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बुधवार, 1 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी -----"सीख लॉकडाउन की"


        सुबह से किचन के काम निपटाते निपटाते सरला थक चुकी थी।क्या बच्चे,क्या बुजुर्ग और क्या मियाँ जी सबकी अलग-अलग फरमाइशें। लॉक डाउन सबके लिए फुर्सत के पल लेकर आया था लेकिन एक हाउसवाइफ के लिए शायद सबसे व्यस्ततम दिन।अभी बाथरूम में धोने के लिए कपड़ों का ढेर लगा था और एहतियातन मेहरी की छुट्टी कर दिये जाने से झाड़ू और पोछा भी सरला की राह तक रहे थे।आज क्लब की सखियों ने ऑनलाइन सिंगिंग मीट रखी थी,वह भी सज सँवरकर उसमें प्रतिभाग करना चाहती थी।पर कैसे....
    पतिदेव ब्रेकफास्ट डटकर ऊपरी मंजिल में वर्क फ्राम होम की कम्प्यूटर टेबल पर बैठ चुके थे।बच्चे ग्राउंड फ्लोर में ड्राइंग रूम में दादा दादी के साथ बैठकर टीवी देख रहे थे।दादा दादी के लाड़ले रोहित और रोनित दोनों जुड़वां भाई इन्टर फर्स्ट इयर में थे और लैपटॉप पर एक दो घण्टे की ऑनलाइन क्लास के अतिरिक्त पूरा दिन टी.वी और मोबाइल पर ही दोनों अपना टाइम पास कर रहे थे।सरला मोबाइल के लिए टोकती तो वे दोनों स्कूल एसाइनमेंट की जरूरत बताने लगते।ज्यादा टी वी देखने के लिए टोकने पर दोनों चीखते,"मॉम बाहर निकलना नहीं है,अब इंटरटेनमेंट के लिए टीवी तो देखने दो।आप का बस चले तो लेक्चर दे दे कर हमें हिमालय की गुफाओं में तपस्या करने के लिए भेज दो।"
    दादी सपोर्ट करती,"अरे बच्चे हैं।ये ही तो मौज मस्ती के दिन हैं इनके।पर इस पत्थरदिल को भी बच्चों को डाँटे बगैर चैन नहीं मिलता।"और बच्चे माँ को चिढ़ाते हुए दादी के गले लग जाते,"वी लव यू दादी माँ।एक आप ही हमारा ख्याल रखती हो।वरना माँ तो हम पर अत्याचार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दे।"
    डाइनिंग टेबल पर नाश्ता कर रही सरला ने कुछ सोचकर दोनों बेटों को आवाज दी,"रोनित,रोहित दोनों यहांँ आना बेटा।"उसका नाश्ता खत्म होने वाला था,पर बच्चों ने न तो कोई उत्तर दिया न ही खुद आये।सरला को इसकी आदत थी।एक बार में तो उसके बेटे कभी सुनते ही नहीं थे।उसने फिर से पुकारा,"पापा को बताऊंँ क्या कि तुम मेरी बात नहीं सुन रहे हो।"अक्सर अजमायी जाने वाली यह तरकीब काम कर गयी।बस एक पापा के नाम से ही दोनों डरते थे।
    दोनों ने एहसान सा किया डाइनिंग हॉल में आकर,"हाँ,बताओ।क्या कह रही हो आप?" "कितनी अच्छी मूवी आ रही है।पर आप देखने नहीं दोगे।"
      सरला ने चाय का कप प्लेट पर रखते हुए दोनों से लगभग निवेदन सा किया," मम्मी के प्यारे बेटे।प्लीज अपने अपने कमरों की डस्टिंग ही कर दो,बच्चों।मम्मी की थोड़ी मदद हो जायेगी।आज मम्मी को बहुत काम है।"
      दोनों ने बड़े ही अजीब से फेस बना कर रिएक्ट किया।रोनित बोला,"ओ नो मम्मी!क्या कह रही हो आप।हम ये मेड वाले काम करेंगे।" रोहित का स्वर थोड़ा तेज था,"क्या मम्मी! कितने क्रूअल हो आप।अपने छोटे छोटे बच्चों से घर के काम कौन मम्मी कराती है।हम नहीं कर रहे कोई डस्टिंग वस्टिंग।अपना काम खुद करो।जैसे आप हमको कहते हो पढ़ाई के टाइम।आपको करना ही क्या है पूरा दिन।हमें तो अभी ऑनलाइन क्लास भी अटैण्ड करनी है।"
      तभी ठीक रोहित के पीछे से प्रकट होती दादी बोली,"भइया ऐसी माँ भी नहीं देखी मैं ने।अपने आराम के चक्कर में बच्चों से काम कराएगी।(बच्चों की तरफ देख कर...)तुम कुछ नहीं करोगे,बच्चों।मुझे बता क्या काम करना है?हम पर करले जितने जुलम करने हैं।इन बच्चों पर न कर।यही चिढ़ है न कि बच्चे मुझसे प्यार करते हैं।हे भगवान तू ही देख ले कैसे कैसे सताती है ये महारानी मुझे।"
