मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अंकन नवोदित साहित्यकार मंच के बैनर तले रविवार 19 मई 2024 को प्रताप सिंह हिन्दू गर्ल्स इंटर कॉलेज की प्रधानाचार्य सीमा शर्मा के लाजपतनगर स्थित आवास पर आयोजित कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण दयाल शर्मा को सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता रानी शर्मा ने की। वरिष्ठ बाल साहित्यकार राकेश चक्र विशिष्ट अतिथि रहे तथा डॉ. सीमा शर्मा, डॉ प्रीति हुँकार, इन्दु रानी और शुभम कश्यप अतिथि मंडल में रहे। कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्ज्वलन के बाद शुभम कश्यप द्वारा प्रस्तुत मां सरस्वती वंदना से हुआ।कार्यक्रम का संचालन राजीव प्रखर ने किया । इस अवसर पर सभी ने काव्य पाठ भी किया ।
दादू नहीं रहे। दादू मतलब माहेश्वर तिवारी। आत्मीयता के अमलतास, हार्दिकता के हरसिंगार और नवगीतों के गुलमोहर। मिलते तो मिल कर रह जाते। अपनी-अपनी राह लेते तो उनका व्यवहार साथ-साथ सफ़र करता। ऐसा लगता कि उनके उत्ताल अट्टहासों का वेताल आपको विक्रमादित्य बना रहा है। कितने ही आयोजनों में हम सहभागी हुए। वे समकालीन साहित्य की सबसे वरिष्ठ 'साहित्यिक पीढ़ी' के प्रतिनिधि थे और मैं सबसे कनिष्ठ पीढ़ी से, परन्तु उनका व्यवहार आपको अहसासे कमतरी का शिकार होने से सुरक्षित रखता था जबकि कितने ही कंकड़ों को स्वयं को सुमेरु साबित करने में हर समय और हर तरह लगे पायेंगे। कबाड़ियों के स्वयंभूय युगावतार घोषित होने के युग में वे सहज श्रद्धास्पद, सुखद संयोग और सरल स्वर थे। साहित्य में सहज रुचि और कवि सम्मेलनों में रहते हुए इतना जाना कि उनके जैसे स्वरों का बना रहना ज़रूरी है अन्यथा एक दिन स्टेज के टोटकों, टुच्चे टाइप चुटकुलों और दमित इच्छाकुओं के ठनठनाते ठुमकों को ही हम एक दिन कविता मान बैठेंगे। छान्दस् विरोधी लॉबी में खड़े होकर भी उनका अछान्दस् की अपेक्षा छान्दस् बने रहना एक अलग ही नॉस्टैल्जिक अनुभव है। उनके बारे में थोड़ा-बहुत जानता तो पहले ही से था पूज्य गुरुदेव प्रोफ़ेसर भगवानशरण भारद्वाज के माध्यम से, किन्तु भेंट हुई पीजी की ज़रूरी पढ़ाई पूरी कर लेने के पश्चात।
पहली बार सितम्बर २००५ में उन्हें रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में मिला, देखा, सुना और सुनते ही वे याद हो गये –
मेरे भीतर एक अभङ्ग जगाता है कोई
बतियाता है हल्के सुर में
उठती जैसे ध्वनि नूपुर में
अङ्ग-अङ्ग में बैठा जैसे गाता है कोई
अब नादों का घर हूँ केवल
लगता स्वर ही स्वर हूँ केवल
स्वर के कपड़े लाकर मुझे पिन्हाता है कोई।
