सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में 4 फरवरी 2024 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में रविवार 4 फरवरी 2024 को मासिक  काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। 

राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए रामदत्त द्विवेदी ने कहा ...

यदि आए इस जगत में, कर लो बस दो काम। 

घर में राखो सुमति को, मन में रखो राम।।

 मुख्य अतिथि के रूप में ओंकार सिंह ओंकार की इन पंक्तियों ने भी सभी को सोचने पर विवश किया - 

सूना-सूना-सा लगे, हमको अपना गाॅंव। 

नहीं दिखे चौपाल अब, नहीं पेड़ की छाॅंव।। 

हिन्दी हिन्दुस्तान का, गौरव है श्रीमान। 

अपनी भाषा का करें, सब मिलकर उत्थान।।

   विशिष्ट अतिथि के रूप में रघुराज सिंह निश्चल ने वर्तमान परिस्थितियों का काव्यमय चित्र खींचा.... 

जीवन को महकाते रहिए। 

जब तक चले चलाते रहिए।। 

जीवन पथ आसान बनेगा, 

हॅंसते और हॅंसाते रहिए। 

विशिष्ट अतिथि  योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा - 

बोली से यों तय हुआ, शब्दों का व्यवहार।

 'मन से दिया उतार' या, 'मन में लिया उतार'।।

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर ने अपने दोहों के माध्यम से सभी को वसंत के रंग में इस प्रकार डुबोया - 

ओढ़े चुनरी प्रीत की, कहता है मधुमास। 

ओ अलबेली लेखनी, होना नहीं उदास।। 

मिलजुल कर रचवा रहे, अनगिन सुन्दर गीत। 

स्वागत में ऋतुराज के, कोकिल-हरिया-पीत।। 

   राम सिंह निशंक ने अपनी भावनाएं उकेरीं - 

बरस पाॅंच सौ बाद में, हर्षित हुआ समाज। 

बिगड़े काम बन जाऍंगे, सम्भव हुआ है आज।।

डॉ मनोज रस्तोगी ने व्यंग्य के रंग में सभी को इस प्रकार डुबोया - 

जैसे तैसे बीत गए पांच साल रे इन भैया।

फिर लगा बिछने वादों का जाल रे भैया। 

आवाज में भरी मिठास, चेहरे पर मासूमियत, 

भेड़ियों ने पहनी गाय की खाल रे भैया।

    मनोज मनु के उद्गार इस प्रकार थे - 

छलछलाऐं अश्क़  गर ,दिल पे असर जाने के बाद, 

डबडबा जाता है आलम  आँख  भर जाने के बाद।  

 जितेन्द्र जौली की अभिव्यक्ति थी - 

महज दिखावा लग रही, हमें आयकर छूट। 

पाॅंच लाख तक छूट है, उससे ऊपर लूट।। 

  रामदत्त द्विवेदी द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।



















रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा...मन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे.

    योगेन्द्र वर्मा व्योम आज के साहित्यिक परिदृश्य में एक जाना पहचाना नाम हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, कहानी, समीक्षा, लघुकथा, आलेख आदि विभिन्न विधाओं में लिख रहे व्योमजी की अब तक चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और अपनी हर कृति के साथ क्रमशः उन्होंने अपनी उत्तरोत्तर निखरती साहित्यिक प्रतिभा को और अधिक समृद्ध किया है और आज वे किसी परिचय के लिए पराश्रित नहीं हैं।

          काव्य-संग्रह "इस कोलाहल में" से आरंभ हुई उनकी यह साहित्यिक यात्रा "उगें हरे संवाद" की हरितिमा लिए आज हमारे सामने है। समकालीन समय और संबंधों से संवाद करना व्योमजी की प्रमुख लेखन शैली है और इसी शैली में उनका वर्तमान दोहा-संग्रह समय और सम्बन्धों से न केवल संवाद कर रहा है वरन् इनमें हरेपन की आशा भी कर रहा है। स्वयं व्योम जी के व्यवहार की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे कनिष्ठ-वरिष्ठ, नवोदित-स्थापित, युवा-वयोवृद्ध और महिला-पुरुष सभी को समान महत्व देते हैं, सबका सम्मान करते हैं और सभी के विचारों का स्वागत करते हैं। एक साहित्यकार का यह एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वह उदार हृदय का स्वामी हो, अपनी संवेदनशीलता के साथ वह किसी भी ओर से आए सारगर्भित विचारों को आत्मसात करने का बड़ा हृदय रखता हो, बड़ों का अतिशय सम्मान करता हो और नवांकुरों को भी प्रोत्साहित करता हो, यही उदारता लेखन को समृद्ध करती है।

       व्योम जी के समृद्ध लेखन की कड़ी में "उगें हरे संवाद" दोहा-संग्रह की बात मैं यहांँ करने जा रही हूँ। "उगें हरे संवाद" योगेंद्र वर्मा व्योम जी की चौथी प्रकाशित कृति है। इस दोहा-संग्रह का आवरण पृष्ठ नैराश्य की ऊसर मृदा में सदाशयता के दो हरित पत्र पल्लवित होते हुए दिखा रहा है,जो कि संग्रह के आशय और महत्व को प्रतिपादित करते हुए आवरण पृष्ठ हेतु इमेज के सटीक चयन को प्रमाणित करता है। प्राय: हम पत्तियों के त्रिकल या विषम कल्लों का गुच्छ चित्र रूप में देखते हैं,लेकिन यहाँ द्वि कल का चित्र प्रयोग किया गया है, मुझे नहीं ज्ञात कि यह सायास है अथवा अनायास, लेकिन सायास हो अथवा अनायास इस दोहा संकलन हेतु यह बहुत ही सार्थक चुनाव है। दो हरी पत्तियां एक तरह से दोहे की दो पंक्तियों को इंगित कर रहीं हैं और ये हरी पत्तियांँ आश्वस्त कर रही हैं कि कहीं ना कहीं ये संवाद फलित होंगे और आशा का यह सफर नये कल्लों के प्रस्फुटन से निरंतर बढ़ता रहेगा।

        दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी, अशोक अंजुम, डॉ अजय अनुपम और डॉ मक्खन मुरादाबादी के आशीर्वचन और योगेन्द्र वर्मा व्योम  का आत्मकथ्य स्वयं में इतने समृद्ध, पुष्ट, सारगर्भित और विशिष्ट हैं कि इस पर कोई भी विशेषज्ञ अथवा विशिष्ट टिप्पणी किये जाने में मैं ही क्या कोई भी स्वयं को असमर्थ पायेगा, परंतु एक पाठक एक विशेषज्ञ से पूर्णतः पृथक होते हुए भी उसके समान ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंततः कृति की संरचना एक पाठक हेतु होती है तो मैं इस कृति की समीक्षा कोई विशेषज्ञ अथवा साहित्यकार के तौर पर न करके एक पाठक की दृष्टि से करना चाहती हूंँ क्योंकि साहित्य के पल्लवन में एक पाठक की दृष्टि, एक पाठक का मत सदैव महत्वपूर्ण होता है।

          परम्परा के अनुसार यह दोहा-संग्रह भी माँ वीणापाणि को प्रथम नमन निवेदित करता है।शारदा मांँ की वंदना से आरंभ यह दोहा-संग्रह जैसे ही अगले पृष्ठ पर बढ़ता है तो-      

"उगना चढ़ना डूबना, सभी समय अनुरूप। 

सूरज सी यह ज़िन्दगी, जिसके अनगिन रूप।।"

     दोहे के साथ जीवन के विविध पहलुओं को खोलना शुरू करता है। दोहाकार जानता है कि वर्तमान में अवसाद जीवन पर हावी है और इसका एकमात्र उपाय प्रसन्न रहना यानि मुस्कुराहट की शरण में जाना है। अतः वह कहता है कि-

"चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।।"

     मुस्कान अगर झूठी हो तो फलित नहीं होती और मुस्कान झूठी इसलिए होती है क्योंकि मन में कहीं ना कहीं कटुता का दंश हावी है। आगे यही बताते हुए कवि कहता है -

"सहज नहीं फिर रह सकी, आती जाती सांँस।

मन में गहरे तक धंँसी, जब कटुता की फांँस।।"

और इसका परिणाम इस रूप में दोहाकार रखता है-

"नहीं रही वह भावना, नहीं दिखा सत्कार।

पतझड़-सा क्यों हो गया, आपस का व्यवहार।।"

लेकिन अगले ही पृष्ठों में हमें रिश्तों के खिल उठने के सुखद आधार मिलते हैं जो इशारा देते हैं कि किस तरह से हम सम्बन्धों में आई कटुताओं को दूर कर सकते हैं -

"छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।

रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।"

        प्रायः आवेश में किए गए व्यवहार ही रिश्तों की आत्मीयता को पलीता लगाते हैं तभी दोहाकार लिखता है-    

"तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।

रिश्तो के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।"

     रिश्तों के अतिरिक्त इस संग्रह में समय से भी संवाद है। यह समय जहाँ-    

"व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम।

तन-मन के सुख-चैन को, सब ने किया तमाम।।

और-

समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे रहे तटस्थ।

मूल्यहीन इस दौर में, संस्कार अस्वस्थ।।"

               प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। समकालीन विषयों पर चिंतन करना आम बात हो सकती है पर इन दोहों में कवि द्वारा इन पर चिंतन विशिष्ट भाषा शैली, विविध शब्द चित्र और अद्भुत भाव व्यंजना के मोती पिरो कर किया गया है, जो इस चिंतन को विशिष्ट बना देता है।बानगी अग्रिम दोहों में देखें-

"स्याह विचारों की हुई, कुटिल साधना भंग।

मन-प्रांगण में जब हुआ, भावों का सत्संग।।

संदर्भों का आपसी, बदल गया व्यवहार।

शब्दों की जब-जब हुई, अर्थों से तकरार।।

अय्यारी मक्कारियाँ, छलछंदों की देख।

अधिकारों ने भी पढ़े, स्वार्थ पगे आलेख।।"

स्याह विचार की कुटिल साधना, मन प्रांगण में भावों का सत्संग, शब्दार्थ की तकरार और अधिकारों का स्वार्थ पगे आलेख पढ़ना जैसे अनुपम दृश्य उत्पन्न करना, कवि की विशिष्टता है। वह वर्तमान परिस्थितियों पर न केवल विशेष चिंतन करते दिखते हैं वरन् इन परिस्थितियों के हल भी अलंंकारिक तरीके से सुझाते हैं और नये रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानवीकरण अलंकार का यत्र-तत्र अद्भुत प्रयोग इस संग्रह की विशिष्टता है। वर्तमान में मेरे द्वारा पढ़े गए दोहाकारों में लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवियित्री संध्या सिंह जी के अद्भुत दोहों के बाद व्योमजी के दोहों ने मेरा मन आकृष्ट किया है। कुछ दोहें‌ देखें जैसे-

"मिट जाए मन से सभी, मनमुटाव अवसाद।

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरें संवाद।।

उम्मीदें, अपनत्व भी, कभी न होंगे ध्वस्त।

लहजा, बोली, सोच हो, अगर न लकवाग्रस्त।।"

      दोहाकार ने समय के हर पहलू को समेटा है, एक ओर समय का समकालीन समाज तो दूसरी ओर समय का प्राकृतिक स्वरूप जो विविध ऋतुओं के रूप में निरन्तर आगे बढ़ता है और वह स्वरूप भी जो समय की प्रकृति के अनुसार हमारा समाज विविध पर्वों के रूप में मनाता है, अर्थात समकालीन समय के साथ-साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा, वसंत जैसी ऋतुएँ और होली, दीपावली, वसंतोत्सव जैसे पर्व सभी दृश्य इस दोहा-संग्रह में अपनी बहुरंगी आभा बिखेरते दिख जाएंगे। जैसे-

