मंगलवार, 27 अगस्त 2024

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का आत्मकथात्मक संस्मरण.... नारियल के खोल में छलांग मारती संवेदना


जुलाई का महीना था स्कूलों में पढ़ाई चालू हो गई थी.  मैं जिस कक्षा में था उसमें कामर्स के टीचर श्री के.के.गुप्ता जी बड़ी ही तल्लीनता से पढ़ा रहे थे. मैं सबसे आगे की सीट पर बैठा था.  मैं क्योंकि अन्य विद्यार्थियों के मुकाबले क़द में कुछ छोटा था इसलिए मुझे आगे की सीट मिली थी और ‘बाई चांस’  यह वह सीट थी जो टीचर के एक दम सामने की थी.  टीचर ज़रा सा हाथ बढ़ा दें तो उनका हाथ मेरे गाल पर झांपड़ के नाम से आसानी से अलंकृत हो सकता था.  गुप्ता जी  बहुत ही अच्छा पढ़ाते थे. पढ़ाते समय उनकी तल्लीनता किसी भी साधक से कम नही थी.  अचानक ही पढ़ाते-पढ़ाते उनकी तल्लीनता तब टूटी जब उनकी गहरी नज़र मुझ पर पड़ी और कुछ देर तक ठहरी रही . फिर  वे अचानक ही मुझ पर गुस्सा होते हुए और लगभग चीखने के स्वर में बोले ---‘कुंअर बहादुर, तुम बहुत गंदे कपडे़ पहनकर आये हो.  इतने बड़े हो गए हो, नवीं क्लास में हो, तुम्हें इतनी समझ नहीं है कि इतने गंदे कपडे़ पहनकर स्कूल नहीं आया जाता.’.... 

मैंने सजग होकर अपने कपड़ों की ओर देखा, सचमुच वे बहुत ही गंदे थे. मैं आपको बता नहीं सकता कि उस वक्त मैं अपने कपड़ों को देखकर कितना शर्मिंदा हुआ था.  गुप्ता जी ने मुझे मेरे कपड़ों को लेकर इतना डांटा, इतना डांटा कि मैं भीतर-भीतर रो उठा था. मेरी हिचकी बंध गई थी.... मुझे लगा कि मैं कक्षा में ही जोर से रो पडूंगा, अतः मैंने क्लास से बाहर जाना ही उचित समझा. मैं झट  से अपनी सीट से उठा और क्लास से बाहर चला गया. क्लास के सभी लड़कों ने मुझे जाते हुए देखा,  मेरा मुंह नीचे को लटका हुआ था और आँखें भीगी हुई थीं. श्री गुप्ता जी भी हक्के-बक्के से रह गए थे….. 

 अचानक पीछे की सीट से एक लड़का खड़ा हुआ और टीचर जी को संबोधित करते हुए बोला---‘गुरु जी, आपने कुंअर को डाटकर अच्छा नहीं किया. यह मेरा पक्का दोस्त है. हम लोग साथ-साथ ही स्कूल आते हैं और साथ-साथ ही घर लौटते हैं. बहुत मेल-जोल है हमारा ...  वह  कहता जा रहा था--‘गुरु जी, आपको नही पता कि कुंअर बिना माँ-बाप का लड़का है.  उसके पिता जी तब नही रहे थे जब ये दो महीने का था,  माँ तब नहीं रही थीं जब ये सात साल का था.  जीजी और जीजा जी के यहाँ तब आ गया था जब यह दो साल का था.  अब चार साल पहले इसकी बहन की भी मृत्यु हो गई. अब केवल यह और  जीजा जी ही साथ-साथ रहते हैं. घर में कोई महिला नहीं है. ये खुद ही खाना बनाता है. बहुत कठिनाई में रहकर मेहनत से पढ़ रहा है. आठवीं कक्षा  मिडिल स्कूल से पास की है और फर्स्ट डिवीजन पास हुआ है..... 