तक़रीबन इतना और ऐसा ही रचते थे वे। सुनाने की स्टाइल उनकी कभी न बदली। जैसा और जितना मैंने जाना। सारी बह्रें, सारी रचनाएँ वे एक ही तरह, एक ही धुन, एक ही अदा में गा लेते थे। उनका वाचन और गायन लगभग एक जैसा था। कथित क्रान्तिकारियों की जमात में इतना अहिंस्र और ऐसा सेक्यूलर सर्जक शायद ही कोई हुआ हो। लिखते तो इतना नपा-तुला कि तुला को तोलना-टटोलना पड़ता। स्वच्छन्दतावादियों के बीच वे एक चैलेञ्ज थे। उनका व्यक्तिगत व्यवहार भी छान्दस था। यह मैं अब भी कह रहा हूँ और तब भी कह सकता था, जब मैं पहली बार उनसे मिला था। तब मैं अपने शोधकार्य के सिलसिले में कविसम्मेलन देखना चाहता था क्योंकि जो सिनॉप्सिस राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा के सम्बन्ध में मैंने अभ्यर्पण हेतु तैयार की थी, उसमें एक अध्याय था ही यही – मञ्च और हिन्दी सिनेमा। रामपुर भी इसीलिये गया था डॉ. ब्रजेन्द्र अवस्थी के साथ।
२००८-०९ की बात होगी। हमारे विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम समिति की प्रमुख थीं मञ्जरीजी – डॉ. मञ्जरी त्रिपाठी। बात आयी तो मैंने तमाम विधाओं के साथ नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल की बात रखी। शास्त्रीय चाल के कुछ पुराने लोगों में ऐसी विधाओं के प्रति प्रतीति तब तक क्या, अब तक भी कम ही है और फिर उनके सामने कल का छोकरा था, पर मेरे नैष्ठिक और तार्किक अनुरोध को उन्होंने समझा। उन्होंने कहा – कैसे होगा सामग्री का काम, तो मैंने कहा कि रुहेलखण्ड में ही ऐसे लोगों की कमी नहीं और इस तरह नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल के लिये रुहेलखण्ड एक तरह पैरामीटर हो गया और उस समय जिन चार लोगों की रचनाएँ तुरन्त हाथ से लिखकर पेश कीं, वे नाम थे – डॉ.माहेश्वर तिवारी, डॉ. कुँअर बेचैन, दुष्यन्त कुमार और उर्मिलेश। "मेरे भीतर एक अभङ्ग जगाता है कोई" रचना चयन हेतु प्रस्तुत उन रचनाओं में से एक थी। बाद में पाठ्यक्रम जब राजकमल से छप कर आया तो उनमें किसी की कृपा से नीरजजी का नाम भी था। यद्यपि पैरामीटर रुहेलखण्ड का तय था। एनईपी २०२० के पाठ्यक्रम प्रस्ताव में भी माहेश्वरजी का नाम था, जैसा मेरे संज्ञान में है। बाद में वह हुआ, नहीं हुआ, नहीं पता!
संस्मरणों के ज़खीरे थे वे – कभी भवानी दादा से शुरू होते तो कभी धर्मवीर भारती से, पर वे प्रायः असमाप्त होते थे। उनके समाहार का समय कभी न आया। अवाक् कर देने वाले और स्वयमेव बोल उठने वाले कितने ही अनसुने, अप्रत्याशित और अनसेंसर्ड संस्मरण उनसे सुनकर लिपिबद्ध किये जा सकते थे पर ईश्वर ने उतना और वैसा अवसर ही न दिया। हम अक्सर आकाशवाणी रामपुर में मिलते और तक़रीबन हर बार वही सीन क्रिएट होता – वे प्रोग्राम हेड या डायरेक्टर की टेबल के सामने संस्मरणों के आख्यान में समाधिस्थ होते और सब रह-रह कर हहा रहे होते। बीच-बीच में आने-जाने वाले लोग भी मौक़ा ए वारदात का रसाभास करते। उनका वारिष्ठ्य और उनका अपनत्व उन्हें अतिथिकक्ष से ऊपर उठा चुका था। उनके साथ आण्टी आतीं तो पूरी-पराठों के साथ चार तरह के अचार के चटखारे भी सभी में लगते। किसी गोपनीय कार्य के सिलसिले में हम एक समय जल्दी-जल्दी और कई-कई दिन साथ रहे। मैं उनसे दस तरह चुहलता या उनके अति मनभाये में से कुछ नॉटी टाइप पूछता तो आण्टी से कहते – तुम्हारा ये लड़का बड़ी रोचक दुष्टता करता है और फिर ख़ुद सब सुनाने लगते। आण्टी कहतीं कि कौन कम हो आप ही! तो टच्च से साइड ले कर उँगलियों में चिरपिराती पुड़िया से मसाला मुँह में डालने लगते। वार्तालाप में सामने वाले के बोलते वक़्त उनका टपकता निरीह कौतूहल भाँपने का विषय था। ख़ुद बोलते तो इतना सौम्य और सादा कि कोई अनुमान न पाये कि कब उनका ठहाका उनके कहे का राज़फ़ाश करने वाला है।
