रविवार, 11 सितंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य सदन की ओर से शनिवार 10 सितंबर 2022 को आयोजित कार्यक्रम में मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम के गीत-संग्रह ‘दर्द अभी सोये हैं’ का लोकार्पण

      मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम के  गीत-संग्रह ‘दर्द अभी सोये हैं’ का लोकार्पण शनिवार 10 सितंबर 2022 को साहित्यिक संस्था  हिंदी साहित्य सदन के तत्वावधान में श्रीराम विहार कालोनी मुरादाबाद स्थित विश्रांति भवन में आयोजित कार्यक्रम में किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने की, मुख्य अतिथि के रूप में दिव्य सरस्वती इंटर कालेज के प्रधानाचार्य अनिल शर्मा तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में पर्यावरण मित्र समिति के संयोजक के. के. गुप्ता उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा किया गया।

      इस अवसर पर लोकार्पित कृति- ‘दर्द अभी सोये हैं’ से रचनापाठ करते हुए डॉ अजय अनुपम ने गीत सुनाये-

 "दर्द क्या है दंश का

यह बोलती हैं चुप्पियाँ

कौन इस चेतन घृणा के

पाप का दोषी कहो

ज़ख़्म, सिसकी, मौत या फिर

एक खामोशी कहो

नर्म कलियाँ खोजती हैं

तेल वाली कुप्पियाँ"

 उन्होंने एक और गीत सुनाया -

 "अब हम खुद बाबा दादी हैं

कल आदेश दिया करते थे

आज हो गए फरियादी हैं

भीषण कोलाहल के भीतर

असमय सोना असमय खाना

मोबाइल से कान लगाए

यहाँ खड़े हो वहाँ बताना

अपने को ही भ्रम में रखना

सच को हौले से धकियाना

छोटे बड़े सभी की इसमें

देख रहे हम बर्बादी हैं।"

 कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध नवगीतकार यश भारती माहेश्वर तिवारी ने कहा- "अजय अनुपम ने अपने गीतों में जहाँ एक ओर सामाजिक विसंगतियों पर अपनी टिप्पणी की है और आज के समय के सच को बयान किया है वहीं दूसरी ओर समाज के अलिखित संदर्भों पर अपनी तीखी अभिव्यक्ति भी दी है। कवि ने अपने गीत संग्रह के माध्यम से अपने समय की पड़ताल भी की है।"

      वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. मनोज रस्तोगी ने इस अवसर पर अपने आलेख का वाचन किया- ‘इस संग्रह के अधिकांश गीतों में जहां समाज की पीड़ा का स्वर मुखरित हुआ है वहीं राजनीतिक विद्रूपताओं को भी उजागर किया गया है। जिंदगी की भाग दौड़ में व्यस्तता के बीच रिश्तों में आ रही टूटन, बिखराव, स्वार्थ लोलुपता  और भूमंडलीकरण के मकड़जाल में उलझती जा रही नई पीढ़ी की मानसिकता को भी उन्होंने अपने गीतों में बखूबी व्यक्त किया है।"

  कवि राजीव प्रखर ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- ‘डॉ अजय अनुपम के 109 गीतों को संजोए हुए यह गीत संग्रह यह दर्शाता है कि रचनाकार विद्रूपताओं एवं विसंगतियों से भले ही व्यथित हो किंतु उसने सकारात्मकता एवं आशा का दामन नहीं छोड़ा है। यह सभी गीत पाठक के अंतस को गहरे स्पर्श करने की अद्भुत क्षमता लिए हुए हैं।’ 

    कवयित्री डॉ पूनम बंसल, के पी सरल, ज्योतिर्विद विजय दिव्य, सुशील कुमार शर्मा आदि ने भी डॉ अजय अनुपम को बधाई दी। आभार-अभिव्यक्ति डॉ कौशल कुमारी ने प्रस्तुत की।













बुधवार, 7 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की पांच व्यंग्य क्षणिकाएं


 1

तन ने बाजार

में

कीमत लगाई

हाथों-हाथ

बिक गया।।

मन तो पागल

था

बिना कीमत

लुट गया।


2

सभ्यताओं के 

स्टॉल पर कोई

नहीं आता 

अब गाय को रोटी

नहीं डाली जाती


3

उधार की संस्कृति

कब तक चलेगी..?

