देश दुनिया भयंकर महामारी की त्रासदी से जूझ रहे थे ।गाँव नगर में तालाबंदी थी और संक्रामक रोग था कि कम होने का नाम नहीं ले रहा था। शहर की तीन बड़ी परचून दुकानें जो मुख्य बाजार में सड़क के एक ही ओर स्थित थी, भी यदा कदा चोरी छिपे खुलतीं। दुकानों के सम्मुख नमक की बोरियां पड़ी थी जिनपर एक विक्षिप्त युवक एक डंडा लेकर बैठा रहता। कहते हैं करीब दस ग्यारह वर्ष पूर्व एक पुलिस भर्ती घोटाले के चलते नियुक्त सिपाही जिनका प्रशिक्षण भी पूर्ण हो चुका था, की नौकरी चली गई थी, जिनमें से वो भी एक था।
नौकरी छूटने के सदमे से वो पागल हो गया था।अब उसने उन नमक की बोरियों की देखभाल का नया रोजगार तलाश लिया था, वो भी अवैतनिक। ये बात दीगर है कि बोरियां कल भी सुरक्षित थी और आज भी, क्योंकि हमारे समाज में नमक की चोरी वर्जित है।
हर आते जाते लोगों को वह पास बुला कर कहता इस में नमक है, दीवाना जो ठहरा जो उसे नहीं जानते थे वो मुस्कुरा कर चले जाते । पास के एक अध्यापक महोदय,जिनकी साहित्य में विशेष रुचि थी, ने उसे नमक का दारोगा की उपाधि से नवाजा तभी से सभी उसे दारोगा कहकर पुकारते/उस विक्षिप्त अवस्था में वो अपने को प्रोन्नत होकर दारोगा समझता था । उस संबोधन से वो अति प्रसन्न रहता।
जब कोई नमक के पास आने की कोशिश करता तो वो ड़डा लेकर पीछे पड़ जाता। समय का खेला देखिए कि जहाँ अब तक आसमान से एक भी बूंद न फूटी थी, जबकि बारिश का मौसम बीतने में कोई कसर न थी , कई दिनों तक लगातार पानी गिरा। पास में बहने वाले नालों के तटबंध दरक गए ।शहर में बाढ़ जैसे हालात हो गये । पानी घरों को दाखिल चुका था और लोगों ने घरों की छत पर पनाह ले रखी थी।
एक तो पहले से प्रकृति का प्रकोप कम न था, ऊपर से ये आफत और आन पड़ी। बारह तेरह दिन बाद जब पानी का प्रवाह कम कम हुआ तो पता कि नमक की बोरियां बहती जलराशि की भेंट चढ़ चुकीं थीं। प्रकृति ने दरोगा का रोजगार छीन लिया था।आज वो फिर से बेरोजगार हो चुका था।पहली बार सरकारों की सियासत ने उसे बेरोजगार किया इस बार प्रकृति ने।
✍️ धर्मेंद्र सिंह राजौरा
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