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सोमवार, 10 मई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी- कटघरे में ममता*

 


    अपनी पहली संतान दो महीने की नवजात बेटी गुड़िया को सीने से लगाये रीना अक्सर उससे खूब बतियाती और भर भर कर अपना प्यार उड़ेलती रहती थी।उसका बचपन जैसे लौट आया था।पापा बताया करते थे,बचपन में कैसे वह प्लास्टिक की गुड़िया को गोद में लेकर पूरा दिन उसे सजाती,संँवारती,बतियाती और किसी के भी उसे छूने पर रोने लगती थी।अब वह रोती तो नहीं,पर रसोई बनाते या घर का काम समेटते हुए उसे जब कुछ समय को अपनी यह गुड़िया घर के किसी अन्य सदस्य की गोद में देनी पड़ती थी तो दसियों बार वह बीच बीच में आकर उसे बेसब्री से देखती,कसमसाती और जल्दी जल्दी काम निपटाकर पहले उसे गोद लेना चाहती।

    रोहन कहता,"अरे खाना तो खा लो पहले,फिर पकड़ लेना।" पर वह दौड़ती हुई सीधे माँ जी के पास जाती।सास टोकती,"अरे जा,पहले खाना खा ले।खाना खाते हुए बच्चे को पकड़ेगी क्या? कहीं नहीं जा रही तेरी बेटी,अपनी दादी की गोद में है और बहुत मज़े में है।क्यों बाबू,है ना।मेरा सोना बाबू....." 

    सास की बात बेमन से मानते हुए वह रसोई की ओर चल देती।रोहन चिढ़ाता,"मेरी बात तो नहीं सुन रही थी।सास का फरमान बड़ी जल्दी सुन लिया।वाह जी वाह..." वह रोहन को गुस्से में देखती पर अगले ही पल उसकी आंँखों में आँसू होते और पनीली आँखें लिए वह जल्दी जल्दी खाना खाने लगती।रोहन भी उसे देखकर भावुक हो जाता और समझाता,"रीना,ये बचपना ठीक नहीं है।हर माँ को अपने बच्चे से बहुत प्यार होता है,खासतौर पर जब वह उसकी पहली संतान हो।क्या मुझे अपने बच्चे से प्यार नहीं है?लेकिन रीना क्या केवल प्यार ही सब कुछ है।हमें अपने बच्चे को अच्छी परवरिश देनी है।उसका भविष्य भी संवारना है और ये काम हम उसे केवल हर समय गोद में लेकर नहीं कर सकते।दस दिन बाद तुम्हारी मैटरनिटी लीव पूरी होने वाली है।मैं भी अपनी ड्यूटी पर चला जाऊँगा।फिर तो हमें अपनी गुड़िया को माँ की गोद में ही देना होगा और फिर इसमें गुड़िया की भलाई ही तो छुपी है।उसे प्यार करने वाली अनुभवी दादी से ज्यादा भला और कौन उसका ख्याल रख सकता है? वैसे भी तुम ऑफिस में काम करोगी या गुड़िया का ख्याल रखोगी।तुम लकी हो कि तुम्हारे पास जॉइंट फैमिली है,केयर करने वाली सास है वरना न्यूक्लियर फैमिली वालों की ओर देखो जो बेबी सिटर्स के भरोसे अपने छोटे-छोटे बच्चे छोड़ कर नौकरी पर जाते हैं।" 

    रोहन ने रीना के आँसू पोछे और गले से लगा लिया।रीना हकीकत के सूखे रेगिस्तान की तपिश को महसूस करने लगी।इस तपिश ने उसके मन की कोमलता पर पपड़ी जमानी शुरू कर दी थी पर अपनी गुड़िया को गोद में लेते ही उसकी ममता का झरना फिर से बह निकलता था।

            आखिर वह दिन भी आ गया जब रीना को ड्यूटी जॉइन करनी थी।रीना ने सुबह जल्दी उठकर बच्ची की देखभाल में जरूरी लगभग सभी बंदोबस्त पूरे कर दिये ताकि उसकी बुजुर्ग सास को उसके आफिस से लौटने तक कोई दिक्कत न हो।सास की मदद के लिए उसने एक काम वाली बाई भी लगा दी थी।अपनी गुड़िया को गोद में लेकर उसने उसे खूब सारा प्यार किया और फिर अगले ही पल आँसू भरी आँखों और भरे मन से बेटी को अपनी सास की गोद में देकर वह आफिस को चल दी।

           वह दिन बहुत मुश्किल भरा बीता।घर पर गुड़िया के लिए गाय का दूध लगा दिया गया था ताकि बोतल से उसे गाय का पोष्टिक दूध पिलाया जा सके।पर गुड़िया के भविष्य की पुष्टता के फेर में उसके हिस्से का नैसर्गिक पोषण रीना के सीने से उतर कर उसके कपड़ों पर फिर रहा था।इधर दूध उतरता था उधर आँखों से आँसू।दोनों में होड़ लगी थी पर रीना के लिए दोनों को ही संभालना मुश्किल हो रहा था।उसकी सहेली रमा ने उसकी दशा समझी और बॉस से कहकर उसे जल्दी घर भेजने की गुजारिश की।

           "ठीक है,आज जाओ।पर ये रोज रोज नहीं चलेगा।"इस एहसान के बोझ तले दबी रीना घर आ गयी।अपनी गुड़िया को गोद में ले कर वह बहुत रोयी।पर फिर रोहन की भविष्य वाली बात और बॉस की चेतावनी को याद करके संभली,उसने गुड़िया को बोतल का दूध पिलाया और उसके हिस्से का दूध ब्रेस्ट पम्प से निचोड़कर नाली में बहा दिया। बहुत मुश्किल लम्हा था।पर मां की ममता पर हकीकत ने अपनी पहली खुष्क परत चढ़ा दी थी।हालांकि आंखों से रिसती ममता ने पूरी रात तकिये को नम रखा।

       धीरे धीरे आदतें बदलने लगीं।रीना का लौटा हुआ बचपना व्यस्क रीना से विदा लेकर फिर से बचपन में चला गया।वह रोबोट की तरह घर और आफिस के सारे काम समय से फिट रखती थी।शाम को लौटकर वह एक बार अपनी गुड़िया को गोद में लेती और फिर कुछ संभलकर वापस अपनी सास की गोद में देकर घर के कामों में लग जाती,उसे भय रहता कि कहीं गुड़िया की ममता उस पर हावी होकर उसके सुरक्षित भविष्य की राह का रोड़ा न बन जाय।

     समय बीत रहा था।रीना और रोहन ने अपनी बेटी को सुन्दर भविष्य देने का हर प्रबंध किया था।उसके लिए हर सुविधा उन्होंने जुटायी थी।अपनी बेटी की अच्छी परवरिश के लिए रीना ने अपनी सास की हर भली बुरी बात को आँख मूंद कर माना था,उनकी हर फरमाइश पूरी की थी और उनके हर ताने को नजरंदाज किया था।वह स्वयं में आश्वस्त थी कि उसने माँ होने का फर्ज ईमानदारी से निभाया है।लेकिन जैसे-जैसे गुड़िया बड़ी हो रही थी,वह अपने मम्मी पापा से अधिक समय की चाह रखने लगी थी।

        नौकरीपेशा दम्पत्ति हर सुविधा जुटा सकता था और इसकी कीमत वह नौकरी को समय देकर चुका रहा था,इसलिए अपनी बेटी को अतिरिक्त समय कहाँ से देता?

        एक दिन गुड़िया ने मम्मी से कहा,"मम्मी,कल आप दोनों को स्कूल आना है।मेरा प्रोग्राम है।आप आओगे न।" 

        "ओ वेरी नाइस बेटा! लेकिन कल मेरे आफिस में एक जरूरी मीटिंग है।इसलिए छुट्टी नहीं मिल पायेगी और तुम्हारे पापा भी लखनऊ ऑफिस के काम से जा रहे हैं,तो हम लोग नहीं आ पायेंगे।आप दादी को लेके जाना न,ठीक है।" 

        "नहीं मम्मा, आप चलना।आप हाफ डे लीव ले लेना बस।" 

        "नो बेटा !हाफ डे भी नहीं मिलेगा इस समय।आइ एम रियली सॉरी।"

     "अरे !कैसी माँ है,ये।बेटी गिड़गिड़ारही है और ये अंग्रेजी में गिटपिट कर रही है।अरे दादी तो पैदा होने से अब तक संभाल ही रही है।पर तूने क्या फर्ज निभाया है माँ का? बैग टाँगा और निकल लिये आफिस।दिन भर वहांँ कुर्सी तोड़ी और शाम को दो-दो रोटी डाल दी सबके आगे।बस हो गया सब काम।न मोह न ममता।बच्चे को अपने हाथों से पाला हो तब न उसके दर्द को,उसके दुख,उसके सुख को समझे।सचमुच इतनी पत्थर दिल औरत नहीं देखी मैंने।" सास ने तो अपनी रोज की ही टोन में बात कही थी,पर आज रीना की ममता कटघरे में थी।

         रीना को जोर का धक्का लगा,वह बेचैन हो गयी थी।वह उठकर अपने कमरे में चली गयी और खूब जोर जोर से रोने लगी।वह असहाय थी,आखिर अपनी ममता का सबूत कैसे दे।अपनी बेटी की अच्छी परवरिश के लिए उसने अपनी भावुक ममता को एक आधुनिक माँ के कर्तव्य में किस मुश्किल से ढाला था।ये दर्द,ये बलिदान कोई समझ सकता था क्या।

        वह ये सब सोच ही रही थी कि गुड़िया "मम्मी! मम्मी!" कहती हुई कमरे में दाखिल हुई।रीना ने जल्दी से अपने आंँसू पोंछे और बेड पर संभल कर बैठ गयी।गुड़िया ने पास आकर अपनी मम्मी के गालों पर प्यारा सा किस किया और गले लगकर आगे बोली,"मम्मी,आपको छुट्टी नहीं मिल रही है तो कोई बात नहीं,आप परेशान मत होओ।मैं आपको घर पर ही अपनी परफॉर्मेंस दिखा दूँगी,ओके।मैंने देखा है आपको आफिस का बहुत काम होता है।अगर आप आफिस नहीं जाओगे तो आपको सैलरी नहीं मिलेगी,सैलरी नहीं मिलेगी तो हम ये सब लाइफ कैसे इंजॉय करेंगे,है न।पापा ने मुझे सब समझाया है।आप मुझसे बहुत प्यार करते हो न,मम्मी।मैं सब जानती हूँ।आप दादी की बात का बुरा मत मानना,ठीक है।कल मदर्स डे के लिए प्रोग्राम था स्कूल में और मैं आपको सरप्राइज देना चाहती थी इसलिए जिद कर रही थी।" रीना ने अपनी गुड़िया को कस कर गले लगा लिया।खुशी के आँसू आंखों से उमड़ कर बहने लगे थे।मदर्स डे की पूर्व संध्या पर गुड़िया ने अपनी माँ की ममता को बाइज्जत कटघरे से बाहर निकाल लिया था।

✍️हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ---गुनगुनाती जिंदगी


जितना मैंने पढ़ा,

जितना मैंने सुना,

डर फैलता गया,

आँखों के कोने कोने में,....