जब तक जाने जहाँ

यह बहार चलेगी।। 


4

अंदर से कुछ

बाहर से कुछ..हो

यह सियासत भी..

मियां!

कहॉं से कहाँ

पहुँच गई।। 


5

सब नाच रहे हैं

तुम भी नाच लो

अस्मिता ने घूंघट

छोड़ दिया है।। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी 

मेरठ 

उत्तर प्रदेश, भारत


सूर्य   कांत द्विवेदी 

मेरठ 

उत्तर प्रदेश, भारत 



मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य .....फीता काटने की कला


 फीता काटना एक कला है । जब कोई दस-बीस जगह जाकर तरह-तरह के लोगों को फीता काटते हुए देखता है और केवल देखता ही नहीं है, गहराई से उसका निरीक्षण करता है तथा अपना सारा चिंतन फीता काटने में लगा देता है, तब उसे फीता काटने के वास्तविक महात्म्य का पता चलता है । अन्यथा ज्यादातर लोग फीता काटने के लिए जाते हैं और कैंची हाथ में जैसे ही उन्हें पकड़ाई जाती है, वह फीता काट देते हैं । जबकि यह इतनी सरल और सीधी-सादी प्रक्रिया नहीं होती है ।

                 फीता काटने से पहले आदमी को चारों तरफ गर्व से सिर उठाकर देखना चाहिए । एक नजर फीते की ओर, दूसरी नजर चारों तरफ उपस्थित भीड़ की ओर । अगल-बगल-पीछे सब को देखने के बाद उसे कैंची हाथ में लेने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए अर्थात कैंची को बहुत नाजुक तरीके से हाथ में उठाना होता है । इसमें कभी भी अपनी उतावलेपन की भावना को प्रकट नहीं होने देना चाहिए । वरना मामला बिगड़ जाता है । भीतर भले ही कैंची को झटपट प्लेट से उठाकर फीता काटने की ऑंधियॉं चल रही हों, लेकिन व्यक्ति की कलात्मकता इसी में है कि वह मंद मंद मुस्कुराते हुए धीरे-धीरे कैची को प्लेट से उठाए और हल्के-हल्के फीते तक ले जाए।

          बस यहॉं आकर थोड़ा-सा रुकने की जरूरत है । अभी आपको फीता नहीं काटना है। कुछ लोग इसी समय अपना हाथ आपकी कैंची की तरफ बढ़ाने के उत्सुक होंगे । उन्हें जबरन पीछे धकेलने की कला आपको आनी चाहिए । यह बात सुनिश्चित कर लीजिए कि कैंची अकेले आपके हाथों में ही सुशोभित होनी चाहिए। अगर अगल-बगल के दो लोगों ने भी कैंची को स्पर्श कर लिया, तो समझ लीजिए कि आप का श्रेय एक तिहाई रह जाएगा। कल को जब इतिहास लिखा जाएगा, तब फोटो को सबूत के तौर पर कोई भी प्रस्तुत करके यह कह सकता है कि फीता तीन लोगों ने काटा है । तब आप क्या करेंगे ? सिवाय हाथ मलने के कुछ नहीं बचेगा ? 

