'ये दुनिया सूखी मिट्टी है
तू प्यार के छींटे देता चल।'
कम शब्दों में इतनी बड़ी बात कहने वाले डॉ. कुंअर बेचैन एक बड़े साहित्यकार तो थे ही, एक बड़े इंसान भी थे। सदा मुस्कराते रहने वाले डॉ. कुंअर भीतर से कितने बेचैन थे, यह केवल वे ही जानते थे। उनके जीवन के संघर्ष उन्हें बहुत बड़ा कवि हृदय दे सके थे। उनके गीत उनके सामाजिक सरोकारों के दर्पण हैं। मेरा सौभाग्य मुझे उनका साथ लगभग पैंतीस वर्ष मिला, यद्यपि एक श्रोता के रूप में मैंने उन्हें पचास साल से अधिक सुना।
सन् 1985 की गर्मियों में अचानक मेरी मुलाक़ात बेचैन जी से मंसूरी के नीलम रेस्टोरेंट में हो गई जहाँ के परांठे बहुत प्रसिद्ध थे । परांठों के साथ-साथ डॉ बेचैन से गीत, अगीत, प्रगीत और नवगीत पर जानदार चर्चा हुई। हम दोनों ही हिंदी प्राध्यापक थे और अन्य विषयों के अलावा काव्यशास्त्र भी पढ़ाते थे। तब नवगीत नया-नया ही था। उसके विषय में डॉ बेचैन से कुछ नवीन व्याख्याएँ सौगात के रूप में मुझे मिलीं। रेस्टोरेंट से हम दोनों की विदाई एक बहुत अच्छे सूक्त वाक्य से हुई, जब उन्होंने कहा – “नीलम किसी किसी को सूट करता है पर आज यह हम दोनों को कर गया।"
डॉ. बेचैन से संक्षिप्त मिलाप प्रायः कवि सम्मेलनों के आरंभ होने से पहले अथवा समापन के बाद मिलता था, जब वे औरों से भी घिरे होते थे। हाँ गोष्ठियों में भले ही कम मिलना होता था किंतु भरपूर होता था। विशेषकर लखनऊ के माध्यम गोष्ठियों में रहना, खाना-पीना साथ होता था। दिल्ली के हंसराज कॉलेज में उन्हें खूब बुलाया जाता था। वहाँ के आयोजक डॉ प्रभात कुमार मुझे हिंदू कॉलेज से बेचैन जी से मिलने के लिए आमंत्रित किया करते थे। प्रभात जी से भी उनकी बहुत बनती थी। डॉ बेचैन गुणग्राहक थे और प्रभात जी की सैन्स ऑफ ह्यूमर के प्रशंसक थे जिस कारण हम तीनों की हँसी दूर-दूर तक गुंज जाती थी। एक दिन मैं और डॉ प्रभात, डॉ. बेचैन के घर गाजियाबाद गए। ट्राफियों, सम्मान पत्रकों और केभाभी जी की गरिमा से भरा घर मेरे मन में घर कर गया। उसके बाद मैं अपनी पत्नी स्नेह सुधा के साथ दो बार गाजियाबाद गया। स्नेह सुधा चित्रकार हैं और कविता भी लिखती हैं यह बात कुंअर जी को बहुत भाती थी। वे स्वयं एक बड़े चित्रकार थे जिनके रेखाचित्रों की धूम सर्वत्र है। प्रियजन को अपनी पुस्तक भेंटते हुए वे एक अद्भुत रेखाचित्र क्षण भर में उस पर बना देते थे। मेरे पास भी उनकी कविता और चित्रकला के बहुत से संग्रहणीय साक्षी हैं।
मैंने एक बार डॉ० बेचैन से मेरे कॉलेज में हो रहे कवि सम्मेलन हेतु अनुरोध किया। वे बोले, "हिंदू कॉलेज में बुला रहे हो तो मुझे कवि सम्मेलन की जगह साहित्यिक संगोष्ठी में बुलाओ, कविताएँ तो मैं सुनाता ही रहता हूँ मुझसे किसी साहित्यिक विषय पर चर्चा करवाओ।" अवसर की बात है कि लगभग एक महीने बाद ही हिंदू कॉलेज में तीन दिवसीय गोष्ठी हुई जिसमें एक दिन डॉ० बेचैन के नाम हुआ वे 'साहित्य के प्रदेय' विषय पर बोले और बहुत प्रभावी बोले जिसमें विद्यार्थियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के भी उन्होंने सम्यक् उत्तर दिए। विद्यार्थी बहुत ख़ुश हुए और समापन के बाद उनसे आटोग्राफ लेने के लिए भीड़ में बदल गए। डॉ. साहब ने सभी को अपने हस्ताक्षर के साथ-साथ संदेश भी दिए। मैंने पाया कि विद्यार्थियों से भी अधिक प्रसन्न हुए और संतुष्ट कुंअर जी स्वयं थे क्योंकि उन्हें अपने मन की बातें कहने का भरपूर अवसर मिला था, ऐसा उन्होंने मुझे बताया ।
