ख़ास पुरानी बात नहीं है
सपनों की नाज़ुक टहनी पर
इक आशा का फूल खिला था
उसकी ज़्यादा उम्र नहीं थी
खिलते खिलते सूख गया था
उम्मीदों के पंख जले थे
दिल भी ग़म में डूब गए थे
उड़ने में कुछ देर हुई थी
पर मन में विश्वास प्रबल था
चंदा मामा दूर नहीं हैं
जल्दी उनकी गोद में होंगे
और लो, वक़्त नहीं बीता है
जीत फुदक कर पास आई है
रक्षा पर्व को भारत माँ ने
भाई का घर ढूँढ लिया है
माँ थाली में दिखला देती
पर तुमको छूने का मन था
अब सपना साकार हुआ है
बंद सिरे खुलने वाले हैं
सदियों से जो राज़ दबे हैं
उनसे पर्दा जल्द उठेगा
सब हिन्दी तुमसे पूछेंगे
क्यों इतने उखड़े रहते हो
खोज निकालेंगे उसको भी
तुम पर जो इक दाग़ लगा है
आज तुम्हारे पहलू में हम
अपने बचपन को ढूँढेंगे
कात रही हो सूत अभी भी
शायद वो बुढ़िया मिल जाए
✍️अंकित गुप्ता 'अंक'
सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज,
लाइनपार, मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
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