यह लंबा लड़का मेरा दोस्त बिजेंद्र ही था जिसकी झिझक खुली हुई थी. मैं बहुत संकोची था. वह श्री के.के.गुप्ता जी से कहता जा रहा था. –‘मास्टर जी इसके पास दो जोडी कपडे हैं. एक जोड़ी धोकर अगले दिन के लिए तैयार कर लेता है. अब कई दिनों से बारिश हो रही है तो दूसरी जोड़ी वाले कपडे सूखे नहीं थे. इसे स्वयं संकोच भी था किन्तु स्कूल का नागा भी तो नहीं करना चाहता था....

मेरा यह दोस्त मेरे बारे में सब कुछ सच ही बोल रहा था..... 


 सचमुच जब प्रथम श्रेणी में मिडिल पास कर लेने के बाद अपने शहर चंदौसी के मिडिल स्कूल को छोड़ना पड़ा था तो मैं बहुत दुखी  हुआ था.... मगर यह स्कूल तो मुझे छोड़ना ही था क्योंकि यह तो था ही आठवीं क्लास तक.  उन दिनों हमारे शहर चंदौसी में जिस हाई स्कूल का बहुत नाम था वह था  बारह्सैनी हाई स्कूल.  अब तो इसका नाम चंदौसी इंटर कालिज हो गया है.  जब हम पढ़ते थे तो यह दसवीं क्लास तक था  श्री एस आर अत्री प्रिंसिपल थे . अब बारहवीं क्लास तक है.  इस स्कूल की  पढाई और इसका रिजल्ट अन्य सभी स्कूलों के मुकाबले सबसे अच्छा रहता था.  मेरे जीजा जी श्री जंगबहादुर सक्सेना जी का मन था कि मेरा एडमीशन इसी स्कूल में हो.   उन दिनों इस स्कूल में नवीं कक्षा में एडमीशन मुश्किल से ही मिलता था.  क्योंकि इस स्कूल के छठी कक्षा से पढने वाले विद्यार्थी जब आठवीं से नवीं कक्षा में आते थे तो नवीं कक्षा की सब सीटें भरी होती थीं.  अतः दूसरे स्कूल के नए विद्यार्थियों को प्रवेश मिलने में कठिनाई होती थी.  हाँ, आठवीं कक्षा में यदि कुछ लड़के फेल हो जाते थे और उनको नवीं कक्षा में एडमिशन नहीं मिलता था तो जो उनकी जगह खाली हो जाती थी. उसी खाली जगह को दूसरे स्कूल के विद्यार्थियों का एडमिशन करके भर लिया जाता था.  उस साल आठवीँ कक्षा में कई लड़के फेल हो गए थे इसलिए मुझे और मेरे दोस्त बिजेंद्र को एडमिशन मिल गया.  बिजेंद्र और मेरा दोस्ताना मिडिल स्कूल से ही था.  मेरी और उसकी दोस्ती का मूल आधार हमारे अभाव ही थे.  उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसकी माँ बच्चों की परवरिश करने के लिए दूसरों के घरों में रोटी बनाकर अपना घर चलाती थीं.  मैं भी बिना माँ-बाप का लड़का था और जीजा जी द्वारा पालित पोषित था . बहरहाल मेरा और मेरे दोस्त बिजेंद्र का एडमिशन इस स्कूल में हो गया. ...