            इसलिए कैंची को अपने शरीर के बीचो-बीच बिल्कुल सुरक्षित पोजीशन में रखिए । कैमरे की तरफ ध्यान अवश्य दें, लेकिन कैंची को चिंतन की धारा से बाहर न जाने दें। परोक्ष रूप से ध्यान पूर्णतः फीते पर ही रहना चाहिए । जरा सोचिए ! कितने उखाड़-पछाड़ के बाद फीता काटने का सौभाग्य जीवन में आता है ! कितने पापड़ बेले ! कितनी सिफारिशें पड़वाईं ! क्या-क्या सौदे नहीं किए ! न जाने कितने वायदों के बाद फीता काटने की मंजूरी मिल पाती है ! फीता काटने की दौड़ में अनेक प्रतियोगी लगे रहते हैं । एक अनार, सौ बीमार । जिसे फीता काटने का सौभाग्य मिल जाता है, सचमुच अपने आप को धन्य मानता है । दौड़ में एक को ही विजयश्री प्राप्त होती है । बाकी मन-मसोसकर रह जाते हैं कि यह जो फीता काटने का सौभाग्य अमुक को मिला है, काश हमें मिल जाता ! अगर दांव लग जाता तो हम भी फीता काट रहे होते! 

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

मंगलवार, 6 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की पांच बाल कविताएं .....


1 गीतिका
 

 सब मिल हम सखियाँ बचपन की

 चल करते बतियाँ बचपन की

    

 बागों में चलकर फिर खाते

 वो खट्टी अमियाँ बचपन की

 

 छत पर उन तारों को  गिनकर

 बीते फिर रतियाँ बचपन की


  शादी हम जिसकी करवाते

  चल ढूँढे  गुड़िया बचपन की

 

  कच्चे उस आगंन में अब भी

  फुदके हैं चिड़ियाँ बचपन की


   नव जीवन के सपने देखें 

   चमके हैं अँखियाँ बचपन की


 2 दोहा गीतिका

 बच्चे हम माँ शारदे , करते तेरा ध्यान ।

जीवन- पथ पर तुम हमें  ,देती रहना ज्ञान ।।


 माँगें हम यह भारती, हो भारत का नाम ।

 फहरे झण्डा विश्व में, भारत की बन शान ।।


सभी रंग के फूल से , महके हर उद्यान ।

यही हमारी कामना , सब हो एक समान   ।।          

       

 रुके नहीं चलते चलें  , करें नहीं आराम ।

 धात्री के सम्मान का , रखना हमको मान ।।

      

   स्वप्न यही है ' प्रीति 'का, बेटी बनें महान ।

   उनसे ही तो है बढ़े , इस भारत की शान ।।


 3 गीतिका                                             

सैर इस आसमाँ की कराओ परी 

चाँद के पास जाकर सुलाओ परी ।।1।।


 है वहीं माँ , बतायें मुझे सब यही

 अब चलो आज माँ से मिलाओ परी ।।2।।


  तुम सुनाकर कहानी मुझे गोद में 

  नींद भी नैन में अब बुलाओ परी  ।।3।।

   

  झिलमिलाते सितारे कहें  हैं  मुझे

  ज़िंदगी में नया गीत गाओ परी ।।4।।


 सीख अब मैं गयी बात यह काम की

 फूल से तुम सदा मुस्कुराओ परी ।। 5।।


4 गुल्लक  

    बचपन की वह प्यारी गुल्लक 

    मिट्टी की थी न्यारी गुल्लक 


   चवन्नी अठन्नी जोड़ी जिसमें 

    मिलती नहीं हमारी गुल्लक


  चकाचौंध  की भेंट  चढ़  गईं,

   मेरी  और  तुम्हारी   गुल्लक।


  नहीं दिखतीं घर में किसी के

  कहाँ गईं  वह  सारी  गुल्लक।

    

5 मेरी माँ

कभी कड़वी कभी मीठी गोली सी मेरी माँ

प्यार अंदर भरा हुआ पर दिखती सख़्त है मेरी माँ

ममता की छांव में उसकी बड़े हुए हम

हम भाई बहनो का अभिमान है मेरी माँ

कभी.........

कड़ी धूप में चलना सिखाया

कठिनाइयों से लड़ना सिखाया

बात ग़लत पर चपत लगाती 

राह सच्ची पर चलना सिखाती है मेरी माँ

कभी........