मुझे साक्षात दिखने लगी 

पड़ोस में रहने आयी मौत.....

उसके नाखून भयानक थे,

हर पल मंडराने लगे 

उसके नाखून 

मेरे सिर पर......। 

मौत के लक्षण 

उतर आये 

मेरे शरीर में।

प्राणवायु सूखने लगी....

और मैं जुट गयी इंसान होने के नाते

अपनी जान बचाने की होड़ में...

इसी होड़ा होड़ी के दरमियान 

मैंने अचानक ध्यान दिया....

बेजुबानों पर.......

हमारा पालतू 'जैरी' निडर था 

और मस्त भी....

छत पर आने वाली चिड़िया भी 

दहशत में नहीं दिखी....

दाना लेने आयी गिल्लू भी 

बेफिक्र थी....

उसने देखा मुझे मुड़कर 

बार बार हमेशा की तरह....

जितना मैंने देखा...….

अपने आस पास....

ज़िन्दगी गुनगुनाती मिली....

चढ़ते सूरज की किरणों में,

सरसराते पत्तों में

मम्मी जी की आरती में।

दूध वाले,अखबार वाले,

सब्जी वाले,कूड़े वाले,

और ये गली में खेलते बच्चे,

सब ही तो ज़िन्दगी से भरे हुए थे।

अब नहीं दिख रही थी

मुझे मौत पड़ोसन सी...

और अब वे नाखून भी 

गायब हो रहे हैं यकायक....

क्योंकि मैंने बंद कर दिया है

आभासी पढ़ना और सुनना

मैं अब पास पड़ोस का 

सच देखने लगी हूँ...

जानने लगी हूँ.... 

मौत तो एक चारपाई है

जब कोई थक जाता है,

उस पर जाकर लेट जाता है।

लेकिन ज़िन्दगी मेहमान है,

उसे होंसलों के सोफे पर बैठाना होगा,

उम्मीद की मीठी चाय पिलानी होगी।

मेहमान का स्वागत सत्कार करना होगा,

क्योंकि 'अतिथि देवो भव' के 

संस्कार है हमारे...

तब तक मौत की खटिया 

खड़ी करनी ही होगी,

क्यों न शुरुआत हम सब 

अपने दिमाग के दालान से करें....

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

सोमवार, 29 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की रचना -----रंग जो जल से कभी धुलें न, आओ ऐसे रंग लगाएँ


होठों पर मुस्कान बिखेरें,

आँखों में विश्वास जगाएँ।

तुझ में,मुझ में,इस में,उस में

रंग जो भेद करा न पाएँ।

केवल कर में रखे रहें ना

मन के तन पर रच बस जाएँ।

रंग जो जल से कभी धुलें न,

आओ ऐसे रंग लगाएँ।

हेमा तिवारी भट्ट ,मुरादाबाद

शनिवार, 27 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट का व्यंग्य -------नया रोजगार समाज सेवा


         "विश्व में दूसरे नम्बर की जनसंख्या का पोषण करने वाली भारतभूमि अनेक पोषक तत्वों से भरपूर है,अन्नपूर्णा है और प्रत्येक उद्यमी युवा कुटुम्बी के लिए इसके पास रोजगार के अवसर ही अवसर हैं।"

            श्रीमान चौबे जी अपना ज्ञान बखार रहे थे।वे ज्ञान का असीम भण्डार रखते हैं।समय तो उनका अपना लंगोटिया यार है,हर समय उनके पास रहता है।समय की नौकरी नामक सौत से उनका गौना अब तक नहीं हुआ है।इसीलिए शहर के हर आयोजन में वह समय के साथ होते हैं और हर आयोजन उनका यह कर्ज उन्हें नये-नये बकरों की भेंट के साथ चुकाता है।इन बकरों की बलि वे अपने नये समाज सेवा रूपी अनुष्ठान में चढ़ाते हैं।

            मुँह में हर वक्त चाशनी सी घुली रखने वाले,गली मोहल्लों की हर छोटी समस्या से लेकर वैश्विक राजनीति तक की बड़ी खबरों के विशेषज्ञ श्री चौबे जी,बेरोजगारी को समस्या नहीं मानते हैं, बेरोजगार को मानते हैं।उनकी दृष्टि में बेरोजगार का मतलब वह अकर्मण्य व्यक्ति है,जो अवसर भुनाने का सलीका नहीं जानता,जिसे समाज सेवा नहीं आती।उनके मत में आज के समय में समाज सेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं,पर उनके पड़ोसी गुप्ता जी को यह बात निपट विरोधाभासी लगती है।

            गुप्ता जी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक, नौकरीपेशा व्यक्ति हैं।बहुत ही नेक और सज्जन हैं।नौकरी और घर के कामों को निभाते हुए रोज शाम का थोड़ा समय चुरा कर चौबे जी के शरणागत होते हैं और देश की समस्याओं पर विलाप करते हैं। हालांकि उनका स्वयं का जीवन खुशहाल है।पर रोने की आदत का कोई क्या करे?अब सब चौबे जी तो होते नहीं कि बेरोजगारी के बावजूद हर हाल खुशहाल।

            एक दिन गुप्ता जी ने करूण स्वर में पूछा,"चौबे जी,आप ये बताइये जो व्यक्ति बेरोजगार हो,जिसके अपने रहने खाने का कोई जुगाड़ न हो,कोई जमा-पूंजी न हो।वह क्या समाज सेवा करेगा? मुझे आपकी यह अवसर ही अवसर वाली बात बिल्कुल समझ नहीं आती।"

            "भाई गुप्ता, तुम्हें....मैं समझ में आता हूँ?" चौबे जी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ गुप्ता जी की ओर देखा।गुप्ता जी ने हथियार डाल देने वाली दयनीय मुद्रा में हाथ जोड़कर कहा,"नहीं,प्रभु।" 

            "तो तुम्हारे बस का नहीं है इस गूढ़ तत्व को समझना।"चौबे जी ने गम्भीरता का भाव ओढ़ते हुए कहा फिर तुरन्त गला खराश कर आगे कहना जारी रखा," फिर भी तुम्हें वह गहन ज्ञान सांकेतिक बताने का प्रयास करता हूँ,जिसे भगवान कृष्ण भी गीता में वाचन से रह गये या यह कह सकते हैं उनकी इसी अनुकम्पा से मुझे इस कलियुग में यह ज्ञान बाँटने का अवसर मिला है।"

            गुप्ता जी गद्गद् होकर अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हुए और करबद्ध विनीत होकर चौबे जी की तरफ भक्तिसिक्त दृष्टि से देखने लगे।चौबे जी ने कृष्णवत् तर्जनी हवा में उठायी और समझाया,"सुनो गुप्ता!कलियुग में समाजसेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं।यह वह रोजगार है जिसमें केवल तुम्हारी वक्तृत्व कला ही तुम्हारी योग्यता है।तुम नि:संकोच याचना करने का गुण रखते हो तो यह तुम्हारी अतिरिक्त योग्यता है।बेरोजगार होना तुम्हारी पूँजी है,क्योंकि इस रोजगार के लिए जिस चीज की परम आवश्यकता है वह है समय और बेरोजगार के पास ही तो समय की उपलब्धता होती है।"

            "लेकिन निरा समय लगाने से क्या होगा,गुरूवर?",

          गुप्ता जी अभी भी अज्ञान रूपी अंधकार में घिरे हैं।लेकिन चौबे जी निर्विकार भाव से ज्ञान गंगा को अपने मुख कमण्डल से मुक्त करते हैं,"बेरोजगार केवल अपना समय लगाता है और रोजगार में लगे लोगों से प्रशस्ति पत्र और विशिष्ट अतिथि बनाये जाने के नाम पर धन उगाही करता है।"

"लेकिन कोई समझदार धनिक, बेरोजगार को अपना धन आखिर क्यों कर देगा?"गुप्ता जी अभी भी संशय के बादलों से घिरे हैं।पर चौबे जी तर्क की तलवार से इन बादलों को छाँटते हुए आगे बढ़ते हैं,"क्योंकि उन लोगों के पास समय नहीं है,पर समाजसेवा का मन है या यह कहिए विशिष्ट अतिथि बनने का और समाजसेवा का प्रशस्ति पत्र पाने का लालच तो है।इसी लालच के वशीभूत वे सहर्ष वह धनराशि समाजसेवा के बेरोजगार आयोजक को भेंट कर देते हैं,जिसका वह आग्रह करता है।" गुप्ता जी के चेहरे पर असहायता का भाव है,चौबे जी संकटमोचक बन इशारों से उन्हें समस्या रखने को कहते हैं।गुप्ता जी प्रश्न सरकाते हैं,"पर गुरुवर,यह धनराशि तो समाजसेवा में लग जायेगी फिर बेरोजगार को क्या फायदा होगा?" चौबे जी मुस्कुराते हुए गूढ़ रहस्य समझाते हैं,"गुप्ता जी,यह सहृदय बेरोजगार आयोजक आंँकड़ों के खेल में भी पारंगत होना चाहिए जिससे वह समाजसेवा की लागत,आयोजन का खर्च और अपनी अतिरिक्त कमाई सब आसानी से कुशलतापूर्वक मैनेज कर ले।इस तरह समाज सेवा रूपी रोजगार जहाँ बेरोजगार का पालन पोषण करता है वहीं अन्य रोजगार में लगे लोगों को भी कुछ मुद्राओं के खर्चे पर समाचार पत्रों के पृष्ठ पर महान समाजसेवी के रूप में छपने का आनन्द प्रदान करता है।इसीलिए तो मेरा गुरू मंत्र है, 'समाजसेवा मतलब चोखा धन्धा' "

            गुप्ता जी की आँखे अब खुल चुकी थी,उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया था और असीम संतोष की झलक उनके मुखमण्डल पर चमक रही थी।इस परमज्ञान के लिए गुरुदक्षिणा ही समझकर उन्होंने चौबे जी के आगामी निःशुल्क कम्बल वितरण के कार्यक्रम में सहभागिता शुल्क के रूप में 260 रूपये प्रति की दर वाले कम्बल हेतु 500 रूपये का एक करारा नया नोट अग्रेषित किया।चौबे जी ने बड़ी विनम्रता से राशि ग्रहण की और गुप्ता जी की पीठ थपथपाई।फिर उठकर कमरे की मेज पर रखे फ्लेक्स और प्रशस्ति पत्र में मोटे अक्षरों में कई सहयोगियों की सूची में श्री गुप्ता जी का भी नाम दिखाते हुए अर्थपूर्ण मुस्कान लुटायी।भावविभोर होकर यश सुख की कल्पना करते हुए अब गुप्ता जी अपने घर की ओर बढ़ चले थे।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

गुरुवार, 11 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा-----टीस


"आपकी शादी को कितने साल हो गये हैं,ताई जी?",

रमा ने आँगन में ताऊजी का हुक्का तैयार कर रही ताई जी से पूछा।

"दो साल बाद पचास पूरे हो जाएंगे।"ताई ने चिलम में कोयले के टुकड़े रखते हुए बेरुखी से जवाब दिया।

"अच्छा....",रमा ने चहकते हुए कहा,"इसका मतलब है कितना प्यार आप दोनों में।वरना आजकल तो... शादियाँ दस साल भी चल जायें तो बहुत बड़ी बात होती है।"