 उन दिनों नवीं कक्षा से ही. साइंस, आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता था. जो संपन्न घर के बच्चे होते थे वे साइंस साइड लेते थे क्योंकि उनके माता-पिता का लक्ष्य अपने बच्चे को डाक्टर बनाना होता था., जो बिलकुल सामान्य घरों के बच्चे होते थे वे आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करते थे.  उन दिनों गरीब बच्चों के संरक्षक अधिकतर अपने बच्चों को कामर्स दिलवाते थे.  उनका यह विश्वास था कि कामर्स पढ़कर उनका बच्चा कम से कम क्लर्क तो बन ही जाएगा.  रोटी खाने के लिए तो पैसे क्लर्की करने पर भी मिल ही जायेंगे.  वैसे  उन दिनों सामान्यतः  न तो बच्चे ही इतने सचेत थे और न उनके माता-पिता जोकि  बच्चे के भविष्य को देखकर उन्हें आगे पढने के लिए सही साइड का चुनाव कर सकें या करा सकें .  साइड का चुनाव बिना सोचे-समझे हुआ करता था. दोस्त ने साइंस ली तो दूसरे ने भी साइंस ले ली.  उन दिनों बच्चों की दोस्ती ही साइड के चुनाव करने का आधार थी.  हमारे साथ भी यही हुआ.  लोगों ने जीजा जी को सुझाया कि कुंवर को कामर्स दिलवा दो.  इस तरह मैंने कामर्स साइड का चुनाव किया तो मेरे दोस्त बिजेंद्र ने भी कामर्स का ही चुनाव किया.  इस स्कूल में नये-नये आये थे इसलिए न तो हमारी कक्षा में पढने वाले हमें ठीक से जानते थे और न ही हम उन्हें. इसी प्रकार यहाँ के टीचर्स के लिए भी मैं और मेरा दोस्त बिलकुल  ही नये थे.   हम क्या हैं, कैसे हैं हमारे टीचर्स को भी हमारे बारे में कोई अनुमान नहीं था....

 बचपन से ही मैं  कभी भी स्कूल जाने की नागा नहीं करता था.  जीजा जी का डर और अपना स्वभाव मुझे  स्कूल खींचकर ले ही जाता था.  आंधी-पानी-बरसात, ठण्ड-गर्मीं, धूप-घाम  इनमें से  कोई भी मेरे  स्कूल जाने के क्रम में बाधा नहीं बन सकता था..... हुआ यह कि चंदौसी में लगातार आठ दिन ऎसी बारिश हुई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. कई कच्चे मकान ढह गए थे. रास्तों में पानी भर गया था. लेकिन न तो हमारे स्कूल की छुट्टी हुई और न ही हमारे स्कूल जाने की. ...उन दिनों मुझे सफ़ेद कपड़ों को पहनने का शौक था.  दो सफ़ेद पायजामे और दो सफ़ेद कमीजें थीं मेरे पास.  उन दिनों बच्चों पर इतने ज्यादा कपडे होते भी नहीं थे.  बड़े घरों के बच्चों के पास भी दो-तीन जोडी कपड़ों से ज्यादा नहीं होते थे.... मैं स्कूल से लौटने के बाद कुए पर जाकर अपने ये कपडे धो लेता था, जब वे सूख जाते थे तो पीतल के लोटे में अंगारे डालकर मैं इन कपड़ों पर प्रेस करके अगले दिन स्कूल पहनकर जाने के लिए चारपाई पर रख देता था....

 मगर अबकी बार तो बरसात रुक ही नहीं रही थी.  धूप ने दर्शन देने ही बंद कर दिए थे. मैंने एक दिन कपडे धोये तो वे बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर टंगे हुए दो दिन तक टप टप आंसू बहाते रहे और अपने आँसुओं को सुखा ही नहीं पाए.  मेरी एक मजबूरी तो यह थी कि मुझे स्कूल जाना ही था और दूसरी मजबूरी यह  थी कि जो कपडे दो दिन से पहन रहा था उन्हीं को पहनकर स्कूल जाना पड़ रहा था... उमस भरी गरमी के कारण कमीज के कालर पर पसीने का ऐसा जमावड़ा था कि उस बेचारे शर्म के मारे को खुद के चेहरे पर लगी कालिख को मुंह छुपाने की भी जगह नहीं थी.  गोरी- चिट्टी कमीज पर बरसात की बूंदों के तथा चपल चप्पल के छींटों के ऐसे-ऐसे दाग़ लग गए थे कि कई सारे बादल धोबी बनकर उन्हें धोने की कोशिश करें तो भी वे टस से मस न हों.  दागों की यही छाप मेरे पायजामे पर भी पूरी तरह से पड गई थी.  मेरे पायजामे और कमीज की सफेदी ने काले-काले धब्बों और दागों के वे ज़ुल्म झेले थे कि बेचारे अपनी कहानी अपने मौन से ही प्रकट कर पा रहे थे.  वे कह रहे थे देखने वालो हमें  देखना है तो अभी देख लो, कल जब हम नही रहेंगे तो मत कहना कि हमने आपको अपना चेहरा नहीं दिखाया था.  अपना दर्द तुम से नहीं कहा था....

