारी है
फैली घर घर महामारी है
संकट यह अब भी जारी है
अब फैल रही बेकारी है
हे प्रभू दयानिधि दया करो
आखिर क्यों देर लगाते हैं
कोरोना ने विध्वंस किया
हम हर दिन मरते जाते हैं
ग्रीष्म गया वर्षा ऋतु आई
कोरोना से मुक्ति ना पाई
अशोक विद्रोही
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दुबका बैठा इन दिनों, घर में ही उल्लास।
कैसे झूला डाल दूँ, अबके सावन मास।।
******
झूले पर अठखेलियाँ, होठों पर मृदु गान।
इन दोनों के मेल से, है सावन में जान।।
******
वृक्षों पर विध्वंस ने, पायी ऐसी जीत।
क़िस्सों में ही रह गये, अब झूलों के गीत।।
******
ढल कर मृदु सुर-ताल में, करती हैं हर बार।
प्यारी कजरी-भोजली, सावन का श्रंगार।।
- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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प्यार हमारा साथ है
तू भीगे मैं भीगूँ--
भीगे मेरा मन सजन ।
सजन भीगे मेरा मन ।।
लड़का- झटकों मत जुल्फों को ऐसे रानी
गिने दो यूं ही बालों से पानी
हाथों में हाथ है,
वाह वाह क्या बात है
मन के अन्दर है तपन ।
तू भीगे मैं भीगूँ भीगे मेरा मन।।
लड़की--- तूफानों में घिरें हैं
हम दोनों सिरफिरे हैं
होने वाली रात है
क्या सोचा है जानेमन ।
तू भीगे मैं भीगूँ भीगे मेरा मन ।।
भीगे मेरा मन सजन ।।
अशोक विश्नोई
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सारंगों ने साथ पवन के
छेड़ी मीठी सारंगी ,
गा उठा है साथ उसी के
मन मेरा भी सतरंगी ।
रूप लिया जब बूँदों ने है
सप्तसुरों के तारों सा ,
राग सुनाया वसुधा ने भी
मानों मधुरिम मधुवंती ।
नदियाँ नहरें जी भर झूमीं
नाचें तरुवर पल्लव भी
और सृष्टि का कण कण गाये
गान मधुर जयजयवंती ।
डॉ. रीता सिंह
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बागों में पड़े हैं झूले, पेड़ों पे बहार है,
मेहंदी लगी हाथों में, तीज का त्यौहार है।।
हरी हरी साड़ी पहने, हरी हरी चूड़ियां,
घर घर खीर बनी, और बनी पूड़ियां,
कानों में हैं झुमके,मुख पे श्रृंगार है।
मेहंदी लगी,,,,,
बाबुल बुलाएं घर, भैया लेके आये हैं,
सारी सखी मिलजुल, तीज मनाये हैं,
झूम,झूम झूला झूलें, गायें मल्हार हैं।
मेहंदी लगी,,,
मैया दौड़े अंगना में, करे तैयारी है,
बिटिया को तीज देने, लायी नयी साड़ी है,
यही माई बाबुल, भाई बहना का प्यार है।
मेहंदी लगी,,,,
रश्मि प्रभाकर
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बाद आषाढ़ के मुझसे हँसकर मिला सावन।
लगा ख्वाहिशों का खूबसूरत सिलसिला सावन।
लिपटा रहा बावरा रात भर रात रानी से,
सुबहो फिर मालती के गुंचों में खिला सावन।
शीश जटाजूट विराजे,
बहे गंग की धार।
सावन मास में भोले,
तेरी जय जयकार।।
रचना शास्त्री
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मनभावन है सखी सावन
बूँद - बूँद है पावन
हृदय को हरषावन
पी की पाती आवन
नयन नीर भर जावन
भीतर बाहर सावन
उमड़ - घुमड़ गरजावन
मेघ मल्हार को गावन
पग थिरकत ताल बजावन
पिहू मोर पपीहा गावन
सब जग जल थल हो जावन
तन - मन भी तो भरमावन
सखी आवे जब ये सावन
पीहर की याद दिलावन
अब इकली बैठी सोचूँ
यादों की सौगात ये सावन ।।
सीमा वर्मा
-------------- - --------------
हरियाली परिपूर्ण पावन माह
सावन मास का होता प्रारम्भ,
बरस रहा मतवाला सावन
संग भीनी भीनी फुहार लिए।
साधना अराधना का उत्सव प्रारंभ
पावस ऋतु का होता आरम्भ,
लिप्त हो पूर्णतया भक्तिरस में
महादेव की उपासना का सावन प्रारम्भ।