"प्यार का तो पता नहीं बेटा...,पर इतनी लम्बी शादी चलने में.... संस्कार का बहुत बड़ा हाथ है।अगर आजकल की तरह हमें भी केवल अपने लिए सोचने और हिम्मत के साथ गलत का विरोध करने की छूट होती तो शायद मैं तेरा तायाजी के तानाशाही मिजाज को इतना लम्बा न झेल पाती और शादी के कुछ समय बाद ही तलाक ले लेती। दरअसल ये पूरी जिंदगी तो तेरे ताया की जी हुजूरी में निकल गयी।कभी कभी सोचती हूँ.... क्या दूसरा जीवन होता होगा?अगर नहीं, तो यह जीवन तो मैंने खुद के लिए शादी के बाद कभी जिया ही नहीं,इस बात की टीस हमेशा बनी रहेगी "

रमा अचरज से ताई को देख रही थी और ताई भावशून्य आँखों से हुक्के को।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट का संस्मरण ------- अमृत

       


सेवारत प्रशिक्षण के तीन दिवसीय शिविर में पहली बार अमृत से मुलाकात हुई थी।उसकी ओजस्विता,उसकी ऊर्जा,उसकी वाकपटुता,उसकी चपलता और किसी भी विषय पर उसके धाराप्रवाह शास्त्रार्थ कर पाने की क्षमता ने मेरे दिलो-दिमाग पर गहरा असर किया था।पर कभी कभी लगता था जैसे वह बीच बीच में कहीं भटक जाती है, लेकिन स्वयं ही स्वयं को मुख्यधारा से जोड़ती वह पुन: अपनी जीवन्तता का परिचय देती तो सब कुछ ठीक लगता।

        ऐसा लगता था जैसे वह समय की मिट्टी को समेटकर एक पात्र बना लेना चाहती हो और समय के इस पात्र में अपने भीतर के घनीभूत भावों को विविध रूप देकर वह उड़ेल देना चाहती हो।वह चाहती कि उसके आस पास मौजूद हर व्यक्ति श्रोता या दर्शक बनकर उसके समय पात्र से अवश्य ही रसपान कर उसे सराहे।तभी वह कविता,गीत, ग़ज़ल,भजन,श्लोक ,कहानियाँ, हास-परिहास, वाद-विवाद, लतीफे,भाषण आदि विविध परिस्थितियों के अनुकूल विधाओं के स्वाद इस पात्र में उड़ेलती रहती थी।

       सच बताऊँ तो प्रथम दृष्टया वह मुझे दिमाग से खिसकी हुई लगी थी।क्योंकि वह निरन्तर अपनी ही बक बक किये जाती थी।कभी कभी लोगों का ध्यान खींचने के लिए वह कुछ विवादित बातें भी कह उठती थी जिसके कारण अक्सर उसका मकसद पूरा हो जाता,क्योंकि इंसान की आम फितरत है कि वह विवाद से जल्दी और अनचाहे ही जुड़ जाता है।शिविर के प्रतिभागियों में से कुछ लोग उसकी बहुमुखी प्रतिभा के कायल हो चुके थे,पर अधिकांश लोग उसे सनकी या पागल समझते थे, जिनमें मैं भी थी।यह विडम्बना ही है कि हमारे भारतीय समाज में अतिसक्रियता,विलक्षण बुद्धि और अति विचारशीलता या संवेदनशीलता को अक्सर पागलपन या सनकीपन करार दिया जाता है।

          मुझे आज भी अफसोस है कि संवेदनशील होते हुए भी पहले दिन मुझे भी उसका व्यवहार सनकी लगा था और मैंने उसकी एक पहचान वाली से पूछ ही लिया था,"क्या इसको कोई मानसिक बीमारी है?"तो उसने तुरंत खण्डन करते हुए गम्भीरता पूर्वक कहा था,"नहीं, दीदी।वह बहुत अच्छी है।आप एक बार उससे दोस्ती कर के तो देखो।हालांकि वह बीमार है,लेकिन मानसिक बीमार तो कतई नहीं।"

    कौतूहल तो जगा था पर संकोचवश मैंने स्वयं कोई पहल नहीं की। सौभाग्य से प्रशिक्षण के दौरान हम सबको अपने-अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया गया। मुझे कविता लिखने का शौक है यह अधिकतर सहकर्मी जानते थे अतः मुझसे कविता सुनाने का आग्रह हुआ। मैंने अपनी एक कविता सभा में सुनाई।सभी को बहुत पसंद आई और सबने करताल से मेरा स्वागत किया।परंतु अमृत ने एक ऐसी बात कह दी कि मेरे कानों में विष सा घुल गया।अमृत खड़ी हुई और वही अपने असाधारण सनकीपने से बोली,"अरे भई,किसी की चुराई हुई कविता पढ़ने में क्या बात है? योग्यता हो तो चुनौती लो और मेरे साथ कविता में प्रतिस्पर्धा करो।"        

        मुझे बहुत बुरा लगा कविता लिखना मेरा शौक था।"चोरी की कविता" जैसा शब्द-समूह मेरे लिए गाली की तरह था।उसके इस व्यवहार ने मुझे उद्वेलित कर दिया था।लेकिन अमृत मुस्कुरा रही थी।

    एक अन्य प्रतिभागी महिला ने दोहे और श्लोक सुनाएं जो नीति परक थे।परंतु अमृत तब भी चुप नहीं रही और उसने दोहों के रचनाकारों के नाम पूछने शुरू कर दिए।इस पर उस महिला के आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंची,पर अमृत के लिए तो मानो यह सब खेल ही था।उसने खुद उठकर न केवल कई दोहे सुनाये बल्कि प्रत्येक दोहे के रचनाकार का नाम और उस रचनाकार का जीवन परिचय भी धाराप्रवाह बताना शुरू कर दिया।अब यह ज्यादा हो रहा था। प्रतिभागी धीरे धीरे मंच पर आने से घबराने लगे थे।अमृत के इस असाधारण व्यवहार की सदन में आलोचना होने लगी थी और आपसी खुसर-पुसर में उसके सनकी होने की चर्चा बढ़ती जा रही थी।तभी अचानक अमृत ने गीत सुनाने की पेशकश सदन में रखी और उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर गाना शुरू कर दिया।बहुत ही सुंदर फिल्मी गीत था जिसके बोल थे,"इक दिन बिक जायेगा" सदन में चुप्पी छा गई थी। कुछ देर पहले फैली कड़वाहट को उस मधुर गीत की धुन में सब भूल चुके थे और जब गाना खत्म हुआ तो पूरा सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था जिसमें मेरी तालियां भी शामिल थीं। मैं अजीब सी उधेड़बुन में थी।मेरे लिए कल तक सनकी अमृत,फिर कठोर प्रतिस्पर्धी अमृत अब एक जिज्ञासा बनती जा रही थी।

     मध्यावकाश के बाद प्रशिक्षक ने एक गतिविधि के तहत सभी को छ:छ: के समूह में विभाजित कर दिया।अजीब इत्तेफाक था, मैं और अमृत एक ही समूह में थे।अमृत मेरे पास आकर बैठी और बोली,"कब से इस मौके की तलाश में थी,अब जाकर मिला।अब देखना सबकी छुट्टी।दो धुरंधर एक ग्रुप में। सबसे अच्छा प्रेजेंटेशन हमारा ही होने वाला है।" मन को अच्छा-सा लगा।प्रस्तुतिकरण तैयार करते समय उसके विचार तर्कपूर्ण थे और अन्य लोगों के तर्कपूर्ण विचारों को भी समान महत्व देते हुए वह समूह भावना का परिचय दे रही थी।टास्क के बीच में ही उसने मुझसे कहा,"आप बहुत उम्दा लिखती हैं।आपको तब मेरी बात बुरी लगी होगी परन्तु सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए ऐसे आघात भी कभी कभी बहुत जरूरी होते हैं। मुझे भी लिखने का शौक है।पर आपकी तरह मेरी किस्मत कहाँ.....? अच्छा बताइये आपको घर का सपोर्ट तो है न।मेरा मतलब भाई साहब को आपके लिखने से कोई परेशानी तो नहीं।"

     एक नयी अमृत के पृष्ठ क्रमशः मेरे सामने खुल रहे थे।कल तक सनकी लगने वाली अमृत का उदार, मानवीय, सृजनात्मक, तार्किक और सबसे अलग एक संवेदनशील परन्तु भीतर से कहीं गहरे तक घायल चेहरा धीरे-धीरे मेरे मानस पटल पर छप रहा था।

            मैंने भी आत्मीय होकर बताया कि  किस तरह मेरा पूरा परिवार मेरा सहयोग करता है खासकर मेरे पति जो मेरी भावनाओं का पूरा ख्याल रखते हैं और उदार दृष्टिकोण रखते हुए मेरी रचनाओं को ना केवल सराहते हैं,बल्कि उचित मंच पर उन्हें ले जाने हेतु प्रोत्साहित भी करते हैं।जब मैं यह बात बता रही थी तब मैंने हर क्षेत्र में संपूर्ण सी लगती अमृत की आंखों में एक अजीब सूनापन देखा और एक फीकी सी बात उन मधुर होंठों से बाहर निकल कर आई,"सबकी किस्मत इतनी अच्छी कहां होती है।... ‌खैर भगवान का लाख-लाख शुक्रिया!आप किस्मत वाली हो।भगवान आपको खुश रखे।" कहते हुए अमृत ने फिर बात की दिशा बदल दी और हम टास्क पूरा करने में लग गये।    

    ***** ***** ***** *****    

         प्रशिक्षण का अंतिम दिन था।पहले दिन हुई अमृत की आत्मीय बातों ने मुझे उसके करीब ला दिया था।सागर की तरह न केवल उसका विस्तार अधिक था बल्कि सागर की तरह उसमें गहराई भी थी जिसकी थाह पाने की ललक मुझ में जाग चुकी थी।आज मैं स्वयं ही अमृत के पास जाकर बैठ गयी थी।पर आज अमृत बुझी-बुझी सी थी।मैंने कारण पूछा तो उसनेे कमर में बँधी अपनी बेल्ट की ओर इशारा किया और कहा,"मेरा बेटा बड़े ऑपरेशन से हुआ था।पता नहीं उस समय कौनसा टीका गलत लग गया कि तब से आज तक कई डॉक्टर्स को दिखा चुकी हूँ पर कमर दर्द है कि ठीक ही नहीं होता।हमेशा ही यह बेल्ट बाँधे रहती हूंँ।कभी कभी दर्द असहनीय हो जाता है,आज भी यही हो रहा है।पर अब तो दर्द की आदत बन गई है।"उसका दर्द मुझे अपने भीतर तक महसूस हुआ। मुझे एहसास हुआ कि वह एक महान शख्सियत थी जिसने अपनी जीवंतता से अपने दर्द को मात दी हुई थी।उससे बातचीत के क्रम में मुझे पता चला कि वह अपने माता-पिता की दो संतानों में से इकलौती पुत्री थी।उसका भाई बहुत बड़ा बिजनेसमैन था। उसके पिता एक रिटायर्ड जज थे। मांँ स्वास्थ्य विभाग से रिटायर्ड थीं।पति भी व्यवसायी था और उसका ससुराल बहुत संपन्न था। एक 7 वर्ष का बेटा था उसका। जीवन में सब कुछ इतना आकर्षक था।फिर इतनी छटपटाहट क्यों थी,अमृत की आँखों में।इतनी व्याकुलता क्यों थी,उसकी बातों में।इतनी अधीरता क्यों थी,उसके व्यवहार में।