जानबूझकर ख़ूब लड़कपन करता था उनसे। बड़ा रस आता था। बड़ों के सामने स्वयं को बच्चा बनाये रखना चाहिए। वे होते तो मञ्च चलाते और आनन्द आता था। पहले झिझकता था थोड़ा पर फिर खुलता चला गया और वे भी इसलिये तैयार रहते थे कि अब बिखेरेगा ये रायता। हिन्दी ग़ज़ल वाले मनोजजी आर्य के कई कार्यक्रमों की ऐसी स्मृति है। ऐसे लोग संयोजन में उनकी प्राथमिकता रहते थे। वे ऐसे नहीं रहे, जिसमें केवल लिक्खाड़ों को ही मुख्यधारा का माना जाता है। उनका महत्त्व दोनों जगह रहा। दादू मञ्च पर होते तो नये रँगरूट की तरह सबमें रमते। पन्तजी जैसे केश और पैण्ट कुर्ते के साथ राजेश खन्ना वाले वेश में वे जब पानमसाला से शोभित अपने असमय पोपले मुख से मुस्कुराते या ठहाके लगाते तो वात्सल्य लुटाते लगते। अक्तूबर या नवम्बर २०१२ में जब रामपुर में आकाशवाणी के आमन्त्रित श्रोताओं के समक्ष आयोजन में किशन सरोजजी से न जाने किस झोंक में कुछ अशोभन-असहज हो गया और उनका निशाना सञ्चालक के नाते मैं बना, तब मेरी कसमसाती उग्रता और मनःस्थिति लखकर कितनी तरह और कई दिनों तक उन्होंने जितना समझाया, उससे उनके अभिभावकीय व्यक्तित्त्व की अनुभूति आज तक ऐसे अवसरों पर उनकी तरह होने की प्रेरणा देती है। उनकी सुनायी वे कहानियाँ कितनी रोचक थीं, जिन्होंने मुझे साधा।
मैं किसी भी पद्य, पद या गद्य को उनके ढङ्ग में गा लेता था और सबको सुनाकर मौज करता था। वे ख़ुद मज़े लेते थे। उनके एक गीत को लेकर मैं ख़ूब चुहल करता था और वे हर बार ठक्क से ठहाक उठते थे। उनका एक गीत है –
एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है
बेज़ुबान छत-दीवारों को घर कर देता है
ख़ाली शब्दों में आता है ऐसे अर्थ पिरोना
गीत बन गया-सा लगता है घर का कोना-कोना
एक तुम्हारा होना सपनों को स्वर देता है
आरोहों - अवरोहों से समझाने लगती हैं
तुमसे जुड़ कर चीज़ें भी बतियाने लगती हैं
एक तुम्हारा होना अपनापन भर देता है।
इसे वे हर बार अतिरिक्त सौम्यता, मधुरता और सरलता के साथ गुनगुनाते-गाते और रसार्द्र होते हुए सुनाते थे। मैं जब इसे धमकाने वाले अन्दाज़ और रौद्र रस में सुनाता तो वे ऐसी मुद्रा बनाते मानो सहम गये हों और फिर रसभीनी मुखमुद्रा के साथ अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में मस्त तरीक़े से मधुर-मधुर अट्टहासते। बेज़ुबान छत-दीवारों वाले अपने ऐसे दादू व्यक्तित्त्व से विगत बार २०२२ के अगस्त में मुरादाबाद में मिला था, जब जश्नेज़ुबाँ का आयोजन अनुज अभिनव अभिन्न ने रखा था और उसके ठीक अगले दिन किसी कॉलेज में अकस्मात अनायास भेंट हो गयी थी। तबसे अनेक बार इच्छा हुई उनसे मिलने की। मुरादाबाद से निकला भी, लेकिन समय ही न निकला और ऐसा न निकला कि अब निकले भी तो न निकलूँ। अस्तु, अलविदा दादू! अगर आपकी वैचारिकी में कहीं स्वर्ग का अस्तित्त्व है तो जाइए, ज़रा वहाँ के लोगों को भी बेहद गम्भीर अन्दाज़ में बात करके ठक्क से ठहाके लगाना सिखाइए।