उच्च शिक्षा प्राप्त किए वो 

पर अहंकार से बहुत दूर वो

हर पल चुनौतियों का सामना कर

आत्मविश्वास से भरी दिखती है मेरी माँ

कभी..........

न कभी सजते सँवरते देखा

न व्यर्थ बातों में समय व्यतीत करते देखा 

सादगी से भरी ममता की मूरत 

पूरे दिन हमारी फ़िक्र में

दिन रात मेहनत करती दिखती है मेरी माँ

कभी.....

कभी डाँट कर हमें वो अच्छा बुरा समझाती है

ये जीवन अमूल्य है

हर रोज़ यह बताती है

पथ पर क़दम न डगमगाए कभी

हर राह पर मेरे साथ खड़ी दिखती है मेरी माँ

कभी......

कभी गुरु बन वह मुझे मेरा रास्ता सुझाती है

कभी सखी बन मेरी हर बात बिन कहे समझ जाती है

कभी ईश्वर का रूप धर हर दुविधा में रास्ता बन जाती है

साहस अंदर भरा हुआ

हर विपदा से दूर मुझे कर देती है मेरी माँ

कभी.......

✍️ प्रीति चौधरी 

गजरौला, अमरोहा 

उत्तर प्रदेश, भारत 


मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद संभल) के साहित्यकार दीपक गोस्वामी विराग की पांच बाल कविताएं .....


 (1) माँ! मैं भी बन जाऊँ कन्हैया

माँ! मैं भी बन जाऊँ कन्हैया,

 मुरली मुझे दिला दे।

और मोर का पंख एक तू,

मेरे शीष सजा दे।


ग्वाल-बाल के साथ ओ! मैया,

मैं भी मधुबन जाऊँ।

प्यारी मम्मी! मुझको छोटी,

 गैया एक दिला दे।


यमुना तट पर मित्रों के सँग,

गेंद-तड़ी फिर खेलूँ।

मारूँ तक कर गेंद,ओ माता!

मुझे पड़े तो झेलूँ।


और कदंब के पेड़ों पर मैं,

पल भर में चढ़ जाऊँ।

कूद डाल से यमुना में फिर,

गोते खूब लगाऊँ।


ऊँची डाली पर बैठूँ मैं,

मुरली मधुर बजाऊँ।

मुरली मधुर बजा कर मैया,

गैया पास बुलाऊँ।


मैं फोड़ूँ माखन-मटकी भी,

माखन खूब चुराऊँ।

मेरे पीछे भागें गोपी,

उनको खूब भगाऊँ।

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(2) कोयल कहती मीठा बोलो

कोयल कहती मीठा बोलो, 

फूल कहें मुस्काओ। 

चिड़िया चूँ-चूँ करके बोले, 

शीघ्र सुबह उठ जाओ।

 

चींटी यह कहती है हमसे, 

श्रम की रोटी खाओ। 

कुत्ता भौं-भौं कर बतलाता,

 वफादार बन जाओ। 


नदी सिखाती चलते रहना,

 थक कर मत रुक जाना। 

पर्वत कहता तूफानों को,

 कभी न शीष झुकाना।


वृक्ष हमें फल देकर कहते,

 सदा भलाई करना। 

मधुमक्खी सिखलाती बच्चो!

 सदा संगठित रहना।

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(3) चांद और पृथ्वी में संबंध

अध्यापक जी ने कक्षा में, 

पूछा एक सवाल ।

चांद और पृथ्वी में संबंध,

बतलाओ तत्काल ।


सारे बच्चे थे भौचक्के, 

क्या है यह जंजाल। 

सर जी ने पूछा है हमसे, 

कैसा आज सवाल? 


