गुरुवार, 10 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का व्यंग्य .... लाल टमाटर


रसोई घर में खड़े -खड़े मैं अचानक ही अच्छे दिन के ख्यालों में खो गयीं, जब मेरे किचन में टमाटर सड़ते ..म...म..... मेरा मतलब है कि रखे रहते थे.

बीस रुपये किलो टमाटर खरीद -खरीद कर न जाने कितनी बार टमाटर की चटनी, साॅस थोक में बनाकर रखी है. रोज नये -नये व्यंजनों की खुश्बू से महकती रसोई को न जाने महँगाई डायन की कैसी नज़र लगी कि नालायक  टमाटरों को लेकर ऐसी  उड़ान  छल्ली बनी  कि नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है.

टमाटर की  चढ़ती रंगत और यौवन देखकर, घमंडी सेब -अनार तो पहले ही हीनभावना की झुर्रियों से ग्रसित होकर वृद्ध आश्रम की ओर रवाना हो चुके हैं.

उधर  रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन भोजन खा- खाकर बच्चों के मुँह उतरे हुए हैं, जिन्हें देख -देखकर कलेजा मुंँह को आ रहा है, कह रहे हैं कि हे माता जी !!आपने सावन के नाम पर सब्जी में प्याज तो पहले ही डालनी बंद कर दी थी, जीरा आठ सौ रुपये किलो बताकर सब्जी में जीरा भी नहीं डाल रहीं थीं . अब टमाटर भी बंद करके सब्जी की जीरो फिगर बना दी है.

 बार- बार ,चीख -चीखकर सवाल पूछ रहे हैं मुझसे, क्या है सब्जी  में ? लप्पू  सी सब्जी की झींगुर सी शक्ल है,इसे खायेगें हम !ऐसी सब्जी खिला-  खिलाकर हमें हीरो से जीरो  बना दिया है

उफ्फ़ ये मजबूरी !! एक एकअब इन्हें कौन समझाए  कि बेटा टमाटर के चक्कर में बजट ,कब से  घर के बाहर गेट पर ही  जीभ निकाले औंधे मुंँह पड़ा हुआ है.  हे सब्जियों के शंहशाह!, रंगबिरंगी चटनियों के  सम्राट , हे रक्ताभ ! हे !रक्त को बढ़ाने वाले.!...काहे... ?काहे गरीब का रक्त सुखाते हो? हे पिज़्ज़ा-  वर्गर की शान बढ़ाने वाले! हे !मोमोज  की नारंगी चटनी के स्वाद! !   देखिएगा !!..आपके बिना दम आलू  कैसे  बेदम होकर ज़मीन पर पड़ा अपनी अंतिम सांसे ले  रहा है, काजू -कोफ्ता आपके अभाव में अपने अस्तित्व  की रक्षा करते- करते,कब का वीरगति को   प्राप्त हो  चुका है.शाही -पनीर का शाही तख्त आपके सहारे के बिना अपने चारो पाये तुड़वाकर धड़ाम हो चुका है, गोभी- आलू को तो मानो लकवा ही मार गया और मुल्तानी छोले - चावल तो  आपके  वियोग मे  संभवतः मुल्तान को ही निकल लिये, काफी दिन से दिखाई  ही नहीं दिये.वैसे भी आजकल एक देश से दूसरे देश चोरी छिपे निकलने का नया  मौसम शुरू हो चुका है. हे सुंदर मुखड़े और खट्टे स्वाद वाले क्या  आपको ज्ञात नहीं कि दाल -मखनी  आपके  बिना वेंटिलेटर पर है और आलू- टमाटर की सदाबहार सब्जी तो मुझसे रूठकर ऐसी गयी है कि शायद अब  किसी भंडारे में ही जी भर कर मिलेगी वो भी अगर  बाँटने वाले ने पूड़ी पर रखकर  न दी तो....! वरना सारी सब्जी तो पूड़ी ही सोख लेंगीं.... !अरे जब भंडारा कर ही रहे हो तो क्यों दो चार थैली भर कर नहीं  देते लोगों को.! 

हे !सबसे बड़े महंगाई सम्मान से विभूषित, कमल के समान कांतिमान!!लाल टमाटर..!!.आपके बिना दाल -फ्राई का तड़का  लड़खड़ाते हुए अपनी अंतिम सांस तक आपको पुकारता रहा,परंतु  आपका कठोर हृदय फिर भी  नहीं पसीजा.  क्या तहरी के चावल, आलू,मटर -गोभी,   की चीखें भी आपको विचलित  नहीं कर सकीं ? आपके बिना वे किस प्रकार  दुर्गति को प्राप्त हुए ,  यह भी ज्ञात नहीं आपको?उन्हें क्या मालूम था कि आप जैसे सस्ते,हर मौसम में उपलब्ध  होने वाले ,अपनी औकात भूलकर सातवें आसमान पर जाकर ऐसा बैठ जायेगें  कि नीचे ही नहीं उतरेगें.    