         शिविर समाप्त हो गया था। हम पुन: अपने कार्य स्थलों पर पहुंच चुके थे।यह प्रशिक्षण शिविर उससे मेरी मुलाकात का पहला और आखिरी स्थल बन जायेगा, ऐसी कल्पना करना भी मूर्खता था।पर स्मृति पटल पर धीरे धीरे इन पलों की तीव्रता मंद पड़ती जा रही थी।

    ***** ***** ***** *****

      वार्षिक सम्मेलन में हमारी संस्था की ओर से बीस सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी कार्यशैली और प्रदर्शन के आधार पर चयनित किए गए थे।विभागाध्यक्ष द्वारा उन्हें समारोह पूर्वक सम्मानित करने हेतु आमंत्रित किया गया था।मैं भी इस सूची में शामिल थी और मुझे पता चला था कि अमृत भी इस सूची में है।अतः बहुत दिनों बाद उससे मुलाकात होगी,यह सोच कर भी मैं रोमांचित थी। आधुनिक युग में भी ऐसी संवादहीनता का कारण यह था कि अमृत के पास अपना कोई फोन नंबर नहीं था।उसने यह कह कर बात टाल दी थी कि उसे फोन से एलर्जी है।कोई जरूरी संदेश होता है तो उसके पति के फोन से काम चलता है।उसके पति का नंबर न मैंने लिया न उसने दिया। इसलिए मेरे पास उस शिविर के बाद से उसकी कोई खबर नहीं थी।मंच पर मेरा नाम पुकारा गया मैंने प्रशस्ति पत्र लिया और आभार व्यक्त किया।मेरी नजरें अमृत को खोज रही थीं,परंतु मुझे अमृत कहीं दिखाई नहीं दी।अमृत का नाम मंच से पुकारा गया पर वह वहां नहीं थी।उसकी सहकर्मी ने उसका सम्मान ग्रहण किया। समारोह के समापन के बाद मैं अमृत की उस सहकर्मी के पास गई और मैंने अमृत के बारे में पूछा।उसने बताया कि अमृत के बारे में उसे भी तीन-चार दिन से कुछ नहीं पता है। क्योंकि वह 4 दिन से ऑफिस भी नहीं आई है। उसके पति के नंबर पर फोन करने पर वह बेरुखी से जवाब देता है ,"मुझे नहीं पता क्यों नहीं आ रही?" मैंने पूछा,"कोई परेशानी है क्या उसे ?" वह बोली, "परेशानी....परेशानी का पहाड़ है उसके सिर पर।" मैंने आश्चर्य से पूछा,"क्या मतलब........वह तो संपन्न परिवार से है।जॉब करती है, एक 7 साल का बेटा है।प्रतिभा की धनी है।बेस्ट ऑफिशियल अवार्डी है।अब शरीर की बीमारियों का क्या?ये तो लगी रहती हैं।उसकी स्थिति तो फिर भी ठीक है कि वह इलाज करा सकती है, दवाई ले सकती है।अब हर इंसान को सब कुछ तो नहीं मिल सकता।" वह बोली,"मैडम जो दिखता है,हमेशा वही पूरा सच नहीं होता।अमृत मैडम की कमर दर्द की समस्या तो उनकी असल समस्या के सामने बिंदु भर भी नहीं है?" "क्या....प्लीज मुझे खुल कर बताओ?",मैंने निवेदन किया। उसने गहरी साँस भरी और कहना शुरू किया,"अमृत जी के पति बहुत ही शक्की,पियक्कड़ और गुस्से बाज हैं।वह उनकी हर बात पर शक करते हैं।रोज पीते हैं और नशे में धुत होकर उन्हें बेरहमी से पीटते हैं।एक बार एक संपादक उनकी रचनाओं को छापने की बात लेकर घर पहुंच गया।उनके पति ने उसे पीट पीट कर घर से बाहर निकाला।उनकी सारी डायरियांँ,सारा लेखन आग के हवाले कर दिया और यहां तक कि उनके नौकरी करने पर भी उन्हें आपत्ति है।कई बार तो वह उनके पीछे-पीछे ऑफिस आ जाते हैं और निगरानी रखते हैं कि वह क्या कर रही है,किससे बात कर रही है ?और फिर बात बेबात सरेआम बेइज्जती करना शुरू कर देते हैं।"

     यह सुनकर मैं गुस्से से उत्तेजित होकर बोल उठी,"अरे अमृत जैसी पढ़ी लिखी महिला,एक सम्पन्न परिवार की बेटी,क्यों ऐसे शराबी व्यक्ति के ज़ुल्म सह रही है।उसे इसका प्रतिरोध करना चाहिए।आज के समय में तो महिलाओं के हित में इतने कानून हैं।ऐसे दुष्ट को तो सबक सीखाना चाहिए।" वह फीकी मुस्कान बिखेरती हुई बोली,"यह सब कहना जितना आसान है न मैडम उतना करना नहीं। मैंने भी कई बार अमृत जी को सलाह दी है पर उनकी बातों ने हमेशा मुझे चुप करा दिया।पता नहीं किस मिट्टी की बनी हैं। कहती हैं 'ज्ञान,संस्कार और सामाजिक प्रतिष्ठा वे बेड़ियाँ हैं उनके अंतःकरण पर जिनसे वह कभी निकल नहीं पायेंगी।क्योंकि इससे उनका परिवार और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लग जायेंगे।उनके बेटे की जिंदगी कानूनी दांव पेंचों में फँस कर रह जाएगी।कोई बात नहीं मियां बीवी में झगड़े तो होते ही हैं वह अपने प्यार से अपने पति का बर्ताव बदलकर रख देंगी।'पता नहीं मैडम!कितनी हिम्मत है उनके अंदर सब कुछ सह लेती हैं। किसी से कुछ नहीं कहती।कहती हैं 'पुलिस में जाकर क्या होगा उनके माता-पिता की इतने वर्षों से बनी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।उन्हें बुढ़ापे में लोगों की कितनी बातें सुननी पड़ेंगी। हमारे समाज में हर गलती का जिम्मेदार घुमा फिरा कर आखिर लड़की को ही समझा जाता है। फिर न्याय क्या पेड़ पर लगा पत्ता है कि गए और तोड़ लाए।वैसे ही हमारे देश में जजों की कमी है। कई केस न्याय की बाट जोह रहे हैं। न्याय तो जल्दी मिलेगा नहीं उल्टा जिंदगी कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते कट जाएगी और इस सब में उनके बेटे का बचपन, उससे उसके पिता की छांव,उनके माता-पिता व सास ससुर का बुढ़ापा,समाज में उनकी प्रतिष्ठा, उनके भाई का सुनहरा भविष्य सब दांव पर लग जाएगा।एक उनके जख्म सहने से अगर इतने घाव बच रहे हैं तो यही सही।फिर कभी तो भोर होगी।'ऐसी बातें करके ही वह चुप करा देती हैं।"

     मैं अवाक थी।अमृत से पहली मुलाकात याद आ रही थी।उस वक्त उसके व्यवहार पर जितना आश्चर्य हुआ था,आज उतना ही गर्व महसूस हो रहा था।वह एक सामान्य महिला से दैवीय रूप धारण करती जा रही थी। मैं भाव विभोर थी। उसके आदर्श ऊंचाई पर चमकते दिखाई दे रहे थे।

  तभी फोन की रिंग से मेरा ध्यान टूटा,मैंने अपना फोन चैक किया। परन्तु फोन अमृत की सहकर्मी का बज रहा था। उसने फोन रिसीव किया और ,"क्या.....?"के साथ उसका मुंह खुला रह गया।"कब...? कैसे....?"अग्रिम दो शब्द थे। उसने अश्रुपूरित नेत्रों से मेरी ओर देखा और बस इतना कह पायी,"अमृत सूख गया, मैडम!"

     ***** ***** ***** *****

       अमृत के आलीशान बंगले के बाहर लोगों की भीड़ जमा थी। हमारे विभाग के अधिकारी और सहकर्मी वहाँ मौजूद थे।दुमंजिले में कमरे के बाहर अमृत को रखा गया था। ऐसा लग रहा था जैसे अमृत अभी उठेगी और कहेगी,"ओय चुप करो भई! मैं तो मजाक कर रही सी गी।" पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

          अमृत की माँ दहाड़े मार कर रो रही थीं। रोते रोते वह बीच में बेहोश हो जाती तो लोग पानी के छीँटे मारकर और पानी पिलाकर उन्हें सँभालते।जब वह होश में आती तो आर्तनाद करती,"हाय बेटी तूने ये क्या किया?एक बार तो अपनी माँ को बताती।तेरा भाई तेरे लिए धरती पाताल एक कर देता।तेरे डैडी ने जिन्दगी भर लोगों के फैसले किये,तेरे लिए भी करते।पर तूने हमें कुछ न बताया बेटी।हाय मेरी लाडो हमें जिन्दा मार गयी तू।"माँ की दहाड़ों के साथ साथ औरतों के रुआँसे स्वर भी शामिल होकर माहौल को बहुत गमगीन बनाये हुए थे।

          दबे स्वर में लोग अमृत के पति और सास-ससुर की बुराई कर रहे थे।कोई कह रहा था कि उन्हें यकीन नहीं होता कि इतनी पढ़ी लिखी,नौकरीपेशा,सम्पन्न मायके वाली लड़की इन जाहिलों के ज़ुल्म को अब तक बर्दाश्त करती रही।अमृत का बेटा मामा की गोद में बैठा भरी आँखों से इधर उधर टुकुर-टुकुर देख रहा था।मेरी नज़र अमृत के पति को ढूँढ रही थीं। मैं एक बार नर वेशधारी उस भेड़िये को देखना चाहती थी पर पता चला कि वह घटना के बाद से ही फरार है।

     "4 दिन से वह लगातार अमृत की पिटाई कर रहा था उसने अमृत के मायके जाने पर भी रोक लगा दी थी।बेटे को भी वह अमृत के पास नहीं जाने देता था और उसके बारे में भला-बुरा कहता था।",एक पड़ोसन बता रही थी। दूसरी ने कहा,"उस दिन ऑफिस से कोई आदमी आया था यह बताने के लिए कि उसका नाम ईनाम के लिए गया है तो वह फलां तारीख को फलां जगह ईनाम लेने आ जाए। बस उस आदमी को देखकर ही मिन्दर भड़क गया था और 'ले ईनाम!ले ईनाम!'कह कर डंडे से वह पिटाई की थी उसकी कि दूसरे दिन पूरे बदन पर नील पड़ी हुई थी और वह उठ भी नहीं पा रही थी।तभी से वह ऑफिस भी नहीं गई थी।" "बेचारी कब तक सहती आज मौका पाकर आजाद हो गई, लटक गई फंदे से,"एक अन्य ने कहा।