प्रकृति भी होती निरी प्रसन्न
इतरा रही कैसे ठुमक ठुमक,
ओढ़के दुशाला हरियाली रूपी
मुस्करा रही खिलते पुष्पों संग।
वृक्षों की शाखाओं पर
डल चुके कितने झूले है,
मोर नाच रहे बौछारों संग
मन चितवन सुहागनों संग।
हरियाली समेटे हरियाली तीज प्रारंभ
उमामहेश्वर के पूजन का महोत्सव प्रारम्भ,
अपने सुहाग के लिए पुन: नववधु सी
सजधज करती,
उपासना का उत्सव प्रारंभ।
इला सागर रस्तोगी
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मनभावन सावन आया,
बर्षा की मधुर फुहार लिए।
पुष्पित पल्लवित हुए उपवन।
नव सर्जन नई बहार लिए।।
साजन सजनी में प्रेम बढ़ा,
सावन आया मधुपान पिए।
तन मन की उमंगे जाग गयी,
बर्षा ने जब जब बदन छुए।।
आयी हरियाली तीज सरस
सजनी ने सब श्रृंगार किये।
आया त्यौहार बन्धन का भी
भाई बहना का प्यार लिए।।
शिव विवाह सती माता के संग,
भक्ति की जय जयकार लिए।
आयी श्रावणी शिवरात्रि,
शिव भोले आशीर्वाद दिए।।
श्रावण मास की महिमा बड़ी,
इसका गुणगान कौन करे।
सावन में अम्बर से बरसे,
जल जीवन का संचार करे।।
नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
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इतना क्यों बरसती हो
बदली ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया
तू क्या जाने ?
दिन-छिपी रात से...
भोर.... तक यूँ ...तरसना
जा...
तू...देखना छोड़ दे,
मैं बरसना
-प्रशान्त मिश्र
मुरादाबाद
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धानी धरती मना रही है, देखो ख़ुश हो हास परिहास
उनसे मिलनें बूँदे आयी, गूँजा बादलों का अट्टहास
जहाँ तहाँ दिखते जन मानस, रोपते जलमग्न खेत में धान
जो अब तक ख़ाली थे खेत, धानी बना सुन्दर परिधान
कहीं नीम कहीं पीपल पर, झूलों की दिखती है बहार
कहीं मची बिरहा की धूम, कज़री सावन का उल्लास
~कंचन लता पाण्डेय “कंचन”
९४१२८०६८१६
पी डब्लू डी आफ़िसर्स कालोनी
आगरा
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"सूखा पेड़ ,हरी ही घास ,
देते एक संदेशा खास ।
बचपन , यौवन,जरा वयस ,
इनसे गुजरे जीव अवस ।
जरा वयस नहीं करें टराये ,
सूखा तरु , फल पात गिराये ।
नभ में मेघ , उमड़ कर आया ,
देख वृद्ध तरुवर मुस्कराया ।
वृथा बरसना मेरे ऊपर ,
डालो पावस धार धरा पर ।
रहे सुरक्षित लघु हरियाली ,
इसमें ही मेरी खुशहाली ।
मेरी विनय वृद्ध मानव से ,
लेओ सीख उस सूखे तरु से ।
तरु सम सब संतोषी बनकर ,
सकल लालसा अपनी तजकर।
बांटों निज अनुभव और ज्ञान ,
नयी पीढ़ी को दो सम्मान ।।
नयी पीढ़ी को दो सम्मान ।।
राजकुमार ' सेवक '
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कारे कारे बदरा है सावन मधु मास।
मन आनंदित हो रहा ले वर्षा की आस।।
पल पल बदरा घिर रहे कररहे बौछार।
जन जन उसमें भीगते गाते गीत मल्हार।।
सावन के इस माह में पुरवा करती शोर।
कारे बदरा देख कर नाचें वन में मोर।।
बिजली चमके जोर से करती बेहद शोर।
लगता बदरा फट रहे होती वर्षा पुर जोर।
सावन के इस बीच में आवे तीज त्यौहार।
महिला झूला झूलती कर सोलह श्रृंगार।।
सावन के इस माह में चहकें मरू उद्यान।
चहकें पंछी, जानवर,बालक , वृद्ध ,जवान।।
कारोना की मार से विगड़ा खेल त्योहार ।
सिमट घरों में रह गये, से लाकडाउन की मार।।
नियम बंधन में बंध गए, रचना साहित्यकार।
वाटस एप पर कर रहे काव्य रचना बौछार ।।
जय प्रकाश विश्नोई
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श्रावण आया,श्रावण आया !
