अंग्रेज़ी के एक बहुत बड़े कवि पी. बी. शैली ने भावों की अभिव्यक्ति के संदर्भ में एक जुमला दिया था कि "हमारे मधुरतम गीत वे होते हैं जो विचारों की अथाह गहराइयों से उपजते हैं ।"
एहसास की मिट्टी में जब शब्दों का बीजारोपण किया जाता है तभी डॉ. मीना नक़वी जैसा 'सायबान' 'दर्द पतझड़ का' झेलकर भी उफ़ुक़ पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है । उनकी शाइरी 'किरचियाँ दर्द की' हैं; जिनका फैलाव इन्द्रधनुषी है । यह शाइरी विरोधी तेवरों को भी उस शिद्दत से ओढ़ती है कि शाइरी की रूह भी ज़ख़्मी नहीं होती, शब्द अपनी लक्ष्मण-रेखा भी नहीं लाँघते; किंतु फिर भी लक्षितों को असहनीय तपिश भी महसूस होती है ।
भाषा को विशुद्ध संयमित रखते हुए भी वे जितने प्रभाव से अपनी बात कहती हैं; इससे सहज ही उनके मे'यार का पता चलता है । डॉ. मीना नक़वी बदलते हुए मानवीय संबंधों के प्रतिमानों के बारे में कह उठती हैं —
"इसलिये तेरे तअल्लुक़ से हैं हम सहमे हुये
इब्तेदा से पहले हम को फ़िक्र है अंजाम की"
कोई भी तख़्लीक़ तब तक मुकम्मल नहीं कही जा सकती जब तक उसमें फ़िलैन्थ्रॉपी (मानवप्रेम) का समावेश न हो । मीना नक़वी समाज में व्याप्त वैमनस्यता को यकजह्ती से 'रिप्लेस' करना चाहती हैं । वे आपसी सौहार्द्र की हिमायती हैं—
"है अज़ां अल्लाह की और आरती है राम की
गूँज है दोनों में लेकिन प्यार के पैग़ाम की“
'लव इज़ दि इटर्नल एंड अल्टिमेट ट्रूथ' अर्थात् प्रेम को शाश्वत मानते हुए वे क्या ख़ूब रक़म करती हैं—
"प्रेम की मदिरा से भर दो, मन के आँगन का कलश
सच ये है क़ीमत नहीं होती है ख़ाली जाम की"
शिल्प के मुआमले में भी डॉ. मीना नक़वी एक बेहतरीन शाइरा हैं । ग़ज़ल तो उनकी मूल विधा है ही, इसके अलावा गीत, दोहे, मुक्तकों के सृजन में भी वे परिणत हैं । ग़ज़लों के प्रवाह व प्रभाव की कसौटी पर वे किस क़दर खरी उतरती हैं इसकी बानगी उनकी रदीफ़ और क़ाफ़ियों की बेहतरीन जुगलबंदी से मिलती है । रवानी के हवाले से एक उदाहरण द्रष्टव्य है—
"पता है हम को कि उसकी आँखों, में भावनाओं का जल नहीं है
इसीलिये प्रेम की दिशा में , हमारी कोशिश सफल नहीं है“
लगभग सभी प्रचलित बह्रों में उन्होंने अपना क़लम आज़माया है । बड़ी बह्रें सामान्य व स्वाभाविक रूप से प्रयोग में लाने में कम दुष्कर मानी जाती हैं जबकि छोटी बह्रों में यदि बात को प्रभावी ढंग से पहुँचाना हो तो यह हाथी का पाँव है । डॉ. मीना नक़वी इस इम्तिहान में भी अव्वल आती हैं—
"दिल का रिश्ता ख़त्म हुआ
दर्द पुराना ख़त्म हुआ
उसने नाता तोड़ लिया
एक सहारा ख़त्म हुआ
लम्हे भर की तल्खी़ से
रब्त पुराना ख़त्म हुआ"
और
"रुत में है कैसी सरगम
आँखें हैं पुरनम पुरनम
आँधी ने क्या ज़ुल्म किया
शाख़ें करती हैं मातम
उसके आने की आशा।
शम्अ की लौ मद्धम मद्धम
दस्तक आहट कुछ भी नहीं
फ़िर भी एक गुमाँ पैहम"