        मुझे धक्का लगा।यकीन नहीं हो रहा था,"अमृत और ऐसा कदम... ।नहीं,.....यह हत्या है।"मन कह रहा था।पर लगातार घनों की चोट से पहाड़ भी तो टूट जाते हैं।हो सकता है अमृत के भीतर का पहाड़ भी हिल गया होगा।सच्चाई अमृत के साथ ही चली गई थी।पर मेरे पूरे वजूद को इस भयावह दृश्य ने कम्पित कर दिया था।आज पता चला वह समय को क्यों समेट लेना चाहती थी?वह बोलने का कोई अवसर क्यों नहीं गवाती थी।पर अब क्या?.....,

      विष को अमृत करने की चेष्टा में अमृत सूख चुका था।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ----,पंख

 


"माँ,माँ !देख कबूतर के पंख" चहकते हुए चम्पा ने आँगन में गिरे पंख को उठाया और बड़े प्यार से पंख को सहेजते हुए एकटक देखने लगी।"अरे क्या पंख पंख करती रहती है।किसी चिरैया का टूटा हुआ पंख दिखा नहीं कि बस पगला जाती है।,"माँ चूल्हा फूँकते हुए बीच में बोली।

     "माँ !मुझे भी एक दिन आकाश में उड़ना है।देखो ऊँचे आकाश में उड़ती चिड़िया कितनी अच्छी लगती है।ऊपर आकाश में कोई दीवार नहीं,कोई बाडर नहीं,कोई हवेली नहीं,कोई झोपड़ी नहीं।बस पंख फैलाओ और पूरा आकाश नाप लो।वहाँ कोई बंदिश नहीं।," माँ आकाश निहारती चम्पा की खुली आँखों में सपनों की चमक को अचरज से देखती रही।

      रेल की पटरियों के पास बसे छोटे से एक गाँव में झनकू गरीब की कुटिया में चम्पा टूटे पंखों को सहेज कर उड़ान भर रही थी।झनकू और उसका परिवार मुखिया के घर व खेतों में काम करके किसी तरह दो वक्त की रोटी जुटाता था।

           झनकू को चम्पा की ऐसी बातें बिल्कुल पसंद नहीं थीं। एक तो गरीबी की मार ऊपर से छ: बेटियों का पिता झनकू कभी हँसता हुआ नहीं देखा गया।बेटियों को वह हमेशा डाँट डपट कर रखता।सबसे छोटी चम्पा से तो वह खासा चिढ़ता था।चम्पा भी डर के मारे पिता के सामने जाने से बचती थी।बस माँ के सामने ही वह बेझिझक अपनी उड़ान भर लेती थी।

           धीरे-धीरे समय बीत रहा था।एक बार गाँव में हैजा फैला।चम्पा की माँ और दो बहनें इसकी चपेट में आ गईं।जहाँ खाने का भी आसरा न हो,वहाँ बेहतर इलाज की कौन सोचे।बदहाली में झोलाछाप की देखरेख में माँ के पीछे-पीछे दोनों बहनें भी काल का ग्रास बन गई।जीवित रह गयी शेष बड़ी तीन बहनों को पिता ने किसी तरह ठिकाने लगाया।हाँ....झनकू इसे ठिकाने लगाना ही कहता था।

           एक बेटी उसने अधेड़ अफीमची से ब्याही,दूसरी तीन-तीन बीवियों वाले नि:संतान जमींदार के पल्ले बंधी,जो किसी दूर के जिले का रहने वाला था।तीसरी बची माला ने अपनी पसंद के कल्लू से भाग कर शादी कर ली तो पिता ने उस से नाता ही तोड़ लिया।पर वह मन ही मन संतुष्ट था कि चलो यह भी ठिकाने लग गई,अब अपना नसीब खुद ढोये। शेष रह गई थी 16 साल की चम्पा जिससे पिता को कभी स्नेह नहीं रहा।चम्पा को ऐसा कोई दिन याद नहीं था जब उसने पिता से सहज होकर बात की हो या पिता ने ही ढंग से उससे बात की हो।माँ के जाने के बाद तो संवाद का रहा सहा पुल भी टूट गया था।

                     चंपा अजीब सी उधेड़बुन में थी।वह जानती थी कि एक दिन उसे भी ठिकाने लगा दिया जाएगा।उसने टूटे हुए पंखों के अपने खजाने को बड़ी अधीरता से देखा।पंखों की ऊर्जा मानो उसके हाथों और पैरों में आ गई थी।उसने एक गठरी बाँधी और पटरियों की ओर चल दी। पिता अभी काम से नहीं लौटा था,वैसे भी उसके लिए चम्पा का कोई अस्तित्व नहीं था।अक्सर वह मुखिया की पशुशाला में ही रुखा सूखा खा कर सो जाता था।

       चम्पा रेल के जनरल डिब्बे में शौचालय के पास अपनी गठरी पकड़ कर सहमी सी बैठ चुकी थी।तभी डिब्बे ने झटका खाया और रेल छुक छुक करती हुई बढ़ चली।चम्पा का दिल धक् कर गया था,पर जल्द ही उसे उड़ान का आभास होने लगा।उसने दरवाजे से बाहर देखा तो सब कुछ पीछे छूटता नजर आ रहा था उसे लगा जैसे पैरों में बँधी बेड़ियां खुल कर गिर गई हों।वह बहुत हल्का महसूस करने लगी।अपनी गठरी पकड़ कर चम्पा गहरी नींद में खो गई थी।वह ऊँचे आसमान में उड़ रही थी,"जहाँ कोई दीवार न थी,और न ही था कोई बाडर।"

         सुबह "चाय गरम..... !चाय ...."की आवाज के साथ चम्पा की नींद खुली।बड़ा स्टेशन था।जरूर कोई बड़ा शहर होगा, सोचकर चम्पा उस स्टेशन पर उतर गई।उस दिन यूँ ही शहर में भटकते हुए एक भण्डारे में खाना खाकर उसने स्टेशन पर रात गुजारी।कुछ दिन ऐसे ही बीते।एक दिन उसकी मुलाकात अपने ही जिले की एक महिला से हो गई।बातों ही बातों में आपस में दूर की जान पहचान भी निकल आयी।उसने अपने मालिक से कहकर चम्पा को झाड़ू पोछे का काम दिला दिया।

     गरीबी की मारी गाँव की चम्पा के लिए यह नया आकाश था।सब कुछ ठीक चल रहा था।चम्पा को पगार मिलने लगी थी और वह अपने ख्याली पंखों को सहेजते हुए अपने आकाश में उड़ान की कल्पना करते फूली न समाती थी।

     पर... क्या जमीन से उड़ान भरने के लिए अपना अपना आकाश पा लेना इतना सरल होता है?चम्पा की ख्याली उड़ान ज्यादा लंबी न चल सकी।

     चकाचौंध भरा शहर,ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ ,सफेदपोश व्यवसायी,हाई फाई लाइफ स्टाइल,नौकरों की फौज रखने वाले धनाढ्य वर्ग.... इस आकर्षक तस्वीर के पीछे कुछ इतना स्याह होता है, जो कभी किसी की नजर में नहीं आता,जो कभी बड़ी खबर नहीं बनता।चम्पा जैसे गुमनाम चेहरे बड़े- बड़े शहरों में कब और कैसे गुम हो जाते हैं,कोई नहीं जान पाता।ऐसे मसले पैसों के ढ़ेर के नीचे दबा दिए जाते हैं। 

     अखबार के स्थानीय खबरों वाले पृष्ठ पर एक छोटी सी खबर थी," सर्वेंट क्वार्टर में पंखे से लटकी मिली नौकरानी की लाश" चंपा की उड़ान लाश बन कर लटकने पर थम गई थी। 

           तहकीकात जारी है हत्या अथवा आत्महत्या?पर सब जानते हैं एक गरीब जवान लड़की की हत्या की बजाय आत्महत्या का एंगिल ही सब झंझटों से मुक्ति का रास्ता है।आखिर बड़े बड़ों की चमक फीकी नहीं पड़नी चाहिए।

        चम्पा के गाँव का पता पुलिस को उस महिला से मालूम हुआ।पुलिस ने वहाँ संपर्क साधा।गाँव के मुखिया ने झनकू से पुलिस की बात फोन पर करवायी।झनकू की आवाज सपाट थी,बिल्कुल उसकी ही तरह रूखी।उसके लिए चंपा पहले भी नहीं थी।चलो,अब ठिकाने लग गई तो सामाजिक दायित्व भी नहीं रहा।पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के बाद अंतिम संस्कार हेतु ले जाने के लिए उसे सूचित किया।झनकू ने मना कर दिया,"मैं नहीं आ सकता साहब,गरीब आदमी हूँ।आप जैसे चाहें वैसे मिट्टी को ठिकाने लगा दें।" 

       अपनी झोपड़ी में लौटकर झनकू ने चंपा के सहेजे हुए पंखों के ढ़ेर को थोड़ी देर निहारा और फिर उन्हें उठाकर हवा में उछाल दिया।चम्पा पंख लगाकर विस्तृत गगन में उड़ चली थी,"जहाँ ना कोई दीवार थी और न कोई बाडर।"

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

बुधवार, 18 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ----एक खत जिन्दगी के नाम


डियर जिन्दगी,

पता है मैं तुम्हें हमेशा प्यार करती आयी हूँ।लेकिन कभी-कभी बहुत झल्लाया है तुमने और बहुत बहुत रूलाया भी,इतना कि ……

मौत से दोस्ती करने को जी चाहा......हाँ-हाँ उसी मौत से जो तुम्हारी दुश्मन है|

पर कुछ तो है तुम में कि तुम्हारे दिए इतने जख्मों के बावजूद मौत मुझे तुम्हारे खिलाफ बरगला न सकी,

अच्छा ही हुआ.....वरना मैं उन खूबसूरत पलों के तोहफे कैसे खोल पाती जो तुमने छुपाकर रखे थे अपने पहलू में मेरे लिए|कैसे जान पाती कि तुम जो मुझे इतनी बुरी लगती हो कभी कभी......अनिर्वचनीय सुन्दर,रोमांचक और अद्भुत भी हो|

  वक्त की भट्टी में तपते तपते तुमसे मेरी दोस्ती अब गहराती जा रही है और तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम भी बढ़ता जा रहा है|मैं अब तुम्हें समझने लगी हूँ,समझने लगी हूँ कि ये जो तुम कभी-कभी रूखी और कठोर हो जाती हो न,वो तरीका है तुम्हारा मुझे सँवारने का,मुझे निखारने का|वाकई तुम मेरी बेस्ट फ्रेण्ड हो,डियर जिन्दगी|पर एक बात कहूँ.....जब कुछ लोग तुम्हें समझ नहीं पाते और तुम्हारे दिए हुए चंद जख्मों के कारण तुम्हें खलनायक समझकर छलावी मौत से दोस्ती कर लेते हैं न,तो मुझे बड़ा अफसोस होता है|उस वक्त मेरा मन करता है काश मैं या मुझ जैसे वे लोग जिन्होंने जिन्दगी से दोस्ती कर ली है और जो मौत के छलावे से बच निकल आये हैं,उन्हें तुमसे रूठकर मौत से दोस्ती करने जा रहे लोगों को समय पर पहचानने और समझाने का एक मौका मिल जाता तो असमय होने वाली मृत्यु-मित्रता को रोका जा सकता|

   मैं तुम्हारी दोस्ती की अहमियत समझती हूँ डियर जिन्दगी और इसीलिए मैं तुम्हें प्यार करने वाले,तुम्हें चाहने वाले,तुम्हें शिद्दत से जीने वाले दोस्तों की संख्या बढ़ाना चाहती हूँ|

  आशा करती हूँ मेरी इस कोशिश में तुम भी मेरा साथ दोगी।दोगी न....