15 सितंबर 2014 की शाम थी वो।शिव मिगलानी जी जो मुरादाबाद के प्रमुख व्यवसायियों में से एक हैं,सामाजिक तौर पर काफ़ी सक्रिय।उनके स्नेह की मैं सदा से पात्र रही हूँ।आज भी पार्किंसन की बीमारी से जूझते हुए अपने अस्थिर हाथों से फोन उठाकर कंपकपाती आवाज़ में मुझे मुरादाबाद आने का न्योता देना नहीं भूलते।ऐसे ही उस शाम उन्होंने मुझे याद किया 'एक शाम सोनरूपा के नाम' कार्यक्रम रखकर।जो मेरे गायन को दृष्टिगत रखकर रखा गया था। हमेशा से मेरा संगीत की ओर झुकाव रहा ही था।संगीत में ही शिक्षा भी ली।बाद में हिन्दी से पी. एच डी की।लेकिन 2010 से लेखन भी मेरे भीतर अंगड़ाइयां लेने लगा था।ये गंभीरता वाला था,इससे पहले बचपन वाला कविता प्रेम था मात्र।
उस कार्यक्रम के साथ मिगलानी जी ने सम्मान समारोह भी रखा था।कार्यक्रम के अध्यक्ष थे नवगीत के शिखर नामों में से एक आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी।विशिष्ट अतिथि थे प्रसिद्ध शायर आदरणीय मंसूर उस्मानी जी।
आज तक बहुत कम ऐसे मंच हुए हैं जिन पर अपनी प्रस्तुति को लेकर मैं शत प्रतिशत संतुष्ट हुई होऊँ।लेकिन उस दिन मैं भीतर से आह्लादित थी।श्रोताओं की प्रतिक्रिया तो थी ही अच्छी मुझे भी स्वयं महसूस हुआ कि सब ठीक था।सबकी प्रशंसा और फोटोज़ लेने इच्छा मुझे अभिभूत तो कर रही थी लेकिन सातवें आसमान पर पहुँचने वाला भाव न पनपा पा रही थी।मेरे ज़हन में ज़मीन जो रहती है।
कार्यक्रम के बाद सम्मान समारोह हुआ,उदबोधन,फोटो सेशन इत्यादि।तिवारी जी और उस्मानी जी से भी शाबाशी मिली।
इस सब के उपरान्त डिनर टेबल पर सौभाग्य से कुछ क्षण ऐसे मिले जिसमें मैं थी,माहेश्वर जी थे और ताई जी (माहेश्वर जी की पत्नी)।
माहेश्वर जी ने बहुत ही सौम्य स्वर में मुझसे कहा - बेटा ,एक बात कहूँ यदि बुरा न मानो।
मैंने कहा - जी ताऊ जी,बिल्कुल कहिये।
वो बोले - सोनरूपा कल ही 'सरस्वती सुमन' पत्रिका का डॉ. उर्मिलेश विशेषांक मुझे मिला है।तुम्हारी संपादन क्षमता ने मुझे बहुत प्रभावित किया और तुम्हारे सम्पादकीय ने भी।इधर यदा कदा पत्रिकाओं में भी तुम्हारे गीत और ग़ज़ल पढ़ता रहता हूँ।उसे देख मुझे लगता है तुम्हें लेखन ही पहचान देगा।संगीत नहीं।फिर अपनी पूरी परम्परा को भी तुम ध्यान में रखो।
'जी ताऊ जी।बिल्कुल।आपकी बात पर मैं सिर्फ विचार ही नहीं अमल भी करने की कोशिश करूँगी।' मैंने कहा।
तभी ताई जी ने एक छोटा सा वाक्य बोला -
'बेटा स्वर तुम्हारे बहुत पक्के हैं, आवाज़ भी मधुर।लेकिन ताऊ जी की बात पर ध्यान देना।'
दोनों ने मेरे सिर पर हाथ रखा और अपने लिए तैयार खड़ी गाड़ी में बैठ कर चले गये।