टमाटरों की भारी किल्लत देखते हुए, कल  मैने अपनी दो चार पुरानी- धुरानी  कविताएँ, हिम्मत करके घर के बाहर बने  चबूतरे पर खड़े होकर  आते- जाते लोगों को सुनाने का   प्रयास भी किया ,मगर मजाल क्या ...!!किसी ने मेरी तरफ टमाटर उछालना तो दूर  ठीक से सुना भी नहीं मुझे ..., मूर्ख !!गैर साहित्यिक कहीं के...!! और तो और अपने हाथ की सब्जी का थैला दुबकाते हुए , नजरें नीची  किये चुपचाप मेरे सामने से ही निकल गये.. . !! अरे टमाटर  थैले में होते ,तभी  तो उछालते न  मेरी तरफ.....!!. कंगले कहीं के...!! हुँहहह... "

 हे सब्जियों की पवित्र आत्मा !!क्यों त्योहारों पर नाटक कर रहे हो, बात को समझो न टमाटर जी, अगर नीचे नहीं उतरे तो मेहमानों के सामने बहुत ज्यादा नाक कट जायेगी. अपनी दूर की बहनों लौकी- तोरई को देखो ज़रा... !!बेचारी कितनी सज्जन हैं, ज़रा भी भाव नहीं खातीं  कभी..!!और आज तक कभी नखरे भी नही किये उन्होंने ,..!!बेचारी हर परिस्थिति में शांत ही रहती हैं.और  बाज़ार में बैंगन के भुर्ते की आत्महत्या के बाद  तो आपके बिना बची -खुची सारी सब्जियांँ भी अज्ञात वास को चली गयीं हैं, तबसे यही लौकी तोरई रसोई घर में डटी हुई हैं.अभी टमाटर जी के चित्र के समक्ष यह  विनती चल ही रही थी कि  थी कि तभी बाहर से सब्जी वाले की आवाज आयी, 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

ले लो जिसकी जेब में माल

मैं दौड़कर गेट पर गयीं और  गेट की झिर्रियों में  टमाटरों के दिव्य दर्शन हेतु अपनी आँखें टिकायीं  ही थीं कि सब्जी वाले की पैनी निगाहें झिर्रियों को भेदते हुए, मेरी आंखों पर पड़ गयीं. उसने  कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए और ज़ोर से आवाज़ लगानी शुरू कर दी.. 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

कहाँ छुपे सारे कंगाल

मैं सकपकाकर पीछे हट गयीं.पता नहीं सब्जी वाला सब्जी बेच रहा था या जले पर नमक छिड़क रहा था,  खैर...!मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोकते हुए अंदर की ओर भागी और गुस्से में अपनी कविताओं की डायरी को  आग के हवाले कर दिया... "जाओ! दफ़ा हो जाओ!जब तुम टमाटर तक न ला सकीं तो पुरस्कार क्या खाक़ लाओगी*! और टमाटर वाले की आवाज़ दूर होती जा रही थी... टमाटर लाल, टमाटर लाल, कहाँ छुपे सारे कंगाल... ले लो जिसकी जेब में माल

✍️मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद

रविवार, 6 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार 6 अगस्त 2023 को आयोजित काव्य-गोष्ठी

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इण्टर कालेज में रविवार 6 अगस्त 2023 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। राम सिंह निःशंक जी द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरम्भ हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए रामदत्त द्विवेदी ने कहा .... 