      दादी ने घड़ियाली आँसू बहाते हुए आँचल से मुँह पोछा।सरला अवाक थी।एक आसान उपाय का इतना भयानक हश्र सोचकर उसकी आँखे भर आयी थी।बच्चे भी अब असहज महसूस कर रहे थे।दादी की ओवर एक्टिंग ने माँ की प्रार्थना की ओर उनका हृदय झुका दिया था।पर अब माँ की तरफदारी करने का मतलब था,दादी की एक हफ्ते की नाराज़गी मोल लेना।आँखों में आँसू लिए सरला अपनी प्लेट उठाकर रसोई की ओर चल दी। रोहित ने बात बदलते हुए कहा,"चलो दादी आप टी वी देखो।मम्मी अपने आप करेगी काम।मेरी दादी क्यों करेगी काम।"
      सरला सिंक में रखे बर्तन धोने लगी।कई विचार उसके ख्याल में आते और जाते थे।
"एक औरत की दुश्मन एक औरत ही होती है, बिल्कुल सच बात है।"
 "संयुक्त परिवार के  बड़े फायदे हैं,मैं भी मानती हूँ पर ऐसी जली कटी बातों का क्या।"
  "क्या एक हाउसवाइफ की कोई खुशी नहीं होती।"
   "क्या एक औरत कभी कुछ पल अपने लिए अपने तरीके से नहीं जी सकती?हर वक्त काम काम काम"
   "एक घर के सभी सदस्य मिल बांटकर घर के काम क्यों नहीं कर सकते?"
   "मम्मी जी की खुश बनाये रखने के चक्कर में मेरी औलाद मेरे हाथों से निकलती जा रही है।पर मैं क्या करूँ?"
       ये विचारों की लड़ी कुछ और लम्बी होती कि तभी बाहर "आलू लो,प्याज लोओअअ...,टमाटर लो,लौकी लोओअअ..." की आवाज ने उसका ध्यान खींचा।उसे याद आया,शाम के लिए सब्जी नहीं है।वह हाथ धोकर फटाफट मुंँह पर मास्क लगाकर और आंगन में रखी बाल्टी लेकर गेट की ओर लपकी।एक 10-11साल का लड़का सब्जी की रेहड़ी धकेलता एक अधेड़ औरत के साथ कॉलोनी में सब्जी बेचने के लिए आया था। सरला सावधानी के तहत बाल्टी लेकर गयी थी और सब्जियांँ तुलवाकर बाल्टी में रखवा रही थी।सब्जियाँ तुलवाते हुए उसने उस औरत से कहा,"कैसी माँ हो?इतनी ख़तरनाक बीमारी फैली हुई है और तुम इतने छोटे बच्चे को गली गली घुमा रही हो।"
      वह बोली,"तुम ठीक कै री हो,भैनजी।पर गरीब आदमी क्या करे। बीमारी से तो बाद में मरेगा,पर भूख से पैले मर जागा।भीख मांगना सीका नहीं हमने। बदकिस्मती से मेरा आदमी लाकडोन के चलते शहर में फंसा हुआ है।पाँच बच्चे हैं मेरे।येई सबसे बड़ा है।ये अकेले ना आने देता।कैता है मम्मी दोनों मिलके काम करेंगे तो हिम्मत रएगी।ये छटे में पड़ता है,सब बात जानता है।कपड़े का माक्स बनाया है।अपने लिए भी,मेरे लिए भी।साबुन और पानी का डब्बा रेहड़ी पे रख के चलता है।ऊपरवाले की दया है।कोई गलती करूँ तो बाप बन के डाँटता है,पर कहीं थक न जाऊँ इसलिए रेहड़ी नहीं खींचने देता।"
      सरला उस बेटे के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह से भर गयी थी। सब्जियाँ तुल चुकी थी।उसने हिसाब पूछा।बेटा वाकई समझदार था।तुरन्त बोला,"एक सौ पैंतालिस रूपये हुए आन्टी जी।हो सके तो खुले पैसे देना।पैसों की लौट फेर में बीमारी न लौट फेर हो जाय।"सरला उसकी ओर देखकर सहज ही मुस्कुरा दी थी।सब्जी की बाल्टी बाहर के बाथरूम में धोने के लिए रखकर वह जैसे ही खुले पैसों के लिए अपने बेटों को आवाज देती,उसने देखा रोहित खुले पैसे लिये सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था।रोनित छज्जे में खड़ा नीचे सड़क पर खड़ी उस रेहड़ी और उसके मालिक को देख रहा था।सरला ने रोहित से पैसे लेकर सब्जी वाली को दे दिये।
      "आलू लोअअअ..प्याज लोअअअ.."की कड़क आवाज पूरे आत्मविश्वास के साथ गली में आगे बढ़ चुकी थी।सरला बाहर बाथरूम में सब्जियों और खुद को सैनिटाइज करने की प्रक्रिया में लग गयी।
       करीब आधे घण्टे बाद जब वह घर के अन्दर पहुँची तो ड्राइंग रूम,जहांँ दादा दादी बैठे थे,को छोड़कर सभी कमरे दोनों भाइयों ने मिलकर बिल्कुल नीट एण्ड क्लीन कर दिये थे।सरला भावुक होकर कुछ कहती इससे पहले ही दोनों भाइयों ने इशारों में उसे ड्राइंग रूम की सफाई और दादी की उपस्थिति याद दिलायी।सरला की आँखों में वही श्रद्धा और दुलार तैरने लगा जो अभी कुछ देर पहले सब्जी वाली के बेटे के लिए उमड़ रहा था।उसके बेटे अनजान होने का मुखौटा लगाकर पढ़ने के लिए अपने अपने कमरों में जा चुके थे।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 