सर जी मैं बतलाऊँ उत्तर,

 उठकर गप्पू बोला। 

कक्षा में तो आता नहीं तू,

 खबरदार मुँह खोला। 


सब बच्चों के कहने पर फिर,

 सर ने दे दिया मौका। 

देखो प्यारे गप्पू ने फिर, 

मारा  कैसे चौका।


चाँद और पृथ्वी का संबंध,

हमको दिया दिखाई। 

पृथ्वी तो है प्यारी बहना, 

और चांद है भाई। 


अध्यापक गुस्से में बोले- 

पूरी बात बताओ। 

भाई और बहन का रिश्ता,

 कैसे है समझाओ।


 गप्पू बोला मैं  बतलाता, 

ओ गुरुदेव! हमारे।

 समझाता हूँ सुनो ध्यान से,

 तुम भी बच्चों सारे। 


जब चंदा है अपना मामा,

धरती अपनी मैया।

फिर क्यों नहीं होगा धरती का,

 चंदा प्यारा भैया। 


फिर क्या था पूरी कक्षा ने 

खूब बजाई ताली। 

बड़ी शान से गप्पू जी ने, 

छाती खूब फुला ली।

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(4) बच्चों के मन भाता संडे

बच्चों के मन भाता संडे।

सबको बहुत लुभाता संडे।


 होमवर्क से मिलती छुट्टी,

 कितना रेस्ट कराता संडे। 


सिर्फ एक दिन मुख दिखलाता,

 फिर छ: दिन छुप जाता संडे।


 बच्चों को पिकनिक ले जाकर, 

खुद 'फन-डे' बन जाता संडे।


 घर में बनते कितने व्यंजन,

 नए-नए स्वाद चखाता संडे।


लेकिन प्यारी मम्मी जी का,

 काम बहुत बढ़वाता संडे।


 मुन्नी यों मम्मी से पूछे,

 रोज नहीं क्यों आता संडे।

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(5) नील गगन के प्यारे तारे!,

नील गगन के प्यारे तारे!,

 कितने सुंदर कितने न्यारे।

 आसमान में ऊँचे ऐसे।

 चमके हो हीरे के जैसे।


 चाँद तुम्हारे पापा शायद,

 साथ तुम्हारे आते हैं। 

शैतानी न करो कोई तुम, 

हर पल यह समझाते हैं।


 कितने भाई तुम्हारे हैं ये।

 एक ही जैसे दिखते हो।

 सोच-सोच हैरानी होती, 

नभ में कैसे टिकते हो। 


क्या तुम भी विद्यालय जाते?,

 किस कक्षा में पढ़ते हो? 

हम बच्चों के जैसे तुम भी,

 क्या आपस में लड़ते हो? 


ओ तारे! चमकीलापन यह

 तुमने कैसे पाया है? 

सच-सच बतलाना तुम भैया,

 किसने तुम्हें बनाया है?


✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग'

शिव बाबा सदन, कृष्णाकुंज

बहजोई (सम्भल) 244410

 उत्तर प्रदेश, भारत

मो. नं.- 9548812618

ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार के ग़जल संग्रह ' आओ! खुशी तलाश करें ' की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा......रश्मियाँ बिखेरतीं आशावादी ग़जलें

ग़ज़ल शब्द सुनते ही कानों में मिठास घुल जाती है और लगता है हम किसी  मनोरम स्थान पर झरने के नज़दीक एकांत में बैठकर प्रकृति की मधुर स्वर लहरियों में कहीं खो से गये हैं.ग़ज़ल  का हर शेर स्वयं में एक पूर्ण कविता, एक कहानी लिये होता है. इसी क्रम में   महानगर मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार जी का  ग़जल संग्रह ' आओ! खुशी तलाश करें 'मुरादाबाद की ग़ज़ल यात्रा में एक संगीत का दरिया बनकर प्रवाहित हुआ है.