 मेरी इस व्यथा-कथा से मेरे कामर्स के टीचर अनभिज्ञ थे.  किन्तु जब मेरे दोस्त बिजेंद्र ने कक्षा में खड़े होकर मेरे जीवन के बारे में उन्हें बताया तो वे बड़े गम्भीर हो गए. चश्में से झांकती हुई आँखें खामोश हो गई थीं.  पलकों पर कुछ गीलापन और  होठों पर कुछ कम्पन-सा झलक कर शांत हो गया था.  उनके मन में कुछ चल रहा है,  यह तो महसूस हो रहा था किन्तु क्या चल रहा है यह समझ में नही आ रहा था.  वे एक मिनट को खड़े के खड़े रह गए और फिर तुरंत ही क्लास की छुट्टी करके बड़ी तेजी से अचानक ही क्लास से बाहर निकल गए. ....

 बाहर आकर वे मुझे खोजने लगे...  तेज क़दमों से चलकर वे मुझे कभी इधर और कभी उधर, कभी यहाँ और कभी वहां  खोजते  रहे.  उनकी आखें मुझे तलाश कर रही थीं.  मगर मैं उन्हें मिल ही  नहीं रहा था .. कक्षा के विद्यार्थी भी तितर-बितर हो गए थे, मेरा दोस्त बिजेंद्र भी मेरी खोज में निकल पड़ा था.  सभी ने देखा कि मेरे टीचर श्री गुप्ता जी बड़े बेचैन और व्यग्र दिख रहे हैं.   एक अजीब सी छटपटाहट थी उनमें.  उनकी हालत उस नए-नए भोले तीरंदाज़ जैसी हो रही थी जिसने तीर चलाया तो किसी टीले पर था और ग़लती से उसका तीर किसी हिरन-शावक के दिल पर जा लगा हो.  उनकी तड़प में मासूम शिकारी और घायल हिरन दोनों की तड़प आ मिली थी.  उनकी तड़प दुगुनी होकर उन्हें विचलित कर रही थी....

 आखिरकार  मैं उन्हें मिल ही गया.  मैं बरामदे  के आखिरी कमरे के बाहर,  कोने में दीवार की तरफ मुंह किये हुए रो रहा था.  मेरी हिचकी बंधी हुई थी.  मेरे गाल आँसुओं से काफी गीले हो चुके थे.  मेरा रोना रुक नही रहा था.  मुझे बार-बार यह भी ध्यान आ रहा था कि इस प्रसंग के बारे में जब जीजा जी को पता चलेगा तो उन्हें कितना दुःख होगा. वे बेचारे पांचवां दर्जा पास, एक प्रिंटिंग प्रेस में मजदूरी करने वाले और किसान आदमीं जो हमेशा श्रम के पसीने की महक में ज़िन्दगी काटते रहे थे और जिन्होंने  पसीने से तर अपने कपड़ों को कभी भी तिरस्कार की नज़र से नहीं देखा था, वे कैसे इस घटना को बर्दाश्त करेंगे. वे भले ही कैसे भी रह लें, किन्तु वे  मुझे हमेशा साफ़-सुथरा ही  देखना चाहते थे, उन बेचारों को पता भी नहीं चला कि उन बरसात के दिनों में, मैं स्कूल कौन सी बेश-भूषा में जा रहा हूँ. वे अपने प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी पर चले जाते थे और मैं स्कूल. उन्होंने मेरे कपड़ों पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था. मगर स्वयं मुझे ग्लानि हो रही थी कि अगर उन्हें इस घटना का पता चला को वे कितने शर्मिंदा होंगे.... मेरे इस रूप में रहने  और दिखने में उनकी इज्ज़त का भी तो  सवाल था !....