सोमवार, 22 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की 10 कविताओं पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा----


         वाट्सएप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' की ओर से 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 20-21-22 जून 2020 को मुरादाबाद की युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट की दस काव्य रचनाओं पर  ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई ।  सबसे पहले हेमा तिवारी भट्ट द्वारा निम्न दस कविताएँ पटल पर प्रस्तुत की गईं -----
(1)

*एलबम*

नदी समय की जाये बहती।
ठहर किसी पल कभी न रहती।
न देखे कभी पीछे मुड़कर,
हर क्षण नयी कहानी कहती।

   चित्र मगर वह शिलाखण्ड है।
   समय ने जिस पर लिखा छंद है।
   दीर्घकाल तक लिखा रहेगा,
   परिवर्तन से यह स्वछन्द है।

भला वक्त यदि नहीं टिका है,
बुरा वक्त भी नहीं रहेगा।
चित्र बना ये स्मृति के पट बस,
अग्नि शिखा सा सदा जलेगा।

      यह आँकेगा व्यर्थ अहम था,
     सुख तो जल में छाया जैसा।
     दु:ख भी कहाँ रहा बलशाली,
     बदला,बदली काया जैसा।

इसीलिए हैं गये सहेजे,
सुख दुख के हर चित्र सजाकर।
यह पूंजी है जीवन भर की,
अनुभव लाया पथिक कमाकर।

(2)

*तेरे मेरे बीच*

अपरिभाषित है,
अव्यक्त है,
शब्दों के मीटर से
नापा न जायेगा,
वह बन्ध,
जो तेरे मेरे बीच है।
जितना भी रहे हम,
ख्यालों में एक दूजे के,
अपर्याप्त है,
कालातीत है,
वह वक्त,
जो तेरे मेरे बीच है।
लगता है सदियों से,
चले आ रहे हैं साथ साथ,
फिर भी चलते रहने की,
साथ साथ सदियों तक,
एक प्यास अनबुझी-सी,
तेरे मेरे बीच है|
बेरंग आंखों की चिट्ठी हो,
या थिरकती सांसों की रिंग टोन,
पढ़,सुन लेते हैं दो दिल,
ये संचार बेतार का,
आविष्कार पुराना,
अब भी....
तेरे मेरे बीच है।

(3)

*उनींदा है सूरज*

उनींदा है सूरज,
थके रास्ते हैं।
मतिभ्रम नजारे
नज़र आ रहे हैं।
घोटी हवाओं ने
भंग हर दिशा में।
नहीं फर्क दिखता,
दिवस में,निशा में।
पहरुए तमस के,
सुनो आ गये हैं।
ये बादल न बरसेंगे,
बस छा गये हैं।
भले लड़खड़ा तू,
इशारों में बतिया।
टोहते अंधेरा,
घिसटता चला जा।
समय हंसते रोते,
सभी का रहा है।
हुआ चुप जो उसको,
मिटाता रहा है।
लिखा रेत में शब्द,
कब तक रहेगा?
शिलालेख बन जा,
युगों युग पढ़ेगा।