आपके ग़ज़ल संग्रह   का शीर्षक ही 'आओ! खुशी तलाश करें ' जीवन से भरपूर  व आशावादी दृष्टिकोण लिए हुए पाठकों के  समक्ष  प्रस्तुत हुआ है.आपकी  ग़ज़लों ने परंपरागत शैली से हटकर मानव मन की पीड़ा को स्पर्श करते हुए, उस पीड़ा को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास किया है.   वस्तुतः आपके ग़ज़ल संग्रह की प्रथम ग़ज़ल  ही   सूर्य की प्रथम किरण की भाँति सकारात्मकता का सवेरा लिए  अवसादों के अँधियारों को धूल चटाने में सक्षम  प्रतीत होती है .  संग्रह   का शीर्षक ही 'आओ! खुशी तलाश करें ' जीवन से भरपूर  व आशावादी दृष्टिकोण लिए हुए पाठकों के  समक्ष  प्रस्तुत हुआ है.आपकी  ग़ज़लों ने परंपरागत शैली से हटकर मानव मन की पीड़ा को स्पर्श करते हुए, उस पीड़ा को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास किया है.   वस्तुतः आपके ग़ज़ल संग्रह की प्रथम ग़ज़ल  ही   सूर्य की प्रथम किरण की भाँति सकारात्मकता का सवेरा लिए  अवसादों के अँधियारों को धूल चटाने में सक्षम  प्रतीत होती है . चंद शेर देखिएगा.. 

" ग़मों के बीच से आओ खुशी तलाश करें

अँधेरे चीर के हम रोशनी तलाश करें

खुशी को अपनी लुटाकर खुशी तलाश करें

सभी के साथ में हम ज़िन्दगी तलाश करें"

एक अन्य ग़ज़ल के चंद शेर प्रस्तुत हैं

 "मैं गीत में वो सुखद भावनाएँ भर जाऊँ

कि छंद छंद में बनकर खुशी उतर जाऊँ

हटा सकूँ मैं रास्तों से सभी काँटों को

हर एक राह पे फूलों सा मैं बिखर जाऊँ"

आप के सहज, सरल और निश्चल हृदय की परिक्रमा करती एक अन्य ग़जल नि:संदेह  उच्च विचारों की गरिमा के परिधान पहने सामाजिक हितों व संस्कृति के चरण पखारती प्रतीत होती है.इस ग़ज़ल के चंद शेर मतले सहित बेहद शानदार बन पड़े हैं. यथा.

 "अरूण को सवेरे नमन कर रहा हूँ

मैं उन्नत स्वयं अपना तन कर रहा हूँ

लिखूँ मैं सदा जन हितों की ही बातें

विचारों का मैं संकलन कर रहा हूँ"

आपने अपनी ग़ज़लों को शिल्प के  कठोर बंधन में बांधकर भी मन के भावों के तन पर लेशमात्र भी खरोंच  नहीं आने दी है. आपकी कलम के अनुभवी दृष्टिकोण ने इंसानी स्वभाव का बहुत सधा हुआ मूल्यांकन भी किया है.और तंज भी किया है. आपकी ग़ज़लों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपने इस संग्रह में हिंदी के शुद्ध शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है . उर्दू के शब्दों के जबरन प्रयोग को आपने दरकिनार किया है.यह हिंदी  साहित्य के लिए एक सुखद  प्रयोग है  साथ ही नैतिकता के जिस शिखर को आपकी ग़ज़लों ने स्पर्श किया है वह विरले ही देखने को मिलता है. इस क्रम में कुछ शेर प्रस्तुत हैं

"सुख तो औरों को मिला लेकिन श्रमिक को वेदना

जबकि उसके श्रम  से सुख के पुष्प विकसित हो गए"


"किया है उसने किसी खल का अनुसरण मित्रों

कि जिससे बिगड़ा है उसका भी आचरण मित्रों"


  "बुरे समय में अगर किसी के जो भी साथ निभायेगा

खुशियाँ उसके पाँव छुएंगी वो हरदम मुस्काएगा.