उस दिन मुरादाबाद से बदायूँ आते हुए मैं लगभग सारी बातों को भूल बस इसी बात को सोचती हुई घर तक आ गयी।
इस बीच मैंने उस शाम को भी दोहरा लिया जो पापा डॉ . उर्मिलेश के नवगीत संग्रह 'बाढ़ में डूबी नदी' के लोकार्पण के अवसर पर बदायूँ क्लब में सजी थी।लोकार्पण और संग्रह पर चर्चा के साथ-साथ पापा के गीतों को गाने का भी एक सेगमेंट रखा गया था।लोकार्पणकर्ता डॉ. माहेश्वर तिवारी थे।पापा और उनका बहुत घनिष्ठ संबंध रहा।
तब मेरे विवाह को लगभग दो तीन वर्ष हुए होंगे।उन दिनों थायरॉयड ने मुझे अपना घोर शिकार बनाया हुआ था।मेरी सधी आवाज़ अब काँपने लगी थी।साँस फूलती थी।वज़न 78 किलो पर पहुँच गया था।
पिता को बेटियां अपनी इन दुविधाओं से उस समय कब अवगत करवाती थीं।सो पापा का आदेश सिर माथे पर लिया मैंने कि तुम्हें भी मेरा एक गीत गाना है।
जैसा मुझे अंदेशा था वैसा ही हुआ।मैं पापा के सुंदर गीत के साथ बिल्कुल न्याय नहीं कर पाई।मेरे साथ ही बैठीं एक और गायिका जिन्होंने पापा की ग़ज़ल गायी थी ' उम्र की धूप चढ़ती रही और हम छटपटाते रहे ' बहुत मधुर गायी।एक थर्मस में वो अपने लिए गुनगुना पानी लाई थीं।जिसको देख मैं मन ही मन सोच रही थी कि देखो ये होता है अपने गले का ध्यान और अपने पैशन की कद्र।
अब कार्यक्रम अपने अंतिम पड़ाव पर था।माहेश्वर जी के हाथों हम सभी को स्मृति चिन्ह दिये जाने थे।
उस दो पल के समय में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा-बढ़िया गाया और मेहनत कर।
और जब सब याद आ ही रहा है तो मैं दैनिक जागरण के लिए नवगीतकार डॉ. योगेंद्र व्योम जी द्वारा माहेश्वर तिवारी जी का वो महत्वपूर्ण साक्षात्कार कैसे भूल सकती हूँ जिसमें उन्होंने तमाम प्रश्नों के उत्तरों में एक उत्तर गीत की बुनावट पर दिया है।।उनके गीत अधिकतर दो अंतरे के रहे।लेकिन उनका विस्तार असीमित था।शब्दों की मितव्यता उनके गीतों की ख़ासियत है।एक भी अतिरिक्त शब्द उनके गीतों में नहीं नज़र आता है।हर शब्द जैसे मोती सा जड़ा हुआ।बिम्ब अनूठे जो आसानी से कहीं पढ़ने में न आएं।ये साक्षात्कार आज भी मेरे संकलन में रखा हुआ है।
आज जब वो नहीं रहे तो पुन: ये सब स्मृतियाँ जीवंत हो उठी हैं।उसके बाद अनगित बार उनसे भेंट हुई।कई बार कवि सम्मेलनों के मंच पर भी।लेकिन अब ये सोनरूपा दो नावों में सवार नहीं थी।बस लिख ही रही थी वो।
उसने आईसीसीआर के इम्पेनल्ड आर्टिस्ट का रिन्युअल लेटर भी अब फाड़ कर फेंक दिया था।
मेरे गीत संग्रह के लोकार्पण पर भी आये वो।अब वो ठठा कर हँसते हुए कहते - ख़ूब लिख रही है अब।
'कोकिला कुल' किताब के उन्होंने कई लेखिकायें सुझाईं मुझे।
उनके घर का नाम हरसिंगार है।हरसिंगार जो मुझे बहुत प्रिय है उसी के चित्र से साथ स्मृतियों की ये ख़ुशबू आज पन्नों पर भी सहेज रही हूँ और यहाँ भी। दोपहर से लिखना शुरु किया अब शाम घिरने को है।सोच रही हूँ कि हमारे होने में कितने लोगों का होना शामिल होता है।
बाल पत्रिकाओं से शुरु हुआ मेरा किताबी सफ़र परिपक्वता के साहित्य प्रेम में बदल गया था।