 जब मैं दीवार की तरफ मुंह करके रो रहा था तब अचानक दो हाथ मेरे पाँव की तरफ आ गए. जिनके ये हाथ थे उनका सर  मेरे पांवों में झुका हुआ था. उनकी आवाज़ भी मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी. वे कह रहे थे ---‘ बेटा, मुझे माफ़ कर दे. मुझसे बड़ी ग़लती हो गई.... बेटा, मुझे तेरे बारे में  कुछ पता ही नहीं था. तू इतना दुखियारा है और मैंने तुझे जाने क्या-क्या कह दिया.  बिना माँ-बाप के बच्चे  को मैंने ऐसे रुला दिया,...  बेटा, उस टाइम न जाने मुझे क्या हो गया था.  देख, मैं अपने कहे और किये पर बहुत शर्मिंदा हूँ.... मुझे माफ़ कर दे बेटा,  मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई. ...’

 मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ये मेरे टीचर श्री के.के.गुप्ता जी ही थे. उनकी आँखों में मोटे-मोटे आंसू थे. उन्होंने रोते हुए मुझे कलेजे से लगा लिया.  जब उन्होंने मुझे कलेजे से लगाया तो मैं और जोर से रो पड़ा. सचमुच संवेदना जब गले लगती है तो वेदना और तडप उठती है. मैं भी उनसे चिपक गया था. और कह रहा था---‘नहीं गुरू जी, मेरे पाँव पड़कर ऐसा अनर्थ न कीजिये. आप मेरे गुरु हैं.  आपको  पूरा हक़ है मुझसे कुछ भी कहने का. फिर आप तो मेरी भलाई के लिए ही कह रहे थे. गलती मेरी ही है गुरु जी.’

वे बोले—‘ नहीं बेटा, ग़लती मुझसे हुई है.  इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं.  इसमें गलती करने वाला ही छोटा होता है.  भले ही मैं तेरा टीचर हूँ और उम्र में भी तुझसे बड़ा हूँ किन्तु आज मैं तेरे सामने बहुत छोटा पड गया हूँ.  सच में तू मुझसे बहुत बड़ा है.  मैं तुझे समझ नहीं पाया बेटा.’...मुझसे  गले मिलते हुए मेरी कमीज़ के दाग़ उनके कपड़ों पर भी लग गए थे मगर इस बात का उन्हें आभास ही नहीं था....फिर उन्होंने पहले मेरे आंसू पोंछे और फिर अपने भी . मुझसे बोले---‘सुनो, स्कूल की छुट्टी होने के बाद मुझे यहीं खड़े मिलना. जाना नहीं जब तक मैं न आ जाऊँ. ..

 गुरु जी के इस संवेदनशील व्यवहार की घटना पर अब विचार करता हूँ तो एक बहुत ही गहरी बात मेरी समझ में  आई है कि ‘पश्चाताप’ और ‘क्षमा’ ये दो शब्द केवल उन पर ही रहते हैं जिनके दिल में प्यार और मनुष्यता रहती है.  क्षमा वही कर सकता है जिसके ह्रदय में प्रेम है और अपनी ग़लती को ग़लती मानकर सच्चे मन से पश्चाताप भी वही करता है जो भीतर से मनुष्य है. जिसमें इंसानियत है...मैं सोचता हूँ कि क्या ऐसे भी टीचर होते हैं जैसे गुप्ता जी थे. ...

 आज मैं यह भी सोचता हूँ कि बड़ों की लगाईं हुई डाट भी कितनी अच्छी होती है.  सच बात तो यह है कि सद्भावना और अच्छे मन से लगाईं हुई बड़ों की डाट और किसी मीठे रस से भरी हुई बोतल के मुंह पर लगी हुई डाट, इन दोनों का काम एक जैसा ही है. ... बोतल की डाट खुलते ही जैसे कि बोतल में भरे मीठे रस के दर्शन करा देती है, तरलता के दर्शन करा देती  हैं,  ऐसे ही बड़ों की डाट के नीचे कोई न कोई मिठास छुपा रहता है, उनके मन की  तरलता छुपी रहती है.... बस इतना है कि उस समय हमारी ये बाहरी आँखें उस डाट के नीचे की मिठास और तरलता को देख नहीं पाती हैं,  हां, कुछ बड़े होने पर केवल वह डाट ही नहीं, वरन उस डाट के अर्थ भी खुलने लगते हैं और तब उस डाट के नीचे मिठास का लहलहाता सरोवर दिखाई देता है,  जिसकी एक-एक बूँद हमें तृप्त करती चलती है....करती है न ?...