ग़ज़ल के व्याकरण संबंधित भी उनकी पुस्तक और उनकी एक पत्रिका के दो अंक मेरे पास है। दुष्यंत कुमार के बाद मेरी समझ से डॉ बेचैन ने निरंतर हिंदी ग़ज़ल को विकसित और प्रसारित किया। उनके काव्य अवदान में जहाँ नौ गीत संग्रह है वहीं ग़ज़ल के पंद्रह संग्रह हैं। कविता की अन्य शैलियों में उनके दो कविता संग्रह, एक हाइकु संग्रह एक दोहा संग्रह और एक महाकाव्य भी है। उन्होंने दो उपन्यास भी लिखे जिनमें जी हाँ मैं ग़ज़ल हूँ मेरी पुस्तक संपदा में है। अत्यंत सरस शैली में डॉ. बेचैन ने मिर्ज़ा ग़ालिब की कथा लिखी है जिसमें गजल का मानवीकरण किया है। बेमिसाल है यह उपन्यास |
जब मैं 'गगनांचल' का संपादन कर रहा था, मैंने बेचैन जी से एक विशेष अंक के लिए उनकी तीन गजलें मांगी जिसपर उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि 'गगलांचल में उनके संस्मरण छपें ताकि विदेश में भी पता चले कि मैं गद्य भी लिखता हूँ। मैंने सहर्ष दो कड़ियों में उनसे संस्मरण लिए जिनमें से जब एक प्रकाशित हुआ इसकी प्रशंसा में बहुत से पाठकों के पत्र आए, उनमें से अधिकतर नहीं जानते थे कि कुंअर जी गद्य भी लिखते हैं। इस संस्मरण का शीर्षक था 'मैं जब शायर बना' इसमें उन्होंने अपने कॉलेज की एक फैन्सी ड्रैस प्रतियोगिता का जिक्र किया था जिसमें वे शायर बने थे और वे अपने घर से ही एक शायर के गेटअप में पान चबाते दाढ़ी लगाए, सिगरेट का धुआँ उड़ाते, छड़ी लिए सभागार में संयोजक के पास पहुँचे और उन्होंने कुंअर जी को सम्मान देते हुए अपने साथ बिठा लिया और कहा कि मुशायरा तो रात आठ बजे से है अभी तो फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता चल रही है, आप प्रतियोगिता देखिए आपका नाम जान सकता हूँ। कुंअर जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा, "जनाब मुझे कासिम अमरोहिणी कहते है सीधे अमरोहा से ही आ रहा हूँ, गजलें और नज्में कहता हूँ ।
फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता समाप्त हुई तीन पुरस्कार दिए गए। प्रोग्राम समाप्त होने वाला था कि कुंअर जी ने संयोजक से कहा कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ। संयोजक ने घोषणा कर दी कि आदरणीय कासिम अमरोहवी साहब इस प्रतियोगिता के बारे में अपने विचार रखना चाहते है। कुंअर जी ने माइक संभाला और प्रतियोगिता की सराहना करते हुए कहा कि आपने गौर नहीं किया कि एक शख्स और भी है जिसने फैन्सी ड्रेस में हिस्सा लिया लेकिन उसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। यह कहकर उन्होंने अपनी दाढ़ी मूंछे हटा दी। वे पहचान लिए गए और निर्णय बदला गया। ज़ाहिर है उन्हें प्रथम घोषित किया गया।
डॉ. बेचैन की आदत थी जो मेरी भी थी कि गोष्ठियों में हम दोनों नोट्स लेते थे। मैं उन्हें बोलने के बाद नष्ट कर देता था लेकिन डॉ. बेचैन उन्हें फाइल में रखते थे। उन्होंने पाँच हजार से ज्यादा कवि सम्मेलनों में भाग लिया था। इन नोट्स में कवि सम्मेलन का इतिहास अंकित है जिनके आधार पर उन्होंने दो हज़ार पृष्ठ खुद ही टाइप कर लिए थे। संभवतः आने वाले किसी समय उनकी कवि सम्मेलन महागाथा एक ग्रंथ के रूप में प्रकट हो जाए।