(4)

*अन्त:करण का शव*

थक गया ढोते ढोते
मृतप्राय बोझ,
बैठ गया बीच राह
जाने क्या सोच,
वह देखने लगा है
हमराही अपने।
जो हैं थके
और भीतर से
अवसादग्रस्त।
बोझिल कदमों से घिसटते
एक बोझ लादे काँधों पर।

बोझ जो चिपटा हुआ है,
हटाये नहीं हटता।
पर वह देख रहा है,
एक आध नहीं,
पूरी भीड़ की भीड़,
उन्माद से भरी,
मुस्कुराते मुखौटे पहनकर,
लग पड़ती है दौड़ने......
अव्वल आने की होड़ में,
एक दूसरे को देखकर।

वह सोच रहा है खिन्नमना
ऐसा कैसे हो सकता है?
आखिर उन कंधों पर भी
तो लटका है
मृत अन्त:करण का शव।

(5)

*रंग के रंग*

हम देख कर यह दंग हैं।
रंग के भी कई रंग हैं।
रंग गहरा चढ़ जाता है।
रंग फीका पड़ जाता है।
रंगीन यार कोई,
रंगा सियार कोई,
कोई है उजले मन का,
पर चमड़ी का रंग काला।
कालिख किसी के मन में,
पर चेहरे पे उजाला।
मगर कुछ ऐसे भी,
जो एक ही रंग के हैं।
और कुछ बेढ़ंगे,
कई कई रंग के हैं।
कहीं महल सुनहरे हैं,
कहीं छत है आसमानी।
छप्पन रंगी कोई थाली,
बेरंग किसी को पानी।
लाल लालिमा का,
बहुतों को लहू भाया।
चूसा कहीं किसी ने,
कोई देश पे बहा आया।
धरती की चूनर धानी,
करने को कोई खपता।
सावन में हरे कंगन,
पहने कोई सँवरता।
श्वेत वस्त्र जँचते,
पर बाल भी जँचते क्या?
काजल सजे आँखों में,
पर माँग में भरते क्या?
हर रंग की यहाँ पर,
रंगीन कहानी है।
जिस रंग से मिल जाए,
उस रंग का पानी है।
रंग में विलीन होना,
कहते,नहीं गुनाह है।
पर रंग बदल लो तो,
निकलेगी दिल से आह है।

(6)

*नये साल में*

नाच रही ता थैय्या काल की करताल में।
जश्न मनाते हुए मैं,घिर गयी सवाल में।
सोचने लगी हूँ,क्या होगा नये साल में?

धरती के सीने से क्या रवि फूटेगा
या किसी निर्धन का दिल नहीं टूटेगा
खुश रह पायेगा मानव क्या फटेहाल में?
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

क्या प्राणी चौपाया गगन में उड़ेगा
या दिल निशंक होकर,दिलों से जुड़ेगा
क्या ये मन भोला न फँसेगा किसी जाल में
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

बादल का टुकड़ा क्या भू पर छायेगा
सम्भवतः नर कोई धोखा न खायेगा
जो छिपा दिल में,पढ़ेंगें क्या कपाल में
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

क्या वृक्ष बड़े बड़े,धावक हो जायेंगे
या पिल्ले ही सिंहशावक हो जायेंगे
जाने क्या लिख रखा है,आगत के भाल में?
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

(7)

*जब तक बाती है*

इस ओर से
उस ओर तक
चलना ही होगा।
जीवन को मृत्यु में
ढलना ही होगा।
उगना,अस्त होना,
फिर उग आना।
सुबह,दोपहर,
संध्या बन जाना।
कर में नहीं कुछ
रखा हुआ है,
आभिनेय वही
लिखा हुआ है।
मैं हूँ कलाकार विधि के प्रपंच का।
मैं नर्तक,मैं दर्शक रंगमंच का।
एक निष्ठुर सत्य बस मेरी थाती है,
जलना है दिये को जब तक बाती है।

(8)

*सूर्य सी ऊर्जा लिए*

   करता है रात दिन,
   वह सुपोषित मुझे,
   सूर्य सी ऊर्जा लिए।

उगता है नित्य वह,
और पार करता है,
अग्नि पथ मेरे लिए।

   ठहर कर रात भर
   क्षितिज की गोद में
   जला रहा है जो
   चाँदनी के दिए।

अंक में उसके मैं,
आँखों में उसकी मैं,
सपने सुनहरे हैं,
उसने जो बुन लिए।

   शब्दों में अवर्णित,
   बंधन सहजता का,
   प्रेम पिता का है
   शाश्वत मेरे लिए।

(9)