डॉ. नक़वी की शायरी फ़लसफ़ियाना सोच से मुज़य्यन है । वे तसव्वुफ़ की भी बात करती हैं और ऐस्थेटिक सेंस भी लिए रखती हैं । वे तशबीह(दृष्टांत) भी देती हैं और ज़िंदगी के 'यूनिवर्सल ट्रुथ' के प्रति सचेत भी करती हैं—
"आएगी एक दिन ज़ईफ़ी भी
सोचता कौन है जवानी में"
"उस से मिलते ही बात जान गये
हम नमक रख चुके है पानी में"
इश्क़े-मजाज़ी के साथ-साथ वे 'चरैवेति-चरैवेति' का कॉन्गलोमरेशन(सघन मिश्रण) भी बनाती हैं—
"मंज़िल नहीं मिल सकती कि तू साथ नहीं है
हो बाद-ए-मुखा़लिफ़*(विपरीत हवा), तो दिया कैसे जलेगा"
'पाषाण', 'तरल', 'पटल', 'विटप', 'वेग', 'अधर' जैसे तत्सम शब्दों का स्थानानुरूप और लयबद्ध इस्तेमाल वे जिस तरह करती हैं; उससे देवनागरी के उनके विपुल भण्डार की भी सहज जानकारी मिलती है । जैसा पहले ही उल्लेख किया गया है कि डॉ. मीना नक़वी हिन्दी और उर्दू दोनों की मुख़्तलिफ़ तसानीफ़ में बराबर अधिकार रखती हैं । वे गीतों में भी वही असरपज़ीरी ला पाने में सक्षम हैं जो कि उनकी ग़ज़लों में झलकती है । उनके गीत श्रृंगार के रस में तो पगे हुए लगते ही हैं, साथ ही; उम्मीदों के वन में कलोल करते हुए हिरणों की तरह मासूम भी हैं ।
पी. बी. शैली अपने एक ओड में कहते हैं, "ओ विंड! व्हेन विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बि फ़ार बिहाइंड?" डॉ. मीना नक़वी ने भी अपने गीतों में इसी प्रकार की सकारात्मकता के बंदनवार लटकाए हैं और आशा का स्वागत किया है—
"संध्या ने उजियार बुना है, दीप जले , तो सुन लेना।
मैने , प्रिय..! इक गीत लिखा है समय मिले तो सुन लेना"
प्रस्तुत गीत भाव, छन्द और शिल्प की दृष्टि से एक श्रेष्ठ गीत है और डॉ. मीना नक़वी के गीतों के ज़ख़ीरे में जमा' सुंदर रत्नों की नुमाइंदगी करता है । इस गीत की ही "अंगनाई में यादों की जब बर्फ़ गले तो सुन लेना" पंक्ति में 'यादों की बर्फ़' का सुंदर प्रयोग हुआ है; जोकि गीत में विशिष्टता पैदा करता है । मैस्कुलिज़्म, पैट्रिआर्कल सोच से ग्रस्त तथाकथित एमसीपी समाज को ताक़ीद करते हुए वे अपनी दोहानुमा ग़ज़ल में क्या ख़ूब कटाक्ष करती हैं—
"मनसा वाचा कर्मणा मानव है वह दीन
महिला के किरदार पर जिसकी भाषा हीन"
इस प्रकार, डॉ. मीना नक़वी हिंदी-उर्दू अदब का वह नाम है; जिसके बिना दोनों ही भाषाओं में किसी भी तहरीर की कल्पना नहीं की जा सकती । उनकी ग़ज़लें दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रूई के फाहे की तरह हैं तो वहीं उनके गीत आशा का उजास बिखेरते 'हारबिंजर' हैं । अपने निजी जीवन में वे जिन विकट स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हैं; उसके बावजूद उनका सतत्, विराट एवं उत्कृष्ट लेखन नई पीढ़ी के लिए निश्चित ही प्रेरणादायी है ।
✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'
सूर्य नगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज लाइनपार
मुरादाबाद 244001
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