बहुत सी और भी यादें उनसे जुड़ी हुई हैं। 22 दिसंबर, 2013 डॉ. बेचैन को हिंदी भवन में संवेदना सम्मान प्रदान करने के लिए हिंदी भवन में एक समारोह हुआ जिसकी अध्यक्षता श्री बालस्वरूप राही की थी। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, कृष्ण मित्र, मंगल नसीम और प्रवीण शुक्ल के वक्तव्य थे और मुझे मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। जब अन्यों के भाषण चल रहे थे, डॉ. बेचैन ने मुझे पर्ची पर लिखकर आदेशात्मक आग्रह किया कि मैं जब बोलूं तो केवल उनके काव्य कर्म का ही विश्लेषण करूँ। मैंने ऐसा ही किया था जिससे डॉ. बेचैन बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हुए। उनका कहना था कि प्रायः वक्ता 'कुंअर बेचैन' पर बोलते हैं, कुंअर बेचैन' के काव्य कर्म पर नहीं।
मुझे उनका एक ऐसा संस्मरण ध्यान आ रहा है जिसमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक आयाम उद्घाटित हुए थे। दिसंबर 2008 में जापान में उर्दू, हिंदी पढ़ाने के सौ वर्ष मनाए गए थे, जिसमें जापान भारत और पाकिस्तान के कवियों का सम्मेलन भी था जिसमें कुंअर बेचैन जी को अध्यक्षता करनी थी। मुझ सहित पाँच प्रतिभागी और थे। पाकिस्तान के दल ने हम भारतीयों की अवहेलना करते हुए बड़ी निर्लज्जता से घोषित अध्यक्ष के स्थान पर पाकिस्तान के तहसीन फिराकी को अध्यक्ष पद पर बैठा दिया। मैंने विरोध में खड़े होकर कुछ कहना चाहा, तो बेचैन ने मेरा हाथ पकड़ मुझे बिठा दिया और बोले, “उन्हें मनमानी करने दो औक़ात पद से नहीं प्रतिभा से जानी जाती है। कुछ न कहो।" मैं चुप होकर बैठ गया। पाकिस्तान के दल ने कवि सम्मेलन के संचालन का दायित्व भी स्वयं हथिया लिया। सम्मेलन आरंभ हुआ पहले पाकिस्तान के कवियों ने अपना रचना पाठ किया, फिर भारत की बारी आई। एक-एक कर सुरेश ऋतुपर्ण, हरजिन्दर चौधरी, लालित्य ललित और मैंने कविताएँ प्रस्तुत की। समापन कवि के रूप में कुंअर बेचैन ने एक ग़ज़ल और एक कविता प्रस्तुत की और बैठने लगे, लेकिन श्रोताओं ने जिनमें पाकिस्तान के कवि भी थे उन्हें बैठने न दिया और एक-एक कर डॉ० बेचैन जी की अनेक रचनाएँ सुनी। सभी उपस्थित जन देर तक खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। पाकिस्तानी दल भी तालियाँ पीट रहा था। अब अध्यक्ष जनाब हसीन फिराकी का उद्बोधन था जिसमें उन्होंने कहा कि वे बहुत शर्मिन्दा हैं कि उनके देश की कविता अभी तक इश्क, हुसन और जुल्फों में ही अटकी हुई है और भारत की कविता ग़रीबी, माँ-पिता, नदी, पेड़ पत्तियाँ और इंसानियत जैसे विषयों को अनेक अर्थ देकर समेटती है; विशेषकर कुंअर बेचैन साहब की रचनाएँ। उन्होंने भी बाकायदा नोट्स बना रखे थे और कुंअर जी की कविताओं को बहुत से उदाहरण देते हुए उनका यशोगान किया।
बात यहीं नहीं रुकी पाकिस्तान ने डॉ० कुंअर बेचैन का अभिनंदन करने के लिए टोक्यो के एक पाँच तारा होटल में अभिनंदन समारोह और भव्य डिनर आयोजित किया। कुंअर जी के कारण उनके साथ-साथ हम भारतीय साहित्यकारों का ही नहीं अपितु पूरे भारत का अभिनंदन हुआ। कुंअर बेचैन जी का मानना था कि 'शब्द एक लालटेन' है जिसे आप अपने हाथ में लेकर अँधेरा दूर करते चल सकते हो। उन्होंने जीवन भर इस लालटेन को थामे रखा और उनके शब्दों की लालटेन ऐसी है जो कभी भी बुझेगी नहीं, रोशनी देती रहेगी।
✍️ डॉ हरीश नवल
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