मुंह अंधेरे वो वो घर से निकल पड़ता । नदी के आंचल से रोज एक बुग्गी रेत भरता और निकल पड़ता किसी गाँव की ओर । बरस के आठ महीने यही उसका रोजगार था ।इसके लिए उसे रोज सौ डेढ़ सौ रुपये चुकाने पड़ते पर परिवार का खर्चा चल ही जाता । चिंता में उसके आधे बाल सफेद हो गये थे। वो औरों के पक्के घरों के लिए रेत मसाला ढोता लेकिन खुद रहता मिट्टी के कच्चे घर में, जिसका छप्पर भी पिछली बरसात में जवाब दे गया था। बड़ी बिटिया सयानी हो गयी थी। उसके हाथ कैसे पीले हो इसी फिक्र में वो आधा रह गया था ऊपर बैल भी बूढ़ा हो चला था ।
सुबह के धुंधलके में वो रेत की बुग्गी भरकर नदी की गहराई से कछार की ओर बढ़ रहा था/ बूढा बैल सहसा ठिठका । एक लाल पत्थर, जो कटान रोकने के लिए लगे थे एक पहिये के नीचे आ गया। वो झटके से बुग्गी से उतरा और बैल की नाथ पकड़ कर खींचने लगा लेकिन उस ऊचाई पर पहुँच कर बैल ने घुटने टेक दिए । क्षणभर में बुग्गी लुढ़क कर नदी की रेतीले मैंदान में जा गिरी । लाखन ने दौड़ कर बल्लियों में फंसे बैल की रस्सियाँ ढीली की लेकिन बैल के प्राण पखेरू उड़ चुके।
वो घुटनों के बल गिर पड़ा । नयनों से अश्रुधारा फूट पड़ी। कौन था दुनिया में उसका । एक वही तो सुख दुःख का साझेदार था/ एक पल में उसकी रोजी रोटी छिन गयी थी/अब उसके सामने परिवार के भरण पोषण का भीषण संकट था।
✍️धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई
बहुत सुन्दर और सार्थक।
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