 आज ये सारी बातें सोच रहा हूँ तो बहुत अच्छा लग रहा है मगर उस दिन तो मैं बेचारा बालक 

इतनी समझ कहाँ रखता था ?... उस दिन तो बस मुझे अपने टीचर की,  अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना था . स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी तो श्रद्धेय गुप्ता जी के आदेशानुसार मैं वहीं खड़ा मिला  जहां खड़े रहने के लिए वे मुझसे कह गए थे.  कुछ देर बाद श्री गुप्ता जी  उसी स्थान पर आ गए. उन्होंने मेरा हाथ थामा और बोले अब आगे से तुम कोई चिंता मत करना, कोई परेशानीं हो तो मुझे बताना. और हाँ,  अपने जीजा जी से भी मिलवाना... ऐसा कहते हुए वे मुझे अपने घर ले गए. घर पर उन्होंने अपनी पत्नी से मिलवाया. मेरी बहुत तारीफ़ करने लेगे. उन्हें मेरी ज़िन्दगी के बारे में बताया. बोले---‘बहुत होशियार बालक है....बहुत हिम्मत वाला है.’...उस वक़्त भी मैं वही गंदे और मैले कपडे पहने था. मगर अब सब कुछ बदल चुका था. उन्होंने मुझे बिना खाना खिलाये वापस नहीं भेजा. मेरे बहुत मना करने पर भी मुझे भोजन करना ही पड़ा.  दाल-चावल सब्जी और खीर. मुझे अभी भी याद है कि वे मुझे बड़े ही चाव से खाना खिला रहे थे. उनकी पत्नी भी बार-बार आ-आकर जबरदस्ती मेरी खीर की कटोरी में और खीर डाल जाती थीं. ...

 अचानक वे अपने कमरे में गये और दो मोटी-मोटी कापियां लेकर आये और मेरे हाथों में थमा दीं. मुझसे कहा कि इन्हें भी पढ़ना.  मैंने देखा कि ये केवल कापियां नहीं थीं, पांडुलिपियाँ थीं.  वे उन दिनों कामर्स विषय से जुड़ी दो किताबें लिख रहे थे और उन्हें छपने को दे रहे थे. ये कापियां उन्हीं किताबों की बहुत मेहनत से और स्वयं उनके हाथ से बहुत सुन्दर हस्तलेख में लिखी हुईं पांडुलिपियाँ थी... वे बोले अभी तुम इन्हें अपने पास ही रख लो.  इन्हें पढ़कर तुम्हारे और भी बहुत अच्छे नंबर आयेंगे.  मैं उन्हें लेकर खुशी-खुशी उनके घर से विदा हुआ. सचमुच इन्हें पढ़कर ही हाई स्कूल में मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ.  बाद में गुप्ता जी मेरे जीजा जी से भी मिले और उनसे माफी मांगते हुए बोले— ‘एक दिन तो मैंने आपके बच्चे को बहुत ज्यादा डाट दिया था.’...जीजा जी का उत्तर पाकर वे हैरत में थे. जीजा जी ने कहा था---‘ मास्टर जी, गुरु तो भावरूप में विद्यार्थी का दूसरा पिता ही होता है.  वह अगर डाटता है तो उसी की भलाई के लिए डाटता है.’...और तब जीजा जी और आदरणीय गुप्ता जी दोनों ही भीगी हुई आँखों से एक दूसरे के गले लग गए थे.  उस दिन मेरी इन दो आँखों ने चार आँखों के चार तीर्थस्थलों को आँसुओं का झरना बहाते हुए देखा था और उस संवेदना को भी देखा था जो कठोर नारियल के खोल में मीठा और तरल जल बनकर छलांग मार रही थी.....                                  

✍️ डॉ कुँअर बेचैन

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