गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा ----- साधु
















          मिस मालिनी को कला के क्षेत्र में उसके उल्लेखनीय योगदान के लिए शहर के प्रतिष्ठित सम्मान से आज सम्मानित किया जा रहा था।सम्मान ग्रहण करने और आभार अभिव्यक्ति के दो शब्द कहने के बाद जब वह अपने स्थान पर वापस लौटी तो गले में रुद्राक्ष माला धारण किये और गेरुए वस्त्रों से सुसज्जित संत गोपालदास जी ने आगे बढ़कर बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया।संत ने उसकी कला की भूरि भूरि प्रशंसा की।कार्यक्रम की समाप्ति तक संत जी मालिनी के आसपास ही रहे और उसके परिवार व कार्य के बारे में प्रश्न कर उससे परिचय बढ़ाते रहे।
   "मैं गंगा मैया व कन्या उद्धार के सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ हूँ।आप कलाकार हैं,अपनी कला के माध्यम से आप भी हमारी संस्था से जुड़कर समाज सेवा कर सकती हैं।"संत ने बड़ी आत्मीयता से कहा।
        मालिनी बहुत खुश थी कि शहर का एक वयोवृद्ध प्रतिष्ठित संत उससे इतनी आत्मीयता से पेश आ रहा है।वह सोच रही थी गोपालदास जी वाकई संत हैं जो स्वयं तो नेक कार्य कर ही रहे हैं,मुझ जैसे नवोदित कलाकार को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।वह इन्हीं ख्यालों में डूबी थी कि उसकी एक परिचिता शिक्षाविद श्रीमती शुक्ला ने उसे पीठ पर थपकी दी और इशारे से उसे एक ओर बुलाया।फिर वह बड़े प्यार से बोली,
"बेटा मालिनी एक बात कहूँ,मानोगी।"
"जी, क्यों नहीं।आप बताएं तो सही।"
"तो बेटा इस बुड्ढे गोपालदास से दूर ही रहना।"
मिस मालिनी चौंक कर बोली,
"पर मैम वे तो बड़े सज्जन और साधुवेशधारी संत हैं।"
श्रीमती शुक्ला तपाक से बोली,"हर साधुवेशधारी साधु नहीं होता,बेटा।पहनावे और दिखावे पर मत जाओ,अपनी अक्ल लगाओ।"
मालिनी अब किंकर्तव्यविमूढ़ थी।

✒हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद244001

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