प्रेमचंद से नई वाली हिंदी तक बहुत कुछ पढ़ा- जाना।समय- समय पर छपना- छपाना,पुरस्कार, सम्मान, पत्रिका संपादन आदि बहुत कुछ पर ठहरना भी हुआ।
लेकिन कुछ तो अपने काम की व्यस्तता ने धीमा रखा तो बहुत कुछ साहित्यिक दुनिया की अकथित परिभाषाओं ने असर डाला।
सालों के लंबे समय तक……
फिर मुरादाबाद आना हुआ। यहाँ भी उत्कृष्ट साहित्यिक पृष्ठभूमि थी, लोगों से परिचय तो हुआ लेकिन बढ़ाने की इच्छा नहीं हुई।
आदरणीय माहेश्वर बाबूजी को कौन नहीं जानता, ना भर पाने वाली तकलीफ़ के साथ बाँट रही हूँ कि मैं इस शहर में रहकर भी लंबे समय तक उनसे नहीं मिली थी।एक बार किसी कार्यक्रम में जब उनसे भेंट हुई ।तब उन्हें और क़रीब से जाना-
समझा। उनकी सरलता ने मुझ पर स्थायी प्रभाव छोड़ा था।सब उन्हें सम्मान के साथ दद्दा कह कर संबोधित कर रहे थे और वो अपने सादगी भरे अतुल्य व्यक्तित्व के साथ सभी से जुड़े थे।उनकी मधुर मुस्कान में मिले आशीर्वाद का सम्मोहन आख़िरकार मुझे उनके घर तक खींच ही ले गया।उस दिन उनके फ़ोन पर पता समझाने से लेकर स्वागत तक के अपनेपन ने ही मानो एक स्थायी संबंध का इशारा कर दिया था। कमरे में रखी सरस्वती माँ की मूर्ति और कई सारे पुरस्कार उनका पुनः परिचय देना चाह रहे थे लेकिन मुझे वहाँ कोई बड़ा साहित्यकार नहीं मिला, बल्कि एक स्नेहिल अम्मा- बाबूजी का साथ था। जिनके पास निश्छल प्रेम का एक ऐसा समंदर था जिसमें से मुझे भी अनमोल मोती मिलने वाले थे।वह दिन और आज का दिन , उनका स्नेहपाश आजीवन के लिए मुझे जकड़ चुका था।बीतते समय के साथ लगभग हर दूसरे -तीसरे दिन की बातों ने हमारे रिश्ते पर पड़े साहित्यिक शुरुआत के झीने आवरण को हटा कर पारिवारिक स्निग्धता से ढक दिया।
उन पति- पत्नी का प्रेम मित्रता के अनूठे स्वाद से भरा था । उनकी चुहल भरी बातें, एक दूसरे का ख़्याल, उपस्थित समय को मंदिर की घंटियों की झंकार जैसे गुंजायमान कर देता।
एक को फ़ोन करो तो वो दूसरे को ज़रूर थमा देता था, एक को मेसेज करो तो जवाब दूसरा देता। इसलिए
जल्दी ही मैंने हम तीनों का एक वाट्स एप ग्रुप बना दिया और उसका नाम रखा अम्मा- बाबूजी । उस दिन वो खिलखिला कर हंसे थे और बोले बिलकुल सही किया हमारी ‘बिट्टू ‘ने।इस संबोधन ने तो मुझे पचास छूती उम्र में भी घर की उस ठुनकती नन्ही बच्ची में बदल दिया जिसके पास ज़िद, दुलार, अधिकार और न जाने कितनी चीजों की अंतहीन सूची होती है और सब पूरी होती है।
जिस दिन वो अपने नए घर के एक कमरे को लाइब्रेरी में बदल रहे थे उस दिन उनके पास ढेरों बातें और एक मासूम उत्साह था ,तब क्या पता था कि जिस लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते हुए चाय पीना था वहाँ अब साथ होना भी आभासी है।
मुझे वापस लिखने- पढ़ने से उन्होंने ही जोड़ा।मेरे समूह और प्रयास की सराहना की,मेरी कविताओं - कहानियों को सुनते, मुझे सुझाव देते, साहित्य समर्पण के लिए प्रेरित करते, कभी अपना कोई गीत गाते या कभी अपना कोई संस्मरण सुनाते बाबूजी..