*रोटी और कविता*

वह देखती है
मेरी तरफ,
उम्मीदों से।
क्योंकि मैं....
लिख सकती हूँ,
रोटी।
उसने सुनी थी,
भूख पर....
मेरी शानदार रचना।
उसे कुछ समझ नहीं आया,
सिवाय रोटी के।
तब से उसकी निगाह,
पीछा करती है,
हर वक़्त मेरा।
पता नहीं क्यों,
उसे लगने लगा है,
रोटी पर लिखने वाले,
रोटी ला भी सकते हैं।
पर उसे नहीं पता
मैं खुद भी ढूँढ रही हूँ
रोटी....
इस तरह
अपने भूखे मन के लिए।
उसे देखकर मेरा मन
भर आया है।
अब नहीं करता मन,
रोटी पर लिखने का।
मैं असहाय हो गयी हूँ,
सोचती हूँ,शब्दों की पोटली से,
कविता तो निकल आयेगी,
पर रोटी......

(10)

*मुझे आरक्षण चाहिए*

रसोई के काज से,
मुझे संरक्षण चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए
अथवा मेरी एक पंक्ति को
सौ के सम अधिभार मिले
और मेरी तुकबन्दी को भी
ढ़ेर सारा प्यार मिले|
हर मंच पर आरक्षित मुझे
गौरव का क्षण चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए|
गीत लिखने से पहले,
मुझे रोटी लिखनी होती है
और चतुष्पदी मेरी
सब्जी संग भुनती रहती है|
दोहे,मुक्तक रहते बिखरे
बुहरा आँगन चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए|
भाव सयाने बच्चे मेरे,
रखते ख्याल हैं मेरा
निबटूँ जब चूल्हे चौके से,
सर सहलाते मेरा
वक्त पर मेरे भावों को
अनावरण चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए|
         
        इन कविताओं पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि "हेमा जी की रचनाएं भाव पक्ष की दृष्टि से निरंतर नयी ऊंचाइयों की ओर जा रही हैं।"
     वरिष्ठ व्यंग कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "इसमें कोई संदेह नहीं है कि हेमा तिवारी भट्ट में कविता के बीज पर्याप्त मात्रा में निवास कर रहे हैं और वह भीतर से फूट फूट कर बाहर आकर सब को ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं"।
      मशहूर शायरा डाॅ मीना नक़वी ने कहा कि "मुझे लगता है कि हेमा छंदबद्ध रचनाओं की अपेक्षा छंदमुक्त कविताओं में अधिक प्रभावशाली हैं"।                       मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि  “उनकी छंदमुक्त रचनाओं पर दृष्टि डाली जाती है, तो वहां एक प्रवाह दृष्टिगोचर होता है। एक लयात्मकता मिलती है, जो कविताओं को और भी रोचक बना देती है"।
      वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "छंद मुक्त कविताओं के जरिए वे तेजी के साथ अपनी पहचान बना रही हैं। अद्भुत प्रतीकों के जरिए वह जीवन के भोगे हुए यथार्थ को उजागर करती हैं"।             मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने कहा कि "मैंने उन की रचनाओं को पढ़ा और यह जाना कि वह बारीक नज़र से संसार को पढ़ने और उसे कविता बनाने या गीत की शक्ल में गुनगुनाने का गुण जानती हैं"।
       समीक्षक डॉ मौहम्मद आसिफ़ हुसैन ने कहा कि "हेमा जी अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के चयन और उनके बरतने का भरपूर सलीका रखती हैं।"
        युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि "हेमा तिवारी भट्ट के कविता लेखन में सकारात्मक शब्द शैली एवं भावनात्मकता का सटीक  सामंजस्य मिलता है"।
        युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि "प्रत्येक रचना किसी न किसी सामाजिक समस्या से जुड़ी हुई है, चाहे वह समस्या स्वयं के भीतर चल रहा द्वंद्व हो अथवा स्वयं से ऊपर उठकर शेष समाज में व्याप्त विषमताएं"।
        युवा शायर फ़रहत अली खान ने कहा कि "सभी कविताओं में शब्द रूपी धागे अपने-अपने केन्द्रीय भाव रूपी पेड़ के तनों के इर्द-गिर्द क़रीने से बाँधे गए हैं"।
        डॉ अज़ीम-उल-हसन ने कहा कि "हेमा जी 'मुझे आरक्षण चाहिए' के द्वारा वर्तमान समाज पर कटाक्ष भी करती है वहीं 'नए साल में' भविषय की चिंता भी करती हैं"।
        युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि "छंदमुक्त रचनाएं लिखना और उनमें अपने पाठकों को बांधे रखना दुष्कर कार्य है लेकिन हेमा जी इसमें सफल हैं"।
       युवा शायरा मोनिका मासूम ने कहा कि "प्रिय हेमा न केवल अपने शब्दों के माध्यम से समाज को दिशा देती हैं अपितु अपने व्यक्तिगत रूप से भी जहां तक संभव हो सके लोगों का मार्ग प्रशस्त करती हैं"।           युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि "हेमा जी पाठकों को निरंतर कर्मशील, सकारात्मक, प्रगतिशील कालातीत होने का संदेश देती हैं"।
        ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि "इन कविताओं को पढ़कर मुझे पूरा यक़ीन है कि हेमा तिवारी भट्ट का साहित्यिक भविष्य उज्जवल है। एक अलग रंग की कवियत्री मुरादाबाद को मिल गई है।"

 ✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
 मुरादाबाद 244001
मो० 7017612289

मंगलवार, 16 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भक्त की कहानी-----चिड़िया रानी, चिड़िया रानी


         रेनू ने किचन की खिड़की से देखा।नाश्ते में फिर पापाजी ने थाली में रोटी सब्जी बचा दी थी।रात भी वह थाली में खाना बचा कर गेट पर डाल आये थे।वह मन ही मन झुंझला उठी,"पापा जी सठिया गए हैं,खुद ही कहते हैं।अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं करना चाहिए।चाहे कितनी भी अच्छी सब्जी बना लूँ इन्हें थाली में खाना बचाना ही है।मालूम है यही जताना चाहते होंगे कि खाना स्वाद नहीं बनाती तो पूरा कैसे खायें?पर कह तो सकते हैं कि और रोटी नहीं चाहिए।"
   रेनू को खाना बर्बाद न जाने देने की एक सनक सी थी।वह गरमागरम रोटियांँ बनाती और सबको उनकी जरूरत के अनुसार पूछ पूछ कर उतनी ही रोटियाँ थाली में देती,जितनी जिसे खानी होती ताकि रोटियाँ बर्बाद न जायें या बासी न बचें। पापाजी अक्सर कहते, "बेटा गृहस्थ का घर है,एक दो रोटी फालतू बनी रखी रहें तो अच्छा होता है।कोई भूखा आ जाये तो उसे दे सकते हैं।नहीं तो गाय ,जानवर तो हैं ही।" रेनू कभी कभार तो संयोग से एक रोटी अधिक बना लेती थी।पर अपनी बर्बाद न जाने देने वाली सनक के चलते वह नियमित ऐसा करने से चूक जाती थी।
   रेनू इसी झुंझलाहट में किचन साफ कर रही थी कि उसे छत से कुछ आवाज आती सुनाई दी।वह जिज्ञासा वश छत पर पहुँचने ही वाली थी कि उसे एक गीत के शब्द साफ साफ सुनाई दिये,"चिड़िया रानी,चिड़िया रानी।चुग लो दाना,पी लो पानी।" पापा जी थाली में बची रोटी के टुकड़े टुकड़े कर के छत में फैलाते हुए यह गुनगुना रहे थे और बहुत सी छोटी छोटी गौरैया बेझिझक उन टुकड़ों को चाव से खा रहीं थीं।पापा जी के पाँवों के पास ही गली का वह कुत्ता जिसे कि मोहल्ले वालों ने बहादुर नाम दे रखा था,शान्त आज्ञाकारी शिष्य-सा बैठा था।शायद पापाजी की रात की रोटी का हकदार वही था।रेनू को यह दृश्य देखकर बहुत अच्छा सा लगा।साथ ही उसे अपनी गलती का एहसास भी हुआ।वह किचन में गयी और अपने लिए बना कर रखी रोटी उठा लायी।उसने दबे पांव जाकर वह रोटी बहादुर के आगे डाल दी।बहादुर ने जैसे ही रोटी लपकी,पापाजी के गौरेया से हो रहे संवाद में व्यवधान पड़ गया।पापाजी ने पीछे मुड़कर देखा तो रेनू खड़ी थी,वह मुस्कुरा दिये।अब रेनू भी मुस्कुरा रही थी।
 
✍️हेमा तिवारी भट्ट

बुधवार, 3 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा----- तसल्ली


"मम्मी काम वाली आंटी का फोन है।"
"रीसीव कर ले बेटा और स्पीकर ऑन करके यहांँ शेल्फ के ऊपर रख दे। मैं बर्तन धो रही हूँ,हाथ गीले हैं। यहीं से सुन लूँगी।"
"हैलो,भाभी जी राम राम।मैं शीतल की मम्मी बोली रई।"
"हां, नमस्ते शीतल की मम्मी।"
"भाभी जी,सब खैर कुशल है।"
"हाँ,सब ठीक है।आप बताओ कोई परेशानी तो नहीं है।"
"ना,भाभी जी कोई परेशानी नहीं।बस ये पूछने के तांयी फोन कर रही थी के काम पर आ जावें क्या अब?"
"नहीं, नहीं।अभी खतरा टला थोड़े ही है।अभी तो और कुछ दिन एहतियात रखनी पड़ेगी।"
"वो ऐसा है ना भाभी जी।जब तुमने छुट्टी करी थी,तो हम अपने गाँव चले गये थे।इतने दिनों में अपने गेहूँ भी समरवा लिये और कुछ दिन गाँव में भी काम कर लिया।अब खाली बैठे हैं।तब शीतल के पापा ने कयी कि काम को पूछ लो।जो भाभीजी कहेंगी तो लौट चलेंगे कमरे पर को।"
"नहीं,शीतल की मम्मी ।अभी नहीं।और आप लोग भी ऐसे आवाजाही मत करो।जहाँ हो वहीं रहो।हाँ,कोई परेशानी हो तो बताओ।"
"ना भाभी जी, परेशानी ना है।तुमने एडभांस दे ई दी थी।गाँव में अनाज सब्जी की परेशानी ना है।परधान,डीलर सब लोगन की मदद कर रै हैंगे।"
"तो फिर आराम से गाँव में रहो ना जब अब समय मिला है तो।यहाँ आठ लोग के साथ किराये के एक कमरे में रहती थी तो रोज गाती थी,भाभी जी गाँव में रहते तो कितने सही रहते।ये भी रोना था कि काम के चक्कर में गाँव जाने का टाइम नहीं मिलता। तुम्हारी तो सुन ली भगवान ने।"
"ना भाभी वो बात ना है।गाँव तो अपना घर है।कुछ नहीं तो भूखे तो नहीं मरने देगा।पर जिनगी में केवल पेट तो ना है। बच्चों की पढ़ाई लिखाई,शादी ब्याह...।पैसे चाहिए हर काम कू।खैर जे छोड़ो,ये बताओ...घर का काम तुमी कर रही।"
"और कौन करेगा शीतल की मम्मी....मैं ही कर रही हूँ।"
"नई मैं सोची कि कहीं कोई आस पड़ोस की रख ली हो।काम भी तो भतैरा है तुमारा।"
"हाँ,वो तो है पर जब काम पे किसी को रखना ही होता तो तुम्हें ही वापस ना बुला लेती।जब लॉकडाउन हटेगा तो तुम्हें ही बुलाऊँगी,बे फिकर रहो"
"वो तो मुझे भरोसा है तुम पर।लोकडोन कभी तो खतम होगा पर इस बीच नौकरी न चली जाय बस यही चिन्ता है हम मजूरों की।तुमसे बात करके तसल्ली है गयी।ठीक है राम राम भाभीजी!"

 ✍️हेमा तिवारी भट्ट
बैंक कॉलोनी, खुशहालपुर
मुरादाबाद 244001
मो.न.-7906879625

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा ----- साधु
















          मिस मालिनी को कला के क्षेत्र में उसके उल्लेखनीय योगदान के लिए शहर के प्रतिष्ठित सम्मान से आज सम्मानित किया जा रहा था।सम्मान ग्रहण करने और आभार अभिव्यक्ति के दो शब्द कहने के बाद जब वह अपने स्थान पर वापस लौटी तो गले में रुद्राक्ष माला धारण किये और गेरुए वस्त्रों से सुसज्जित संत गोपालदास जी ने आगे बढ़कर बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया।संत ने उसकी कला की भूरि भूरि प्रशंसा की।कार्यक्रम की समाप्ति तक संत जी मालिनी के आसपास ही रहे और उसके परिवार व कार्य के बारे में प्रश्न कर उससे परिचय बढ़ाते रहे।
   "मैं गंगा मैया व कन्या उद्धार के सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ हूँ।आप कलाकार हैं,अपनी कला के माध्यम से आप भी हमारी संस्था से जुड़कर समाज सेवा कर सकती हैं।"संत ने बड़ी आत्मीयता से कहा।
        मालिनी बहुत खुश थी कि शहर का एक वयोवृद्ध प्रतिष्ठित संत उससे इतनी आत्मीयता से पेश आ रहा है।वह सोच रही थी गोपालदास जी वाकई संत हैं जो स्वयं तो नेक कार्य कर ही रहे हैं,मुझ जैसे नवोदित कलाकार को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।वह इन्हीं ख्यालों में डूबी थी कि उसकी एक परिचिता शिक्षाविद श्रीमती शुक्ला ने उसे पीठ पर थपकी दी और इशारे से उसे एक ओर बुलाया।फिर वह बड़े प्यार से बोली,
"बेटा मालिनी एक बात कहूँ,मानोगी।"
"जी, क्यों नहीं।आप बताएं तो सही।"
"तो बेटा इस बुड्ढे गोपालदास से दूर ही रहना।"
मिस मालिनी चौंक कर बोली,
"पर मैम वे तो बड़े सज्जन और साधुवेशधारी संत हैं।"
श्रीमती शुक्ला तपाक से बोली,"हर साधुवेशधारी साधु नहीं होता,बेटा।पहनावे और दिखावे पर मत जाओ,अपनी अक्ल लगाओ।"
मालिनी अब किंकर्तव्यविमूढ़ थी।

✒हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद244001

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता -- रोटी ...


वह देखती है
मेरी तरफ,
उम्मीदों से।
क्योंकि मैं....
लिख सकती हूँ,
रोटी।
उसने सुनी थी,
भूख पर....
मेरी शानदार रचना।
उसे कुछ समझ नहीं आया,
सिवाय रोटी के।
तब से उसकी निगाह,
पीछा करती है,
हर वक़्त मेरा।
पता नहीं क्यों,
उसे लगने लगा है,
रोटी पर लिखने वाले,
रोटी ला भी सकते हैं।
पर उसे नहीं पता
मैं खुद भी ढूँढ रही हूँ
रोटी....
इस तरह
अपने भूखे मन के लिए।
पर उसे देखकर
मेरा मन भर आया है।
अब नहीं करता मन,
रोटी पर लिखने का।
मैं असहाय हो गयी हूँ,
शब्दों की पोटली से,
कविता तो निकल आयेगी,
पर रोटी.......
✍हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा

*पश्चाताप*

"कमला!क्या तुमने टेबल पर रखा मेरा पर्स संभाला था?"

"नहीं दीदी,मैं तो झाड़ू पोछा कर के बर्तन धोने चली गयी थी।मैंने ध्यान भी नहीं दिया।"

"अच्छा ....पता नहीं पर्स कहाँ रख दिया मैंने?ठीक है,अभी तू जा।मैं ढूँढ़ लूँगी,यहीं कहीं होगा।"

कमला के जाते ही भीतर के कमरे से रवि लॉबी में दाखिल हुआ,"अरे इस चोर को ऐसे ही क्यों जाने दिया?जब तुमने खुद उसे पैसे निकालते देख लिया है तो फिर अनजान होने का नाटक क्यों?"

"रवि...!कमला पैदायशी चोर नहीं है।कितने सालों से वह हमारे यहाँ काम कर रही है।कभी कोई नुकसान हुआ?....लापरवाही मैंने की है।मुझे उसके माँगने पर रुपयों के लिए मना नहीं करना चाहिए था।वह बहुत जरूरत में थी और सामने नोटों का बण्डल।मन डोल गया होगा।फिर कई गुलाबी नोटों में से केवल एक नोट निकाला।"

"क्या मतलब  है इसका?"

"यही कि उससे गलती हुई है,अपराध नहीं।अगर मैं उसे सजा देती तो शायद ही सुधार की गुंजाइश बचती।पर सजा न देकर उसके ज़मीर को जगा पाने की एक उम्मीद तो बची है।"

"अरे छोड़ो फिजूल की बातें।मैं पुलिस को फोन कर रहा हूँ,ये लातों के भूत होते हैं,ऐसे नहीं मानेंगे।"

"प्लीज रवि!बस एक बार मेरी बात मान लो।"वह लगभग गिड़गिड़ायी।

बाहर गेट के पास ड्रॉइंग रूम की दीवार की ओट में छिपकर सब सुन रही कमला की आँखों से झरझर आँसू गिर रहे थे।उसने पल्लू से बँधे नोट को निकाला और भीतर आकर मालकिन के पैरों में रख दिया।कान पकड़कर आँसू बहाती कमला को पश्चाताप का और कोई तरीका नहीं पता था।

✍ _हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद ✍