चाहता मैं हूॅं मुझे पास में आने दीजै। 

एक हो जाउॅंगा बस साथ में रहने दीजै।

 मुख्य अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने सुनाया- 

अमन चैन का मैं हूॅं अब भी पुजारी,

 किसी आग का मैं शरारा नहीं हूॅं।

बहुत से तजुर्बे किए जिंदगी में,

मैं बेकार जीवन गुजारा नहीं हूॅं। 

 विशिष्ट अतिथि के रुप में राजीव सक्सेना ने सुनाया- 

सड़कों पर 

चौराहे पर‌ 

जीवन के दौराहे पर

 पल-पल बिकते 

हर जगह दिखते

काठ के लोग 

रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ ने कहा -

देशवासियों देशभक्ति चाहिए, 

देश पर मर मिटने वाला व्यक्ति चाहिए।

के०पी० सिंह 'सरल' ने सुनाया- 

ज्यों-ज्यों कद युवा बढ़ा, गये बदलते नाम। 

पल्लू से पल्टा हुए, अब हैं पल्टूराम।।

राम सिंह निःशंक ने सुनाया- 

गर्मी बड़ा बबाल है, जी का है जंजाल।

घर में ए.सी. है नहीं, इसका बहुत मलाल।

  योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने दोहे सुनाए-

 सही-ग़लत के पार है, सहनशक्ति का भाव। 

भूख सभी से पूछती, कब हैं आम चुनाव।। 

शहरों के हर स्वप्न पर, कैसे करें यक़ीन। 

उम्मीदों के गाँव हैं, जब तक सुविधाहीन।। 

कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर ने सुनाया- 

मेरी मीठे बेर से, इतनी ही फ़रियाद।

दे दे मुझको ढूंढ कर, शबरी युग सा स्वाद।।

जलते-जलते आस के, देकर रंग अनेक।

दीपक-माला कर गई, रजनी का अभिषेक।।

युवा कवि जितेन्द्र कुमार जौली ने सुनाया-

 देख मुसीबत घबराते हैं।

 वे पीछे ही रह जाते हैं।। 

जिसने मन में ठान लिया है;

 वे ही कुछ कर दिखलाते हैं। 

प्रशांत मिश्र ने सुनाया-

अपनों का आना सिर्फ हवा का झौंका है, 

चिता पर छोड़ आते समय कितनों ने रोका है।

 पदम बेचैन ने सुनाया- 

कब ऐसा होगा मेरा देश।

 न ही माफिया, न हत्यारे। 

प्यार परस्पर करेंगे सारे 

यही बुजुर्गों का सन्देश। 

 राशिद हुसैन ने सुनाया- 

जिंदा रहने को बहाना चाहिए,

 फिर वही मौसम पुराना चाहिए, 

गम को उसके भूल जाना चाहिए,

 दर्द हो तो मुस्कुराना चाहिए।
















मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के दस नवगीत


(1)

मुड़ गये जो रास्ते चुपचाप 

जंगल की तरफ ।


ले गये वे एक जीवित भीड़ 

दलदल की तरफ ।


आहटें होने लगीं सब 

चीख में तब्दील

 है टंगी सारे घरों में 

दर्द की कन्दील


मुड़ गया इतिहास फिर 

बीते हुये कल की तरफ ।


हैं खड़े कुछ लोग उस 

अंधे कुंये के पास 

रोज जिससे है निकलती

 एक फूली लाश


फैंक देते हैं उठाकर जिसे 

हलचल की तरफ ।


(2)

एक अराजक संशय में 

घिरे हुये हैं सब 

रंगों से, ध्वनियों से भरे हुये लोग । 


भरी-भरी आंखों से 

पेड़ को निहारते 

बार-बार रिश्तों का 

नाम ले पुकारते


आंधी में 

पत्तों से 

झरे हुए लोग ।


संवेदनशून्य हुई 

खाली आकृतियां 

आसपास घूम रहीं 

काली आकृतियाँ


बैठे हैं 

चिड़ियौ से

डरे हुए लोग ।


(3)


अक्सर हम

तनहा होते हैं जब 

एक प्रश्न बार-बार 

खुद को दुहराता है। 


पंजों में दाब कर 

हवा उड़ती 

जली हुई चमड़ी की गन्ध 

रोक नहीं पाते हैं उसे 

इत्र में डूबे 

रूमालों वाले ये 

अनगिन प्रतिबन्ध


कौन हमें 

चूल्हे की आंच में 

जिन्दा खरगोश सा पकाता है ।


अपनी ही 

आन्तरिक हिफाजत में 

हो जाते हैं हम सब कैद 

लट्ठे के थान सा 

धुला हुआ 

लगता आकाश यह सफेद


तेज आँच में 

सारी हड्डियाँ तड़कती हैं 

कौन इस तरह हमको

भीड़ में बजाता है ।


(4)


कुछ नहीं है, 

बाँझ सी यह हवा 

बैठी डाल पर टांगें हिलाती है।


एक कोई बात थी 

जो अभी कौवे के गले से 

फूट कर निकली 

कर रही है वह तभी से 

पत्तियों के कान में 

बारीक सी चुगली


पंख खोले धूप में कब से 

एक गौरैया नहाती है ।


बोलते कुछ भी नहीं है 

ताल के तट पर 

पड़े घोंघे 

न जाने किन खूंटियों के 

आसरे

पेड़ है : आकाश में

लटके हुए चोंगे 


एक मछली डूब कर गहरे 

फिर सतह पर लौट आती है।


(5)