कष्ट पड़े चाहे जितने भी मलिन नहीं साधु होगा

जैसे जैसे स्वर्ण तपेगा  और निखरता जायेगा"


"काम आए जो दूसरों के सदा

वो ही बड़े महान होते हैं

बढ़ती जाती है ज़िम्मेदारी भी

जबकि बच्चे जवान होते हैं"


"काम बन जाते हैं बिगड़े भी सरल व्यवहार से

मान जाते हैं बड़े रूठे हुए मनुहार से"

संघर्ष और मुश्किलों में भी सदैव मुस्कुराती आपकी गज़लें आज के आभासी युग में पाठकों के लिए और भी अधिक प्रेरणास्रोत बन जाती हैं, आपकी ग़ज़लों में महबूब की बेवफाई का रोना धोना नहीं है और न ही फालतू के शिकवा शिकायत हैं वरन्  प्रेम के सकारात्मक पहलू ही आपकी ग़जलों के आभूषण बने हैं.आपकी ग़ज़लें देश की फिक्र करती हैं तो आम आदमी की पीड़ा के साथ ही  महबूब से भी गुफ्तगू करती हैं. रुमानियत और खुरदरे धरातल दोनो का ख़याल  रखते  आपके अशआर अद्भुत हैं  एक बानगी देखिए.. 

"मिल जाए उनका प्यार तो खुशियाँ मिलें सभी

उनके करम के सामने टिकते हैं ग़म कहाँ"

और . . . 

"साथ तुम्हारे होने भर से

मंगल है मेरे जीवन में

मन में कसक रह गयी अबकी

भीग न पाए इस सावन में"

यथार्थ के धरातल पर उगे आम आदमी की पीड़ा के स्वर भी आपकी ग़ज़लों में बखूबी दिखते हैं.. 

"दिल लरजते  हैं सभी, महंगाई की रफ़्तार देख

होश खो देते हैं कितने आजकल बाज़ार देख"


"बैचेन किया है सबको रोज़ी के सवालों ने

तूफान उठाया है रोटी के निवालों ने"


"इस दौर में ये कौन सा कानून चल गया

जो रोजगार को भी यहाँ के निगल गया

पानी को पी के जिसके बुझाते थे प्यास सब

नाले में गंदगी के वो दरिया बदल गया"

आतंकवाद  पर भी आपकी कलम खूब चली है.. 

"नफरत को मुहब्बत मे बदलने नहीं देते

है कौन जो दुनिया को संभलने नहीं देते"

आपके भीतर का देश प्रेमी अपने अशआरके ज़रिए नौजवानों के हृदय में देश भक्ति की अलख  जगाने में भी सफल रहा है.. 

"जिसको वतन से प्यार है, अहले वतन से प्यार है

मेरी नज़र में दोस्तों! काबिले ऐतबार है"

"ज़ात, मज़हब, धर्म के झगड़े मिटाने के लिए

आओ सोचें बीच की दीवार ढाने के लिए "

 कहा जाता है कि आइना अपनी तरफ से कब बोलता है, इसी  क्रम में  सौम्यता और सादगी से परिपूर्ण और सबका हित चाहती आपकी ग़ज़लें देश, दुनिया, राजनीति, आम जनता और महबूब के मन के भावों को ही  परावर्तित करती प्रतीत होती है. समर्पण की भावना को लेकर प्रारंभ हुई आपके  इस ग़जल संग्रह की यात्रा  ,स्वर कोकिला कीर्ति शेष लता मंगेशकर जी को शब्दाजंलि पर आकर समाप्त होते हुए अपने साथ अनेक भावों को समेटकर पाठकों के हृदय के तट स्थल छोड़ देती है,अंत में आपको ग़ज़ल संग्रह की बधाई प्रेषित करते हुए, आपके ही एक शेर से अपनी बात समाप्त करती हूँ.

"दर्द की सबके लिए दिल में चुभन ज़िंदा रहे

मुझमें सबके दुख मिटाने की लगन ज़िंदा रहे."