पावस की हरियाली लाया !
वर्षा जल से वार वार नहा ;
माँ वसुधा ने रूप सजाया !
*
धूप -छांव करते हैं बादल !
सबका मन हरते हैं बादल !
गर्ज -घोर के साथ वरसते :
नदी - नाले भरते हैं बादल !
*
गरजे बादल बिजली चमका !
लगा वरसने पानी जमके !
खुश होते किसान मन ही मन ;
दिन अब दूर हो गए गम के !
*
चतुर्मास कल्याण भरा है !
प्राणी जीवन प्राण भरा है!
चतुर्मास है जीवन दाता ;
सृष्टि का प्रमाण भरा है !
विकास मुरादाबादी
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बहकता हुआ सावन फिर आया है,
संग भूली बिसरी कितनी यादें लाया है,
फिर दिल में मची है अजब सी हलचल,
फिर ज़हन पे ग़म का बादल छाया है,
तुम्हारे बिन ना गुज़रीं हमारी सुबह शामें,
इन फुहारों ने हमको याद दिलाया है,
तुम्हें चाहा था हमने टूटकर बहुत कभी,
तुमसे बिछड़ के सुकूँ कहाँ हमने पाया है,
हमारे दिल को बहुत तुमने तड़पाया है,
इश्क़ में जुदाई का जाम पिलाया है,
खाते तो थे तुम कसमें मुहब्बत की मगर,
तुमने कहाँ अपना वादा ए वफ़ा निभाया है,
राशिद मुरादाबादी
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राजनीति के रहो समर्थक,
अथवा कोई धर्म - सुधारी!
मत भूलो हिंदी माता है;
बन्धु! नहीं है वस्तु उधारी!
माता का अपमान करोगे,
कोई क्षमा नहीं मिलने की;
बिना दण्ड के राष्ट्र धर्म की,
कहां खिलेगी कली बिचारी!
सावधान! परतंत्र नहीं हम,
राष्ट्र और माता के रक्षक;
अगर किया अपमान भूल से
जनता होगी तक्षक सारी!
बदलो अपनी सोच, समझ लो
राष्ट्र चेतना बोल रही है;
पट्टी बांध रखी आंखों पर
सुनो चुनौती तात! हमारी!
हिंदी औ' भारत माता की,
मिलकर हम सौगंध उठाते;
जब तक प्राण चेतना तन में
स्वाभिमान के रहें पुजारी!
बहुत सह लिया अपमानों को
विष का घूंट रहे हम पीते;
भारत माता की संतानों!
छोड़ो, बनना राष्ट्र भिखारी!
जाग चुकी है भारत माता,
हिंदी का केतन लहराता;
बोलो! मिलकर वन्देमातरम
भारत वसुधा जग में न्यारी!
देश पड़ोसी भारत मां के
तन को नित घायल करते हैं;
और विधर्मी भारत मां के,
मन को करते दूषित भारी!
अब भारत का बच्चा बच्चा,
षड्यंत्रों को नहीं सहेगा;
देश द्रोह में लिप्त विषधरों!
फन काटेगी खड़ग दुधारी!
डा.महेश दिवाकर
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कुछ नहीं बन सके जिंदगी में तो क्या
आदमी बन गए तो बड़ी बात है
आदमी चाहता मैं बनू देवता पर अहंकार को छोड़ पाता नहीं
मन स्वार्थ में ले रहा डुबकियां किंतु निष्काम से जोड़ पाता नहीं
मानव से दानव पराभूत है
सिद्धियां साधना के वशीभूत है
यह सिद्धत: अटल है अटूट है
वह इसको कभी तोड़ पाता नहीं
निस्वार्थ सेवा में है दिव्यता
यही जिंदगी की सही बात है
योगेंद्र पाल विश्नोई
::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
सभी को हार्दिक बधाई।
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