बातों - यादों का कोलाज़ बनाओ तो सब सीमित हो जाता है लेकिन जिए गए विस्तार को कुछ शब्दों में समेट लेना आसान है क्या?
मेरे लिये तो नहीं।
बाबू जी की गिरती तबियत ने सभी को बेचैन कर दिया था, इस बार जब उन्हें मिलने गई थी तो सुस्त से लेटे थे, मैंने कहा बाबूजी ,ये नहीं चल पाएगा, और सचमुच थोड़ी देर में ही वो उठे , बातें की और बोले अगली बार आओगी तो मैं चलता दिखाई दूँगा,
पर ऐसे चले जाना तो तय नहीं हुआ था।मेरे दिये करौली बाबा के लॉकेट को तकिये के नीचे रखते थे। मैंने कहा कि मन्नत माँगी है आपके ठीक होने पर फिर जाऊँगी, तो बोले -“मुझे ले चलोगी ना।” मैंने कहा- पहले पूरा ठीक होना पड़ेगा।
मैं बाबूजी को ले जाना चाहती थी!
मैं उन्हें ले जाना चाहती हूँ!…
अम्मा बताती हैं कि नवरात्रों में पूजा- पाठ को लेकर बाबूजी बहुत संवेदनशील रहते थे, इस बार भी उन्होंने हवन के लिए पूछा था लेकिन इस बार ख़ुद को ही समिधा होना चुन लिया।अंतिम विदा में भी उनके चेहरे की ओर देखने का साहस मुझसे नही हुआ,
लेकिन तब भी तमाम अधूरे वादों- इरादों की तीखी छुअन मेरी आँखों में चुभ गई है।
अंतिम दिन भी अम्मा को नवरात्रि का पाठ करते, सुनने वाले बाबूजी के बिना उनकी पूजा अब कभी पूरी हो पाएगी क्या?
इतने पास रहकर भी उनसे इतनी देर से मिल पाने का मलाल कभी मन से भुला पाऊँगी क्या?
एक झटके में पूरा जीवन एक प्रश्न बन जाता है, और हमारे पास कोई उत्तर नहीं होता।
जब तक गाड़ी मुड न जाए तब तक गेट पर खड़े रहने वाले बाबूजी क्या अब भी अपनी बिटिया को ऐसे विदा करेंगे!