✍हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा ----बराबरी


"ये कंडक्टर की सीट है बहन जी,यहाँ मत बैठिए।"

"अरे भाई जरा तुम खड़े हो जाओ और बहन जी को बैठने दो।"

ड्राइवर ने सामने सीट पर बैठे अखबार पढ़ रहे युवक से कहा।पहले तो उसने अनसुना किया पर ड्राइवर के दोबारा कहने पर वह जैसे झल्ला गया।

"वाह भई वाह। वैसे तो लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं,लड़कियों को लड़कों के बराबर समझो,लैंगिक समानता,अलाना फलाना और बसों में महिला आरक्षित सीट भरने के बाद अनारक्षित सीट पर बैठे आदमी को भी महिला के लिए उसकी सीट से उठा रहे हो।क्या कहने इस इंसाफ के?धन्य हो नारीवाद!"कहकर भुनभुनाता हुआ वह फिर अखबार देखने लगा।ड्राइवर चुप हो गया।

            पूरी बस खचाखच भरी थी।पीछे बैठे एक बुजुर्ग से रहा नहीं गया,जोर से बोले,"बेटा अगर किसी तरह पीछे आ सको तो मैं अपनी सीट तुम्हें देता हूँ।" रमोला ने कृतज्ञता भरी मुस्कान भेंट की और भीड़ की ओर देखा।

      तभी एक दूसरा युवक जो कि बस में ही खड़ा था,उस युवक से बोला,"भाई अपनी क्रांतिकारी बातें फिर कभी कर लेना,पेपर छोड़ कर जरा मैडम की हालत तो देखो।शर्म आनी चाहिए तुम्हें।"

       अब उस युवक ने रमोला को ध्यान से देखा तो हिचकिचा गया।गलती सुधार करते हुए उसने अपनी सीट से उठते हुए कहा,"माफ कीजिए मैंने पहले ध्यान नहीं दिया,आप बैठ जाइये।"

     रमोला ने अब तक रॉड के सहारे अपने को मजबूती से टिका लिया था और सीटों के बीच के स्थान पर वह सावधानीपूर्वक खड़ी हो गयी थी।दृढ़ स्वर में उसने कहा,

"कोई बात नहीं आप बैठे रहिये।मुझे तो रोज ही सफर' करना है।............

वैसे आप सही कह रहे थे बराबरी का मतलब हर बात में बराबरी होना चाहिए।............

आपका धन्यवाद कि आपने मुझे सीट ऑफर की।मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगी कि कभी कोई गर्भवान पुरूष इस तरह खचाखच भरी बस में असहज हो रहा हो तो आप की तरह मुझे भी उसकी सहायता करने का समान अवसर मिले।"

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा ---बेटी


"अरे बाबू जी !क्यों परेशान हो रहे हैं,आप? सारी जायदाद दो हिस्सों में बाँटकर आप दोनों बहनों को दे दो।मुझे कुछ नहीं चाहिए।आप साथ हैं तो सब कुछ है मेरे पास।"

"हम माँ बाप हैं बेटा।तेरे साथ अन्याय कैसे होने देंगे?"अम्मा बोली।

"चाहिए तो मुझे भी कुछ नहीं है, भाई।पर दुष्ट को सबक तो सिखाना ही होगा।हमारे पिता की हम तीन संतानें हैं,तो जायदाद का बँटवारा भी तीन हिस्सों में होगा।वैसे भी मुझे पता है अम्मा बाबू के इलाज में तूने अपनी सारी जमा पूँजी भी खर्च कर दी है।"बड़ी बहन समझाते हुए बोली

"हमें जीवन देने वाले माता-पिता के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता,दीदी।"

"काश !उस मॉडर्न बनी फिरती नासमझ ममता के दिमाग में भी कुछ बात आती तो माँ बाबू जी अपनी जमीन होते हुए भी आज इतने असहाय नहीं होते।जमीन को बेचकर ही सही अपने इलाज के लिए कम से कम कुछ रकम तो जुटा पाते।पर कहाँ....? यहाँ तो उसने बँटवारे को लेकर कोर्ट में मामला डाल दिया है।"दीदी ने दुखी स्वर में बोला।

"ममता से ऐसी उम्मीद तो कतई नहीं थी।आखिर बेटी है वह हमारी।हमने कभी बेटा,बेटी में फर्क नहीं किया।पर उसे हमेशा कम लगा और अब देखो सही कानून का गलत फायदा उठाकर वह अपने ही बीमार माँ बाप और उस भाई को कोर्ट कचहरी के चक्कर लगवा रही है जिसने उसकी खुशहाल गृहस्थी बसाने में कोई कसर न छोड़ी। भगवान ऐसी औलाद किसी को न दें।"अम्मा हताशा से बिफर पड़ी।

लेकिन बाबू जी चुपचाप सिर झुकाए जमीन की ओर देखते रहे।शायद उन्हें अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि उनकी सबसे लाडली छोटी बेटी ममता ने अपने वकील पति की सलाह से उन पर ही जमीन के बँटवारे का मुकदमा डाल दिया है।

✍️हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा-----आँखें

   


 बहुत दिनों से प्रसाद सर गार्ड ऑफ ऑनर देने के लिए कैडेट्स को प्रैक्टिस करा रहे थे।संध्या बेस्ट कैडेट्स में से थी।उसकी ड्रिल काबिले तारीफ थी, लेकिन पता नहीं क्यों,प्रसाद सर खुश नहीं थे।सुबह से कई बार प्रैक्टिस करा चुके थे।हर बार अगेन कहकर फिर से मार्च कराते।पता नहीं अचानक क्या हुआ वह गुस्से में आगे बढ़े और उन्होंने संध्या के कन्धों को दोनों हाथों से पकड़ कर झिंझोड़ा,"सी इन माई आइज।देखो मेरी आँखों में।सीधे, सामने आँखों में।आखिर क्या परेशानी है तुम्हें?"

    संध्या की आँखे और भी झुक गयी,वह कोशिश करके भी उन्हें नहीं उठा पायी।प्रसाद सर थोड़ा संयत हुए और गहरी साँस भर कर बोले, "बेटा.... तुम्हारा ड्रिल इतना अच्छा है।पर कॉन्फिडेंस क्यों लेक है?तुम सामने आँख उठाकर मार्च क्यों नहीं करती हो?"

 लेकिन संध्या के कानों में तो उसके दादा जी की आवाज गूंँज रही थी,"आँखें नीची रखा कर छोरी।किसी दिन चिमटे से निकाल दूँगा"

✍️हेमा तिवारी भट्ट,मुरादाबाद

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-जॉम्बीज

   


मिश्रा जी ने आज छुट्टी ली हुई थी।उन्हें अपनी बहन के यहाँ सपरिवार सत्यनारायण कथा के लिए जाना था।शाम को इकलौते भान्जे की बर्थडे पार्टी थी,छुट्टी लिए बगैर चलता नहीं।वैसे भी ससुराल पक्ष की रिश्तेदारी अकेले निभाना मिश्राइन को पसंद नहीं था। क्योंकि कुछ उन्नीस बीस हो तो कम से कम ठीकरा मिश्रा जी के सिर पर फोड़ा जा सकता था।

      खैर छुट्टी थी तो इत्मीनान से सुबह की चाय बना कर,अपनी चाय और अखबार लेकर मिश्रा जी बालकनी में कुर्सी डाल कर बैठ गये। छुट्टी वाले दिन चाय बनाने की ड्यूटी अघोषित रूप से मिश्रा जी की होती थी,मिश्राइन उस दिन आराम से उठती थी और बनी हुई चाय का आनंद उठाती थी।वरना बाकि दिन तो बच्चों और पतिदेव का ब्रेकफास्ट, लंचबॉक्स आदि की भगदड़ में चाय या तो गरमागरम जल्दी जल्दी सुड़कनी पड़ती या ठण्डी होने पर पानी की तरह गले में उड़ेलनी पड़ती।

      मिश्रा जी ने चाय की चुस्की ली और अखबार उठाया। फिर ध्यान आया चश्मा तो टी वी वाले कमरे में ही रह गया है।उन्होंने बेटे रोहित को कमरे से चश्मा लाने के लिए आवाज दी।आज बच्चे की भी छुट्टी करा दी गयी थी और छुट्टी वाले दिन रोहित अन्य दिनों की अपेक्षा जल्दी उठ जाता था। शायद सब बच्चे ऐसे ही होते हैं।

      रोहित ने पापा का चश्मा देते हुए पूछा,"पापा मैं टीवी देख लूँ थोड़ी देर" मिश्रा जी ने यह कहते हुए हामी भरी कि टी वी का स्वर धीमा रखे ताकि मम्मी की नींद न खराब हो।पापा का यह कोमल रूप देखकर रोहित ने मुस्करा कर उनका गाल चूम लिया और थैंक्स पापा कहकर कमरे में चला गया। मिश्रा जी भी मुस्कुरा उठे,सुकून भरे भाव से उन्होंने चाय की अगली चुस्की ली और चश्मा पहनकर सामने अखबार खोल लिया।

      पहले ही पृष्ठ पर नक्सली और आतंकवादी हमलों की हेडलाइंस थीं।मिश्रा जी आज अच्छे मूड में थे,सो मन को उद्वेलित करने वाली खबरों को ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहते थे। उन्होंने पन्ना पलटा, "ऑनलाइन नशीले इंजेक्शन बेचने वाले गैंग का पर्दाफाश"

             मिश्रा जी ने पृष्ठ पर नीचे की ओर नजर दौड़ाई ,"पाँच साल की बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म" उसके पास ही चिपकी थी हेडिंग,"160रू.के लिए टेलर की हत्या" अगला पेज दिखा रहा था, "वृद्धा के साथ दुष्कर्म की कोशिश","डॉक्टर की लापरवाही से हुई नवजात की मौत","बेटों ने पिता को पीट पीटकर मार डाला" मिश्रा जी ने परेशान होकर फिर पृष्ठ पलटा "भ्रष्टाचार के कारण सरकारी योजनाएँ पात्रों तक नहीं पहुँचती", "बालिका गृह में सेक्स रैकेट संचालित","बेटी को जिंदा दफन किया माँ बाप ने" आदि आदि।हर पृष्ठ ऐसी ही नकारात्मक खबरों से भरा पड़ा था या फिर आज मिश्रा जी की आंँखों को केवल ये ही हेडलाइंस दिखाई पड़ रही थीं। 

       मिश्रा जी ने चश्मा सिर पर चढ़ाया और कप में बचे चाय के आखिरी घूँट को पिया।अब तक उन्हें बेचैनी सी होने लगी थी।वह आंँख मूंदकर कुर्सी पर पीछे की ओर सिर टिकाकर सोचने लगे।