कृति : आओ! खुशी तलाश करें (ग़ज़ल संग्रह)

रचनाकार : ओंकार सिंह 'ओंकार'

प्रकाशन : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष : 2022

मूल्य : 250₹

समीक्षक : मीनाक्षी ठाकुर

 मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 5 सितंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था " हिंदी साहित्य संगम" के तत्वावधान में ओंकार सिंह ओंकार के ग़ज़ल-संग्रह ‘आओ! खुशी तलाश करें’ का लोकार्पण समारोह एवं काव्य संध्या

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य संगम के तत्वावधान में वरिष्ठ ग़ज़लकार ओंकार सिंह ओंकार के ग़ज़ल-संग्रह ‘आओ! खुशी तलाश करें’ का लोकार्पण रविवार 4 सितंबर 2022 को मिलन विहार दिल्ली रोड मुरादाबाद स्थित मिलन धर्मशाला के सभागार में किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्था के अध्यक्ष रामदत्त द्विवेदी ने की, मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में गीतकार वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी एवं वरिष्ठ साहित्यकार योगेन्द्रपाल सिंह विश्नोई उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन कवि राजीव प्रखर द्वारा किया गया। 

      कार्यक्रम का आरंभ युवा कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ। इस अवसर पर लोकार्पित कृति- ‘आओ! खुशी तलाश करें’ से रचनापाठ करते हुए ग़ज़लकार ओंकार सिंह ओंकार ने गजलें सुनायीं- ग़मों के बीच में आओ खुशी तलाश करें/अँधेरे चीर के हम रोशनी तलाश करें/हटाके धूल, जमी है जो अपने रिश्तों पर/पुराने प्यार में हम ताज़गी तलाश करें

        कार्यक्रम अध्यक्ष रामदत्त द्विवेदी का कहना था - "ओंकार जी ज़मीन से जुड़े हुए रचनाकार हैं और यह बात उनकी रचनाओं में स्पष्ट परिलक्षित होती है।"

     वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने अपने विचार रखे - "आम जन मानस की भाषा में रची गई यह कृति निश्चित ही सभी के हृदय को स्पर्श करेगी।" 

      वरिष्ठ रचनाकार एवं पत्रकार डॉ. मनोज रस्तोगी का कहना था - "ओंकार सिंह ओंकार की ग़ज़लों में वही सादगी और सहजता के दर्शन होते हैं जो उनके व्यक्तित्व में हैं। वह संपूर्ण विश्व के कल्याण की कामना करते हैं और आह्वान करते हैं कि रिश्तों पर जमी धूल को हटाएं और बनावट की चकाचौंध में गुम हो गई खुशी को तलाश करें।"

      नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- ‘ओंकार जी की ग़ज़लें भी संवेदना की पगडंडियों पर चहलकदमी करती हुई जीवन-जगत के यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी ग़ज़लों की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों में आमजन की बात को आमजन की भाषा में ही बयाँ किया है।’

 वरिष्ठ गजलकार डाॅ. कृष्ण कुमार नाज़ के आलेख का वाचन किया गया- ‘ओंकार’ जी ने ‘आओ खुशी तलाश करें’ के माध्यम से आदमी से आदमी के बीच बढ़ती दूरी को कम करने का सफल प्रयास किया है। इस गजल-संग्रह का नाम ही हमें इस बात का पता देता है कि ओंकार जी में सबको साथ लेकर चलने की असीम क्षमता है। वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की उक्ति को अपनी रचनाधर्मिता का आधार बनाये हुए हैं।" 

इस अवसर पर मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा की ओर से ओंकार सिंह ओंकार को सम्मानित भी किया गया । सम्मान पत्र का वाचन योगेंद्र वर्मा व्योम ने किया ।

  कार्यक्रम में मीनाक्षी ठाकुर, अशोक विद्रोही, राजीव प्रखर, पूजा राणा,  रामसिंह निशंक, नकुल त्यागी, जितेन्द्र जौली, रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ, के.पी.सरल, विकास मुरादाबादी, इंदु रानी आदि ने कृति के संबंध में अपनी अभिव्यक्ति एवं काव्यपाठ किया। आभार-अभिव्यक्ति जितेन्द्र कुमार जौली ने प्रस्तुत की।
























-------- प्रस्तुति -------

राजीव प्रखर

कार्यकारी महासचिव

हिन्दी साहित्य संगम 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत