बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा

*पश्चाताप*

"कमला!क्या तुमने टेबल पर रखा मेरा पर्स संभाला था?"

"नहीं दीदी,मैं तो झाड़ू पोछा कर के बर्तन धोने चली गयी थी।मैंने ध्यान भी नहीं दिया।"

"अच्छा ....पता नहीं पर्स कहाँ रख दिया मैंने?ठीक है,अभी तू जा।मैं ढूँढ़ लूँगी,यहीं कहीं होगा।"

कमला के जाते ही भीतर के कमरे से रवि लॉबी में दाखिल हुआ,"अरे इस चोर को ऐसे ही क्यों जाने दिया?जब तुमने खुद उसे पैसे निकालते देख लिया है तो फिर अनजान होने का नाटक क्यों?"

"रवि...!कमला पैदायशी चोर नहीं है।कितने सालों से वह हमारे यहाँ काम कर रही है।कभी कोई नुकसान हुआ?....लापरवाही मैंने की है।मुझे उसके माँगने पर रुपयों के लिए मना नहीं करना चाहिए था।वह बहुत जरूरत में थी और सामने नोटों का बण्डल।मन डोल गया होगा।फिर कई गुलाबी नोटों में से केवल एक नोट निकाला।"

"क्या मतलब  है इसका?"

"यही कि उससे गलती हुई है,अपराध नहीं।अगर मैं उसे सजा देती तो शायद ही सुधार की गुंजाइश बचती।पर सजा न देकर उसके ज़मीर को जगा पाने की एक उम्मीद तो बची है।"

"अरे छोड़ो फिजूल की बातें।मैं पुलिस को फोन कर रहा हूँ,ये लातों के भूत होते हैं,ऐसे नहीं मानेंगे।"

"प्लीज रवि!बस एक बार मेरी बात मान लो।"वह लगभग गिड़गिड़ायी।

बाहर गेट के पास ड्रॉइंग रूम की दीवार की ओट में छिपकर सब सुन रही कमला की आँखों से झरझर आँसू गिर रहे थे।उसने पल्लू से बँधे नोट को निकाला और भीतर आकर मालकिन के पैरों में रख दिया।कान पकड़कर आँसू बहाती कमला को पश्चाताप का और कोई तरीका नहीं पता था।

✍ _हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद ✍

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