मेरे भीतर एक अभंग 

जगाता है कोई


बतियाता है 

हल्के सुर में 

उठती जैसे 

ध्वनि नूपुर में 

मेरे अंग-अंग में बैठा 

गाता है कोई


अब अनहद का 

स्वर हूं केवल 

लगता स्वर ही 

स्वर हूं केवल 

स्वर के कपड़े लाकर मुझे 

पिन्हाता है कोई।


(6)


आसपास 

जंगली हवाएँ हैं,

 मैं हूँ।

पोर-पोर 

जलती समिधाएँ हैं 

मैं हूँ।


आड़े-तिरछे 

लगाव 

बनते आते 

स्वभाव 

सिर धुनतीं 

होठ की ऋचाएँ हैं

 मैं हूँ।


अगले घुटने 

मोड़े 

झाग उगलते 

घोड़े 

जबड़ों में 

कसती वल्गाएँ हैं 

मैं हूँ।


(7)

हम पसरती आग में 

जलते शहर हैं।


एक बिल्ली 

रात भर चक्कर 

लगाती है 

और दहशत 

जिस्म सारा 

नोच जाती है 


हम झुलसते हुए 

वारूदी सुरंगों के 

सफर हैं।


कल उगेंगे 

फूल बनकर हम 

जमीनों में, 

सोच को 

तब्दील करते 

फिर यकीनों में


आज तो 

ज्वालामुखी पर 

थरथराते हुए घर हैं।


(8)


घर न रह गए 

अब, घर जैसे 

जीवन के हरियालेपन पर 

उग आए हों 

बंजर जैसे।


रिश्तों की 

कोमल रचनाएँ 

हमको अधिक 

उदास बनाएँ


दादी वाली 

किस्सागोई 

शापग्रस्त है 

पत्थर जैसे।


बाहर हँसते 

भीतर रोते 

नींद उचटती 

सोते-सोते 


शब्द बने परिवार 

टूटकर 

बिखर रहे हैं 

अक्षर जैसे।


कोने-कोने 

लहू-लहू है 

जलते चमड़े की 

बदबू है


संज्ञाएँ उड़ रहीं

 हवा में 

चिड़ियों के 

टूटे पर जैसे।


(9)

खुद से खुद की 

बतियाहट 

हम, लगता भूल गए।


डूब गए हैं 

हम सब इतने 

दृश्य कथाओं में 

स्वर कोई भी 

बचा नहीं है 

शेष, हवाओं में 


भीतर के जल की 

आहट

 हम, लगता भूल गए।


रिश्तों वाली 

पारदर्शिता लगे 

कबंधों-सी 

शामें लगती हैं 

थकान से टूटे 

कंधों-सी


संवादों की 

गरमाहट 

हम, लगता भूल गए।


(10)


इस रेतीले मौसम में 

धारदार कोई तो हो


सिर से पाँवों तक 

नहला दे 

मूर्छित विश्वासों वाले पठार 

ढक जायें 

आकर हाथों से 

सहला दे 

पातहीन डालों की भीड़ में 

हरसिंगार कोई तो हो


उलझे बालों में 

कंघी जैसा 

फँसा रहे 

तार-तार सुलझाने तक 

खिंचा रहे 

क्षितिजों पर 

इन्द्रधनुष 

अगली ऋतु आने तक 

अपने में अपने को 

ढूँढता बार-बार

कोई तो हो। 


:::::प्रस्तुति::::;

 डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822


मुरादाबाद

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) की साहित्यकार डॉ मधु चतुर्वेदी का गीत ..दर्द के मन्त्र बाँचे!

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ऊँघती सी याद की दहलीज पर टिक शाम,

 दर्द के मन्त्र बाँचे!


क्योँ अचानक नेह ने करवट बदल कर।

तोड़ डालीं वर्जनायें सब मचल कर।।

 सुप्त मन के अतल में  विस्मृत हुआ सा नाम,

  दर्द के मन्त्र बाँचे!


भावनाओं ने भुला दीं वंचनायें।

कामना विधि से करे कुछ मंत्रणायें।

आस ऐसी बावरी है छोड़ कर हर काम,

 दर्द के मन्त्र बाँचे!


है उदित विश्वास का नूतन सवेरा।

क्योँ इसे घेरे कुशंका का अंधेरा।।

क्यों व्यथा गहरी बनाये फिर हृदय को धाम,

दर्द के मन्त्र बाँचे!