अपनों से मिला दुःख बहुत बड़ा होता है, लेकिन बताने के लिए शब्द घट जाते हैं।जो उनसे मिला … जिया…उसे कहने- सुनने की अनुमति मुझे अब सिर्फ़ मन से मन तक ही महसूस हो रही है।
मेरे इस वाट्स एप ग्रुप की शून्यता मेरे अंतिम समय तक नहीं भर पाएगी।
संस्मरण बाँटना तो स्मृति का अंश भर है, लेकिन पीड़ा उम्र भर की स्मृति।
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सतीश कुमार गुप्ता फि़गार मुरादाबादी को याद करते हुए उर्दू साहित्य शोध केंद्र मुरादाबाद की ओर से रविवार 5 मई 2024 को आयोजित परिचर्चा में साहित्यकारों ने कहा सतीश फिगार का मुरादाबाद के उर्दू साहित्य में उल्लेखनीय योगदान रहा है।
दीवान का बाजार में आयोजित कार्यक्रम यादें सतीश फिगार का प्रारंभ उनके द्वारा लिखित हम्द (ईश वंदना) से मोहम्मद ज़हीन ने किया । कार्यक्रम संयोजक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने सतीश फिगार की शख्सियत और शायरी के हवाले से एक विस्तृत आलेख प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने फि़गार साहब की शायरी एवं उनकी रचना धर्मिता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि मुरादाबाद के साहित्यिक इतिहास में सतीश फ़िगार एकमात्र हिंदू शायर हैं जिनका नातिया काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। उनका निधन बीती 7 अप्रैल को हो गया था।
प्रख्यात शायर मंसूर उस्मानी ने सतीश फ़िगार की शायरी पर बात करते हुए बताया कि कुछ शायरों के दरमियान किसी बिंदु पर चर्चा हो रही थी, फिगार साहब ने उस में भाग लेना चाहा तो उनसे कहा गया कि आप शायर नहीं है, इस चर्चा में भाग नहीं ले सकते हैं। फिगार साहब ने उसी समय ठान लिया कि वह एक बड़ा शायर बनकर दिखाएंगे। अतः वह तत्कालीन प्रसिद्ध उस्ताद शायर शाहबाज अमरोही की खिदमत में पहुंच गए और उन्होंने उर्दू शायरी के छंद शास्त्र एवं व्याकरण में महारत हासिल की और मुरादाबाद के साहित्यिक पटल पर इस तरह छाए कि उन्होंने फिकरे जमील, ख्वाबे परेशान, अक्से जमाल, कौसर मिदहत और ख़लवत के अलावा देवनागरी में कसक और भीगे नयन जैसे संग्रहों से साहित्य को मालामाल किया।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा की फिगार साहब का जाना न सिर्फ उर्दू साहित्य की अपूरणीय क्षति है बल्कि हम लोगों का एक छायादार वृक्ष से वंचित हो जाना है। साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय के संस्थापक डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हालांकि उम्र के आखिरी पड़ाव पर फि़गार साहब ने सजल जैसी नई विधा में भी कहने की कोशिश की और उनके दो सजल संग्रह भी प्रकाशित हुए लेकिन वास्तव में वह ग़ज़ल के ही शायर थे। मुरादाबाद में जब-जब ग़ज़ल की बात होगी तो फि़गार साहब को भुलाया नहीं जा सकता। रघुराज सिंह निश्चल जी ने कहा कि फ़िगार साहब मेरे बहुत करीबी मित्र थे उन्होंने अपनी सारी जिंदगी उर्दू साहित्य की सेवा में लगा दी। सैयद मोहम्मद हाशिम कुद्दूसी ने कहा कि फ़िगार साहब सादा मिज़ाज और साफ कहने वाले इंसान थे, तकल्लुफ, बनावट और दिखावा ना तो उनकी ज़िंदगी में था और ना ही उनकी ग़ज़लों में नजर आता है। वह जो कुछ कहते थे साफ-साफ कहते थे। असद मौलाई ने कहा कि फिगार साहब मेरे पिता राहत मौलाई साहब के पास आते और घंटों शेरो शायरी पर गुफ्तगू करते थे। उनके दुनिया से जाने पर निश्चित तौर पर मुरादाबाद के साहित्य में एक बड़ा स्थान रिक्त हो गया है। इस अवसर पर डॉ मुजाहिद फ़राज़, इंजीनियर फरहत अली खान और ज़िया ज़मीर एडवोकेट ने भी विचार व्यक्त किए । उर्दू साहित्य शोध केंद्र के संस्थापक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने सभी मेहमानों का धन्यवाद ज्ञापित किया।