         उन्हें याद आया,कल के अखबार में भी तो ऐसी ही खबरें थीं और कल के ही क्यों,कभी भी किसी भी अखबार में ऐसी खबरें ही तो बहुतायत में होती हैं। मिश्रा जी के दिमाग में उथल-पुथल मची हुई थी।उन्होंने दिमाग फेसबुक और वाट्स एप जैसे सोशल मीडिया की ओर दौड़ाया और पाया कि अखबार छोड़ो, फेसबुक ,वाट्स एप या न्यूज चैनल्स सब में ज्यादातर गिरती मानवता की खबरें ही तो देखने को मिलती हैं।पर अपनी व्यस्तता के बीच हम कब रुक कर विचारते हैं, तभी यह सब आम हो गया है और अब हमें उद्वेलित भी नहीं करता।पर आज मिश्रा जी फुर्सत के इन पलों में भी असहज हो गये थे।वह घबराकर बालकनी में टहलने लगे।

      तभी उन्हें बालकनी में सामने वाले पड़ोसी का बेटा नजर आया।वे उसे ध्यान से देखने लगे तो उन्हें वह व्याभिचारी नजर आने लगा जो कभी भी उनकी बेटी या पत्नी को अपनी हवस का शिकार बना सकता था।हो सकता है वह उनकी अम्मा को भी न छोड़े। मिश्रा जी पसीना-पसीना हो गये।अब वे आँखें मूँद कर फिर से कुर्सी पर बैठ गए।कल ऑफिस में बैंक लोन लेने आये बुजुर्ग का चेहरा उनकी आँखों के सामने आ गया,जिससे उन्होंने कमीशन लिया था,जिसमें मैनेजर की हिस्सेदारी भी थी।उन्हें दिखा कि वह बुजुर्ग रास्ते में मिलने वाले हर दफ्तर में हर कर्मचारी को पैसे बाँटते जा रहे हैं और जितना भी वह राह में आगे बढ़ते ऐसा लगता जैसे उनकी साँस रुक रही है और आखिर में वह निढाल होकर गिर गये हैं।मिश्रा जी घबरा कर उन्हें पकड़ना चाहते हैं,पर वह बुजुर्ग निष्प्राण हो गये हैं। घबराकर मिश्रा जी की आँख खुल जाती हैं और वह गमछे से अपना पसीना पोछते हैं।वह कुर्सी सरकाकर अन्दर कमरे की ओर देखने लगते हैं।उन्हें दिखता है कि उनका बेटा बड़ा हो गया है और उसे नौकरी नहीं मिली है।वह मृतक आश्रित कोटे की नौकरी पाने के लिए अपने पिता की ओर छुरा लेकर बढ़ रहा है।वह बेतहाशा चिल्लाना चाहते हैं,"मुझे मत मारो बेटा! मैं तुम्हारा पापा हूँ।" पर उनका गला सूख गया है और वह कुछ नहीं बोल पा रहे हैं।

      "पापा!पापा! क्या हुआ....?आप मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं?" 

          मिश्रा जी होश में आये और सँभलते हुए बोले,"कुछ नहीं बेटा....कुछ नहीं.....।" रोहित ने बोलना जारी रखा,"पापा,मैं अभी टीवी में एक सीरियल देख रहा था जिसमें जॉम्बीज थे।पता है पापा, जॉम्बीज इंसानों जैसे ही दिखते हैं पर उनमें संवेदनाएँ या भावनाएँ नहीं होती तभी तो वे अपने जैसै इंसानों को ही खा जाते हैं।जॉम्बीज क्या सच में होते हैं,पापा?" मिश्रा जी के मुँह से बेतहासा निकल पड़ा,"हाँ, हाँ,होते हैं,शायद....."

✍️हेमा तिवारी भट्ट, खुशहालपुर, मुरादाबाद (उ.प्र.)

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा -प्रभारी


"सर जी देखिए।अखबार में कल की प्रतियोगिता की खबर निकली है।"

"अच्छा....जरा दिखाना तो अखबार।मैं तो पूरे महीने इस प्रतियोगिता की प्रक्रिया में अध्यापकों और बच्चों के साथ इतना व्यस्त रहा कि परिणाम आने के बाद अखबार में विज्ञप्ति देने का ध्यान ही नहीं रहा।खैर हमारी और बच्चों की मेहनत रंग लाई और परिणाम में हमारे जिले के बच्चे विजेता रहे।जरूर कोर्डिनेटर सर ने विज्ञप्ति दी होगी।"

"नहीं सर जी, उन्होंने भी नहीं दी है शायद....क्योंकि वे विज्ञप्ति देते तो प्रतियोगिता प्रभारी में आपका और कोर्डिनेटर में उनका भी नाम या फोटो जरूर होता।"

"मतलब.....?"

"मतलब, ये देखिए...।विजेता बच्चों के साथ गणपत सिंह जी का फोटो और हेडिंग में 'राज्य में जनपद का नाम:वरिष्ठ प्रतियोगिता प्रभारी गणपत सिंह जी का प्रयास' लिखा हुआ है।"

अखबार का वह पन्ना देखकर सतीश सर की आँखे खुली की खुली रह गयी।एक महीने से वह कोर्डिनेटर जी के सहयोग से साथी अध्यापकों और बच्चों को प्रोत्साहित कर इस प्रतियोगिता के लिए तैयार कर रहे थे।यों तो गणपत सिंह की भी यह जिम्मेदारी थी पर वह हमेशा की तरह जिम्मेदारी औरों पर डालकर बेफिक्र था।और अब...

"मैंने आपको कई बार कहा है सर जी,पर आप सुनते नहीं।हमेशा मन लगाकर काम के पीछे पड़े रहते हो,कभी नाम का भी जुगाड़ रखा करो।"

सतीश अखबार की हेडिंग 'वरिष्ठ प्रतियोगिता प्रभारी गणपत सिंह' पर नजरें गड़ाए हुए धीरे से बोले

"प्रतियोगिता प्रभारी तो मैं था !"

आँखों के इशारे से उन्हें समझाते हुए जुनैद ने रहस्यमयी आवाज में कहा,

"पर विभाग का मीडिया प्रभारी तो गणपत सिंह है न सर जी..."

🖊️हेमा तिवारी भट्ट , मुरादाबाद

बुधवार, 30 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ---क्या खोया क्या पाया

क्या खोया क्या पाया हमने,

सोच रहे हैं आज।

ऊपर वाले की लाठी में,

होती नहीं आवाज।

चले जा रहे थे दौड़े हम,

खींची गयी लगाम।

कोरोना आया ऐसा,

सब जपें राम का नाम।

सड़कों ने राहत की साँसें,

ली थी मुद्दत बाद।

नदियों और झीलों ने देखी,

अपनी सूरत साफ।

घर में सारे परिजन अपने,

कितने अच्छे हैं।

सप्तपदी के जो भूले थे,

वादे सच्चे हैं।

लॉकडाउन ने हमें दिखाया,

अपनों का नवरंग।

भूले बैठे थे हम जिनको 

मोबाइल के संग।

पाकशास्त्री एक हमारे 

भीतर बैठा था।

एक दयालु मन भी,

नित सेवा पर निकला था।

लेकिन हुई क्षति भी अपनी,

भरी न जा सकती।

खोये अपने और पराए,

इस जग की थाती।

भारत गाँवों में बसता है,

फिर से सिद्ध हुआ।

हरिया लौटा घर दिल्ली से,

पल जब गिद्ध हुआ।

मतभेदों में,मनभेदों में,

भी उलझे थे हम।

और अर्थ की रीढ़ मुड़ी तो,

हुए सभी बेदम।

धीरे-धीरे फिर पटरी पर,

लौट रही है रेल।

कुछ खोया कुछ पाया हमने,

देखी धक्का-पेल।

✍️हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघु नाटिका----बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

*पात्र*------लाखन सिंह, उसकी वृद्धा माँ, लाखन की तीसरी पत्नी कमला, डाक्टर रीना व सूत्रधार।

सूत्रधार----(मंच पर गाते हुए प्रवेश करता है।)

जय गणपति जय गणेश।
जय गौरा जय महेश।
जय माँ वागीश्वरी
हर मन के तम निशेष।
जय भू,जय अनल,जल
जय नभ,जय पवन शेष।
होवे सब की कृपा,
विकसित हो मेरा देश।
विकसित हो मेरा देश।
विकसित हो मेरा देश।

(देवताओं को शीश नवाता है।पुनः दर्शकों की ओर मुख करके)
उपस्थित सम्मानित जन को,
करबद्ध हो शीश नवाता हूँ।
जनमन के जागरण हेतु,
मैं एक कथा सुनाता हूँ।
एक बार की बात कहूँ मैं
एक गाँव था बसा सुदूर।
उसी गाँव में एक चौधरी,
धन-पद के मद में था चूर।
अपनी मूंछों पर हरदम,
वह हाथ फेरता रहता था।
मूंछों वाला ही इस जग में
है सम्मानित कहता था।
उसकी ऐसी बातों पर,
माँ उसका समर्थन करती थी।
है पुरुष प्रधान,जगत सारा,
वह नारी,नारी से चिढ़ती थी।
कहती थी पुत्र वही सीढ़ी,
जो स्वर्ग द्वार तक जाती है।
बेटी तो धन पराया है,
किसी और वंश की थाती है।
ऐसे विचार वाले घर में,
इक गर्भवती बहू रोती है।
पुत्र रतन की आशाओं का,
बोझ शीश पर ढोती है।
बोझ शीश पर ढोती है।
(सूत्रधार गाता हुआ मंच से एक ओर को निकल जाता है।)

*दृश्य-एक*

(आलीशान कोठी का एक सर्वसुविधायुक्त कक्ष जिसमें पलंग पर एक गर्भवती महिला बैठी है और कुछ घबरायी हुई सी है।युवती की वय और संकोचमिश्रित आचरण उसके पहली बार गर्भवती होने के संकेत दे रहे हैं।तभी कमरे में एक वृद्धा प्रवेश करती है। युवती उठने का प्रयास करती है।)

वृद्धा-----अर्ररर् कमला बहू रहने दो,आराम से बैठी रहो। तुम्हारी कोख में मेरे वंश का चिराग पल रहा है।(गर्भ की ओर बढ़े ममत्व से देखती हुई)मेरे कान्हा, मेरे किरसन मुरारी!जब मेरे अंगना अवतरेंगे,तब पूरा जिला देखेगा चौधरी की आन बान शान।मोती लुटाऊँगी, मोती।
(युवती सकुचाकर वृद्धा से कुछ कहने का प्रयास करती है)

युवती----अअअअम्मा जी।

वृद्धा----(बड़े लाड़ से)हाँ,बोल बेटा।

युवती-----अअअअम्मा जी वो मैं कह रही थी अगर बिटिया हुई तोअ...