🎤✍️ डॉ. मधु चतुर्वेदी

गजरौला गैस एजेंसी चौपला,गजरौला

जिला अमरोहा 244235

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9837003888

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ......जमाना बदल गया

 


हरप्रसाद जी अपने पुत्र को कुछ इस प्रकार समझा रहे थे "बेटा! तुम बेकार ही ब्रांडेड जूतों का शोरूम या रेडीमेड कपड़ों का शोरूम खोलने की जिद पर अड़े हुए हो। मेरी तो यही राय है कि इंटर कॉलेज खोलकर मान्यता ले लो। इस समय सबसे अच्छा मुनाफे का काम यही है।"

         " पिताजी! मेरी शिक्षा क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मैंने रो-झींककर इंटर पास किया है। इंटर कॉलेज खोलते हुए क्या अच्छा लगेगा ?"-पुत्र रमेश ने बुझे हुए मन से अपने पिताजी को जवाब दिया ।

              " बेटा इसमें अच्छा-बुरा लगने की क्या बात है ? अध्यापक बनने के लिए योग्यता जरूरी है लेकिन विद्यालय खोलने के लिए किसी कानून में न्यूनतम योग्यता कहॉं लिखी हुई है? इंटर पास कर लिया, अच्छी बात है।फेल होकर भी खोल लेते तो कौन रोकने वाला था ? बात बिजनेस की है। मेरी बात को समझो। इंटर कॉलेज खोलने से ज्यादा मुनाफेदार काम दूसरा कोई नहीं है ।"

          लेकिन पिताजी! जूतों का शोरूम भी तो अच्छा रहेगा ?"- रमेश हार नहीं मान रहा था। वास्तव में उसकी दिलचस्पी स्कूल खोलने-चलाने में नहीं थी। पढ़ाई से हमेशा चार कोस दूर भागता रहा था। अब पढ़ने-पढ़ाने के झमेले में वह भला क्यों पड़ने लगा।

        " देखो बेटा! शोरूम खोलने के लिए तुम्हें मेन रोड पर बढ़िया-सी दुकान खरीदनी पड़ेगी। खर्च बहुत बड़ा होगा। ब्रांडेड कोई भी दुकान खोलो ! जूतों की, कपड़ों की, ज्वेलरी की, महंगे आइटम, दुकान में रखे हुए सामान की कीमत; यह सब धनराशि का जुगाड़ करना काफी मुश्किल बैठेगा। फिर यह भी है कि बिजनेस चले न चले। दूसरी तरफ इंटर कॉलेज खोलने के लिए हमारे पास जमीन ही जमीन है। उसी में से एक छोटी-सी जमीन पर खोल दिया जाएगा। जितने कमरे बनवाने जरूरी होंगे, बनवा लेंगे। धंधा चल निकलेगा तो काम को बढ़ाते रहेंगे।"- हर प्रसाद जी ने अपने पुत्र को योजना के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए तो रमेश को भी इंटर कॉलेज खोलने की योजना में दिलचस्पी होने लगी।

            " एक बात है पिताजी ! मैंने तो पढ़ा था कि विद्या दान का विषय है, व्यापार का नहीं है?"

                   पुत्र के मुख से यह बात सुनकर हरप्रसाद जी गंभीर हो गए। बोले " यह सब किताबों की बातें हैं। जो तुमने इंटर तक पढ़ा, उसे भूल जाओ। अब दुनिया को साक्षात देखो। विद्या दान का विषय नहीं है। विद्या पैसा कमाने या धंधे का विषय है। चारों तरफ मुंह उठा कर देखो ! इससे अच्छा बिजनेस कोई नहीं है। फिर इस क्षेत्र में कोई रोक-टोक भी तो नहीं है । जितनी चाहे फीस लो, जैसे चाहे खर्च करो।"

       " लेकिन सरकार का हस्तक्षेप भी तो कुछ होता होगा ?"

               - पुत्र के मुंह से सुनकर हरप्रसाद जी इस बार गंभीर नहीं हुए बल्कि खिलखिला कर हंसने लगे। उनकी हॅंसी में अट्टहास था। भयावहता और वीभत्सता थी। कहने लगे -"पचास-बावन साल से तो हम देख रहे हैं। धड़ाधड़ इंटर कॉलेज तो क्या डिग्री कालेज तक पैसा कमाने के लिए खुल रहे हैं। सरकार ने रत्ती-भर उन पर कोई नियंत्रण नहीं बिठाया।"

                 पिता की बातें सुनकर पुत्र आनंदित होकर बोला "जब पचास साल से इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज पैसा कमाने के लिए ही खुल रहे हैं और सरकार उनकी तरफ टेढ़ी आंख करके देखने का साहस नहीं कर पा रही है तो इससे अच्छा बिजनेस और क्या हो सकता है ? ठीक है पिताजी! आप अपनी जमीन के एक हिस्से पर इंटर कॉलेज खोलने की शुरुआत कीजिए । सचमुच आजादी के बाद के पिचहत्तर वर्षों में जमाना बदल गया"।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सराफा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 2 अगस्त 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की ग़ज़ल .... घर के बाहर तो बस ताले लग जाते हैं ....

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मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की ग़ज़ल ..... भला कौन नजर आ गया है ...

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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम का गीत .... तनिक कड़वाहट आंखों से आंचल तक आए

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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम का गीत ... किंतु पावन हूं

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सोमवार, 31 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित गुप्ता अंक के सात दोहे....


हिन्दी-उर्दू में चले, अगर अदब की बात

 प्रेमचन्द के नाम से,  ही होगी शुरुआत ।।1।।


परियों-जिन्नों से किया, कहानियों को मुक्त 

प्रेमचन्द ने सब रचा,निज अनुभव से युक्त ।।2।।


जो रचकर 'सोज़े-वतन', छेड़ दिया संग्राम

अंग्रेज़ों के भाल पर, बल पड़ गए तमाम ।।3।। 


इस समाज का हूबहू, गए चित्र वे खींच

अब भी 'होरी' मर रहे, घोर अभावों बीच ।।4।।


'होरी', 'घीसू', 'निर्मला', ये जो रचे चरित्र  

 इस समाज का वास्तविक, प्रस्तुत करते चित्र ।।5।। 


बापू जब आगे बढ़े, लेकर क्रांति-मशाल

खड़े हुए संग्राम में,  प्रेमचन्द तत्काल ।।6।।


प्रेमचन्द की ज़िन्दगी,  बीती बीच अभाव 

उनका मगर समाज पर,  गहरा पड़ा प्रभाव ।।7।।

✍️अंकित गुप्ता 'अंक'

सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज, 

लाइनपार, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल नंबर- 9759526650


मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से गाजियाबाद के नवगीतकार जगदीश पंकज के सम्मान में रविवार 30 जुलाई 2023 को काव्य गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' के तत्वावधान में गौड़ ग्रीशियस सोसाइटी, काँठ रोड, मुरादाबाद स्थित 'हरसिंगार' भवन में गाजियाबाद के नवगीतकार जगदीश पंकज के मुरादाबाद आगमन पर 30 जुलाई, 2023 रविवार को सम्मान समारोह का आयोजन किया गया जिसमें श्री जगदीश पंकज जी को अंगवस्त्र, प्रतीक चिन्ह, मानपत्र तथा श्रीफल भेंटकर "हस्ताक्षर नवगीत साधक सम्मान" से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रख्यात नवगीतकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने की। मुख्य अतिथि विख्यात व्यंग्य कवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी तथा विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम रहे।          काव्य गोष्ठी का शुभारंभ चर्चित दोहाकार श्री राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से हुआ।  यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने गीत पढ़ा-

 "नापती आकाश सारा पंख फैलाए, 

किन्तु धरती से अलग उड़कर कहाँ जाए, 

सोचकर यह घोंसले में लौट आती है। 

एक चिड़िया, धड़कनों में चहचहाती है।"

 विख्यात कवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी ने गीत प्रस्तुत किया- 

"नए सृजन पर असमंजस में,

 तुलसी सूर कबीरा। 

गान आज का गाने में सुन, 

दुखी हो उठी मीरा।

 देख निराला भी कह उठते, 

नव की नई शकल हो। 

कोशिश है खरपतवारों की, 

मटियामेट फ़सल हो।" 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम ने सुनाया- 

"भाव से मन को लुभाता है, 

दुसह पीड़ाएं जगाता है। 

विरह की देता व्यथा फिर भी, 

प्यार सुख का जन्मदाता है।"

 सम्मानित नवगीतकार के जगदीश पंकज ने सुनाया- 

"हंँसो स्वयं पर हंँसो कि हम सब जिंदा है। 

अपने-अपने सच को सभी संभाल रहे।" 

कवयित्री विशाखा तिवारी ने रचना प्रस्तुत की- 

"आज व्याकुल धरती ने 

पुकारा बादलों को।

 मेरी शिराओं की तरह 

बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं।"

कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की- 

"बीत गए कितने ही वर्ष ,

हाथों में लिए डिग्रियां, 

कितनी ही बार जलीं 

आशाओं की अर्थियां, 

आवेदन पत्र अब 

लगते तेज कटारों से।" 

 कवि योगेन्द्र वर्मा व्योम ने दोहे प्रस्तुत किये- 

"शहरों के हर स्वप्न पर, कैसे करें यक़ीन। 

उम्मीदों के गाँव हैं, जब तक सुविधाहीन। 

चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

 फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।" 

शायर  ज़िया ज़मीर ने ग़ज़ल पेश की- 

"घर के बाहर तो बस ताले लग जाते हैं, 

घर में लेकिन कितने जाले लग जाते हैं। 

उस चेहरे को छू लेता हूं रात में जब भी,

हाथों में दिन भर के उजाले लग जाते हैं।"  

राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए- 

"नीम तुम्हारी छांव में, आकर बरसों बाद। 

फिर से ताज़ा हो उठी, बाबूजी की याद। 

जलते-जलते आस के, देकर रंग अनेक। 

दीपक-माला कर गई, रजनी का अभिषेक।" 

कवि  राहुल शर्मा ने मुक्तक सुनाया-

 "चंद लम्हों की मुलाकात बुरी होती है। 

गर जियादा हो तो बरसात बुरी होती है। 

हर किसी को ये समझ लेते है अपने जैसा। 

अच्छे लोगों में यही बात बुरी होती है।" 

युवा कवि  प्रत्यक्ष देव त्यागी ने सुनाया- 

"परवान चढ़ेगी मोहब्बत, चार दिन के लिए।

 पूरी होगी ज़रूरत, चार दिन के लिए। 

हाथ पकड़कर बैठना, आंखों में आंखे डाल कर। 

फिर नाराज़ होगी किस्मत, चार दिन के लिए।"

 प्राप्ति गुप्ता ने भी एक कविता सुनाई। डॉ जगदीप भटनागर, शिखा रस्तोगी, माधुरी सिंह एवं अक्षरा ने विचार प्रस्तुत किये। कार्यक्रम का संचालन योगेन्द्र वर्मा व्योम ने किया। समीर तिवारी द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया ।























::::::प्रस्तुति::::::

योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

संयोजक- 

संस्था 'हस्ताक्षर'

मुरादाबाद

मोबाइल-9412805981

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ माधुरी सिंह की कविता ....चक्रव्यूह

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गुरुवार, 27 जुलाई 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' की ओर से यश भारती माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन शनिवार 22 जुलाई 2023 को पावस-गोष्ठी एवं सम्मान समारोह का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के तत्वावधान में गौड़ ग्रीशियस काँठ रोड, मुरादाबाद स्थित 'हरसिंगार' भवन में साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन एवं उनकी रचनाधर्मिता के सात दशक पूर्ण होने के अवसर पर पावस-गोष्ठी, संगीत संध्या एवं सम्मान समारोह का आयोजन किया गया जिसमें वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम को अंगवस्त्र, प्रतीक चिन्ह, मानपत्र, श्रीफल तथा सम्मान राशि भेंटकर "माहेश्वर तिवारी साहित्य सृजन सम्मान" से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता देहरादून निवासी देश के सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने की। मुख्य अतिथि विख्यात व्यंग्यकवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी रहे। कार्यक्रम का संचालन योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने किया।

   कार्यक्रम का शुभारंभ सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा बालसुंदरी तिवारी एवं उनकी संगीत छात्राओं- लिपिका सक्सेना, संस्कृति, प्राप्ति गुप्ता, सिमरन, आदया एवं तबला वादक लकी वर्मा द्वारा प्रस्तुत संगीतबद्ध सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात उनके द्वारा सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई- "बादल मेरे साथ चले हैं परछाई जैसे/सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे।" और- "याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे/जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे।"

     पावस गोष्ठी में यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने गीत पढ़ा- 

"आज गीत गाने का मन है, 

अपने को पाने का मन है।

अपनी चर्चा है फूलों में, 

जीना चाह रहा शूलों में, 

मौसम पर छाने का मन है।" 

सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने गीत प्रस्तुत किया- 

"प्यास हरे कोई घन बरसे,

 तुम बरसो या सावन बरसे, 

एक सहज विश्वास संजोकर, 

चातक ने व्रत ठान लिया है, 

अब चाहे नभ से स्वाती की,

 बूँद गिरे या पाहन बरसे।" 

विख्यात कवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी ने गीत प्रस्तुत किया- 

"उन गीतों में मिला महकता, 

इस माटी का चंदन, 

जिनका अपना ध्येय रहा है, 

सौंधी गंधों का वंदन।"

   वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय 'अनुपम' ने सुनाया-

 "राह कांँटों भरी थी सहल हो गई, 

चाह मेरी कुटी से महल हो गई,

 मैं झिझकता रहा बात कैसे करूं, 

आज उनकी तरफ़ से पहल हो गई।"

 मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज ने ग़ज़ल पेश की- 

"ज़िंदगी तेरे अगर क़र्ज़ चुकाने पड़ जाएं, 

अच्छे-अच्छों को यहां होश गंवाने पड़ जाएं, 

साफ़गोई है किसी अच्छे तअल्लुक़ की शर्त,

 वादे ऐसे भी न हों जो कि पुराने पड़ जाएं।"   

कवयित्री विशाखा तिवारी ने रचना प्रस्तुत की-

 "आज व्याकुल धरती ने 

पुकारा बादलों को। 

मेरी शिराओं की तरह 

बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं।" 

      वरिष्ठ ग़ज़लकार ओंकार सिंह 'ओंकार' ने सुनाया- 

"बारिश में सड़कें हुई हैं गड्‌ढों से युक्त। 

जाम लग रहे हर जगह वाहन सरकें सुस्त।

हरियाली फैला रही चहुंदिसि ही आनंद।

 बूँदों से हर खेत में, महक उठे है छंद।

      कवि वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी ने गीत सुनाया- 

"मुँह पर गिरकर बूँदों ने बतलाया है, 

देखो कैसे सावन घिरकर आया है। 

बौछारों से तन-मन ठंडा करने को,

डाल-डाल झूलों का मौसम आया है।" 

 कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने सुनाया- 

"कभी गरजते कभी बरसते,

रंग जमाते हैं बादल। 

सदियों से इस तृषित धरा का,

द्वार सजाते हैं बादल।" 

         कवि समीर तिवारी ने सुनाया-

 "बदल गया है गगन सारा,सितारों ने कहा।

 बदल गया है चमन हमसे बहारों ने कहा। 

वैसे मुर्दे है वही सिर्फ अर्थियां बदली। 

फ़क़ीर ने पास में आकर इशारों से कहा।"

कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की- 

"नहीं गूंजते हैं घरों में अब, 

सावन के गीत 

खत्म हो गई है अब, 

झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत

 नहीं होता अब हास परिहास, 

दिखता नहीं कहीं सावन का उल्लास।"

कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने पावस दोहे प्रस्तुत किये- 

"भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन।

अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात। 

चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात।"

" शायर ज़िया ज़मीर ने ग़ज़ल पेश की-

 "हमारे शहर में बादल घिरे हैं, तुम्हारे शहर में क्या हो रहा है। 

वो आंखें ऐसी भी प्यारी नहीं हैं,न जाने यह हमें क्या हो रहा है।" 

 दोहाकार राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए- 

"मीठी कजरी-भोजली, बल खाती बौछार। 

तीनों मिलकर कर रहीं, सावन का शृंगार।

 मानुष मन है अश्व सा, इच्छा एक लगाम।

 जिसने पकड़ी ठीक से, जीत लिया संग्राम।" 

कवि मनोज मनु ने गीत सुनाया-

 "रिमझिम बरखा आई, झूम रे मन मतवाले,

 काले काले बदरा घिर-घिर के आते हैं, 

अंजुरी में भर-भर के बूंद-बूंद लाते हैं,

 बूंद -बूंद भर देती खाली मन के प्याले, "

 प्रो ममता सिंह ने सुनाया- 

"मोरे जियरा में आग लगाय गयी रे, सावन की बदरिया।

 मोहिं सजना की याद दिलाय गयी रे, सावन की बदरिया।

 जब जब मौसम ले अंगडाई और चले बैरिनि पुरवाई। 

मोरी धानी चुनरिया उड़ाय गयी रे सावन की बदरिया।" 

    हेमा तिवारी भट्ट ने सुनाया-

 "बोया था रवि बीज मैंने, 

रात्रि की कोमल मृदा में, 

तम गहन ऊर्जा में ढलकर, 

अंकुरा देखो दिवस बन।" 

काशीपुर निवासी डॉ ऋचा पाठक ने सुनाया- 

"एक बदरिया आँखों में ही सूख गयी ज्यों न दिया। 

पकी फ़सल कैसे ढोये, अब सोचे हारा हरिया। 

बामन ने ये साल तो पर कै भला बताये रे।"

मयंक शर्मा ने सुनाया- 

"प्रिय ने कुंतल में बँधी खोली ऐसे डोर। 

मानो सावन की घटा घिर आई चहुँओर। 

बूँदों के तो घर गई एक रंग की धूप। 

लेकर निकली द्वार से इंद्रधनुष का रूप।"

संतोष रानी गुप्ता, माधुरी सिंह, डी पी सिंह एवं इं० उमाकांत गुप्त ने पावस के संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत किये। कार्यक्रम संयोजक आशा तिवारी एवं समीर तिवारी द्वारा आभार-अभिव्यक्ति प्रस्तुत की गई।