"रिमझिम बूंँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार।

स्वप्न सुनहरे धान के, हुए सभी साकार।।

महकी धरती देखकर, पहने अर्थ तमाम।

पीली सरसों ने लिखा, खत वसंत के नाम।।

आतिशबाजी भी नया, सुना रही संगीत।

और फुलझड़ी लिख रही, दोहा मुक्तक गीत।।"

       अपनी बात को समेटते हुए कहना चाहूँगी कि व्योमजी एक सम्भावनाओं से भरे हुए साहित्यकार हैं, उदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर उससे भी बढ़कर जो उनकी खूबी है वह है रिश्तों को जीने, सहेजने और उनके बिखराव पर चिंता करने की उनकी संवेदनशीलता और इस चिंतन को दो पंक्तियों के दोहे में उन्होंने जिस खूबसूरती और गहन निहितार्थ के साथ व्यक्त किया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। हालांकि एक दो स्थानों पर कुछ मात्रिक व शाब्दिक त्रुटियाँ तमाम सावधानी के बाद भी रह जाना सामान्य बात है जैसे-

"दोहे की दो पंक्तियांँ, एक सुबह, इक शाम।"

(एक और इक का प्रयोग)

अथवा

"कल बारिश में नहायी, खूब संवारा रूप।"

(प्रथम चरण के अंत में दो गुरु होना)

  परन्तु ये त्रुटियांँ धवल पटल पर पेंसिल की नोंक से बनी बिन्दी भर हैं और व्योमजी की प्रतिभा के सापेक्ष उनसे रखी जाने वाली अपेक्षाओं के फलस्वरूप ही इंगित की गई हैं,अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 

    दोहा आकार में भले ही दो पंक्तियों का अस्तित्व रखता हो, परंतु एक सामर्थ्यवान दोहाकार अपने विशिष्ट शब्दसंयोजन और व्यंजना के प्रयोग से इन दो पंक्तियों को एक लम्बी कविता से अधिक सार्थक व मूल्यवान बना सकता हैमन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे व्योमजी के अधिकांश दोहे इस बात को सिद्ध करते हैं। तमाम अर्थ समेटे दोहे की दो पंक्तियांँ चमत्कार करने का सामर्थ्य रखती हैं और दोहाकार ने इस सामर्थ्य को पूरे मन से समर्थ किया है। "उगें हरे संवाद" आने वाले समय में विज्ञजनों के बीच संवाद का केन्द्रबिंदु बने और पाठकों का ढ़ेर सारा प्यार इस संग्रह को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं अपने इस अग्रिम दोहे के रूप में अपनी भावनाएं समेटती हूँ।

"रिश्तों में जो खो गई, उस खुशबू को खोज।       

उगा हरे संवाद की, नित नव कोपल रोज।।"



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष 2023

पृष्ठ संख्या104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षिका
- हेमा तिवारी भट्ट

मकान नं०- 194/10, (एमजीआर के निकट), 

बुद्धि विहार (फेज-2) सेक्टर-10,

मुरादाबाद-244001, (उ०प्र०)

मोबाइल- 7906879625

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद के भारतेंदु युगीन साहित्यकार पं बलदेव प्रसाद मिश्र द्वारा किया गया महर्षि श्री कृष्ण द्वैपायन जी प्रणीत गायत्री तंत्र का अनुवाद । यह कृति आर्य भास्कर प्रेस मुरादाबाद ने वर्ष 1898 में प्रकाशित की है। इस कृति में मूल पाठ भी है।



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::::::::प्रस्तुति:::::::;
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल ) के साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी का गीत संग्रह ....गुलाब और बबूल वन । यह उनकी तीसरी कृति है जो वर्ष 1973 में आत्माराम एंड संस दिल्ली ने प्रकाशित की है। इस कृति में उनके 64 गीत हैं ।




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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की कृति ....लोकधारा 11 । यह कृति वर्ष 2024 में विश्व पुस्तक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई है। इस कृति में उनकी कृति वीरांगना तीलू रौतेली (तिलोत्तमा), जयभारत माता, 335 सजलें, कुछ मुक्तक, दोहे, गीत और कविताएं संगृहीत हैं।



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मुरादाबाद की संस्था कला भारती की ओर से 28 जनवरी 2024 को डॉक्टर आर सी शुक्ल को कलाश्री सम्मान

 मुरादाबाद की कला एवं साहित्यिक संस्था कला भारती  की ओर से 28 जनवरी 2024 को हुए समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार डा. आर सी शुक्ल को अंग-वस्त्र, प्रतीक चिह्न, मानपत्र एवं श्रीफल भेंटकर "कलाश्री सम्मान" से अलंकृत किया गया। संस्था की ओर से उपरोक्त सम्मान समारोह एवं काव्य-गोष्ठी का आयोजन मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में हुआ। नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता बाबा संजीव आकांक्षी ने की। मुख्य अतिथि डा. महेश दिवाकर एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में ब्रजेन्द्र वत्स एवं रघुराज सिंह निश्चल उपस्थित रहे। सम्मानित व्यक्तित्व वरिष्ठ साहित्यकार डा. आर सी शुक्ल के व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित राजीव प्रखर द्वारा लिखित आलेख का वाचन योगेन्द्र वर्मा व्योम ने जबकि अर्पित मान-पत्र का वाचन ईशांत शर्मा ईशू द्वारा किया गया। संचालन आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ द्वारा किया गया। सम्मान समारोह के पश्चात् एक काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन किया गया जिसमें रचना पाठ करते हुए सम्मानित व्यक्तित्व डा. आर सी शुक्ल ने कहा - 

मन व्यथित है बहुत, तुम कहाँ हो प्रिये। 

तोड़ दो बंदिशें, मन आनंदित रहे।। 

बाबा संजीव आकांक्षी ने कहा- 

तुलसी भरोसे राम की निश्चिंत होकर सोए। अनहोनी होव नहीं होनी हो सो होए।। 

डा. महेश दिवाकर ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा- 

महाशक्तियां जहाँ खड़ी हैं, वह मचान भारत का है। जयचंदों की संतानों,क्यों भारत अपमान करें।। 

योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए कहा - 

कृपासिंधु के रूप में, छवि धर ललित-ललाम। 

दिव्य अयोध्या में हुए, प्राण-प्रतिष्ठित राम।। 

नष्ट हुए पल में सभी, लोभ क्रोध मद काम। 

बनी अयोध्या देह जब, और हुआ मन राम।। 

डॉ मनोज रस्तोगी की अभिव्यक्ति थी- 

वर्षों की प्रतीक्षा के बाद शुभ घड़ी है आई। 

अयोध्या में राम मंदिर का स्वप्न हुआ साकार। 

चार दशक पूर्व लिया संकल्प हुआ आज पूरा।

 हर ओर हो रही श्री राम की जय जयकार। 

ईशांत शर्मा ईशू ने सुनाया- 

भविष्य की योजनाओं से ग्रसित हमारी जवानी है, सच यह है कि ये मेरी अधूरी कहानी है। 

आवरण अग्रवाल ने आह्वान किया- 

आजकल कितने सहज आचरण हो गए हैं। 

कल तलक घुटने थे जो वह अब चरण हो गए है।।  

मयंक शर्मा ने सुनाया- 

राम तुम्हें आना होगा इस, धरा पर अबकी बार भी, करना होगा धर्मशस्त्र से, दीन दुःखी उद्धार भी।। 

रघुराज सिंह निश्चल ने सुनाया- 

अक्षर अक्षर हैं सिया, शब्द शब्द श्रीराम। 

मन से हर क्षण में, सियाराम का नाम। 

ओंकार सिंह ओंकार के उद्गार थे - 

हाथ में लेकर तीर-कमान, हमारे राम पधारे। 

हम सभी करते हैं गुणगान, हमारे राम पधारे।। 

रामदत्त द्विवेदी का कहना था- 

धन्य है राहगीर को जो नमन करते हैं। 

वंदनीय है शीश उनके चरण धरते हैं।। 

रश्मि चौधरी का कहना था- 

घर के बंटवारों में इतना खो गए। 

भाई ही भाई के दुश्मन हो गए। 

खींच दी दीवार दो दिलों के बीच में। 

उसके बाद वह जमाने के हो गए।। 

राजीव प्रखर द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा ।











सोमवार, 29 जनवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा..... "मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार"

    चार चरणों वाला तथा दो पंक्तियों वाला दोहा हिन्दी साहित्य का वह पहला छंद है, जिसे हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं के मध्य सर्वाधिक यश प्राप्त हुआ। सूर, कबीर, तुलसी, बिहारी की दोहा-लेखन परंपरा को अनेक प्राचीन कवियों ने आगे बढ़ाया और वर्तमान में भी अधिकांश कवियों ने दोहा लेखन को सर्वप्रिय बनाये रखा है। 

हाल ही में मुरादाबाद के वरिष्ठ व यशस्वी नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" के दोहे पढ़ते हुए महसूस हुआ कि उन्होंने दोहा-लेखन में "नवदोहे" के रूप में एक नये काव्यरूप का सृजन कर एक बड़ी उपलब्धि पा ली है। नवगीत की ही भांँति व्योम जी के दोहे परंपरागत शैली से हटकर नये कथ्य, नये बिम्ब गढ़ते हुए आधुनिक युग की बात करते हैं। इस दौरान आपने दोहे की मूल अवधारणा को भी पूर्णतः सुरक्षित रखा है। आपके दोहों में नवगीत के सभी आवश्यक तत्व यथा-जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति आदि स्वत: ही  दोहे की दो पंक्तियों में समा गये हैं। कोरे उपदेशात्मक रवैये को त्यागकर आपके दोहे आम आदमी की बात करते हैं, जो कल्पना लोक की कोमल बिछावन से उतरकर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर चलकर पाठकों के बीच पहुँचते हैं। उनके दोहों के भीतर कथ्य और शिल्प दोनों में नवगीत का मूल तत्व- 'नवता' प्रमुख रूप से  उभर कर सामने आता है, फलतः मेरे दृष्टिकोण से व्योमजी के दोहों को 'नवदोहे' कहना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।

मांँ शारदे की वंदना से प्रारंभ होकर, यह उत्कृष्ट नवदोहा-संग्रह, भारतीय संस्कृति-संस्कार, जीवन-मूल्यों व सामाजिक सरोकारों की पैरवी करता हुआ भारत के जयघोष पर आकर रुकता है। एक कुशल नवगीतकार की लेखनी से जब नवदोहे प्रसूत हुए तो चुप के ऊसर में उगे हरे संवाद, मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार करने  हेतु तत्पर हो उठे और कृति को शीर्षक प्रदान करता उनका यह दोहा अत्यंत उत्कृष्ट बन गया-

मिट जायें मन से सभी, मनमुटाव-अवसाद। 

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरे संवाद।।

         व्योमजी के दोहों की व्यंजना-शक्ति चमत्कृत करती है तो भाषा की भव्यता, भावों को निर्मलता प्रदान करती है। रूपक-यमक, अनुप्रास और मानवीकरण आदि अलंकारों से श्रृंगारित दोहे, बेहद सरल व सहज बन पड़े हैं। नव्यता के बावजूद भी आपके शब्द कहीं से भी आरोपित नहीं लगते। गंभीर विषयों के सागर को आपने जिस सहजता व  कुशलता से दो पंक्तियों वाले दोहे की गागर में  उड़ेल दिया है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। जीवन का सारांश प्रस्तुत करता यह दोहा पाठकों की अंतरात्मा को झकझोर देता है-

धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर। 

जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।।

        कवि के भीतर की आत्मीयता से भरे दोहों ने जब कल्पना की झील में नहाकर, अनूठे विम्बों को धारण किया तो आपके नव दोहे प्रत्यक्ष होकर, "नभ पर स्वर्ण सुगंधित गीत" लिखने लगे। इसकी एक बानगी देखिए-

मन ने पूछा देखकर ,अद्भुत दृश्य पुनीत। 

नभ पर किसने लिख दिए, स्वर्ण सुगंधित गीत।।

            व्योमजी के दोहे यथार्थ के धरातल पर उगे हैं, अतः अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं ताकि क्षरित होते हुए मूल्यों को बचाया जा सकें। तभी तो व्योमजी लिखते भी हैं-

मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़। 

जड़ से जो जुड़कर जिए, हरे रहे वे पेड़।।

और आभासी युग में संस्कार व संस्कृति की दुर्गति देखकर कवि के व्यथित कोमल हृदय से भावनाओं का लावा दोहों के रूप में बह निकलता है और व्योमजी लिखने पर विवश हो जाते हैं-

ऐसे कटु परिदृश्य का, कभी न था अनुमान। 

सूली पर आदर्श हैं, संस्कृति लहूलुहान।।

साथ ही उन्होंने आधुनिक समय के पीढ़ीगत मतभेदों को भी अपने दोहों में बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-

देख-देखकर हैं दुखी, सारे बूढ़े पेड़। 

रोज़ तनों से टहनियाँ, करती हैं मुठभेड़।।

         आजकल मंच पाने की होड़ में कविता लेखन के नाम पर बाहुबली लफ्फाजियों ने अधिक स्थान घेरा हुआ है तथा स्वाभिमानी कविता को हाशिये पर धकेल दिया है। कविता में इस जुगाड़बाजी का व्योमजी ने बड़ी निर्भीकता से चित्रण किया है-

दफ़्न डायरी में हुए, कविता के अरमान। 

मंचों पर लफ्फाज़ियाँ, पाती हैं सम्मान।।

कविता के इतर, आज हिंदी साहित्य के अन्य सृजन यथा- कहानी, नाटक व अन्य विधाओं के लेखन के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता को भी आपने पूरी ईमानदारी के साथ सशक्त दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसका एक उदाहरण देखिए-

नाटक गुमसुम चुप खड़ा, भर नयनों में नीर। 

शून्य सृजन की है घुटन, किसे सुनाये पीर।।

साथ ही चाटुकारिता को मुँह चिढ़ाता हुआ, आपका यह दोहा आज के समय में बिलकुल उपयुक्त जान पड़ता है-

लगन ,समर्पण और श्रम, सारे ही हैरान। 

चाटुकारिता को मिला, श्रेष्ठ कर्म सम्मान।।

पाठक की अंतरात्मा को झकझोरते, सीधी-सच्ची बात करते आपके दोहे, सीधे हृदय को स्पर्श करते हैं। इसी क्रम में, अधोलिखित समसामयिक दोहे का अप्रतिम काव्यात्मक सौंदर्य, शिल्प और कथ्य देखते ही बनता है-

बदल रामलीला गयी, बदल गए अहसास। 

राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।।

व्योमजी समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही आपके दोहों की आत्मा है। इसकी झलक पूरे संग्रह में देखने को मिलती है। एक बानगी देखिए-

आशा के अनुरूप हो, आपस का व्यवहार। 

फिर हर दिन परिवार में, बना रहेगा प्यार।।

नयी बहू ससुराल जब, पहुँची पहली बार। 

स्वागत में सब बन गए, रिश्ते तोरणद्वार।।

          सजग कवि देश हित में ही सोचता और लिखता है। किसी भी देश की राजनीति का उस देश के उत्थान-पतन में महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक सजग व निर्भीक कवि सदैव अपनी लेखनी के माध्यम से राजनीतिक विद्रूपता को वास्तविकता का दर्पण दिखाता रहा है। इसी क्रम में आप लिखते हैं कि-

लोकतंत्र में भी बहुत, आया है बदलाव। 

आये दिन होने लगे, अब तो आम चुनाव।।

सारे ही दल रच रहे, सत्ता का षडयंत्र। 

अब तो अवसरवादिता, राजनीति का मंत्र।।

आम आदमी की पीड़ा और गरीब की भूख आपको भीतर तक झंझोड़ती है और आपकी कलम लिखने पर विवश हो जाती है-

मिले हमें स्वाधीनता, बीते इतने वर्ष। 

ख़त्म न लेकिन हो सका, "हरिया" का संघर्ष।।

सपनो के बाज़ार में, "रमुआ" खड़ा उदास। 

भूखा नंगा तन लिए, कैसे करे विकास।।

परंतु साथ ही देश के नागरिकों से कर्तव्यनिर्वहन का आह्वान करना भी नही भूलते, तभी तो लिखते हैं-

तुम विरोध बेशक करो, किंतु रहे यह ध्यान। 

राष्ट्रगर्व के पर्व का, क्षरित न हो सम्मान।।

आज के भागदौड़ भरे जीवन में पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति में सुख हमसे कोसों दूर हैं, परंतु मानसिक तनाव स्थायी होते जा रहे हैं, इस स्थिति को अद्भुत विम्बों में पिरोना एक श्रेष्ठ नवदोहाकार के लिए अत्यधिक सरल जान पड़ता है। तभी तो आपने लिखा है-

सुख साधारण डाक से, पहुंँच न पाये गांँव। 

पर पंजीकृत मिल रहे, हर दिन नये तनाव।।

          प्रकृति चित्रण के तो कहने ही क्या हैं। चाहे वो "तानाशाह सूरज" हो या, "मंचासीन बूंँदे", "मेघों का अखबार" हो या "बारिश में नहायी बूंँदे"। "वासंती नवगीत गाती कोयल" हो या "पीली सरसों का ख़त"। सभी के चित्र नवदोहाकार व्योमजी एक फ्रेम में रखने में सक्षम हो गये हैं। यह कवि का कोमल हृदय ही है जो  बूंँदों की  उद्दंडता को सहने में असमर्थ गरीब की पीड़ाभरी मनुहार को बड़े ही मार्मिक और विनीत भाव से लिखता है-

बरसो! पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध। 

रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध।।

          तीज-त्योहार मनाने में भी कवि की कलम पीछे नहीं है। अद्भुत विम्ब जब त्योहारों की मस्ती में रंँगे, तो "पिचकारी रंगो से संवाद करने लगी" और दीपशिखाओं के उजास में एक और नया अध्याय जुड़ गया। एक दोहा देखिए-

मन के सारे त्यागकर, कष्ट और अवसाद। 

पिचकारी करने लगी, रंगों से संवाद।।

           वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या प्रदूषण भी है जिसके कारण अनेक विसंगतियाँ भी उत्पन्न हुईं और जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक साँसों पर संकट। पर्यावरण प्रेमी कवि विकास के नाम पर विनाश देखकर व्यथित हो उठता है और लिखता है-

जब शहरों की गंदगी, गयी नदी के पास। 

फफक-फफककर रो उठी, पावन जल की आस।।

समसामयिक संदर्भों पर आपकी लेखनी ने खूब सम्मान पाया है फिर चाहे वो समाजिक घटनाएँ हों या देशभक्ति से जुड़े ऐतिहासिक पल-

भारत की उपलब्धि से ,बढ़ी जगत में शान। 

मूक-बधिर से हो गये, चीन -रूस-जापान।।

आज तिरंगे की हुई, जग में जयजयकार। 

मिशन चंद्रमा का हुआ, सपना जब साकार।।

             व्योमजी की यह कृति उन्हें देश के प्रथम नवदोहाकार की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। और उनके पूरे संकलन की समीक्षा केवल एक दोहे से ही की जा सकती थी, परंतु जिस प्रकार हांँडी का एक चावल चखने के पश्चात संपूर्ण भोज किये बिना नहीं रहा जा सकता, उसी प्रकार एक दोहा पढ़ने के पश्चात,  आपका संपूर्ण "नवदोहा-संग्रह" पढ़े बिना नहीं रहा जा सका। पंक्तियाँ देखिएगा-

मिलजुलकर हम तुम चलो, ऐसा करें उपाय। 

अपनेपन की लघुकथा,उपन्यास बन जाये।।

मुझे विश्वास है कि यह कृति "उगें हरे संवाद" निश्चित रूप से हिंदी साहित्य में नवदोहों की लघुकथाओं के अपनत्व से भरा एक सार्थक उपन्यास सिद्ध होगी। 



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष - 2023

पृष्ठ संख्या- 104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षक
- मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार, दिल्ली रोड, 

मुरादाबाद- 244001





रविवार, 28 जनवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा लिखित संस्मरण (1) ....यू परवतिया मरेगी



     मैं भी देश के उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ, जो 26 जनवरी 1950 के बाद अपने स्वाधीन भारत में पैदा हुए।परिजनों की याददाश्त के आधार पर मेरा जन्म 12 फरवरी 1951 को हुआ। जब मैं छ: वर्ष का होने को था,तभी पड़ोस के गाँव रझा के प्राथमिक  विद्यालय में मुझे प्रवेश दिला दिया गया।12 फरवरी 1951 को पैदा हुआ मैं,विद्यालय में प्रवेश लेते ही 10 नवंबर 1951 को पैदा हुआ दर्ज़ हो गया।उस समय ऐसा ही होता था। विद्यालय न जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ तो किसी को याद ही नहीं रहती थीं,उम्र का हिसाब-किताब सिर्फ अंदाज से चलता रहता था और विद्यालय जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ प्रवेश के समय हेड मास्टर साहब अपने हिसाब से तय करके प्रवेश रजिस्टर में दर्ज कर दिया करते थे।अस्तु! विद्यालय में मेरा प्रवेश हो गया और विद्यालय आना-जाना शुरू।इस प्रकार मेरी विद्या का श्रीगणेश हो गया।

     ‌     विद्यालय जाने में नानी मरती थी,जाने का मन ही नहीं होता था।मन तो गाँव के बाल सखाओं के साथ खेलने- कूदने में ही मग्न रहता था। मेरे बाल मन में स्कूल आते-जाते समय रास्ते भर स्कूल गोल करने की बातें स्वत: ही ध्यान में आने लगीं और इसके लिए भाँति-भाँति की युक्तियाँ भी सूझने लगीं,जाने क्यों? अंततः स्कूल गोल करने का विचार दिन पर दिन हावी होने लगा और एक दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकला तो देखा बाहर सामने वाली बैठक खाली पड़ी थी। वहाँ पर चार-पांच बैठने वाले मूढ़े पड़े हुए थे। मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैं एक मूढ़े को तिरछा करके उसके नीचे घुस गया और उसे अपने ऊपर सीधा कर लिया।अब मैं मूढ़े के नीचे और मूढ़ा मेरे ऊपर। मैं छुप तो गया पर यह सोचकर मेरे भीतर बड़ी धुकर-पुकर थी कि मेरे स्कूल गोल करने का ऊँट जाने आज किस करवट बैठेगा। इतने में ही गाँव के ही एक सज्जन वहाँ पर आए और उन्होंने बैठक वालों को ताऊ जी कहकर आवाज़ लगाई। आवाज़ लगाकर उत्तर की प्रतीक्षा में वह उसी मूढ़े पर टिक लिए जिसके नीचे मैं छुपा हुआ था।मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे। मैं अपनी साँसों को पी गया। मुझमें लेशमात्र भी जुंबिस नहीं ,बस पत्थर होकर जैसे-तैसे बैठा रहा। गनीमत रही कि उन सज्जन को अंदर से जवाब मिल गया कि घर पर कोई नहीं है।यह सुनकर वह उठ लिए और उठकर एकदम चल दिए। मुझे वह जगह सुरक्षित नहीं लगी।कोई दूसरी मुसीबत आकर                                              मूढ़े पर न बैठ जाए,इस विचार से मेरे मन में आया कि अब यहाँ से निकल लो,पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?मेरा घर तो सामने ही था,पर घर जाऊँ तो पिटने का डर और गाँव के किसी भी अन्य रास्ते से इधर-उधर जाऊँ तो अवश्य ही कोई न कोई रास्ते में मिल जाएगा।मिल जाएगा तो सारी पोल-पट्टी भी खुल जाएगी। पोल-पट्टी खुल जाएगी तो घर पर भी मार जमकर ही पड़नी है।आज तो आगे कुँआ है और पीछे खाई।बहुत सोच- विचार कर मैं अपने घर को ही लौट लिया।घर में घुसते ही दादी और बीबी (मैं माता जी को बीबी ही कहता था) को नमस्ते की। बीबी ने कहा - स्कूल नहीं गया क्या? मैंने तत्काल बहाना बना दिया कि मुझे उलटी हो गई और पेट में दर्द है, इसलिए रास्ते से ही लौट आया। बहाना सफल रहा।लल्लो चप्पो भी हुई और पड़ने वाली मार से भी बच गया। दोपहर को पिताजी जंगल से लौटे। उन्होंने पूछा तो बीबी ने उन्हें भी यही बता दिया। उन्होंने भी लाड़ जताते हुए सिर पर हाथ फेरकर खूब पुचकारा। मैंने मन ही मन शुक्र मनाया कि आज तो बच गए, बच्चू।ऐसी सफलताओं का भीतर ही भीतर जो आनन्द होता है, उसके लिए शब्द मुझ पर क्या किसी के पास नहीं होते।बस सोचते रहिए और आनन्द में गोते लगाते रहिए,सो मैंने भी आनन्द में मन भरकर डुबकियाँ लगाईं। बचपन इसी का नाम है।बालपन ने ही तो पूरे घर को छका दिया न।

         अगले दिन से नियमित स्कूल जाना शुरू। समय से जाना और समय से लौट कर घर आना।घर वाले सब बहुत खुश कि बालक पढ़ाई की लाइन पर पड़ गया।पर मेरे भीतर तो कुछ और ही पक रहा था। अगले दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए गाँव के जिस रास्ते से निकला उसपर ताऊ बसंत ठेकेदार की ढुंड पड़ी खुली जगह में एक बड़ (बरगद)का खूब बड़ा पेड़ था। उसके तने की बनावट कुछ ऐसी थी कि बालक भी उसपर आसानी से चढ़ जाते थे और ऊपर ऐसी बनाबट उसके गुद्दों की भी थी कि कोई भी आराम से बैठ सकता था और कमर टिका कर लेट भी सकता था। मैं उसी पर चढ़ लिया। आराम से बैठा और लेट भी लगाई। स्कूल मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही था। स्कूल के इंटरवल और छुट्टी की घंटी की सुनाई वहाँ तक खूब तेज आती थी।उन दिनों स्कूल जाने के अपने अलग ही मजे थे। सुबह घर से मक्खन से रोटी और साथ में दूध या छाछ से खूब छककर स्कूल जाते थे और स्कूल में इंटरवल में खाने के लिए घी में तर गेंचनी की दो रोटियाँ आम के अचार के साथ एक छन्ने में बाँध कर बस्ते में रख दी जाती थीं और सख्त हिदायत दी जाती थी कि इंटरवल में जरूर खा लेना, भूखे मत रहना बेटा। उन रोटियों को खाकर पूरे दिन भी पानी पीने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती थी। स्कूल में जब इंटरवल की घंटी बजती तो मै बँधी रोटियाँ खोल लेता और पेड़ पर बैठे-बैठे खाना शुरू कर देता और जब स्कूल की छुट्टी की घंटी बजती तो गाँव के बालकों को पेड़ पर से ही गाँव की ओर आता हुआ देख देखभाल कर नीचे उतरता तथा अपने घर पहुँच जाता। वह बरगद का पेड़ मेरा पिकनिक स्पॉट बन चुका था।

          स्कूल जाते हुए किसी भी दिन मैं स्कूल गोल कर दिया करता और अपने मनोरम उस बरगद के पेड़ के पिकनिक स्पॉट का भरपूर आनंद लेता,यद्यपि उस समय यह पता ही नहीं था कि पिकनिक भी कुछ होती है। आज सोचता हूँ तो उस बचपन में उससे बढ़िया पिकनिक और क्या हो सकती थी? अपना यह क्रम लगभग दो-तीन महीने से चल रहा था।स्कूल भी जाते रहना और जिस दिन मन हुआ - स्कूल गोल करके बरगद के पेड़ को नानी का घर समझकर खूब मस्तियाँ करना।

         बरगद का वह पेड़ नानी का घर तो था नहीं।वह तो अपने ही गाँव का पेड़ था।वहाँ से तो गाँव की आने -जाने वाली कोई न कोई दादी,ताई,चाची,बुआ ,भावी, बहन अथवा कोई न कोई दादा,ताऊ,चाचा,भाई आदि अपने नित्य कार्यों से गुजरते ही रहते थे।यह डर भी बना रहता था कि किसी को तनिक भी भनक लग गई तो हमेशा के लिए पिकनिक-विकनिक सब रिल जाएगी। कहानी बना तो ली, पर कही न जाएगी।घर का कोई भी कुछ कहने की तो नौबत ही नहीं आने देगा, वह तो ठीक से कर्रा पड़कर जमकर खबर ही लेगा। पर,यह दिन तो आना ही था। सो,एक दिन उस दिन की वह घड़ी आ ही गई कि जब अपनी पोल-पट्टी खुलनी ही थी। अपने आप को बरगद के पेड़ के धोखे के जो कपड़े पहनाए थे,वह उतरने ही थे और अपुन को सरेआम नंगा होना ही था।

          गाँव के रिश्ते से मेरी दादी लगने वाली पार्वती जी का घेर उसी बरगद के पेड़ वाले ढुंड के बराबर में ही था।

गाँव में उन्हें परवतिया नाम से पुकारा जाता था। वह स्कूल के इंटरवल के कुछ समय बाद नियमित रूप से अपने ढोर-डंगरों के कार्य को निपटाने उधर से ही अपने पथनवाले जाती थीं-यानिकि पशुओं का गोबर घेर से उठाकर पथनवाले में डाल कर उपले पाथने। मैं उन्हें रोज़ इसलिए निहारता था कि वह मुझे निहार न लें। वैसे तो उधर से आने-जाने वाले अन्य सभी तो इधर-उधर देखे बिना फर्राटे से सीधे निकल जाते थे,पर दादी! चारों ओर देखती हुई और ताड़ती हुई ही निकलती थी। यद्यपि मैं उनसे छुपा रहा और मेरी परछाईं तक की भी भनक उन्हें महीनों तक न लग सकी।पर,होनी तो होने के लिए ही होती है और वह हो ही गई। आखिर उन्होंने मुझे एक दिन देख ही लिया और देखते ही झट से दौड़ कर पेड़ के नीचे आ धमकीं।डाँट कर बोलीं- 'उतर नीचे।' मैं सकपकाया सा डर से भरा हुआ नीचे उतर आया और उनके सामने हाथ जोड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ा कि दादी घर पर मत कहना।आज के बाद रोज़ स्कूल जाऊँगा। दादी कहाँ मानने वाली थीं।न उन्हें मानना था और न ही वह मानीं।मेरा कान पकड़ा और खींचकर मुझे मेरे घर की ओर लेकर चल पड़ीं।मेरे घर के दरबाजे पर पहुँचते ही मेरी बीबी को जोर की आवाज लगाई।अरी,ओ बहू ऊऊऊऊ!ले थाम अपने छैला को। ठेकेदार के बड़ के पेड़ पर चढ़ा बैठा था।यू स्कूल-विस्कूल ना जाता दीखै है,उस पेड़ पर चढ़ा रहबै है।एक दिन मुझे और धोखा सा लगा था,पर मैं टाल गई थी।आज जब मुझे इसकी झपक पड़ी तो मैंने पेड़ के पास जाकर देखा तो यू उसपे छुपा बैठा था। मेरी बीबी उस समय नल पर बर्तन माँज रहीं थीं।उनके हाथ में पीतल का भारी लोटा था। उन्होंने दादी के हाथ में से मुझे लपकते हुए लोटा मेरे सिर में दे मारा।एक बार नहीं तीन बार। मेरे मन में उनके प्रति गुस्सा भर गया था। रोते-रोते मेरे मुँह से जोर से निकला -'यू परवतिया मरेगी।' एक लोटा और पड़ा धड़ाम से। और भी पड़ते,पर परवतिया दादी ने ही बीबी के हाथ में से मेरा हाथ छुड़ा कर मुझे बचा लिया। दोपहर को पिताजी जंगल से आए और इस कथा की जानकारी होने पर उन्होंने भी मुझे बहुत कर्रा लिया। पीटते-पीटते एक संटी तोड़ डाली।दूसरी संटी उनके हाथ ही नहीं आई, नहीं तो उस दिन उसका भी टूटना तय था।

        यह पिकनिक का दूसरा हिस्सा था। पहले हिस्से ने मौज मस्ती दी और इसने सबक।उस दिन के बाद मैं घर से स्कूल गया तो स्कूल ही गया। कक्षा एक से लेकर स्नातकोत्तर तक कभी क्लास गोल नहीं की।ऐसा परवतिया दादी की बजह से ही हो पाया। परवतिया दादी न होती तो मैं भी जाने क्या होता? परवतिया दादी की जय हो।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:9319086769

रविवार, 21 जनवरी 2024

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल ) के साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम् के दोहे


धर्म ध्वजा ले हाथ में, कंठ करें उद्घोष।

पूर्ण बलों के साथ है,राम नाम का जोश।।


आंखें बैठीं आस में,लाओ अक्षत धूप।

वंदन कर श्री राम का,पाएं रूप अनूप।।


वायु अग्नि के साथ में,नीर धरा आकाश।

राम आगमन पर मुदित,करा रहे आभास।।


शबरी रो रो कर कहे,बांधो आकर धीर।

पांच शतक से बाट में,बेर चखो रघुवीर।।


अवधपुरी के साथ में, सूने सरयू घाट।

आएंगे प्रभु राम जी,जोह रहे हैं वाट ।।


पंचतत्व ही अवध हैं,प्राण रूप श्री राम।

प्राण प्रतिष्ठा हो बना,अवध स्वर्ग सा धाम।।


✍️त्यागी अशोका कृष्णम्

कुरकावली, संभल 

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार का गीत .... कर रहे हम सब स्वागत गान , हमारे राम पधारे। क्लिक कीजिए⬇️⬇️⬇️⬇️



 हाथ में लेकर तीर-कमान, हमारे राम पधारे।

कर रहे हम उनके गुणगान, हमारे राम पधारे।।


हो भव्य सजावट अयोध्या धाम, फूल दीपक माला से,

मनोहर बाल रूप धर राम, देखें सुन्दर लाला से,

कर रहे हम सबका स्वागत गान, हमारे राम पधारे।।


दुष्ट रावण का कर संहार, बध कुंभकरण का,

और सब राक्षसों को मारा, दंड दिया गया सिया हरण का।

बड़े-बड़े बलवान, हमारे राम पधारे।।


साथ में हैं सुग्रीव कपीश, माता सीता को लेकर,

विभीषण भी लंकापति हैं, और लछमन जी आये हैं।

 साथ लेकर अंगद, हनुमान्, हमारे राम पधारे।।


ओंकार सिंह 'ओंकार'

1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला,

उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश) 244103

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) से अमन कुमार के संपादन में प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक पत्र ओपन डोर का 28 दिसंबर 2023 का अंक प्रख्यात साहित्यकार मक्खन मुरादाबादी विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस अंक में डॉ मक्खन मुरादाबादी की एक कहानी, 58 दोहे और 35 चर्चित रचनाओं के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सर्वश्री शंकर क्षेम, अतुल कुमार शर्मा, ए टी ज़ाकिर, डॉ जगदीश शरण, डॉ मनोज रस्तोगी, योगेंद्र वर्मा व्योम, डॉ अनिल शर्मा अनिल, डॉ प्रदीप जैन, हर्षवर्धन शर्मा और राजीव प्रखर के आलेख/संस्मरण/पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हुईं हैं । इसके अतिरिक्त उनकी प्रथम काव्य कृति कड़वाहट मीठी सी का आत्म कथ्य भी प्रकाशित हुआ है।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरा विशेषांक

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