वृद्धा----(अत्यधिक आवेश में आकर बीच में बात काटती हुई) खबरदार बहू जो ऐसी मनहूस बातें की तो। स्वामी जी का आशीर्वाद लेकर आयी हूँ इस बार मैं।तेरे गले में ये जो ताबीज़ है इस बात का पक्का प्रमाण है कि बेटा ही होगा।

युवती-----(साहस बटोरकर)पर माँ जी मैंने सुना ऐसा ताबीज़ तो पहले दोनों दीदियों को भी आपने बांधा था,पर पुत्र जनना तो दूर वह दोनों तो अपनी जान भी गंवा बैठी।

वृद्धा----(क्रोध से तिलमिलाते हुए)बस कर छोकरी!चार अक्षर क्या पढ़ लिये बड़ों से ज़बान लड़ायेगी।(हड़बड़ाकर)उन दोनों ने.... उन दोनों ने तो....ताबीज़ की कद्र नहीं की थी जिसका फल उन्हें मिला।पर तूझे ऐसी भूल नहीं करने दूँगी। (बाहर की ओर मुख करके जोर से आवाज लगाती है) लाखन,बेटा लाखन!

लाखन सिंह----(लम्बी चौड़ी कद-काठी का एक अधेड़ कमरे में प्रवेश करता है)कहो माँ जी कोई परेशानी है क्या?

वृद्धा----बेटा!जरा बहू का ध्यान रखना गले से ताबीज़ न निकले,बच्ची है अभी,भला बुरा नहीं जानती। प्यार से माने तो ठीक ,वरना चौधरी के वंश की बात है।तरीके और भी हैं.... (युवती को धमकाने वाली तीखी नजरों से देखती है)

लाखन सिंह---(मूँछों पर ताव देते हुए)माँजी तुम तो हुकुम करो,परिंदा भी पर न फड़फड़ायेगा तुम्हारी मर्जी के बगैर।

वृद्धा----मेरा लाल जुग जुग जीवे।(माँ बेटा जहाँ प्रसन्न वदन हैं,वहीं युवती के चेहरे पर भय के भाव हैं)

सूत्रधार-----
तो इस तरह भय्या बहनों,
वह नारी डरायी जाती थी।
बेटा बेटा बेटा होवे,
यह धुन रटवायी जाती थी।
पर कोमल अंगी वह नारी,
थी ज्ञानशक्ति से भरी हुई।
लगी थी सोचने निराकरण,
वह विगत दृश्य से डरी हुई।
सहसा उसके मन में फिर,
समाधान इक आ गया।
शोकाकुल चेहरे पर उसके,
आस उजाला छा गया।
अपनी खास सहेली को,
उसने संदेशा भिजवाया।
सारा हाल उपाय सहित,
विस्तार से उसको समझाया।
धीरे-धीरे-धीरे भय्या,
वह मोड़ समय का आ गया।
असह दर्द में थी महिला,
चिन्ता का बादल छा गया।
आयी दायी फिर ये बोली,
मेरे बस की यह बात नहीं।
हकीम बड़े ही भली करें,
उससे कम की औकात नहीं।
आनन फानन में दुखिया को,
शहर ले जाया जाता है।
माँ तो बची है किसी तरह,
मृत शिशु बताया जाता है।
बेटे के अभिलाषी मन में,
वज्रपात सहज हो जाता है,
स्वप्न महल उम्मीदों का
देखो ढह कर गिर जाता है।
पर कुछ तो है छिपा हुआ,
उस अनदेखे आगत में।
आँखें माँ की हँसती हैं,
जाने किसके स्वागत में।
धीरे-धीरे रे समय
पथ अनजाने पर बढ़ आया।
कोठी आलीशान वहीं,
पर छाया है दुख का साया।
पर छाया है दुख का साया

*दृश्य-दो*

(वही सुसज्जित कमरा,पर सुविधा के कुछ संसाधनों का बदलाव देखकर प्रतीत होता है कि समय का एक लम्बा अंतराल बीत चुका है।पलंग पर एक वृद्ध असहाय सा लेटा है।एक औरत तीमारदारी में लगी है।)

वृद्ध----पानी, थोड़ा पानी पिलाना कमला।
(महिला तुरन्त जग से पानी उड़ेल कर गिलास में डालती है और वृद्ध को सहारा देकर पानी पिलाती है। वृद्ध महिला की ओर देखता है और उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते हैं।)मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ कमला। मुझे माफ़ कर दो।

महिला----अरेरेरे ऐसा मत कहिए।आप मेरे पति हैं, मैं आपकी अर्द्धांगिनी हूँ।आप ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसके लिए आप माफी माँगे।

वृद्ध----नहीं कमला,आज मुझे कह लेने दो। तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है।माँ ने तुम्हें कितना दुख दिया पर उनके अन्तिम समय में उनकी तकलीफों में तुम्हीं उनका सबसे बड़ा सहारा बनी। मैं बेटा होकर भी कुछ न कर सका।और तुमने बेटी होकर भी अपने घर के साथ साथ अपने माँ बाप की जिम्मेदारी भी अच्छे से संभाली। मैं पागल था जो अपनी ओछी सोच के कारण बेटा बेटा रटता रहा,एक बेटा पाने के लिए मैंने तीन-तीन बेगुनाह औरतों की जिन्दगी दांव पर लगा दी।आठ अजन्मी बच्चियों के कत्ल का गुनाह है मुझ पर।और मेरा दण्ड कि मैं  आज निसंतान हूँ,असहाय हूँ, मृत्यु शय्या पर हूँ और कोई मुझे पिता कहने वाला नहीं।(जोर जोर से रोने लगता है, महिला आंसू पोछती है।वह स्वयं भी भावुक हो गयी है।)

महिला-(ढांढस बँधाते हुए)मत रोइये, हिम्मत रखिए। पश्चाताप के इन आंसुओं के साथ आपकी सारी गलतियाँ बह गयी हैं।
और आज मैं आपको बताना चाहती हूँ कि आप निसंतान नहीं है और न ही आप अब असहाय और गम्भीर बीमार हैं।

वृद्ध---(चौंककर आशा भरी निगाहों से महिला की ओर देखता है।)क्या कह रही हो कमला?सच बताओ क्या बात है?पहेलियां मत बुझाओ।

महिला-जी,सच ये है कि डाक्टर रीना जो आपका इलाज कर रही है,वह आपकी ही बेटी है।

वृद्ध-(हर्ष मिश्रित विस्मय से महिला को देखता हुआ)सच कमला!डाक्टर रीना मेरी बेटी हैं।
महिला-बिल्कुल सच। अम्मा जी और आप की सोच के डर से मैंने बेटी को पैदा होते ही अपनी खास सहेली के हाथ सौंप दिया था। मैं आप लोगों से छुपाकर उसकी परवरिश का खर्च भेजती थी और मायके जाने पर उससे मिल भी आती थी।

वृद्ध----आह! कितना अभागा पिता हूँ मैं ,जो अपनी संतान का पालन पोषण भी न कर सका। आज मुझे अपनी सोच पर शर्म आती है।लानत है मुझ पर (सर झुका लेता है। महिला उसे सांत्वना देते हुए गले लगा लेती है तभी एक सुंदर युवती डाक्टर का कोट पहने कमरे में प्रवेश करती है।)

डाक्टर युवती----और चौधरी जी कैसी तबियत है आपकी अब?

वृद्ध-(बड़े ममत्व से उसकी ओर देखता है उसकी आंखों से अश्रु धारा बह निकलती है।वह बाँह फैला देता है और करुण भाव से पुकारने लगता है।) डाक्टर बेटा!
(युवती आश्चर्य मिश्रित नजरों से माँ की ओर देखती है।)

महिला-–--जा बेटा!अपने पिता से मिल ले।आज सही समय आ गया था तो मैंने आज तेरे पिता को सब सच सच बता दिया।

युवती----(भावुक होकर वृद्ध के चरण स्पर्श करती है) पिताजी

वृद्ध----न बेटी! मैं इस लायक नहीं हूँ।तू मुझे माफ़ कर दे बेटी।(रोने लगता है)

युवती ----न,पिताजी न।अब सब ठीक हो गया है।आपकी गलती नहीं थी। आपका अज्ञान था जिसके कारण गलतियां हुई और पढ़ी लिखी माँ की समझदारी कि सब ठीक हो गया।

वृद्ध ---हाँ, बेटी तू सही कहती है।तू बिल्कुल सही कहती है। (दर्शकों की ओर मुखातिब होकर) मैं चौधरी लाखन सिंह आज सब लोगों को हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप सब भी अंधविश्वास से बाहर निकलो । बेटी हो या बेटा दोनों को खूब पढ़ाओ। बेटी बचेगी तभी तो बहू मिलेगी।इस संसार में बेटी बेटा दोनों का महत्व है। इसलिए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ।

सूत्रधार-
हाँ,भाईयों और बहनों !
तो सुना आपने।
क्या कह दिया है
लड़की के बाप ने।
(संगीत बजने लगता है और सभी एक स्वर में गाने लगते हैं)
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
धरती पे ही जन्नत ले के आओ।
बेटी पढ़ेगी बेटी बचेगी
खुशहाली घर घर में आके रहेगी।
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ---
बेटा हो बेटी एक बराबर
बेटी से नफ़रत पाप सरासर।
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ---
जन्मेगी न जो बेटी अहो हो
कैसे बढ़ेगा वंश कहो तो
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ---
बेटी या बेटा दोनों पढ़ाओ
अपने देश को आगे ले जाओ
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ---
इति
पर्दा गिरता है।

✍हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 244001

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता

दाग़दार चाँद जोर से हंँसा,
लुढ़कते ज़र्द सूरज पर।
"किया होगा रोशन,
तूने जिन्दगी को।
पाया क्या आखिर,
वही क्षितिज की कब्र।
देख मैं चमकता हूँ
स्याह रात में शहंशाह बन
कर लेता हूँ कैद पूरी दुनिया को
नींद के कारावास में।
मेरे साथ मेरी आरामगाह में,
झिंगुर गुनगुनाते हैं,
जुगनू जश्न मनाते हैं,
उल्लू के भी भाग खुल जाते हैं।
कभी अग्नि पथ पर चलना नहीं पड़ता
मुझे तेरी तरह जलना नहीं पड़ता।"
गोद में क्षितिज की,
समाधिस्थ सूरज मुस्कुराया।
जब पत्तों ने ये दोहराया।
जो असल है फिर जलवा दिखायेगा
सुबह होते ही ओ चांँद तू धुंधला जायेगा
भीख की चमक आखिर कब तक चलायेगा?

✍️हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद

शनिवार, 5 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की रचना ---


जिसके हाथों गया उकेरा,
भावी जीवन सारा।
जो करता है प्रतिपल निश्चित,
उज्ज्वल भाग हमारा।

हम अच्छे हैं या कि बुरे हैं,
जिस पर करता निर्भर।
जिसके भागीरथ प्रयास से,
मरु में झरते निर्झर।

जिसका होना असीमता का,
हमको बोध कराता
जो अपने छात्रों के हित में,
दुर्गम भी हो आता।

जिसकी महिमा देवों से भी
ऊँची कही गयी है।
जिसके दम पर पीढ़ी-पीढ़ी,
सभ्यता बढ़ रही है।

हम वह शिक्षक,और शान से,
हाँ,चलों दोहरायें।
नहीं सुशोभित हमको रोना,
हम जब जगत हँसायें।

यदि निज मन में हमें हमारा,
गौरव ध्यान रहेगा।
दूर नहीं होगा वह दिन जब,
फिर गुरुमान बढ़ेगा।

हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद